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‘जाति-जनगणना होनी ही चाहिए, इससे न्याय की राह में बाधक कूड़ा-करकट दूर होगा’ 

जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए। अगर जाति आधारित जनगणना होती है तो उससे यह जो आरक्षण वाला मुद्दा है या जातियों के राजनीतिकरण का विषय है, उसमें से जो कूड़ा-कड़कट आ गया है, उसका सफाया हो जाएगा। फारवर्ड प्रेस से बातचीत में राम बहादुर राय

परदे के पीछे 

(अनेक ऐसे लोग हैं, जो अखबारों की सुर्खियों में भले ही निरंतर न रहते हों, लेकिन उनके कामों का व्यापक असर सामाजिक व राजनीतिक जीवन पर रहता है। बातचीत के इस स्तंभ में हम ‘पर्दे के पीछे’ कार्यरत ऐसे लोगों के विचारों को सामने लाने की कोशिश करते हैं।

इस कड़ी में प्रस्तुत है, भारतीय राजनीति की दक्षिणपंथी धारा के महत्वपूर्ण चिंतक राम बहादुर से  बातचीत। इस बातचीत की पहली किस्त हमने पिछले सप्ताह प्रकाशित की थी। इस सप्ताह पढ़ें, कुमार समीर के साथ बातचीत में  दलित-पिछड़ा राजनीति, जाति जनगणना आदि से संबंधित उनके बेबाक विचार। 

स्तम्भ में प्रस्तुत विचारों के इर्द-गिर्द प्रकाशनार्थ टिप्पणियों (700-1500 शब्द) का स्वागत है। हम चुनी हुई प्रतिक्रियाओं को प्रकाशित करेंगे – प्रबंध संपादक, ईमेल : managing.editor@forwardpress.in )


अग्रेजीदां कुलीन परिवारों का बंधक था इंदिरा गांधी कला-केंद्र : रामबहादुर राय

  • कुमार समीर

कुमार समीर (कु.स.) : अनेक अध्ययन बताते हैं कि सामाजिक और शैक्षिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था से वंचित तबकों को लाभ हुआ है। लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि इस व्यस्था का लाभ गिने-चुने तबकों के गिने-चुने परिवार उठा रहे हैं। इन दोनों धारणाओं के बारे में आपकी राय क्या है?

राम बहादुर राय (आर.बी राय) : देखिए, पहले आरक्षण को समझने की जरूरत है। आजकल कई सारे सवाल उठाए जा रहे हैं। जब संविधान सभा में आरक्षण पर बहस हो रही थी तब उस समय जो ईसाई या मुस्लिम सदस्य थे, उन लोगों ने सवाल उठाया था कि आरक्षण केवल एससी/एसटी को नहीं, सभी को मिले। मतलब ईसाई और मुस्लिम में जो दलित हैं, उन्हें भी आरक्षण मिले। संविधान सभा ने एकमत से इसे अस्वीकार किया और कहा कि नहीं, ऊंच-नीच के भेद के कारण जो वंचित हुए और जिनके साथ अन्याय हुआ उन्हें ही मिलना चाहिए। यह हिन्दू समाज का आंतरिक मामला है। आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक आधार पर की गयी। हिंदू समाज से धर्मांतरित हो लोगों ने मुसलमान होना, इसलिए स्वीकार किया क्योंकि मुसलमानों ने कहा कि हमारे यहां जाति नहीं हैं, सभी भाई-भाई है। जब असमानता ही नहीं तो इन्हें आरक्षण नहीं मिलेगा। ईसाई समुदाय के साथ भी कमोबेश ऐसा ही है, इसलिए केवल हिन्दू-दलित एससी/एसटी को ही आरक्षण दिया गया।

आरक्षण का लाभ सभी तक नहीं पहुंचा, यह गंभीर सवाल है जिस पर सरकार ने प्रतिबद्धता पूर्वक काम किया है।  आरक्षण का लाभ आरक्षित वर्गों के लोगों को जिस तरीके से मिलना चाहिए था, नहीं मिला। हुआ यह कि आरक्षण केवल आरक्षित वर्गों की दबंग जातियों तक सीमित रह गया। जबकि होना यह चाहिए था कि आरक्षण का लाभ उन्हें मिलता जो वाकई में पिछड़े थे। इसके लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने जस्टिस (सेवानिवृत्त) जी  रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन दो साल पहले बनाया था, वह आयोग काम कर रहा है। उस आयोग की रिपोर्ट आ जाने के बाद इस समस्या का बेहतर हल निकलकर आएगा। क्योंकि हमारे यहां वर्ण व्यवस्था अलग चीज है लेकिन जाति स्थाई तत्व नहीं रही है। जातियां बदलती रही हैं और उन बदलती हुई जातियों में थोड़े लोग हैं जिन्हें आरक्षण की जरूरत है। रोहिणी आयोग की रिपोर्ट पर अमल मोदी सरकार की उपलब्धि होगी, थोड़ा बहुत विवाद होगा, लेकिन इससे समस्याएं हल होंगी। आरक्षण का जो नाजायज फायदा उठा रहे हैं, उन पर रोक लगेगी और जो वाकई में वंचित हैं, उन्हें इसका लाभ मिल सकेगा। 

कु.स. :  इस साल (2019) हुए लोकसभा चुनाव के बाद दलित बहुजनों की राजनीतिक एकता दरकती नजर आ रही है। क्या अब फिर से इस एकता के बनने की कोई उम्मीद आप देख पा रहे हैं?

आर.बी.राय- दलितों की समस्या तो पुरानी है लेकिन पिछड़े यानि ओबीसी का उभार बाद की समस्या है। हमारे यहां दलित समस्या आजादी के आंदोलन के दौरान बहुत प्रखर रूप में थी और इसलिए भी थी कि उनके साथ अन्याय भी हुआ था। भीमराव आंबेडकर उनके बड़े नेता थे। हालांकि केवल वे ही बड़े नेता नहीं थे। दक्षिण में एम.सी. राजा 1920 में दलितों के पहले सबसे बड़े नेता थे। वहीं उसी दौरान हिन्दुओं के सबसे बड़े नेता थे डॉ. मुंजे। एम.सी. राजा और डाॅ. मुंजे पैक्ट हिन्दू-दलित की एकता का एक बड़ा उदाहरण है। 

वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर सिंह

1933-34 में जो पूना पैक्ट हुआ, उसके लिए हिन्दू समाज महात्मा गांधी का हमेशा ऋणी रहेगा क्योंकि गोलमेज कांफ्रेंस का सिलसिला जो चला था जिसमें अंग्रेजों की कोशिश थी, हालांकि अंग्रेजों की कई कोशिशें थीं उनमें से एक कोशिश यह थी कि दलितों को हिन्दू समाज से काट देना है। इस साजिश को गांधी जी ने समझा तो लंदन में ही उन्होंने साफ-साफ शब्दों में कहा कि कम्यूनल अवार्ड घोषित करेंगे तो वह जान की बाजी लगा देंगे। उस कांफ्रेंस के बाद लंदन से जब भारत आए तो उन्हें गिरफ्तार कर यरवदा जेल में डाल दिया गया। उस समय विलिंग्डन वायसराय थे। 

गांधी जी ने जेल में ही अनशन शुरू कर दिया। जनता गांधी जी के समर्थन में आंदोलन शुरू करने के लिए जुटनी शुरू हो गई। उनकेे अनशन का समाज पर असर पड़ा और पूरे देश में त्राहिमाम मच गया। लोगों का दबाव बढ़ा तो आंबेडकर खुद यरवदा जेल आए और उसके बाद ही पूना पैक्ट हुआ और दलित हिन्दू समाज का हिस्सा हो गए। अब हिंदू नेताओं व  समाज की जिम्मेदारी है कि वह सुनिश्चित करें कि दलितों के साथ अन्याय नहीं हो। 

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हालांकि दलितों के साथ अन्याय न हो, यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष यह है कि कुछ शक्तियां दलितों का राजनीतिक फायदा उठाती हैं और हिन्दू समाज को कमजोर करने के लिए जाल बिछाती हैं। इस तरह की कोशिश एक समय में अंग्रेज करते थे और अंग्रेजों के जाने के बाद अब विदेशी एजेंसियां ये कोशिश करतीं हैं और दलित मुस्लिम अलायंस बनाने का प्रयास करती हैं। यही वजह है कि आज अगर दलित-पिछड़े मोदी का समर्थन कर रहे हैं तो इसका मुख्य कारण यह है कि दलित-मुस्लिम अलायंस की जो कोशिशें हो रही हैं, उससे उन्हें अंदाज़ा हो गया है कि इस तरह के अलायंस से भला नहीं होने वाला है बल्कि मुख्य धारा में रहकर ही भला हो सकता है। वे समझ गए हैं कि भलाई ऐसे नेतृत्व को समर्थन करने में है जो वास्तव में दलित-पिछड़ों को बराबरी का सम्मान दिला सके, अधिकार दिला सके। यह समर्थन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को समर्थन देना है।

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इससे जो लोग पिछड़े-दलित-मुस्लिम राजनीति का सपना देख रहे थे, उनको एक तरह से करारी चोट मिली है। अब इनके पुराने घिसे-पिटे नारे नहीं चलने वाले हैं, यह संदेश लोकसभा चुनाव के बाद चला गया है। 

कु.स. : कुछ लोगों का कहना है कि दलित समाज का एक तबका उत्तर प्रदेश में मायावती से  नाराज़ चल रहा है..

आर.बी राय : देखिए, मायावती से नाराज तो नहीं है दलित समाज का तबका। हां, मायावती से उनका मोहभंग हुआ है और ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि मायावती ने दलितों के लिए केवल दिखावा किया है और दलितों की राजनीति के जरिए केवल अपनी खुद की और अपने परिवार की सम्पत्ति बढ़ाई है। सत्ता से सम्पत्ति और वो भी निजी सम्पत्ति जब कोई नेता बढ़ाने लगता है, उसके साथ ऐसा ही होता है। मायावती के साथ कुछ नया नहीं हुआ है। मायावती जिस आंदोलन की नेता हैं, उस पर चली होतीं तो ऐसा नहीं होता। कांशीराम जी ने जो आंदोलन शुरू किया था, उसे मायावती आगे बढ़ा नहीं पायीं और यही मोहभंग होने की प्रमुख वजह रही है। 

कु.स. : जाति आधारित जनगणना पर आपकी राय क्या है? 

आर.बी.राय : आखिरी बार जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई है। मेरा अपना मानना है कि 2021 में जो जनगणना होने जा रही है उसमें सरकार यह निर्णय कर ले कि इसे एक बार करेंगे और आखिरी बार करेंगे। जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए। अगर जाति आधारित जनगणना होती है तो उससे यह जो आरक्षण वाला मुद्दा है या जातियों के राजनीतिकरण का विषय है, उसमें से जो कूड़ा-कड़कट आ गया है, उसका सफाया हो जाएगा। 

मेरा मानना है कि जातियों का राजनीतिकरण बुरा नहीं है। जब लोकतंत्र है, संसदीय लोकतंत्र है और जाति एक समूह है तो उसका राजनीतिकीकरण होगा ही। लेकिन इस समूह में जो कूड़ा-कड़कट जमा हो गया है, उसे निकालना होगा। हर जाति के अपने-अपने दावे हैं। जिनकी संख्या दो है, वे आठ का दावा कर रही है। जाति आधारित जनगणना होने से साफ हो जाएगा कि किस जाति की कितनी संख्या है। इससे सरकार को आरक्षण नीति सहित अन्य नीतियों को लागू करने में मदद मिलेगी। सरकार जो 10 प्रतिशत गरीब सवर्णों को आरक्षण दे रही है, उसमें भी सरकार को मदद मिलेगी। 

अंग्रेजों ने इस समाज को बांटा। जिस अस्त्र से समाज को बांटा, उस अस्त्र का वास्तविक स्थिति जानने के लिए उपयोग होना चाहिए। यह जरूरी है ताकि सच्चाई सामने आ सके। 2021 में होने जा रही जनगणना में कई चीजें नयी होंगी। टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होने जा रहा है जैसा कि गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही में घोषणा भी की है। मेरा मानना है कि किसी भी जाति की संख्या क्या है, यह पता लगाना जरूरी है। नहीं तो झूठ-मूठ के दावे होते रहेंगे। इस समस्या से केवल और केवल जाति आधारित जनगणना से ही निपटा जा सकता है। 

कु.स. : अति पिछड़ी जातियों की एक बड़ी समस्या भूमिहीनता की है। बिहार सहित कई अन्य राज्यों में  दलित भूमिहीनों को भूमि देने की योजनाएं हैं। क्या राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहल की जा सकती है ?

आर.बी.राय : जहां तक भूमिहीनता का विषय है, संभवतः 1950 में जब तेलंगाना विद्रोह हुआ और विनोबा जी जब वहां गए तो उनके कहने पर जमींदारों ने जमीन दी, तब विनोबा जी को लगा कि उनकेे हाथ में जादू की छड़ी लग गई है। उसके बाद ही उनका भूदान आंदोलन चल पड़ा। भूदान आंदोलन का उस दौर में महत्व था। सरकार ने भी सहयोग किया। उस समय जमींदारी प्रथा, रियासतें थीं। कांग्रेस को भी लगा कि इससे गरीबी उन्मूलन होगा लेकिन भूदान आंदोलन से जो लाखों एकड़ जमीन मिली, उसका सही ढंग से वितरण नहीं हुआ। बिहार में तो बिल्कुल नहीं हुआ। विनोबा जी ने बाद में इसे स्वीकार भी किया। उन्होंने तब तीन बी का जिक्र किया था और कहा था कि एक बी से भूदान, दूसरे बी से मैं खुद विनोबा और अंतिम तीसरे बी से बोगस। बोगस समस्या कहकर उन्होंने पूरे आंदोलन को बोगस करार कर दिया था। 


अब जो भूमिहीनता की समस्या है, वह 1950 के दशक में मुख्य मुद्दा था, लेकिन आज यह मुद्दा नहीं है। अर्थव्यवस्था बदल गई है जिससे इस समस्या का स्वरूप बदल गया है। इसलिए जो भूमिहीनों के बीच जमीन बांटने की जरूरत थी, उसके लिए आंदोलन होता था, अब नहीं होता है। यह सच है कि इस समस्या को कृषि, रोजगार विभाग अर्थव्यवस्था से जोड़कर समग्र नीति बनाने में हम अब तक असफल रहे हैं। 

कु.स. : नई तकनीकों के आने के कारण पारंपरिक पेशे खत्म हो रहे हैं । इसका सीधा असर शिल्पकार जातियों पर पड़ रहा है। ऐसे में क्या शिल्पकार समाज जिनमें लोहार, कुम्हार आदि जातियां शामिल हैं, को बदलती जरूरतों के हिसाब से सशक्त बनाने की जरूरत क्या आप महसूस नहीं कर रहे हैं ?

आर.बी राय : पारंपरिक हुनर वाले समूह थे वो समाज बदलने के कारण अब उनका अस्तित्व करीब-करीब खतरे में है। जब अर्थव्यवस्था बदलती है तो इस तरह का संक्रमण आता है।  इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने स्टार्ट-अप वगैरह शुरू किया है और यह शिल्प पेशे का ही आधुनिकीकरण है। 21वीं सदी में जिस तरह का शिल्प कौशल चाहिए, उसके लिए प्रयास जरूरी है। लोहार, कुम्हार इस तरह के समूह रहे हैं, वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पार्ट रहा है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत और स्वतंत्र बनाने के लिए राज्य व्यवस्था की पुर्नरचना जरूरी है। 

इस संबंध में जयप्रकाश नारायण ने प्रारूप बनाया था, उस प्रारूप को बाद में सरकार ने स्वीकार किया क्योंकि रूस के माॅडल पर कम्यूनिटी डेवलपमेंट स्कीम तत्कालीन जवाहर लाल नेहरू सरकार ने चलायी थी लेकिन वह जमीन से उठ ही नहीं पाती, तब जयप्रकाश नारायण का प्रारूप सरकार के लिए डूबते को तिनके का सहारा जैसा रहा। 73वें संविधान संशोधन से पंचायतों को ज्यादा अधिकार दिए गए लेकिन यहां भी गड़बड़ी रही और आम जनता मजबूत ना होकर मुखिया, सरपंच, एसडीओ, डीएम आदि मजबूत हो गए। 

मौजूदा सरकार उपरोक्त खामियों को दूर करने की दिशा में काम कर रही है। गांव स्वाबलंबी बने, जो काम गांव वाले स्वयं कर सकते हैं, उसे वे खुद करें। इस पर काम हो रहा है। हालांकि यह काम लंबा है, समय लग सकता है, लेकिन इस सरकार ने इसे अपनी प्राथमिकता सूची में है और ग्राम स्वराज अभियान का नारा भी दिया है। जब तक पंचायत सुचारू रूप से काम नहीं करते और उन्हें वो सभी अधिकार प्राप्त नहीं हो जाते जो 73वें संविधान संशोधन में दिए गए हैं, उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। इन्हें वे सभी अधिकार मिलने चाहिए। 

कु.स. : सरकार की कौशल विकास केन्द्र योजना एक महत्वपूर्ण योजना थी जिनमें शिल्पकार समाज के लोगों का कौशल विकास संभव था लेकिन अब यह योजना फेल होती दिख रही है। आख़िर इसकी क्या वजहें हैं?

आर.बी.राय : कौशल विकास केन्द्र योजना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पिछले कार्यकाल में शुरू हुआ था लेकिन इसे गति नहीं दी जा सकी थी। पिछली बार खास नहीं हो पाया था, इस बार कुछ खास होगा और इस दिशा में गंभीरता से सोचा जा रहा है कि पारिवारिक शिल्प का बाजार मिलेगा तो टिकेगा। बाजार में टिकने के लिए जरूरत पड़ने पर नए शिल्प के आविष्कार की तरफ भी ध्यान दिया जाएगा। 

कु.स. : अंतिम सवाल, इंदिरा गांधी कला केंद्र के प्रमुख के तौर पर आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं? 

आर.बी.राय : इंदिरा गांधी कला केंद्र का अध्यक्ष पद मैंने जबसे (अप्रैल,2016)  कार्यभार संभाला, तब से मेरी कोशिश रही कि साधारण नागरिक जिनकी इसमें रुचि हो, वह इससे जुड़ें। पहले और अब में मूल फर्क यह है कि पहले यह संस्थान छोटे से कुलीन परिवारों के लिए काम कर रहा था, अब साधारण कलाकारों को जोड़ा गया है। पहले गिने-चुने कार्यक्रम होते थे, अब यह गतिविधियों का बड़ा केंद्र बन गया है। शुरू में कुछ लोगों ने, अब तो तीन साल होने को है, धारणा फैला दी कि इंदिरा गांधी का नाम हटा दिया जाएगा लेकिन अनुभव के साथ यह धारणा गलत साबित हुई। हालांकि हम व्यक्तिगत तौर पर मानते हैं कि इंदिरा गांधी का कला केंद्र से कोई संबंध नहीं था लेकिन जैसा कि रिवाज चला आ रहा है जिस पार्टी की सरकार होगी, उनके बड़े नेता के नाम पर संस्था का नामकरण होगा। नाम महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि यह राष्ट्रीय महत्व का है। हमसे पहले पिछले ट्रस्ट में कपिला वात्स्यायन अध्यक्ष थे और उनके कार्यकाल में भी अच्छे काम हुए।

कला केंद्र का मूल चरित्र रिसर्च इंस्टीट्यूट का है जो सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करने का प्रयास कर रहा है। जो सांस्कृतिक धरोहर ग्रंथों में हैं, कलाओं में हैं या ग्रामीण इलाकों में हैं, परन्तु लुप्त हो रहे हैं, उन्हें संरक्षित करना है। जो धरोहर शास्त्रों में हैं, उसे निकालकर 80-82 पुस्तकों के रूप में लाया गया है। उसी तरह से विभिन्न राज्यों में जो लोक कलाकार हैं, उन्हें बढ़ावा देना भी केंद्र का उद्देश्य है। फिल्ड रिसर्च पर जोर दिया जा रहा है। पहले भी हो रहा था। अब एक अंतर यह भी है कि पहले यहां अंग्रेजी में काम हो रहा था, अब हिन्दी में भी हो रहा है। अंग्रेजी में काम किसके लिए कर रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है। गांधीजी हमेशा कहते थे कि बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देना गुलामी को स्वीकार करने की प्रवृति को बढ़ावा देने जैसा है। 

इस कला केंद्र में पांच डिवीजन हैं, उन सभी से कहा गया है कि अच्छे काम जो हो रहे हैं, उसकी लिस्ट बनाएं और अच्छे काम का अनुवाद कराएं। कला के आदि पुरुष भारत मुनि हैं। भारत मुनि का नाट्य शास्त्र है जो पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। हमने कला केंद्र में उनकी प्रतिमा लगवायी पिछले दिनों। आने वाले दिनों में जो योजना है उसमें कला केंद्र के बड़े हिस्से का उपयोग करना शामिल है। वहां बड़ा विश्वस्तरीय केंद्र विकसित होगा जिसे नेशनल सेंटर फॉर परफार्मिंग आर्टस के नाम से जाना जाएगा। जनपथ की तरफ का हिस्सा है जहां 14-15 एकड़ जमीन हैं, उस पर बनेगा। कला की दृष्टि में यह विश्व की एक अच्छी जगह होगी जहां लोग आएंगे और विभिन्न भारतीय कलाओं के बारे में समझ पाएंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों पूरे देश की म्यूजियम को जोड़ने के लिए अलग से एक सचिवालय बनाया है और टेक्सटाइल मंत्रालय के रिटायर्ड सचिव राघवेन्द्र सिंह को इसकी जिम्मेदारी दी गई है। उन्हें कला केंद्र को भी देखने को कहा गया है। 

कला केंद्र के पांच डिवीजन में से एक कला निधि डिवीजन है, उसमें भी काम हुआ है। इस कला निधि डिवीजन में लाइब्रेरी है। लाइब्रेरी के दो हिस्से हैं, एक कला केंद्र की अपनी लाइब्रेरी है। दूसरे हिस्से में बड़े नामी, ऊंचे विद्वानों के प्राइवेट कलेक्शन हैं। हमारे आने से पहले 5-7 लोगों का पुस्तक कलेक्शन था, अब यह बढ़कर 24 लोगों का हो गया है। हाल में तीन प्रमुख व्यक्तियों रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह और  प्रो. देवेंद्र स्वरूप की पूरी लाइब्रेरी यहां आयी है। नामवर जी ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहा था कि मेरे गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तकें जहां रखी गई हों, वहीं हमारी पुस्तकें रखी जाएं। पिछले 28 जुलाई को उनके जन्मदिन पर नामवर सिंह खंड का उद्घाटन किया गया। व्याख्यान भी आयोजित किए गए और ऐसा हर साल भर उन विद्वानों के जन्मदिन पर किया जाएगा जिनकी किताबें उनके नाम से बने खंड में रखी हुई है।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

कुमार समीर

कुमार समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सहारा समेत विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है तथा हिंदी दैनिक 'नेशनल दुनिया' के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रहे हैं

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