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जम्मू में दलितों, आदिवासियों, खानाबदोशों और पिछड़ों के साथ एक दिन

जम्मू-कश्मीर में भूमि सुधार को मुकम्मल तरीके से लागू करने का श्रेय शेख अब्दुल्ला को जाता है। उनके कारण ही जम्मू-कश्मीर के हर बाशिंदे के पास जमीन है। कोई भी भूमिहीन नहीं है। 35ए के खात्मे के बाद इस स्थिति पर क्या फर्क पड़ेगा?

आत्मसाक्षी

इसी नवंबर की पहली तारीख को जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान लागू हो गया। इसी दिन गुजरात कैडर के वरिष्ठ आईएएस जगदीश चंद्र मुर्मू ने जम्मू-कश्मीर और त्रिपुरा कैडर के आईएएस अधिकारी रहे राधाकृष्ण माथुर ने लद्दाख के उपराज्यपाल के रूप में शपथ ली। इसके पहले यहां दो संविधान थे। एक भारत सरकार का संविधान जो 26 जनवरी 1950 को पूरे देश में लागू हुआ। जम्मू-कश्मीर में भी यह संविधान प्रभावी था लेकिन वहां जम्मू-कश्मीर रियासत का अपना संविधान भी था जो 20 अप्रैल 1927 को लागू हुआ था। दो संविधान के जैसे जम्मू-कश्मीर के दो झंडे भी थे। एक अशोक चक्र वाला तिरंगा और दूसरा लाल कपड़े पर बना हल का निशान। यह सब इस वजह से कि वहां धारा 370 लागू था। यह जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देता था। साथ ही यहां अनुच्छेद 35ए भी था जो यहां की परिसंपत्तियों पर बाहरी लोगों के स्वामित्व को खारिज करता था। बीते 5 अगस्त 2019 को राज्यसभा में और 6 अगस्त 2019 लोकसभा में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के द्वारा पेश जम्मू-कश्मीर रिआर्गेनाइजेशन बिल को मंजूरी मिली और ठीक अगले ही दिन यानी 7 अगस्त 2019 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपनी मंजूरी दे दी। रायसीना हिल्स से हरी झंडी मिलने के साथ ही जम्मू-कश्मीर जिसे एक प्रांत का दर्जा था उसे दो हिस्सों में बांट दिया गया। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख। इन्हें अब केंद्र शासित प्रदेश कहा जाता है।

 

खैर, 27 अक्टूबर 2019 को ठीक दीपावली के दिन मैं जम्मू गया। मैं वहां के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोगों से मिलना चाहता था। आर्टिकल 370 और 35ए के खात्मे से उनपर क्या असर पड़ा है। वहां के घूमंतू जातियों के लोगों, जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं, उनके हितों का क्या होगा। मेरे इन सवालों के पीछे वजह यह कि मुख्य धारा की मीडिया को इनसे कोई लेना-देना नहीं है। उनके लिए तो पाकिस्तान और मुसलमान ही विषय हैं।

दिल्ली से जम्मू को जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस के पहिए निर्धारित समय पर हिले और यात्रा की शुरूआत हो गयी। चूंकि आरक्षण आनन-फानन में कराया गया था सो रेलवे ने आरएसी यानी रिजर्वेशन अगेंस्ट कैंसिलेशन वाले दर्जे में मेरा आरक्षण किया था। इसलिए थोड़ी मानसिक समस्या तो हुई लेकिन यह स्थिति बहुत देर तक नहीं बनी रही। मेरे ठीक सामने एक गुणदीप सिंह थे जो रहते तो दिल्ली में हैं लेकिन उनके परिजनों का रहना-सहना जम्मू में ही है। 

कुछ देर मेरे पत्रकार मन ने शांत रहने के बाद पूछ ही डाला : जम्मू-कश्मीर में किए गए राजनीतिक व प्रशासनिक परिवर्तनों को आप किस रूप में देखते हैं। मेरा सवाल सुनकर पहले तो गुणदीप ने कहा कि वह वहां (जम्मू-कश्मीर) की राजनीति से मतलब नहीं रखते हैं। यहीं नोएडा में एक रियल एस्टेट कंपनी में सिविल इंजीनियर हैं। थोड़े से झिझक के बाद उन्होंने बताया कि वे दलित सिख हैं।

यह अप्राकृतिक नहीं है कि आप किसी से कोई सवाल करें और वह जवाब देने के बजाय पल्ला छुड़ाना चाहे। खासकर पत्रकारों के सवाल तो होते भी कुछ खास ही हैं। कुछ देर तक खामोश रहने के बाद अचानक गुनदीप ने कहा कि जो हुआ, वह अच्छा नहीं हुआ जम्मू-कश्मीर के साथ। 370 से हमलोगों को कोई परेशानी नहीं थी। हमारे दादा-परदादा तो पाकिस्तान साइड के थे। मुल्क जब तकसीम हुआ तब जम्मू आए थे। हमें तो कभी लगा ही नहीं कि हम किसी और मुल्क में रहते हैं। हम तो हिन्दुस्तान के नागरिक तब भी थे जब 370 था और अब भी हैं जब वहां 370 को खत्म कर दिया गया है। 

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गुणदीप बता रहे थे कि 35ए के खात्मे से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। उनका तर्क था कि जम्मू-कश्मीर में जमीनें हैं कहां? जम्मू  सहित कुछ इलाकों जो कि मैदानी हैं, वहां जमीनें हैं भी तो खेती के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आरएसपुरा की बासमती का जिक्र करते हुए गुणदीप ने बताया कि यहां का बासमती पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। उन्होंने एक सवाल भी पूछा कि क्या केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में खेती के योग्य जमीनों का भी अधिग्रहण करेगी या फिर उन्हें औद्योगिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु अनुमति देगी?

जवाब मुझे देना था। जबकि मैं खुद ही यही सोच रहा था कि क्या होगा यदि खेती योग्य जमीनों पर कल-कारखाने चलेंगे, बागों को उजाड़ दिया जाएगा। चूंकि जवाब मुझे देना ही था सो मैंने तंज भरे शब्दों में कहा कि पूरे देश में यही हो रहा है। अब तो जम्मू-कश्मीर भी भारत का हिस्सा है सो वहां भी स्पेशल इकोनामिक जोन (एसईजेड) बनेगा ही। कौन रोक सकता है भला।

जम्मू के आंबेडकर चौक पर राष्ट्रीय स्तरीय आरक्षण का प्रावधान करने की मांग करते एसी-एसटी-ओबीसी कन्फेडरेशन के सदस्य

जम्मू-कश्मीर को लेकर भारतीय मीडिया में चल रही कुछ खबरों को इस उद्देश्य से देखने लगा कि कोई बात अनदेखी न रह जाय। इसकी भी वजह यह रही कि जम्मू-कश्मीर मेरे विषय के केंद्र में बहुत अधिक दिनों से नहीं रहा है। अनुच्छेद 370 के खात्मे के पहले तीन-चार लेख आए थे मेरे संज्ञान में जो मूल रूप से वहां के एससी, एसटी, ओबीसी और घूमंतू जातियों से जुड‍़े हुए थे। वहां आर के कलसोत्रा जो कि कनफेडरेशन ऑफ एससी, एसटी, ओबीसी ऑफ जम्मू एंड कश्मीर के अध्यक्ष हैं, से मेरा संपर्क रहा था। मेरी इस जम्मू यात्रा में वही मददगार भी होने वाले हैं। 

गूगल करने पर दो खबरें मिलीं। पहली खबर इंडिया टुडे के वेब पर। उसके अंग्रेजी र्शीषक का अनुवाद है – केंद्र ने जम्मू-कश्मीर आरक्षण विधेयक में किया संशोधन, गरीबों को मिलेगा 10 प्रतिशत कोटा। यह खबर 31 जुलाई को प्रकाशित हुई। इसके मुताबिक जम्मू-कश्मीर राज्य में आर्थिक आधार पर गरीबों को 10 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। इस खबर से मुझे वांछित जानकारी नहीं मिली कि आखिर किस आधार पर जम्मू-कश्मीर के पिछड़े वर्ग के लोगों को केवल 2 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलता है। जबकि राष्ट्रीय स्तर मंडल कमीशन की अनुशंसाओं के लागू होने के बाद 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। हालांकि केंद्र शासित प्रदेशों में ओबीसी के लिए अलग-अलग प्रावधान है। एक उदाहरण दमन एवं दीव का है जहां ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण है। फिर जम्मू-कश्मीर में केवल 2 फीसदी क्यों? एक रिपोर्ट मिली लेटेस्ट लॉज डॉट कॉम पर। यह जम्मू-कश्मीर में आरक्षण  से जुड़ी है। इसमें जो अहम जानकारी मिली उसके मुताबिक जम्मू-कश्मीर में ओबीसी (सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग) को चार श्रेणियों में बांटा गया है। ये हैं पिछड़े इलाकों में रहने वाले लोग, वास्तविक सीमा रेखा के समीपवर्ती इलाकों में रहने वाले लोग, सीमा पर रहने वाले लोग और सामाजिक रूप से कमजोर व वंचित वर्ग। 


बहरहाल, यह तो हुई सरकारी दस्तावेज की बात। गूगल पर कई और खबरें मिलीं लेकिन अधिकांश पहले की पढ़ी हुई। कुछेक वेब पोर्टलों ने वहां के लोगों की आपबीती को प्रकाशित किया है। कुछेक तो बहुत ही मार्मिक हैं और कुछेक बहुत सारी सूचनाएं देने वाली।

सुबह नींद जल्दी खुल गयी। लेकिन मोबाइल से नेटवर्क गायब था। जम्मू में पोस्ट पेड मोबाइल नेटवर्क ही काम करता है। एक तरह से मैं शेष दुनिया से अलग था। कुछ उसी तरह जैसे सरकार ने 5 अगस्त के पहले और बाद में करीब एक महीने तक जम्मू-कश्मीर के लोगों को शेष दुनिया से अलग रखा था। 

खैर, कोई विकल्प भी नहीं था। सिवाय इसके कि ट्रेन जम्मू पहुंच जाय। वहां पहुंचकर ही कुछ किया जा सकता है। आगे की राह तो तभी मिलेगी। दिल्ली से जम्मू-तवी जाने वाली जम्मू राजधानी अपने वादे की बड़ी पक्की निकली। उसने ठीक पांच बजे पहुंचा दिया। स्टेशन पर भीड़ नहीं थी। एक उदासी सी दिखी। स्टेशन के चप्पे-चप्पे पर बंदुक लिए सेना के जवान थे। बाहर निकलने के मुख्य द्वार के पास सेना के जवानों ने बालू भरी बोरियों से अपने लिए आधा खुला बंकर बना रखा है। वहां एक जवान मशीनगन लिए बैठा था। आंखें उसकी भी थकी थीं। शायद उसने रात के शिफ्ट में काम किया है और अब उसे जोरों की नींद आ रही है।

स्टेशन परिसर में एसटीडी बूथ नहीं मिला और सुबह के पांच बजे कोई दुकान खुली होगी, इसकी संभावना कम ही होगी। मेरे जेहन में आया कि क्यों न कुछ देर यही स्टेशन पर रूक जाया जाय और सूरज के निकलने का इंतजार किया जाय। कुछ देर के लिए मैं रूका भी लेकिन फिर मन ने कहा कि दीपावली के दिन शायद ही कोई दुकान खोले। ऐसे भी जहां चप्पे-चप्पे पर सेना के जवान घुम रहे हों, हर आने-जाने वाले शख्स को घूरा जा रहा हो, दहशत और उदासी हो, ऐसे में एसटीडी बूथ खुल जायेगा, मन ने पहले ही इन्कार कर दिया। फिर दिमाग और मन दोनों ने फैसला किया कि सोते-अलसाये हुए जम्मू से सीधे मुलाकात की जाय। अक्सर सूरज की रोशनी में वह नहीं दिखता है जो भोर के अंधेरे में देखने को मिल जाता है।

अचानक याद आया कि कलसोत्रा जी ने अपना पता व्हाट्सअप पर भेजा हुआ है। यदि उनके यहां जाया जाय तो एक पंथ दो काज हो जाय। एक तो रिपोर्टिंग की शुरुआत भी हो जाएगी और दूसरी यह कि फ्रेश होने का अवसर भी मिल जाएगा। उनका घर वहीं जम्मू के रेशमगढ़ इलाके में है। स्टेशन के बाहर निकला तो कई ऑटो वाले मिले। संख्या करीब 4-5 ही थी। एक शख्स ने ठीक वैसे ही पूछा जैसे भारत के किसी और रेलवे स्टेशन पर ऑटो वाले पूछते हैं। हां, लहजा थोड़ा अलग था। जैसे यदि आप पटना स्टेशन पर उतरें तो ऑटो वाले पूछेंगे कि टैक्सी चाहिए? या फिर यदि आपने अच्छे कपड़े वगैरह पहने हों और आपके पास बड़ा सा लगेज हो तो संभव है कि वह कहें कि सर, क्या आप टैक्सी लेंगे। जम्मू स्टेशन के बाहर उस शख्स ने कहा – साहब, टैक्सी लेंगे? सच कहिए तो यह पहला शब्द था किसी जम्मू-कश्मीर के व्यक्ति का जो मेरे कानों में पड़ा था।  उससे रेशमगढ़ चलने को कहा तो उसने कहा कि दो सौ रुपए लगेंगे। अपरिचित होने के बावजूद मैंने उससे कहा कि यह तो बहुत ज्यादा है। सौ रुपए ले लो। इतनी दूरी तो है नहीं। लेकिन वह समझ गया कि मैं अजनबी ही हूं और पहली बार जम्मू आ रहा हूं। वह मुस्कराया। उसने कहा कि ठीक है डेढ़ सौ दे दिजीएगा।  


स्टेशन परिसर की एक और खास बात बताना भूल गया। दरअसल हुआ यह कि स्टोशन से बाहर निकलते ही हनुमान चालीसा सुनने को मिली। खूब तेज आवाज में। कुछ और गीत भी बज रहे थे लेकिन उनकी भाषा शायद डोगरी थी। इसलिए मैं समझ नहीं पा रहा था। परंतु, इतना तो समझ में आ ही गया था कि ये सब हिन्दू देवी-देवताओं को रिझाने वाले गीत थे।

ऑटो चालक ने अपना नाम विक्की सिंह बताया। उसकी बोली में उर्दू, पंजाबी, हिंदी और डोगरी का बड़ा प्यारा सा मिश्रण था। मेरे सवालों का जवाब उसने इन्हीं बोलियों में दिया। जम्मू के ऑटो में एक खास बात यह भी देखने को मिली कि यात्री वाले सीट को दायें-बायें दोनों तरफ से बंद कर दिया जाता है। दिल्ली में दायें साइड को लोहे के रॉड से घेरा जाता है ताकि कोई दायें साइड से न उतर सके। यदि ऐसा न हो तो दुर्घटना होने की संभावना रहती है। लेकिन जम्मू में खतरा केवल एक थोड़े न है। यदि गोली-बारी हो तो यात्री अपनी सीट के नीचे छिपकर कुछ देर तो जान बचा ही सकता है।

एक पत्रकार का मन होता ही ऐसा है। हर बात की  वजह जानना और समझना चाहता है। रास्ते में कंटीले तार मिले, जो 5 अगस्त के बाद वीडियो फुटेज में देखने को मिले थे। भोर के अंधेरे में भी कंटीली तार चमक रही थी। करीब बीस मिनट के बाद मैं कलसोत्रा जी के घर में था। 

जम्मू शहर में सड़क किनारे रखे गए कंटीले तार

कुछ ही देर में चाय पीने के बाद हम तैयार थे बातचीत के लिए। मेरा पहला ही सवाल रहा कि जम्मू-कश्मीर के एससी, एसटी और ओबीसी ने क्या खोया और क्या पाया? जवाब में कलसोत्रा जी ने कहा कि पाने की बात कहां से उठती है। हम जम्मू-कश्मीर के लोगों ने अपना संविधान खो दिया है। हमारे राज्य को विशेष राज्य का दर्जा हासिल था, वह हमारा स्वाभिमान था, हमने उसे खो दिया है। अब तो केवल खोना ही खोना है।

कलसोत्रा जी की बातों में मायूसी थी। उनका कहना था कि क्या अब हम एससी, एसटी और ओबीसी के लोगों को वह हक मिलेगा जिसकी बात केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त को संसद में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का प्रस्ताव पेश करते हुए कहा था। उन्होंने कहा था कि जम्मू-कश्मीर में आरक्षण का लाभ दलितों और ओबीसी को नहीं मिलता। लेकिन यह अधूरा सच है। 370 और इससे जुड़ा हुआ 35ए के तहत सरकारी नौकरियों में मूलनिवासियों को हिस्सेदारी मिलती थी। हालांकि ओबीसी को 27 फीसदी के बदले केवल 2 फीसदी ही आरक्षण मिलता था। इसे लेकर हम अपनी हुकूमत से संघर्ष कर रहे थे।  परंतु, अब हम कहां और किससे संघर्ष करेंगे। जम्मू हमारे प्रांत की राजधानी थी। सर्दियों के दिनों में यहां सीएम आते थे। कबीना की बैठकें होती थीं। लेकिन अब क्या होगा। 


बताते चलें कि जब जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 प्रभावी था तब अनुसूचित जाति को आठ फीसदी, अनुसूचित जनजाति को दस और ओबीसी को दो फीसदी आरक्षण के अलावा 20 फीसदी आरक्षण पिछड़े इलाकों के निवासियों (आरबीए), वास्तविक सीमा रेखा पर रहने वालों के लिए तीन फीसदी, पहाड़ी इलाकों में रहने वालों के लिए तीन फीसदी और सीमा पर रहने वालों के लिए तीन फीसदी आरक्षण का प्रावधान था।

यह पूछने पर कि आरक्षण की इन श्रेणियों का जातिवार बंटवारा किस तरह किया गया है, कलसोत्रा ने विस्तार से जानकारी दी। उनके मुताबिक, जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा 2005 में जारी गजट के हिसाब से यहां ओबीसी में बहांच हांजिए और शिकारावाला (नाव चलाने वाले), मछुआरा (गादा हंज भी शामिल), मरकाबांस, कुम्भकार, शाकसाज, जूते बनाने वाले, भंगी, नाई, धोबी, भांड, मिरासिस, मदारी/बाजीगर, कुलफकीर, घराती, तेली और लोहार आदि जातियां हैं। अनुसूचित जनजातियों में बालती, बेडा, बोत/बोतो, बरोकपा, डरोकपा, दार, शिन, चंगपा, गारा, मॉन, पुरिगपा, गुज्जर, बकरवाल, गद्दी और सिप्पी जैसी जातियां हैं जिन्हें 10 फीसदी का आरक्षण मिलता था। इसी प्रकार अनुसूचित जातियों में बारवाला, बासित, चमार या रविदास, चूरा, धयार, डूम या महाषा, गरदी, जोलाहा, मेघ या कबीरपंथी, रताल, सराया और वताल आदि जातियां शामिल हैं इन्हें 8 फीसदी आरक्षण मिलता था। 

देखिए, जब हमारे जम्मू-कश्मीर में आरक्षण का प्रावधान हुआ तो प्रावधान करने वाले ऊंची जाति के हिंदू और मुसलमान ही थे। उन्होंने इसे लागू करने में बेईमानी की। यहां तक कि जब मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करने की बात आयी तब भी बेईमानी की गयी। अब इस बेईमानी को ऐसे समझें कि आरबीए यानी पिछड़े इलाकों में रहने वालों को 20 फीसदी आरक्षण है और यदि आप पिछड़े वर्ग के हैं तो आप को इस आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। एससी या एसटी हैं तब भी आपको आरबीए का लाभ नहीं मिलेगा। ऐसा कर हमारे लोगों को मिलने वाले आरक्षण को सीमित कर दिया गया जबकि इन पिछड़े इलाकों, सीमा रेखा के समीपवर्ती इलाकों व सीमा पर रहने वाले इलाकों में हमारे लोग ही बहुलांश हैं। ऐसे में यह तो बेईमानी ही हुई।

जम्मू के रेशमगढ़ इलाके में अवस्थित अपने घर में डॉ. आंबेडकर और शहीद भगत अमरनाथ की तस्वीरों के साथ आर के कलसोत्रा। शहीद भगत अमरनाथ के संघर्षों के कारण जम्मू-कश्मीर में आरक्षण लागू हुआ (तस्वीर : नवल)

कलसोत्रा जी बोले जा रहे थे। बिना रूके। एक के बाद एक कई सारी बातें जिनसे शेष भारत शायद ही परिचित हो। मसलन राजा गुलाब सिंह की कहानी। उनके मुताबिक गुलाब सिंह ने ही जम्मू-कश्मीर की रियासत अंग्रेजों से 75 लाख रुपए में खरीदी थी। यह भी एक इतिहास ही है कि एक भारतीय नागरिक ने ही भारत के एक प्रांत को अंग्रेजों से खरीदा। इसके पहले प्रांतों पर कब्जे को लेकर मार-काट मचता था। लोगों का खून बहाये जाने की घटनाओं से इतिहास अटा पड़ा है। 

कलसोत्रा जी बता रहे थे कि गुलाब सिंह एक शक्तिशाली इंसान थे। वह पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के राजमहल के अस्तबल में साईस थे। एक दिन महाराजा रणजीत सिंह का सबसे प्यारा घोड़ा बिदक गया तो गुलाब सिंह को क्रोध आ गया और उन्होंने एक घूंसा घोड़े के पेट पर मारी। इससे घोड़े के पेट में छेद हो गया और वह मर गया। इस बात से राजमहल के अन्य कर्मचारी गुलाब सिंह को डरा रहे थे कि अब उसे इसकी सजा मिलेगी क्योंकि राजा के सबसे प्यारे घोड़े को मार दिया है। लेकिन महाराजा ने गुलाब सिंह को कोई सजा नहीं दी और ईनाम देते हुए अपना अंगरक्षक बना लिया। कलसोत्रा जी के मुताबिक गुलाब सिंह का चक्कर महाराजा रणजीत सिंह के ही महिला परिजन से चल गया और लोग कहते हैं कि उसने (गुलाब सिंह ने) इतने पैसे जमा कर लिया कि उसने जम्मू-कश्मीर की रियासत को अंग्रेजों से खरीद लिया।

महाराजा गुलाब सिंह की स्मृति में भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट

कलसोत्रा जी के मुताबिक गुलाब सिंह भी देश के अन्य शासकों के जैसे ही थे। लेकिन चूंकि जम्मू-कश्मीर को उन्होंने अंग्रेजों से खरीदा था इसलिए यहां उनकी हुकूमत चलती थी। राज्य में आने-जाने के लिए परमिट जारी होता था। यही वजह रही कि जब भारत आजाद हुआ और विलय की बात आयी तो राजा हरि सिंह ने इसी शर्त पर विलय स्वीकार किया कि जम्मू-कश्मीर का अपना स्वाभिमान बना रहे। इसके लिए ही 370 का प्रावधान किया गया था।  मुद्रा, सेना, विदेश नीति और संचार की जिम्मेवारी भारत सरकार की और शेष शासन-प्रशासन प्रांतीय सरकार की। 

35ए के संबंध में कलसोत्रा जी का कहना रहा कि इसके खात्मे से सबसे अधिक नुकसान तो एससी, एसटी और ओबीसी को ही होगा। जम्मू-कश्मीर में भूमि सुधार को मुकम्मल तरीके से लागू करने का श्रेय शेख अब्दुल्ला को जाता है। उनके कारण ही जम्मू-कश्मीर के हर बाशिंदे के पास जमीन है। कोई भी भूमिहीन नहीं है। अब 35ए को खत्म कर केंद्र सरकार यहां के लोगों को भूमिहीन बनाना चाहती है। 

इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि जब बाहर से लोग आएंगे तो धन-दौलत लेकर आएंगे और हमारी जमीनों की खूब कीमत देंगे। फिर वे हमारी जमीनें ले लेंगे। लेकिन उसके बाद हमारा क्या होगा? हम अपनी ही धरती पर बिना धरती के नहीं हो जाएंगे?

कलसोत्रा जी के सवालों में जवाब निहित है। अलग से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। करीब पौन घंटे की इस बातचीत में हमलोगों ने आरक्षण को लेकर भी बातचीत की और यह भी कि 31 अक्टूबर के बाद इस राज्य में भारत सरकार के कानून लागू हो जाएंगे। कलसोत्रा जी के मुताबिक, अभी तक सरकार ने कहा है कि वह भारतीय संविधान में उल्लेखित 106 कानूनों को लागू करेगी और शेष कानून पूर्ववत रहेंगे। लेकिन क्या इन कानूनों में वह कानून भी शामिल होगा जो हम जम्मू-कश्मीर के लोगों के स्वाभिमान की रक्षा करेगा? क्या भारत सरकार जम्मू-कश्मीर के उस कानून को भी शामिल करेगी जो हमारे राज्य में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को जिंदा रखता था?

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कलसोत्रा जी के आवास से निकला तो धूप दिल्ली जैसी मिली। तापमान में उन्नीस-बीस का ही फर्क है। अलबत्ता कश्मीर में तापमान बहुत कम होता है। यही वजह है कि जम्मू को ठंढ के दिनों में रियासत की राजधानी होने का गौरव हासिल है। इसलिए जम्मू शहर की संरचना में लगभग हर तरह के तत्व हैं जो अमूमन किसी भी राज्य की राजधानी में होते हैं। एक खुबसूरत शहर में लोगों के चेहरे पर उदासी मेरे कई सवालों के सबब थे, जिनके जवाब तलाशने के लिए आगे बढ़ा तो तवी नदी मिली। एक सूखी हुई नदी। किसी नदी विशेषज्ञ से मुलाकात होती तो जरूर पूछता कि इसका हश्र ऐसा क्यों है जबकि बरसात को खत्म हुए अभी एक-डेढ़ महीने ही हुए हैं। सामान्यत: पहाड़ी इलाकों में विशाल जल अधिग्रहण क्षेत्र के कारण उन इलाकों की नदियों में पानी का अभाव नहीं होता। फिर तवी नदी की ऐसी हालत क्यों?

तवी नदी, जम्मू (तस्वीर : नवल)

खैर, मेरे लिए वे सवाल महत्वपूर्ण थे जो वहां के लोगों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े थे। घूमंतू जातियों के लोगों से मिलने की इच्छा हुई। एक पत्रकार साथी को फोन मिलाया तो मालूम चला कि वे जम्मू में ही हैं। लोकेशन भेजा तो करीब दस मिनट के अंदर पहुंच गए। उनके साथ हम लोग ट्राइबल कॉलोनी गए।

ट्राइबल कॉलोनी सुनकर कृपया स्लम बस्ती न समझें जैसा कि दिल्ली या फिर भारत के किसी अन्य शहरों में होते हैं। यह एक साफ सुन्दर कॉलोनी थी। पक्की सड़क हर घर के दरवाजे तक। हर घर के आगे छोटा सा बगीचा। मेरे पत्रकार मित्र ने बताया कि यहां गुर्जर समुदाय के लोग हैं। ये मुसलमान हैं और घूमंतू जातियों में शुमार हैं। वहां मुलाकात हुई बुजुर्ग चौधरी बशीर अहमद खटाना से। इससे पहले कि कोई सवाल पूछता उन्होंने पहले ही पूछ लिया। आप तो दिल्ली से आए हैं। बताइए कि यहां कौन गरीब है और क्या यहां विकास नहीं हुआ है जिसके बारे में 5 अगस्त को अमित शाह संसद में बोल रहे थे? उनका कहना था कि 1976 में शेख अब्दुल्ला ने भूमि सुधार लागू किया था और तभी हम गुर्जरों की बस्ती बसायी थी। यह पूछने पर कि 35ए के खात्मे से आप लोगों पर क्या असर पड़ेगा। उनका कहना था कि सबसे कम जमीनें हमारे पास ही हैं। कल जब बाहरी लोग आएंगे तो वे हमारी ही जमीनें लेंगे। फिर हमारे लोग भूमिहीन बन जाएंगे। 

चौधरी बशीर अहमद और उनके मुहल्ले वालों से मिलकर हम आगे बढ़े। यह इलाका था मार्बल नगर का। वहां दो मजदूर बैठे मिले। नाम-पता पूछने पर एक ने बताया मोतिहारी (बिहार) और दूसरे ने इटवा (उत्तर प्रदेश)। मजदूरी आदि के सवाल पर जानकारी मिली कि काम नहीं मिल रहा है। महीने में दस से पन्द्रह दिनों का काम मिलता है। शेष दिन बैठकर खाना पड़ता है। मार्बल नगर में ही एक छोटा सा टी स्टॉल दिखा। चाय पीने की तलब तो थी ही। वहां आलू के पकौड़े तले जा रहे थे। दुकानदार ने अपना नाम बताया मुकेश। पता पूछने पर उसने थोड़ा आवाज तेज करते हुए कहा – मुंगेर, बिहार। मुकेश ने कहा कि 35ए को हटाने या न हटाने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। यहां जमीन की कीमतें आसमान छू रही हैं। एक कनाल भूखंड की कीमत तीन से चार करोड़ रुपए है। एक कनाल का मतलब 20 मरला और एक मरला का मतलब 272 वर्गफुट। जम्मू में जमीन मापने का यह गणित भी मुकेश ने ही समझाया।

बिहार के मुंगेर जिले के मूलनिवासी मुकेश जम्मू में छोटा सा ढाबा चलाते हैं (तस्वीर : नवल)

मैं किसी ऐसे शख्स से मिलना चाहता था जो जम्मू-कश्मीर में रिजर्वेशन के विधिक पक्ष के बारे में बताये और यह भी कि आर्टिकल 370 से इसका क्या लेना-देना है? फिर मेरे पत्रकार साथी ने साथ दिया। थोड़ी ही देर में हमलोग जम्मू स्टेशन के सामने खड़े थे। वहां एक पुलिस स्मारक भी है। वहीं मिले अशोक बसोत्रा। फारवर्ड प्रेस का नाम सुनते ही कहने लगे कि पहले हमलोग यह पत्रिका मंगाते थे। पुराने संबंधों पर प्रकाश डालने के बाद उन्होंने मेरे सवालों का जवाब दिया। उनका कहना था कि 370 के खात्मे से हमारे अधिकार समाप्त हो चुके हैं। अब सरकार जो नये कानून लेकर आएगी, उसी से तय होगा कि हमारे आरक्षण का क्या होगा। यदि सरकार पहले के आरक्षण को ही लागू करती है तो इसका साफ मतलब होगा कि 370 के हटाए जाने से हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को कोई लाभ नहीं मिलने जा रहा।

फारवर्ड प्रेस के नियमित पाठक व जम्मू हाईकोर्ट के अधिवक्ता अशोक बसोत्रा

अशोक से बातचीत के बाद हम पहुंचे जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील और पूर्व एडिशनल एडवोकेट जनरल जे. ए. काजमी के घर जम्मू के विकास नगर मुहल्ले में। काॅलबेल बजाने के बाद जब काजमी साहब ने दरवाजा खोला तो उनके साथ एक सुंदर बिल्ली (जिसका नाम उन्होंने माइलो रखा है) भी थी। काजमी साहब जम्मू-कश्मीर में बामसेफ से भी जुड़े हैं। उनका साफ कहना था कि भारतीय हुकूमत फिर से अपने फैसले पर विचार करे। धारा 370 और 35ए जितना उंची जातियों के हित में अच्छी थीं उतनी ही हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के लिए भी। हमारा आरक्षण को लेकर संघर्ष जारी था। आज न कल हम पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण आबादी के समानुपातिक करवा ही लेते। लेकिन अब क्या? अब तो हमारे यहां जो सीएम बनेंगे उनकी हैसियत तहसीलदार की माफिक ही होगी। वह क्या करेंगे। आप ही बताइए कि हम जम्मू-कश्मीर के लोगों ने क्या किया है? क्या हमने उनके संविधान को नहीं माना? क्या हमने उनके झंडे को नहीं माना?  

जवाब कौन देगा? क्या भारतीय संसद इसका जवाब देगी या फिर भारत के हुक्मरान इसका जवाब देंगे?

मैं जम्मू से लौट रहा था। शाम साढ़े छह बजे की ट्रेन थी। सड़कें वीरान तो नहीं लेकिन लोग बहुत कम थे। कुछेक घरों पर बिजली की लड़ियां थीं। रह-रहकर पटाखे भी फूट रहे थे। मेरे मन में यह कविता आ रही थी। इसके कवि के बारे में जानकारी गूगल करने पर भी नहीं मिली। इसका मतलब यह कि जिस जगह मैं खड़ा हूं वह बहुत खास है। इतना खास कि इसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है। कविता है –

अगर फ़िरदौस बर-रू-ए-ज़मीं अस्त 

हमीं अस्त ओ हमीं अस्त ओ हमीं अस्त  

 

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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