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ओबीसी में बढ़ी चिंताएं, हमारी भाषाओं में दलित, मूलनिवासी नारीवाद पर विचार और बनिकांता काकती की याद 

ओबीसी वर्ग पहले से कहीं अधिक जागरूक हो गया है। इस वर्ग के सवालों को लेकर दो दिवसीय सम्मेलन होने वाले हैं। वहीं देश में आदिवासी और जनजातियों के मुद्दों पर कई बड़े जलसे और सभाएं हो रही हैं। आइए, जानते हैं इस हफ्तावार कॉलम में देश के बौद्धिक और अकादमिक जगत में आगामी दिनों में होने वाले आयोजनों के बारे में

भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य

हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित-आदिवासी अध्ययन एवं अनुवाद केंद्र और हिंदी विभाग ने संयुक्त रूप से ‘भारतीय दलित साहित्य के मुद्दे और चुनौतियां’ विषय पर 15 नवंबर 2019 को एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया है। संगोष्ठी के उप विषय हैं – दक्षिण भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य के मुद्दे एवं चुनौतियां (तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम के विशेष संदर्भ में) और भारतीय भाषाओं के मुद्दे एवं चुनौतियां (हिंदी, मराठी, गुजराती, बांग्ला, ओड़िया, उर्दू के विशेष संदर्भ में)। 

आयोजकों का मानना है कि आज के भारतीय साहित्य में अनेक लेखक हैं, जिन्होंने दलित साहित्यकार के तौर पर पहचान मिली है। उनमें से एक प्रमुख रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी पुस्तक ‘दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र’ में कहा है कि “दलित साहित्य की अवधारणा, उसकी प्रासंगिकता, दलित-चेतना, आदि सवाल दलित, गैर-दलित रचनाकारों, आलोचकों, विद्वानों के बीच उठते रहे हैं। यह सवाल भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि दलित साहित्यकार किसे कहें? इन तमाम सवालों को केन्द्र में रखकर ही दलित साहित्य और उसके सौन्दर्यशास्त्र पर बात हो सकती है। आदर्शवाद की महीन बुनावट में असमंजस की स्थितियाँ हिन्दी यथास्थितिवाद को ही पुख्ता करती हैं। ये आदर्शवादी स्थितियाँ हिन्दी क्षेत्रों में किसी बड़े आन्दोलन के जन्म न ले पाने के कारणों में से एक हैं। सामन्ती अवशेषों ने कुछ ऐसे मुखौटे धारण किए हुए हैं जिनके भीतर संस्कारों और सोच को पहचान पाना मुश्किल होता है। व्यक्तिगत जीवन के दोहरे मापदंडों में ही नहीं साहित्य और संस्कृति के मोर्चे पर भी छद्म चेहरे रूप बदलकर मानवीय संवेदनाओं से अलग एक काल्पनिक संसार की रचना में लगे हुए रहते हैं। बुनियादी बदलाव की संघर्षपूर्ण जद्दोजहद को कुन्द कर देने में इन्हें महारत हासिल है। यही यथास्थितिवादी लोग दलित साहित्य की जीवन्तता और सामाजिक बदलाव की मूलभूत चेतना को अनदेखा कर, उस पर जातीय संकीर्णता एवं अपरिपक्वता का आरोप लगाते रहे हैं।”

इच्छुक प्राध्यापक और शोधार्थी इस संदर्भ को लेकर भी प्रपत्र और आलेख भेज सकते हैं। शोध और आलेख 10 नवंबर तक भेजे जा सकते हैं। ईमेल एड्रेस हैं – drvishnusarwade@gmail.com , setukverma@gmail.com  diwakarharuoh@gmail.com। कार्यक्रम के संयोजक और संचालन समिति में प्रोफेसर एस.आर. सर्राजु, प्रोफेसर एस. चतुर्वेदी, प्रोफेसर विष्णु सरवदे शामिल हैं।

आदिवासी नारीवाद पर विचार

आदिवासी अभिव्यक्ति और भारत में आदिवासी नारीवाद विषय को लेकर सेंटर फॉर नॉर्थ ईस्ट स्टडीज एंड पॉलिसी रिसर्च, जामिया मिल्लिया इस्लामिया; आदिवासी पब्लिशिंग हाउस; ट्राइबल इंटेलेक्चुअल कलेक्टिव ऑफ इंडिया ने आदिवासी समन्वय मंच भारत के सौजन्य से 15 से 17 नवंबर 2019 तक तीन दिन का सेमिनार और कार्यशाला आयोजित की है। ये कार्यक्रम भोपाल के आईजीआरएमएस में आयोजित किया गया है।

संस्कृति पर हमला : झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के अमतीपानी गांव में नवनिर्मित मंदिर परिसर में लगे चापाकल से पानी भरतीं आदिम जनजाति में शुमार असुर जनजाति की महिलाएं (तस्वीर : एफपी ऑन द रोड, 2016)

कार्यक्रम के प्रारूप में कहा गया है कि दुनिया भर में मूलवासी महिलाओं के सवाल कई आंदोलनों और प्रमुख नारीवादी आंदोलनों दोनों ओर से असहज आलोचना का सामना करते रहे हैं। दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी नारीवादियों ने पितृसत्तात्मक प्रभुत्व और आधिपत्य के सामान्य तत्वों का सामना किया और महिलाओं के उत्पीड़न के अनुभवों की समानताएं जैसे – यौन हिंसा, आर्थिक भेदभाव, लिंगवाद और सामान्य भेदभाव और मूलवासी पुरुषों और महिलाओं के बीच हितों के विभाजन के रूप में दिखते हैं। मूलवासी महिलाओं ने विभिन्न मंचों से बताया है कि स्वदेशी समुदायों के भीतर महिलाओं की अधीनता और उत्पीड़न बढ़ा है। हालांकि, दूसरी ओर, यूरो-पश्चिमी दुनिया में नारीवादी आंदोलन के भीतर, हमने आदिवासी महिलाओं की अनोखी वास्तविकताओं और आवाजों को देखने या स्वीकार करने में असमर्थता दिखाई है।

आज की पूरा परिदृश्य आदिवासी समुदाय और आदिवासी महिलाओं के जटिल और सामूहिक संबंधों को देखने में विफल रहा है। आदिवासी मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र के स्थायी फोरम के संक्षिप्त नोट में स्वदेशी महिलाओं के मानवाधिकारों और स्वदेशी लोगों के मानवाधिकारों के बीच अटूट संबंधों को स्वीकार किया गया है। यह विभिन्न सम्मेलनों और मंचों में विभिन्न अभ्यावेदन को बताता है। यह उन अंतर्निहित मान्यताओं के कायाकल्प या बदलने की आवश्यकता को बताता है जो सामूहिक अधिकारों के दावों को व्यक्तिगत अधिकारों के लिए पूरक के रूप में देखने के बजाय खतरे के रूप में देखती हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में मूलवासी/ आदिवासी/ आदिवासी विमर्श/ आंदोलनों में समुदाय के भीतर लिंगवाद और पितृसत्ता को केंद्र में रखकर किसी आलोचना में बात नहीं हुई है। आदिवासी महिला अधिकारों के सवाल या उनको “मुख्यधारा” में लाने के कथित प्रयास आदि पितृसत्तात्मक मानदंडों से निर्धारित होते हैं। जाहिर है इस स्थिति में पूरी गुत्थी को समझने के लिए अब बौद्धिक वर्ग द्वारा धरातल तैयार करना जरूरी हो गया है।

आयोजन के प्रारूप में यह भी कहा गया है कि भारत में आदिवासी और ट्राइबल दुनिया को अक्सर समतावादी के रूप में वर्णित किया गया है, जहां महिलाओं को अन्य गैर-जनजाति और गैर-आदिवासी समाजों में उनके समकक्षों की तुलना में बेहतर स्थिति में माना गया है। हालाँकि, इस तरह की धारणाओं को अब समीक्षकों द्वारा पुन: समीक्षित किया जा रहा है और कई नारीवादी विद्वानों और बुद्धिजीवियों द्वारा वर्गीकृत किया गया है। इन समुदायों के भीतर की कई महिलाओं ने भी भारत के विभिन्न हिस्सों से अपने जीवित अनुभव और संघर्ष के बारे में लिखना शुरू कर दिया है। इन आदिवासी और जनजाति समुदाय की महिलाओं के काम ने उनके संबंधित समाज की अनूठी दुनिया को प्रस्तुत किया है।


सेमिनार के प्रमुख उप विषय है : 1. ट्राइबल और आदिवासी समाज में पितृसत्ता के रूप और उनका संचालन, 2. आदिवासी समाज में महिलाओं के अधिकार और नारीवादी आंदोलन, 3. महिलाओं के इतिहास को पुर्न समीक्षा: परंपराएं, स्मृतियां, सामग्री और वंशावली, 4. प्रथागत कानून और आधुनिक कानूनों के अंतर्विरोध और हस्तक्षेप, 5. साम्यवादी समाज में वास्तविकता, 6. लोक संस्कृति और लोक कथाओं में जेंडर, 7. मौखिक इतिहास : रोजमर्रा की जिंदगी की नारीवादियों का अवलोकन, 8. मौखिक परंपराओं और उसकी विश्वदृष्टि का अवलोकन, 9. महिलाओं की अर्थव्यवस्था और उनका श्रम, 10. जेंडर और पहचान, 11. जेंडर और धर्म, 12. रोजमर्रा की जिंदगी में हिंसा। इसके अलावा साहित्य और मीडिया में आदिवासी महिलाओं की स्थिति पर भी, विषय को केंद्रित किया जा सकता है।

शिक्षक और शोधार्थी इस बारे में ध्यान रखें कि सार प्रस्तुत करने की समय सीमा 8 नवंबर 2019 है। आयोजकों ने इसमें किसी तरह का फेरबदल नहीं करने की बात कही है। अधिक जानकारी के लिए डॉ. रिमी तडू से rimitadu@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

बनिकांता काकती मेमोरियल सेमिनार

आसामी भाषाविद् डॉ. बनिकांता काकती (15 नवंबर 1894 – 15 नवंबर 1952) की स्मृति में ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति में संभावनाएँ और चुनौतियाँ : भारतीय स्थिति’ विषय पर बनिकांता काकती मेमोरियल नेशनल सेमिनार के तहत गुवाहाटी में 15-16 नवंबर को विशेष आयोजन किया गया है। एमआईएम और साहित्य अध्ययन विभाग, गुवाहाटी विश्वविद्यालय ने इस सेमिनार को कंपरेटिव इंडियन लिटरेचर इंस्टीट्यूट (सीआईएलए) की मदद से आयोजित किया है।


आयोजकों ने बताया कि आधुनिक भारतीय भाषा और साहित्य अध्ययन विभाग, गुवाहाटी विश्वविद्यालय, असम के प्रख्यात भाषाविद, साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्येता और आलोचक डॉ. बनिकांता काकती की 125 वीं जयंती के उपलक्ष्य में ये कार्यक्रम किया जा रहा है। संगोष्ठी भारतीय स्थितियों के संदर्भ में वर्तमान समय के मुद्दे और चुनौतियाँ शामिल की जाएंगी। जिनमें भारतीय भाषाओं, साहित्य और संस्कृति की प्रगति का पता लग सके।

सेमिनार में डॉ. बनिकांता काकती के जीवन और कार्यों पर ध्यान दिलाने और संदर्भ के रूप में,  असमिया और भारत में भाषाओँ की स्थिति से निपटने वाले विषयों की एक श्रृंखला से गंभीरता के साथ जुड़ने का प्रयास किया जाएगा। दोनों अपने समय और आज के समय में भारतीय भाषाओं में साहित्यिक आलोचना की स्थिति विशेष रूप से असमिया भाषा को लेकर डॉ. काकती के दृष्टिकोण के संदर्भ में समझने का प्रयास किया जाएगा। चूंकि मेजबान विभाग का तुलनात्मक भारतीय साहित्य के क्षेत्र में खासा नाम है, इसलिए संगोष्ठी तुलनात्मक साहित्यिक पद्धति के अध्ययन के साथ भारतीय साहित्य में अनुसंधान के नए सिद्धांतों को प्रोत्साहित करने का काम करेगी।

आसामी भाषाविद् डॉ. बनिकांता काकती (15 नवंबर 1894 – 15 नवंबर 1952)

व्यापक दृष्टिकोणों के साथ संगोष्ठी के उप-विषय तय किए गए हैं। इनमें असमिया भाषा में निकांता काकती और आलोचना, असम में बनिकंता काकती और सामाजिक-मानवविज्ञान अनुसंधान, भारतीय साहित्य की ऐतिहासिकता, भारत में स्वतंत्रता के बाद का राज्य पुनर्गठन और भाषा राजनीति, भारत में भाषा की स्थिति की पहचान की राजनीति और इसका प्रभाव, भारत में भाषा संघर्ष, बहुभाषावाद और भारतीय भाषाएं, प्रारंभिक और मध्यकालीन भारतीय साहित्य का अध्ययन, भारतीय साहित्य में आधुनिकतावाद, भारत में वर्नाक्यूलर लिटरेरी ट्रेंड्स के विकास में रुझान, भारतीय साहित्य की मौखिक और पाठ्य परंपराएँ, तुलनात्मक भारतीय साहित्य और अनुवाद अध्ययन, भारतीय विरासत और सांस्कृतिक विविधता का अध्ययन (मूर्त और अमूर्त संस्कृति), सांस्कृतिक आधिपत्य और स्व-प्रतिनिधित्व के प्रश्न,  भारत में पौराणिक और पुरातात्विक अध्ययन।


इस संबंध में अधिक जानकारी के लिए bkns.mills@gmail.com  संपर्क किया जा सकता है। कार्यक्रम में असमिया, हिंदी या अंग्रेजी में पेपर तैयार किए जा सकेंगे। कार्यक्रम के संचालन और संयोजन में प्रो. मुकुल चक्रवर्ती, डॉ. अनुराधा सरमा, (अध्यक्ष) डॉ. बी. विजय कुमार(असिस्टेंट कोऑर्डिनेटर) जुड़े हैं।

अनुसंधान प्रकाशन पर कार्यशाला

रिसर्च पब्लिकेशंस को लेकर गुवाहाटी में 25 से 29 नवंबर को विशेष कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है। यह कार्यशाला गुवाहाटी यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ नॉर्थ ईस्ट इंडिया स्टडीज (जीयूआईएनईआईएस) आयोजित की गई है। ये तारीख फिलहाल अस्थाई है और इसे आगे बढ़ाया जा सकता है

कार्यशाला को इस तरह तैयार किया है कि हाथो-हाथ तैयार शोधपत्र और आलेख को व्यक्तिगत भागीदारों की आवश्यकताओं और अनुसंधान की प्रकृति के अनुकूल तुरंत ही  विशिष्ट पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिए भेजा जा सके। हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रमोद के. नायर (प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में और प्रमुख प्रकाशकों के साथ प्रकाशन कार्य में ख्यातिप्राप्त) ने कार्यशाला का संचालन करने के लिए सहमति व्यक्त की है। कार्यशाला विश्वविद्यालय के संकाय और अनुसंधान के युवा विद्वानों के लिए है।

कार्यशाला बहु-विषयक है यानी ये कला, मानविकी और सामाजिक विज्ञान विषय और इनके अंतःविषय कार्य को प्रोत्साहित करेगी। प्रतिभागी इस कार्यशाला के लिए अधिकतम 1200 शब्दों में अपने विषय पर लिख सकेंगे। कार्यशाला के लिए देशभर से कुल 25 प्रतिभागियों का चयन होगा। अधिक जानकारी के लिए https://www.gauhati.ac.in/ पर देखें।

ओबीसी की चिंताएं

बक्सर (बिहार) में भारतीय पिछड़ा शोषित संगठन (बीपीएसएस) का दूसरा राष्ट्रीय अधिवेशन 9 व 10 नवम्बर 2019 को आयोजित किया गया है। इसमें- “आज के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक न्याय का स्वरूप तथा वर्गीय चेतना की आवश्यकता”, मानवीय मूल्यों के आधार पर नव संस्कृति निर्माण की आवश्यकता” तथा जातीय जनगणना व पिछडे (ओबीसी), अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को धन, धरती, शैक्षणिक, नौकरियों एवं राजनीति में जनसंख्या के अनुपात में भागीदारी की आवश्यकता” विषय पर चर्चा होगी।

अधिवेशन में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी शामिल हो सकते हैं। नन्द कुमार बघेल, पूर्व प्राचार्य व संस्कृत विद्वान, डॉ. मनराज शास्त्री तथा कला संकाय के विभागाध्यक्ष डॉ. लाल रत्नाकर के उद्बोधन के अतिरिक्त देशभर से आए पिछड़े-शोषित समाज के बुद्धिजीवियों के विचार सुनने को मिल सकते हैं। बीपीएसएस ने पिछड़े वर्ग के लोगों से अपील की है कि वे इस अधिवेशन में जरूर शामिल हों।

इस सम्मेलन के बारे में अधिक जानकारी के लिए 9304080117, 9430264006, 9431424315 पर संपर्क किया जा सकता है।

 

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/अनिल)


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लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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