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जेएनयू : हम दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के खिलाफ साजिश है कुलपति के फरमान 

जेएनयू पर पहरा बढ़ा दिया गया है। साथ ही यहां पढ़ने वालों को अब 999 प्रतिशत अधिक फीस का भुगतान करना पड़ेगा। इसका दलित, आदिवासी और ओबीसी के छात्रों पर कितना असर होगा तथा वे किस प्रकार इसका विरोध कर रहे हैं, यही जानने फारवर्ड प्रेस जेएनयू कैंपस पहुंचा

जेएनयू में छात्रों और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच विवाद बढ़ता जा रहा है। सबसे अधिक विरोध दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के छात्र कर रहे हैं। इस विवाद में अब दलित,पिछड़े और आदिवासी वर्ग के छात्र और शिक्षक सभी एक साथ आ रहे हैं। इनका मानना है कि वह चाहे हॉस्टल की फीस में वृद्धि का सवाल हो या फिर हॉस्टल व लाइब्रेरी के नियमों में बदलाव के सवाल सभी वंचित तबके के छात्र-छात्राओं के हितों से जुड़े हैं।

दरअसल, जेएनयू में हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि वहां सीआरपीएफ (अर्द्धसैनिक बल) की तैनाती की गयी है। छात्रों के द्वारा किसी भी प्रकार के विरोध प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी जा रही है। ऐसा ही नजारा पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के समीप विश्व भारती के परिसर में दिख रही है। वहां भी सीआईएसएफ (अर्द्ध सैनिक बल) के जवान तैनात हैं। 

सवाल उठता है कि अभिव्यक्ति की आजादी और उच्च शिक्षा के लिए अनुकूल माहौल के लिए प्रसिद्ध देश के इन दो प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में ऐसे हालात क्यों बनाए जा रहे हैं? इनके शिकार कौन हो रहे हैं? दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के छात्रों द्वारा विरोध की वजहें क्या हैं? यही जानने समझने फारवर्ड प्रेस जेएनयू पहुंचा। बताते चलें कि एक दिन पहले यानी 11 नवंबर को जेएनयू के दीक्षांत समारोह के मौके पर उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू की मौजूदगी में छात्रों ने  विरोध प्रदर्शन किया और उनपर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज की गयी। 

छात्रों के विरोध को देख जेएनयू प्रशासन ने बंद कराया मुख्य द्वार (तस्वीर 13 नवंबर 2019 को सुबह साढ़े 11 बजे)

दलित-बहुजनों द्वारा विरोध की बानगी कल नई दिल्ली के गंगानाथ मार्ग पर एक टी स्टॉल पर देखने को मिली। यह जेएनयू के मुख्य द्वार के ठीक बगल में पाल डेयरी के सामने है। इस टी स्टॉल पर इन दिनों दलित-बहुजन छात्र-छात्राएं एकजुट होते हैं। छोटा सा यह टी स्टॉल हरिकेश जी चलाते हैं जो स्वयं भी दलित-बहुजन परिवार से आते हैं। जेएनयू में पढ़ना इनका सपना था। इसी सपने को पूरा करने दिल्ली आए लेकिन गरीब होने के कारण मजदूरी करनी पड़ी। इंट्र्रेंस की परीक्षा दी लेकिन विफल हो गए। फिर यही जेएनयू के मुख्य द्वार के पास चाय की दुकान खोल ली। अब उनकी दुकान पर दलित-बहुजन छात्र जुटते हैं। इस टी स्टॉल पर बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन (बापसा) के सदस्यों के अलावा बहुजन साहित्य संघ (बीएसएस) के प्रतिनिधि भी मिले। 


दरअसल, विश्वविद्यालय के छात्र इन दिनों आंदोलित हैं। उनकी मांग है कि हॉस्टल के नियमों को लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन एक बार फिर हम छात्रों से विचार विमर्श करे ताकि कपड़ों और समय आदि को लेकर जो विवाद हैं, उनका समाधान हो सके। वे मांग कर रहे हैं कि फीस में 999 प्रतिशत की अप्रत्याशित वृद्धि को तुरंत वापस लिया जाय। यदि यह वृद्धि लागू हुई तो छात्रों को 2740 रुपए के बदले 30,100 रुपए वार्षिक देने होंगे। इस कारण गरीब परिवारों से आने वाले छात्रों को परेशानी होगी। जेएनयू के छात्र कुलपति एम. जगदीश कुमार को हटाए जाने की मांग कर रहे हैं। उनका मानना है कि एक कुलपति के रूप में वे अपनी जिम्मेवारियों के निर्वहन में अक्षम हैं और उनका अबतक का व्यवहार अलोकतांत्रिक रहा है।

जेएनयू के मुख्य प्रशासनिक भवन की दीवार पर लिखे गए नारे

जेएनयू प्रशासन के उपरोक्त फैसलों के बारे में दलित-बहुजनों की राय स्पष्ट है कि ये सीधे-सीधे उनके (दलित-बहुजनों) हितों पर कुठाराघात करने की साजिश है। बहुजन साहित्य संघ की महासचिव व जेएनयू की छात्रा कनकलता यादव के मुताबिक, जेएनयू में हम लड़कियां इसलिए भी पढ़ पाती हैं क्योंकि कम फीस और घर वालों के ऊपर लगभग जीरो रेस्पोंसबिलिटी होने से, घर से पढ़ने भेज दिया जाता है। इसके बाद घर वाले हमेशा एहसान भी जताते हैं कि तुमको पढ़ने भेज दिए हैं। यह जेएनयू की वजह से सम्भव है कि हम लोग घर से लड़-झगड़ के भी पढ़ने आ पाते हैं और लगातार शोषण के बावजूद जेएनयू का कल्चर हम लड़कियों को नई उम्मीद और पढ़ने का सपना दिखाता है, हम लड़कियां इस सपने को पूरा करना चाहते है और जीना चाहते हैं।”

उन्होंने कुलपति के फरमान के बारे में कहा कि “उनका होस्टल का मैनुअल लगातार लड़कियों को डरा रहा है, धमकी दे रहा है और यह शोषण का पूरा डॉक्यूमेंट है। आपका हॉस्टल का मैनुअल मुझे बार बार पितृसत्तात्मक समाज के साथ खड़ा हुआ दिखाई दे रहा है, जिसकी वजह से शायद हम ज्यादातर लड़कियों को यूनिवर्सिटी छोड़कर घर भी वापिस जाना पड़ जाय और वापिस सब कुछ सहना पड़े।”

छात्रों के हितों को लेकर अब विश्वविद्यालय के शिक्षकगण भी साथ आए हैं। इस संबंध में जेएनयू शिक्षक संघ द्वारा एक अपील जारी की गयी है। जेएनयू में हिंदी विभाग के प्रोफेसर राजेश पासवान ने अपने फेसबुक पर उन लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है जो जेएनयू में फीस में वृद्धि का समर्थन कर रहे हैं। उन्होंने लिखा है कि “पूरे देश में गरीब लेकिन प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के लिए जेएनयू सबसे पहली पसंद है।” एक अन्य पोस्ट में उन्होंने लिखा है – “मैंने जेएनयू से 300 रुपए प्रतिवर्ष की फीस देकर पढ़ाई की है और अब प्रति वर्ष साढ़े पांच लाख रुपए का आयकर भारत सरकार को देता हूं। मुझे इस लायक जेएनयू ने बनाया है। मुझे अपने जेएनयू पर गर्व है।”

जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र के सामने जमीन पर दलित-बहुजन छात्रों द्वारा दर्ज विरोध

हालांकि कुछ शिक्षकों के मन में कुलपति का खौफ भी है। दलित-बहुजन परिवार से आने वाले एक वरिष्ठ शिक्षक ने फारवर्ड प्रेस को नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि मौजूदा कुलपति भारत की सामाजिक स्थितियों को समझना ही नहीं चाहते हैं। उनका कहना है कि हॉस्टल के नियमों में बदलाव का सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि छात्रों के बीच विचारों का लेन-देन बंद हो जाएगा। यह दरअसल, जेएनयू के मूल विचारों के खिलाफ है जो विरोध के बावजूद विचार-विमर्श को महत्वपूर्ण मानता है। उनका कहना था कि वे स्वयं भी जेएनयू के छात्र रहे हैं और पहले आप किसी भी संगठन के हों, और एक-दूसरे के घोर विरोधी भी, इसके बावजूद आप बात कर सकते थे। बहस कर सकते थे। इससे एक बेहतर समाज के निर्माण का मार्ग प्रश्स्त होता है। लेकिन अब तो इसे ही बाधित किया जा रहा है। वे सवाल उठाते हैं कि क्या हमारे छात्र केवल रोबोट बनकर रह जाएंगे? क्या शिक्षक होने के नाते हमारा काम केवल उनके अंदर आंकड़े फीड कर देना है।

जेएनयू के पूर्व छात्र और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अतिथि प्रोफेसर अनिल कुमार भी मानते हैं कि हॉस्टल के नियमों में बदलाव से सबसे अधिक प्रभावित दलित और पिछड़े वर्ग के लोग होंगे। उनका मानना है कि पूंजी के आधार पर वर्ग विभाजन की अवधारणा से महत्वपूर्ण अवधारणा शब्द भंडार की है। इसको ऐसे समझिए कि यदि किसी व्यक्ति के पास 1000 शब्दों का भंडार है और किसी के पास पांच सौ से कम तो इसका मतलब साफ है कि एक हजार शब्द भंडार रखने वाला व्यक्ति अधिक विचारवान होगा। भले उसके पास पूंजी न हो। उसका जीवन एक बेहतर जीवन होगा। जेएनयू में दो तरह के लोग आते हैं। एक तो वे जो कुलीन घरों के होते हैं। उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि उन्हें सक्षम बना देती है। दूसरे वे लोग आते हैं जो दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के हैं। जिन इलाकों व परिवारों से ये आते हैं, वहां शिक्षाविहीनता एक बड़ी समस्या होती है। ऐसे लोग जब जेएनयू आते हैं तो उन्हें एक ऐसा माहौल मिलता है जहां वे शेष दुनिया के साथ साक्षात्कार करते हैं। उनसे विचार लेते हैं और अपने बारे में उन्हें बताते हैं। इस क्रम में वे अपने हॉस्टल के कमरे से निकल अपने किसी साथी के कमरे में बैठकर घंटों बहस करते हैं। यह व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया है। लेकिन अब जेएनयू प्रशासन इसे बाधित कर देना चाहता है। 

जेएनयू परिसर में कई ऐसे छात्र मिले जो प्रशासन के फैसले से हताश हैं और उन्हें उम्मीद है कि चीजें पूर्ववत सामान्य होंगी। इनमें से एक छात्र जो नार्थ-ईस्ट के रहने वाले हैं, ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा कि वे दिन में पढ़ाई करने के अलावा रात में कॉल सेंटर में काम करते हैं। जेआरएफ नहीं मिलती है, इसलिए परेशानी होती है। अब यदि जेएनयू प्रशासन द्वारा हॉस्टल में रात नौ बजे हाजिरी लगानी होगी जैसे कि हम छात्र न होकर किसी कारागार के कैदी हैं तो मैं कॉल सेंटर में काम कैसे कर सकूंगा। और काम न कर सका तो अपनी पढ़ाई कैसे जारी रखूंगा। मेरे पिता की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे मेरे लिए पैसे भेज सकें।

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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