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क्रीमी लेयर : क्या एससी, एसटी व ओबीसी के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण में गई सरकार? 

एससी-एसटी और ओबीसी के लिए नीति-निर्धारण में इन समुदायों की भागीदारी आज भी बहुत कम है। ऐसा प्रमोशन में आरक्षण देने में घाल-मेल के चलते है, जो उन्हें निर्णय के उन केंद्रों तक नहीं पहुंचने देता, जहां उनके बारे में निर्णय होता है। उनके बारे में नीतियों का निर्धारण निर्णय के केंद्रों पर विराजमान ऊंची जातियों के लोग करते हैं 

तथ्य-दर-तथ्य

केंद्र सरकार ने 2 दिसंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि एससी/एसटी के पदोन्नति में क्रीमी लेयर के सिद्धांत को लागू करने के अपने निर्णय को वह संविधान की एक बड़ी पीठ को पुनर्विचार के लिए सौंपे. इस मामले में संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत समानता के अधिकार के तहत कार्रवाई की माँग की गई थी.  मौक़ा था नेशनल कोऑर्डिनेशन कमिटी फ़ोर रेज़र्वेशन पॉलिसी और ऑल इंडिया हरिजन लीग के अध्यक्ष ओपी शुक्ला की याचिका पर सुनवाई का. इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे और बीआर गवई एवं सूर्यकांत कर रहे थे. याचिकाकर्ता ने इस मामले की सुनवाई सात-सदस्यीय पीठ से कराने की माँग की. पीठ ने कहा कि वह इस मामले पर दो सप्ताह में निर्णय करेगा और यह अवधि अब बीत चुकी है.

पिछले वर्ष न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की पीठ ने यह तो माना कि नागराज मामले में इस मामले की सुनवाई की थी उसके तहत क्वांटिफिएबल डाटा पेश करने का मामला ग़लत है. पीठ ने कहा था कि अनुसूची में शामिल होने का मतलब ही यह है कि ये लोग सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं सो एससी/एसटी को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए क्वांटिफिएबल डाटा की ज़रूरत नहीं है. 

पहले ज़रा इस बात पर गौर किया जाए कि पदोन्नति में आरक्षण देने के मामले में कानूनी मोर्चे पर क्या हुआ है. संविधान के अनुच्छेद 16(4) में कहा गया है : इस अनुच्छेद का कोई प्रावधान राज्य को किसी भी ऐसे पिछड़े वर्ग के हित में नियुक्ति या पद में आरक्षण देने से नहीं रोकेगा, जिन्हें उसकी निगाह में राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. 

इस अनुच्छेद में संशोधन कर 4(अ) जोड़ा  गया जिसमें प्रावधान था कि राज्य चाहे तो पदोन्नति में एससी/एसटी को आरक्षण दे सकता है अगर उसको लगता है की उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला हुआ है. यह संविधान का 77वां संशोधन था.

एक मुद्दा यह उठा कि अगर किसी साल एससी/एसटी की सीटें नहीं भर पाई तो उसको अगले साल ले जाया जाएगा तो क्या उसे उस साल की रिक्तियों में जोड़ा जाए या नहीं. उस साल की रिक्तियों में जोड़े जाने से ख़तरा यह था कि नए साल की कुल रिक्तियां 50% की सीमा को पार की है या नहीं इसका पता लगाना मुश्किल हो जाता. इस मुद्दे की वजह से इस अनुच्छेद में एक और संशोधन की जरूरत महसूस की गई. और 81वां संशोधन इसका परिणाम था. 

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

81वें संशोधन (2000) से इस अनुच्छेद में 4(ब) जोड़ा गया. इसमें कहा गया कि अगर किसी साल एससी/एसटी की सीट नहीं भर पाती है तो उसे अगले साल की रिक्तियों के साथ जोड़ा नहीं जाए और उन्हें अलग रखा जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि उस साल की रिक्तियां 50% की निर्धारित सीमा से ऊपर तो नहीं चल गई है. यह सीमा सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित की है.

इसके लिए 82वां संविधान संशोधन (2000) किया गया जिससे राज्यों को यह अधिकार दिया गया कि वे चाहें तो एससी/एसटी को राज्य/केंद्र सरकार के किसी शैक्षिक संस्थानों के किसी भी क्लास में प्रवेश या किसी भी नौकरी में नियुक्ति को सफल बनाने के लिए वह उनके क्वालिफाइंग नंबर या मूल्यांकन के स्तरों को कम कर सकता है. यह प्रावधान अनुच्छेद 335 के अंत में जोड़ा गया. यह अनुच्छेद एससी/एसटी से संबंधित सेवाओं एवं पदों से जुड़ा  है. 

और फिर 85वां संशोधन (2001) किया गया जिसमें कहा गया कि पदोन्नति में एससी/एसटी कर्मचारियों के लिए आरक्षण उनके परिणामात्मक वरिष्ठता के आधार पर लागू होगा. 


एम. नागराज और अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले  (2002) में इन सभी संशोधनों को चुनौती दी गई थी. पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इन संशोधनों को वैध ठहराया (2006). पर इस मामले में आये फैसले के कुछ बिन्दुओं पर आपत्ति उठाते हुए एक याचिका दायर की गई. एम नागराज मामले में दायर विभिन्न याचिकाओं पर पहले तो दो जजों की पीठ ने सुनवाई की और फिर तीन जजों की पीठ ने इससे जुड़े मुद्दों पर गौर किया. 

इस पूरे मामले में नागराज मामले में आये फैसले ने पदोन्नति में आरक्षण के रास्ते को रोक सा दिया है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस फैसले के माध्यम से राज्यों को यह अधिकार दे दिया कि वे अगर चाहें तो ऐसे समूह को पदोन्नति में आरक्षण का लाभ दे सकते हैं जिनके बारे में वे समझते हैं कि उनको सरकारी नौकरी में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है. इसके लिए एम. नागराज मामले में क्वांटीफियेबल डाटा पेश करने की बाध्यता राज्य सरकारों पर लाद दी गई थी जिसको न्यायमूर्ति मिश्रा की पीठ ने हटा दिया. भारत सरकार ने इस बारे में अदालत से आग्रह किया था कि एम. नागराज मामले का यह प्रावधान नौकरियों में एससी/एसटी को आरक्षण दने में आड़े आ रहा है. पर न्यायमूर्ति मिश्रा की पीठ ने इस मामले को किसी बड़ी पीठ को सौंपने से इनकार कर दिया था. इस पीठ में उनके अलावा न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ, रोहिंटन एफ नरीमन, एसके कौल और इंदु मल्होत्रा शामिल थीं. 

अब ऐसी खबर आई कि भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि इस मामले को किसी बड़ी पीठ को सुनवाई के लिए भेजी जाए. 

सरकार का कहना है कि इंद्रा साहनी मामले में अदालत ने क्रीमी लेयर के मामले को एससी/एसटी पर लागू नहीं किया था. पर नागराज मामले में पीठ ने इस फैसले को गलत पढ़ा है और इस तरह क्रीमी लेयर के सिद्धांत को एससी/एसटी पर भी लागू कर दिया है. सरकार की दलील है कि राष्ट्रपति द्वारा जारी एससी/एसटी की अनुसूची में जब किसी जाति या वर्ग को शामिल कर लिया जाता है तो फिर यह साबित करने की जरूरत नहीं पड़ती है कि वह समूह पिछड़ा है. यह इस सूची में होने की वजह से ही साबित हो जाता है. इस सूची से फिर किसी वर्ग को हटाने या जोड़ने का काम सिर्फ संसद ही कर सकती है.  


नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण होने की वजह से एससी/एसटी वर्ग के लोग नौकरियों में तो आ रहे हैं, हालांकि, शिक्षा संस्थानों से लेकर नौकरियों तक इनके लिए आरक्षित सीट अब भी रिक्त रह जाते हैं. यही कारण है कि अपने लोगों के लिए नीति-निर्धारण में एससी/एसटी या पिछड़े वर्गों की भागीदारी आज भी ज्यादा नहीं हो पायी है, क्योंकि उन्हें प्रोमोशन में आरक्षण देने में हुए घालमेल के कारण वे उस स्तर तक नहीं पहुँच पाते हैं जहां वे अपने बारे में बनने वाली नीतियों को प्रभावित कर सकें.  इस वजह से होता यही है कि उनके बारे में नीतियों का निर्धारण वही ऊंचे पदों पर बैठी ऊंची जातियों के लोग लेते हैं. 

भारत के संविधान निर्माताओं ने भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग के सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने और उनको भी समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष लाने के लिए उन्हें एक विशिष्ट वर्ग में रखा था और इन्हें कुछ सहूलियतें दी थीं. इन सहूलियतों का मुख्य उद्देश्य सदियों के सामाजिक विभेद और असमानता को समाप्त करना था ताकि कोई पीछे न छूट जाए. 

संविधान को लागू हुए पूरे 70 साल हो गए हैं. पर जब इस फ्रंट पर उसकी सफलता का आकलन करने पर एक बहुत ही निराशाजनक स्थिति से हमारा साक्षात्कार होता है. ऐसा नहीं है कि पिछले 70 वर्षों में कुछ हुआ ही नहीं पर जो हुआ है वह अपेक्षा से बहुत ही कम है. और सबसे दुर्भाग्य की बात इस समय यह हो रही है कि समाज की ऊंची जातियां जो समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को हाशिये पर धकेलने के लिए दोषी हैं, वे अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों को मिल रहे आरक्षणों का विरोध करना शुरू कर दिया है. कई लोग इस संदर्भ में क्रीमी लेयर का मामला भी उठाते हैं. और यह एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है, इस बात को अनुसूचित जाति/जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लोग भी स्वीकार करते हैं. इसका कारण यह है कि आरक्षण का लाभ सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित रह गया है. 

एससी/एसटी के लिए पदोन्नति में आरक्षण का मुद्दा भी इसी तरह एक बहुत ही नाजुक मुद्दा है. 

(संपादन : नवल/सिद्धार्थ/अनिल)


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लेखक के बारे में

अशोक झा

लेखक अशोक झा पिछले 25 वर्षों से दिल्ली में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत हिंदी दैनिक राष्ट्रीय सहारा से की थी तथा वे सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट, नई दिल्ली सहित कई सामाजिक संगठनों से भी जुड़े रहे हैं

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