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‘मुख्यधारा की मीडिया’ के मायने

यदि 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों तक आदिवासी इलाके की घटनाओं में मीडिया की भूमिका को देखा जाए तो उन अनुभवों के आधार पर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि संथाल विद्रोह के दौरान संप्रेषण का जो ढांचा खड़ा हुआ, उसके जरिए मुख्यधारा का मीडिया अब तक आदिवासियों को छोड़कर सबके हितों की पूर्ति करता रहा है। जब कभी वंचितों की हिस्सेदारी के क्षण आते हैं, तब मीडिया सहानुभूति और प्रगतिशीलता की परिभाषा भूल जाता है

फारवर्ड प्रेस के प्रिंट संस्करण से

इस तथ्य को यहां दोहराना जरूरी है कि भारतीय समाज में सन 1780 में जेम्स ए. हिक्की द्वारा बंगाल गजट शुरू करने के साथ मीडिया उद्योग का औपचारिक ढांचा बनना शुरू हुआ। जिस समाज के लिए यह ढांचा खड़ा किया जा रहा था उसकी पृष्ठभूमि में भारत के बड़े भौगोलिक क्षेत्र में व्याप्त वर्ण व्यवस्था थी। उस वर्ण व्यवस्था का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आधार रहा है। कोई भी व्यवस्था अपने सदस्यों के लिए संचार-संवाद और संप्रेषण का ढांचा विकसित करती है। संप्रेषण के ढांचे की एक भाषा उसकी एक प्रस्तुति होती है। उस भाषा के अंदर बहने वाले अर्थ उस वर्ग के बीच बड़ी सहजता से संप्रेषित हो जाते हैं। भारत में वर्णवाद ने जातियों के बीच संप्रेषण के लिए जो भाषा और प्रस्तुति विकसित की, वह मूल रूप में अभी भी बनी हुई है।

 

बंगाल के एक अन्य पुराने समाचारपत्र संवाद कौमूदी ने एक अपील छापी, जिसमें हिन्दूओं से आग्रह किया गया कि वे अपने जातीय पूर्वग्रहों को भुलाकर विभिन्न तरह के मैकेनिक का काम सीखें। उसके संवाददाता ने हिन्दुओं को सलाह दी कि वे यह ना सोचें कि यदि वे तकनीशियन हो जाएंगे तो उनका सामाजिक दर्जा छोटा हो जाएगा। संवाद कौमुदी ने सम्मानित हिन्दुओं के व्यापारी बनने पर भी जोर दिया। भबानीचरण बंद्योपाध्याय इस समाचारपत्र के प्रकाशक थे। इस तरह हम देखते हैं कि उच्च जातियों के बीच एक दूसरे को संबोधित करने के लिए एक भाषा उस समय विकसित हुई।

इस प्रकार शुरुआती दिनों से ही संप्रेषण माध्यमों में कई तरह की धाराएं दिखती हैं लेकिन मूल रूप में वे एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। बंगाल का ही संवाद भास्कर प्रगतिशील धारा का पत्र था। उस पत्र ने एक नई तरह की सामाजिक समस्या की तरफ ध्यान खींचा। संवाद भास्कर में 20 सितंबर, 1856 को प्रकाशित समाचार में कहा गया कि अंग्रेजी शिक्षा की वजह से नई तरह की यह सामाजिक समस्या उभर रही है, वह यह कि नीची जातियों में अंग्रेजी सीखने की ललक बढ़ रही है और बढ़ई, नाई, धोबी, भंगी आदि जातियों के परिवारों के लड़के अंग्रेजी सीखकर क्लर्क, एजेंट आदि पदों पर नौकरियां पा रहे हैं। वे अपना पारिवारिक काम छोड़ रहे हैं और इससे एक नई सामाजिक समस्या पैदा हो रही है। इस तरह के काम करने वालों की कमी से बंगाल में संचार माध्यमों के जरिए संप्रेषण का जो ढांचा विकसित हुआ है उस पर कई स्तरों पर शोध हुए हैं लेकिन जातीय पूर्वग्रहों और जातिवाद से जुड़े हितों की सुरक्षा के लिए संप्रेषण के एक ढांचे के रूप में मीडिया के विकास पर शोध नहीं हुआ है। हालांकि शोध भी संप्रेषण के पूरे ढांचे का एक महत्वपूर्ण अकादमिक हिस्सा ही है।


सुधार और प्रगतिशीलता जैसे शब्द खुद में जातीय झुकाव लिए हुए हैं। ये शब्द वंचितों की हिस्सेदारी की भाषा से निकले शब्द नहीं हैं। उस संप्रेषण के ढांचे में उदारता और प्रगतिशीलता के सबसे ऊंचे दर्जे के जो शब्द हैं वे हैं सहानुभूति और दया। वह भी अपने हितों की कीमत पर नहीं, बल्कि अपने हितों को सुरक्षित रखते हुए। मीडिया में उस प्रगतिशीलता का दिलचस्प नजरिया अब भी देखने को मिलता है। आदिवासियों के संथाल विद्रोह के मौके पर संवाद भास्कर ने विद्रोहियों के खिलाफ सरकार की कार्यवाहियों का समर्थन किया और समाचारपत्र ने संथालों की मांगों के प्रति अपनी सहानुभूति का संकेत भी दिया, साथ ही सेना और सरकारी अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों को कोसा। सरकार का समर्थन और सैनिकों व पुलिस अधिकारियों का विरोध और आदिवासियों के प्रति सहानुभूति का यह मिश्रण जो उस समय तैयार हुआ आज तक इस्तेमाल किया जा रहा है। मजे की बात यह कि संथाल विद्रोह की इस तरह की खबरें छापने के बाद विद्रोह के इलाके बीरभूम से आए एक पत्र को भी समाचारपत्र ने छापा, जिसमें स्थानीय मजिस्ट्रेट के नेतृत्व में अत्याचार की घटनाओं का विवरण था लेकिन इसके साथ ही समाचारपत्र यह भी उल्लेख करता है कि यदि उच्च वर्ण का मजिस्ट्रेट होता तो ये अत्याचार नहीं होते। इस पत्र से वर्णवाद भी सुरक्षित कर लिया गया।

यदि 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों तक आदिवासी इलाके की घटनाओं में मीडिया की भूमिका को देखा जाए तो उन अनुभवों के आधार पर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि संथाल विद्रोह के दौरान संप्रेषण का जो ढांचा खड़ा हुआ, उसके जरिए मुख्यधारा का मीडिया अब तक आदिवासियों को छोड़कर सबके हितों की पूर्ति करता रहा है। जब कभी वंचितों की हिस्सेदारी के क्षण आते हैं, तब मीडिया सहानुभूति और प्रगतिशीलता की परिभाषा भूल जाता है।


इस तरह मुख्यधारा के संचार माध्यमों का ढांचा विकसित हुआ है। व्यावहारिक स्तर पर इस ढांचे को समझने के लिए इस उदाहरण को देखा जा सकता है। इस समय अंग्रेजी में द हिन्दू समाचारपत्र को हम जिस रूप में देखते हैं, उसकी शुरुआत सन 1878 में हुई थी। तमिलनाडु के लेखक रवि कुमार अपनी पुस्तक वेेनेमस टच में लिखते हैं कि द हिन्दू का प्रकाशन एक रुपये बारह आने का कर्ज लेकर शुरू किया गया था और वह साप्ताहिक के रूप में आठ पेज का निकलता था और चार आने में बेचा जाता था। जब वह शुरू हुआ तब द हिन्दू की मात्र अस्सी प्रतियां छापने की मांग बाजार से आई थी। सन 1905 में द हिन्दू की आठ सौ प्रतियां बिकती थीं, इसी वर्ष 75 हजार रुपये में कस्तूरी आयंगर ने द हिन्दू को खरीद लिया और वही द हिन्दू आज देश में मीडिया उद्योग में एक बड़े ब्रांड के रूप में हमारे सामने है। इसके साथ दूसरा उदाहरण देखें-दक्षिण के उसी हिस्से में अक्टूबर, 1893 में रेत्तामलई श्रीनिवासन ने परायण मासिक पत्रिका निकाली। यह एक दलित की पत्रिका थी। चार पेज की इस पत्रिका की छपाई व विज्ञापन के मद में दस रुपये खर्च किए गए थे। यानी द हिन्दू से कई गुना ज्यादा का विनियोग साप्ताहिक की जगह मासिक पत्रिका में किया गया। इसकी चार सौ प्रतियां दो दिन में ही बिक गईं। यानी चार हफ्ते में जितना द हिन्दू अपने शुरुआती दिनों में बिकता था उससे भी ज्यादा प्रतियां परायण की बिकी। उस समय मद्रास नगरपालिका क्षेत्र में दलित समाज के केवल 112 उम्मीदवार ऐसे थे जो द्विभाषी पद के योग्य पाए गए थे। इससे दलित समाज में शिक्षित और नौकरीपेशा वर्ग की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह पत्रिका सन 1900 तक ही नियमित निकली। इसके बाद इसे बंद कर देना पड़ा। अब सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर द हिन्दू को खरीदने और चलाने वाले लोग क्यों मिल गए लेकिन रत्तामलई की पत्रिका के लिए कोई ग्राहक व संचालक क्यों नहीं मिल सका। यदि इस तुलनात्मक उदाहरण को 21वीं सदी के शुरुआती वर्षों में खड़े होकर देखें तो क्या उस समय से आज तक की स्थिति में बुनियादी तौर पर कोई परिवर्तन आया है, शायद नहीं। दरअसल कोई मीडिया संस्थान केवल मालिक की पूंजी से विकसित नहीं होता है। उस मीडिया संस्थान को वह वह वर्चस्ववादी समूह विकसित करता है जिसके राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक हितों की वह समूह पूर्ति करता है।

मीडिया स्टडीज ग्रुप के एक अध्ययन के अनुसार आबादी के 8 प्रतिशत सवर्ण पुरुषों का मीडिया में फैसले लेने वाले दस प्रमुख पदों के 86 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा बना हुआ है। यहां भी यह गौर करने वाली बात है कि मुख्यधारा का मीडिया जब हम कहते हैं तो वह एक खास वर्ग का मीडिया ही होता है लेकिन वह शब्द इस तरह से संप्रेषित होता है जैसे वह भारतीय समाज का मुख्य स्वर हो। मजे की बात तो यह कि दलित, पिछड़े, आदिवासी सुमदाय के सदस्य मुख्यधारा का मीडिया शब्द का इस्तेमाल करते हैं। खुद के नेतृत्व वाले मीडिया संस्थान को वे दलित मीडिया संबोधित करने लगते हैं। दलित दर्शन के लिए संप्रेषण का मुक्कमल ढांचा कैसे विकसित हो सकता है, यह योजना ही कहीं नहीं दिखती है।

(फारवर्ड प्रेस के मार्च 2013 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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