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बांग्लादेशी प्रताड़ना के कारण नहीं, ज़मीन की तलाश में आ रहे हैं भारत : वाल्टर फर्नान्डिस

वाल्टर फर्नांडिस का कहना है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम, उत्तरपूर्वी भारत के आदिवासियों की भाषा, संस्कृति और पहचान के लिए खतरा है. वे इस दावे से सहमत नहीं है कि बांग्लादेशी, भारत के उत्तरपूर्वी राज्यों में इसलिए आ रहे हैं क्योंकि वे अपने देश में धार्मिक प्रताड़ना के शिकार हैं. उनका मानना है कि वे कृषि भूमि की तलाश में भारत आ रहे हैं. प्रस्तुत है गोल्डी एम. जॉर्ज के साथ उनकी बात-चीत का सम्पादित अंश

(नागरिकता का मुद्दा इस समय पूरे देश पर छाया हुआ है. पूर्वोत्तर, विशेषकर असम, में उसका जमकर विरोध हो रहा है. देश के अन्य हिस्सों में भी जनता इस कानून के खिलाफ आंदोलित और आक्रोशित है. हम इस मुद्दे पर दलित-बहुजन चिंतकों और जनप्रतिनिधियों से साक्षात्कारों की श्रृंखला प्रकाशित कर रहे हैं. नार्थ-ईस्टर्न सोशल रिसर्च सेंटर के संस्थापक फादर डॉ. वाल्टर फर्नांडिस से फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक गोल्डी एम. जॉर्ज ने इस विषय पर बातचीत की.) 


गोल्डी एम. जॉर्ज : नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) 2019 को आप कैसे देखते हैं? 

वाल्टर फर्नांडिस : सन् 2015 में यह विधेयक जब संसद में प्रस्तुत किया गया था, तभी से मेरी यह मान्यता थी कि यह एक नकारात्मक कदम है. पहली बात तो यह है कि आप ऐसा कोई कानून बना ही नहीं सकते जो धर्म के आधार पर भेदभाव या बहिष्करण को वैधता और क़ानूनी मान्यता प्रदान करता हो. दूसरे, इस अधिनियम में यह मान्यता अन्तर्निहित है कि यह देश केवल हिन्दुओं का है. ईसाईयों, बौद्धों आदि को तो केवल जनता को संतुष्ट करने के लिए इसमें शामिल किया गया है. यह बात बहुत से लोग समझ नहीं पा रहे हैं. उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष ने नए कानून का स्वागत करते हुए कहा कि इससे ईसाईयों का भला होगा. यह स्वीकार्य नहीं हो सकता. जहाँ तक पूर्वोत्तर का प्रश्न है, वे लोग (प्रवासी) अंततः वहीं बसेंगे. और वहां पहले से ही खासी संख्या में प्रवासी हैं. 

जीएमजी : ‘बसेंगे’ से आपका क्या अर्थ है? 

डब्ल्यूएफ : बांग्लादेश से आए प्रवासियों में से अधिकांश पूर्वोत्तर और पश्चिम बंगाल में स्थाई रूप से रहना शुरू कर देंगे. और आने वाले समय में पूर्वोत्तर के लोगों के लिए यह परेशानियों का सबब बनेगा. 

जीएमजी : उनके यहाँ आने का क्या कारण है? सरकार का दावा है कि बांग्लादेश में हिन्दुओं को प्रताड़ित किया जा रहा है? 

डब्ल्यूएफ़: नहीं, वे यहाँ धार्मिक प्रताड़ना के कारण तो कतई नहीं आ रहे हैं. वे भूमिहीन किसान हैं और वे ज़मीन की तलाश में यहाँ आ रहे हैं. यहाँ के लोगों की ज़मीनों को उनसे खतरा है. हमने त्रिपुरा में यह होते देखा है. वहाँ आदिवासी आबादी 59.1 प्रतिशत से घट कर 31 प्रतिशत रह गयी है. आदिवासियों की 40 प्रतिशत से अधिक भूमि प्रवासियों के हाथों में चली गयी है. आदिवासियों से उनकी ज़मीनें छीनने के लिए कानून तक बदल दिया गया. 

फादर डॉ. वाल्टर फर्नांडिस

असम में ही वही हुआ. उन्होंने छठी अनुसूची के अंतर्गत क्षेत्रों को छोड़ दिया है. चौबीस में से कुल सात जिलों इस क्षेत्र में हैं. अन्य जिलों में जमीनों पर बांग्लादेश, बिहार और नेपाल से आए लोगों ने कब्ज़ा कर लिया है. आदिवासियों के लिए अपनी ज़मीन और पहचान की रक्षा करना एक कठिन हो गया है. 

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जीएमजी : यह अधिनियम पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत क्षेत्रों [असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के वे अदिवासी-बहुल इलाके जो छठी अनुसूची क्षेत्र के बाहर हैं] में रहने वाले लोगों की ज़मीन पर अधिकार को किस तरह प्रभावित करेगा?

डब्ल्यएफ: पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्तियों की ज़मीनें भी बच नहीं सकेंगीं. अभी तो उन्होंने पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत क्षेत्रों को छोड़  दिया है, परन्तु सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि इस कानून का कार्यान्वयन किस ढंग से होता है. इन जिलों में भी ज़मीन है. वे केवल पांचवीं अनुसूची के जिलों में भी नहीं, बाकी जिलों में भी ज़मीनों पर कब्ज़ा करेंगे. 


जीएमजी : तो, कुल मिलकर आपका कहना है कि प्रवासी बांग्लादेशियों से आदिवासियों की ज़मीनों को खतरा है?

डब्ल्यूएफ : हाँ, बिलकुल. आपको यह याद रखना चाहिए कि असम में जनसंख्या का घनत्व लगभग 430 प्रति वर्ग किलोमीटर है, जबकि बांग्लादेश में यह 1,400 के आसपास है. प्रवास, दरअसल, जनसांख्यिकीय संतुलन की प्रक्रिया का हिस्सा है. यहाँ आने वाले लोग वे किसान हैं जिन्हें खेती करने की तकनीकी की जानकारी तो है परन्तु जिनके पास ज़मीन नहीं है. वे ज़मीन की तलाश में यहाँ आते हैं. वे उन ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लेते हैं जिन्हें ‘कॉमन लैंड’ (सार्वजनिक भूमि) कहा जाता है. असम की कुल भूमि में से दो-तिहाई सार्वजनिक भूमि है. केवल एक-तिहाई भूमि पट्टा भूमि है, जिसका अधिकांश हिस्सा शहरी क्षेत्रों में है. सार्वजनिक भूमि की कई श्रेणियां हैं. वे पहले इस पर कब्ज़ा करते हैं और फिर अधिकारियों को रिश्वत देकर उसका पट्टा हासिल कर लेते हैं. वे धार्मिक प्रताड़ना के कारण यहाँ नहीं आते. मैंने उनमें से कई से बातचीत की है. वे ज़मीन के लिए यहाँ आते हैं. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि पूर्वोत्तर में जनसंख्या घनत्व, बांग्लादेश से काफी कम है. 

जीएमजी : क्या आपको लगता है कि सीएए का सामाजिक दृष्टि से वंचित और हाशियाकृत अन्य समूहों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा?

डब्ल्यूएफ : हाँ, सभी पर पड़ेगा. अंतत यह ज़मीन, भाषा, पहचान, संस्कृति – संपूर्ण सामाजिक प्रणाली के लिए खतरा बनेगा. इसके नतीजे में नस्लीय संघर्ष भी शुरू हो सकता है. यहाँ के लोगों को यह भय भी है कि अगर उन्हें (प्रवासी) नागरिकता दे दी जाएगी तो कल को कोई भी पूर्वोत्तर में आकर कहेगा कि ‘मैं धार्मिक प्रताड़ना का शिकार हूँ’ और नागरिकता हासिल कर यहाँ रहने लगेगा.   


जीएमजी : तो आपका यह कहना है कि यह झूठ है कि प्रवासी यहाँ इसलिए आ रहे हैं क्योंकि उनके देश में वे धार्मिक प्रताड़ना के शिकार हैं?

डब्ल्यूएफ : यह बिलकुल झूठ है कि बांग्लादेश में प्रताड़ना के कारण लोग यहाँ आ रहे हैं. वे ज़मीन की तलाश में आ रहे हैं.   

जीएमजी : सीएए का पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? 

डब्ल्यूएफ : उनके लिए ज़मीनों पर कब्ज़ा करना बहुत आसान हो जाएगा. उदहारण के लिए, झारखण्ड में कुल आबादी में आदिवासियों का हिस्सा मात्र 30 प्रतिशत बचा है. इसलिए, पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में ज़मीनों पर कब्ज़ा करना और आसान हो गया है. किसी भी अनुसूचित इलाके को उसकी जनसांख्यिकीय संरचना में परिवर्तन के आधार पर, पांचवीं अनुसूची से बाहर किया जा सकता है. इस कानून से सबसे अधिक खतरा पूर्वोत्तर क्षेत्र को है. यहाँ के लोग इस तमाशे को देख चुके हैं. असम में लगभग 20 लाख की आबादी को पांचवीं अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्र से बाहर कर दिया गया है. 

जीएमजी : क्या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा? 

डब्ल्यूएफ : हो सकता है कि यह मामला और आगे बढ़े. परन्तु चाहे इसमें कोई और अल्पसंख्यक समूह शामिल किया जाए या नहीं, परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कानून सामाजिक-आर्थिक समीकरणों को सांप्रदायिक रंग दे रहा है. इससे सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की आशंका भी है, क्योंकि यह इस विचार पर आधारित है कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और इसलिए यहाँ हिन्दुओं का स्वागत किया जाना चाहिए. 

जीएमजी : हिन्दुओं का स्वागत करने से आदिवासी पहचान को क्यों खतरा होगा? 

डब्ल्यूएफ : जैसा कि मैंने पहले कहा, यह आदिवासी पहचान के लिए सीधा खतरा है क्योंकि इसके निशाने पर होंगें ज़मीन, भाषा और संस्कृति – जिनसे मिलकर ही पहचान बनती है. आदिवासियों की पहचान पहले से ही खतरे में है और यह कानून इस खतरे को बढ़ाएगा. असम की 12.4 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. ज़मीन की तलाश में यहाँ प्रवासियों का आना न केवल आदिवासियों बल्कि गैर-आदिवासियों के लिए भी खतरा है. 

जीएमजी : इस कानून का देशव्यापी विरोध हो रहा है और प्रदर्शनकारियों और अन्य विरोधियों को कुचला भी जा रहा है. क्या आप इस बारे में कुछ कहना चाहेंगे?

डब्ल्यूएफ़ : वर्तमान सरकार से इसी प्रकार के दमन की अपेक्षा की जा सकती है. इसके ज़रिए वह अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन करने से बचने का प्रयास कर रही है. यह सचमुच अत्यंत पाशविक है. जो विरोध हो रहा है, जो मुद्दे उठाये जा रहे हैं, वे महत्वपूर्ण हैं. परन्तु इस बवाल में पूर्वोत्तर से संबंधित मुद्दे खोने नहीं चाहिए. 

जीएमजी : क्या इस सम्बन्ध में आप कोई सन्देश देना चाहेंगे?

डब्ल्यूएफ : सीएए के खिलाफ आन्दोलन जारी रहना चाहिए और इससे और अधिक संगठनों को जुड़ना चाहिए, विशेषकर, वे जो प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत में आस्था रखते हैं. उन सबको मिलकर इस देश के संवैधानिक तानेबाने की रक्षा करनी चाहिए. 

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया) 


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लेखक के बारे में

गोल्डी एम जार्ज

गोल्डी एम. जॉर्ज फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक रहे है. वे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी हैं और लम्बे समय से अंग्रेजी और हिंदी में समाचारपत्रों और वेबसाइटों में लेखन करते रहे हैं. लगभग तीन दशकों से वे ज़मीनी दलित और आदिवासी आंदोलनों से जुड़े रहे हैं

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