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भारत की नागरिकता और राष्ट्रीयता के मुद्दे पर बवाल के मायने

गत 10 जनवरी, 2020 से देश में सीएए को लागू कर दिया गया है। यह इसके बावजूद कि देश भर में इसका व्यापक विरोध हो रहा है और कई राज्य सरकारों ने इसे लागू नहीं करने की बात कही है। इन सबके बीच गोल्डी एम. जार्ज बता रहे हैं कि बहिष्करण पर आधारित नया नागरिकता कानून क्यों और कैसे बनाया गया? साथ ही यह भी कि इस कानून में ताजा परिवर्तनों के क्या निहितार्थ हैं.

नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) 2019 का राष्ट्रव्यापी विरोध हो रहा है और हजारों नागरिक सड़कों पर उतर कर इस नए कानून के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं. कई राज्य सरकारों ने इसकी खिलाफत करने हुए यह घोषणा कर दी है कि वे अपने राज्यों में इसे लागू नहीं करेंगे. और इनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भाजपा के गठबंधन साथियों के नेतृत्व वाली सरकारें भी शामिल हैं. 

भारत की नागरिकता, राष्ट्रीयता और अधिवास से जुड़े मुद्दे देश की अस्पष्ट और बदलती भौगोलिक सीमाओं को लांघते हैं और इस कारण उनकी सुस्पष्ट परिभाषा देना कठिन है. भारतीय नागरिकता से संबंधित दो क़ानूनी प्रावधान हैं – भारत के संविधान का भाग 2 और सन् 1955 का नागरिकता अधिनियम. इसके बाद नागरिकता अधिनियम में अनेक संशोधन हुए हैं. इसे कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों ने तीन बार संशोधित किया – 1986 में, 1992 में और फिर 2005 में और भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों ने दो बार – सन 2003 और 2015 में.

सन् 1955 का मूल अधिनियम, भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की नागरिकता का नियमन करता था, विशेषकर सन् 1947 के बाद के घटनाक्रम के सन्दर्भ में – जिसमें शामिल था देश का विभाजन, पाकिस्तान का निर्माण, उसके तुरंत बाद भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध और तत्पश्चात दोनों देशों के लोगों का सीमा-पार प्रवास. “रिफ्यूजी लॉ इन इंडिया: द रोड फ्रॉम ऍमबिग्युटी टू प्रोटेक्शन” के लेखक शुभ्रो प्रसून सरकार कहते हैं कि देशीयकरण द्वारा भारत की नागरिकता देने के मामले में भारत सरकार को शरणार्थियों और देश में राजनैतिक शरण चाहने वालों के मुद्दे से जूझना पड़ा. देश में बड़ी संख्या में शरणार्थी आ गए थे. उनके पुनर्वास, उनके लिए शहरों के नियोजन में परिवर्तन और उन्हें मूलभूत सुविधाएं प्रदान करने में होने वाले खर्च की समस्याएं तो थीं ही, साथ ही सरकार को देश के मूल रहवासियों के हितों के रक्षा भी करनी थी. देश में व्याप्त घोर गरीबी और सीमित संसाधनों के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा ने समस्या को और विकराल बना दिया था. 

देशीयकरण द्वारा नागरिकता के मामले में, 1955 के अधिनियम की धारा 6(1) कहती है कि ऐसा विदेशी व्यक्ति भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकता है जो भारत में 12 साल की अवधि से निवास कर रहा हो. उसके लिए आवेदन की तिथि से पूर्व के 12 महीनों में लगातार भारत में निवास करना अनिवार्य होगा और यह भी आवश्यक होगा कि इस 12 माह से पूर्व के 14 वर्षों में से वह कम से कम 11 वर्ष भारत में रहा हो. कुछ अन्य शर्तें भी थीं. सन् 1986 में संशोधन के जरिए आवेदनकर्ता के एक अभिवावक (पिता) का भारत का नागरिक होना अनिवार्य बना दिया गया. सन् 1992 में अधिनियम में संशोधन कर यह उपबंध जोड़ा गया कि भारत से बाहर जन्म लेने वाले व्यक्ति को देश की नागरिकता तभी मिल सकेगी जब उसके माता या पिता भारत के नागरिक हों. इस प्रकार, नागरिकता कानून में निहित लैंगिक भेदभाव को समाप्त कर दिया गया.  

सन् 2003 में एक संशोधन के जरिए, अधिनियम में एक नया उपबंध जोड़ा गया जिसमें यह कहा गया था कि किसी अवैध प्रवासी को देश की नागरिकता प्राप्त करने की पात्रता नहीं होगी. इस तरह, वे व्यक्ति नागरिकता के लिए अपात्र हो गए, जो अतीत में किसी भी समय पाकिस्तान या बांग्लादेश के नागरिक रहे थे. इस संशोधन ने नागरिकों की एक नई श्रेणी को जन्म दिया – डाऊटफुल (संदिग्ध) नागरिक. इसी संशोधन के ज़रिए सरकार को नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (राष्ट्रीय नागरिक पंजी) बनाने का अधिकार भी दिया गया. इसके अलावा, भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों को यह अधिकार दिया गया कि स्वयं का ओवरसीज सिटीजन ऑफ़ इंडिया अर्थात ओसीआई (भारत का विदेशी नागरिक) के रूप में पंजीयन करा सकेंगे, यद्यपि उनके राजनैतिक व न्यायिक अधिकार कुछ सीमित होंगे और उनके भारत में रोज़गार प्राप्त करने पर कुछ प्रतिबन्ध होंगे. 

बताते चलें कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 9 के अनुसार, कोई भी ऐसा व्यक्ति जो स्वेच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता ग्रहण कर लेता है, भारत का नागरिक नहीं रह जाएगा.  

सन् 2005 के संशोधन में सन् 2003 में किए गए परिवर्तनों को अपरिवर्तित रहने दिया गया. इसमें केवल  ओवरसीज सिटीजन ऑफ़ इंडिया के मुद्दे पर जोर देते हुए, भारतीय मूल के व्यक्तियों (पीआईओ) को वै्धता प्रदान की गई. सन् 2015 में इस अधिनियम में एक और परिवर्तन किया गया और ओसीआई व पीआईओ योजनाओं का  विलय कर, ओवरसीज सिटीजन ऑफ़ इंडिया कार्ड-होल्डर योजना लागू की गई. इस संशोधन के अनुरूप, पासपोर्ट नियमों और विदेशी नागरिक संशोधन आदेश में भी परिवर्तन किए गए और ऐसे गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को देश में रहने की इज़ाज़त मिल गई जो वैध दस्तावजों के बिना देश में रह रहे थे. 

सन् 2016 में एक नए नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) की चर्चा देश में होने लगी. इस एक साल में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को नागरिकता कानून में बड़े परिवर्तन की ज़रुरत महसूस हुई? 

संदिग्ध बनाम वैध नागरिकता 

सीएए, पड़ोसी मुस्लिम-बहुल देशों – पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश – के प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को प्राथमिकता पर भारत की नागरिकता देने के लिए बनाया गया है. यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि इन देशों की सूची में अफ़ग़ानिस्तान का नाम अभी जोड़ा गया है. इन देशों के धार्मिक अल्पसंख्यकों में हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शामिल हैं. स्पष्टतः इन देशों के मुसलमानों के लिए भारत में कोई जगह नहीं हैं और उन्हें अवैध प्रवासी ही माना जाएगा. इन दोनों निर्णयों का राष्ट्रव्यापी विरोध हो रहा है और विरोध करने वाले केवल मुसलमान ही नहीं हैं. उनमें बड़ी संख्या में गैर-मुसलमान शामिल हैं. सरकार ने केवल गैर-मुस्लिम अवैध प्रवासियों को ‘शरणार्थी’ का विशेष दर्जा देने का निर्णय क्यों लिया? 

सीएए पर देश में सबसे पहले सार्वजनिक चर्चा 2016 में म्यांमार से रोहिंग्या मुसलमानों के भारत और अन्य पड़ोसी देशों में बड़ी संख्या में पलायन की पृष्ठभूमि में शुरू हुई क्योंकि यह आशंका थी कि वे आतंकवाद व अन्य हिंसक गतिविधियों में भाग लेंगे. सच तो यह है कि 9/11 के बाद से ही, पूरी दुनिया में आतंकवाद के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराया जाता रहा है और तभी से इस्लामोफोबिया की शुरुआत हुई.  

नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस (3 जनवरी, 2020) को सीएए के विरोध में रैली

इसके पहले तक, बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्वी राज्यों में पलायन को भारत अत्यंत गंभीरता से लेता था. इस पलायन से त्रिपुरा जैसे कई राज्यों में गंभीर समस्या उत्पन्न हो गयी थी. अब भारत सरकार प्रवासियों में से केवल मुसलमानों को निशाना बना रही है. 

वर्तमान एनडीए सरकार का कहना है कि 1947 में देश के विभाजन के बाद से अविभाजित भारत के लाखों नागरिक, जो अलग-अलग धर्मों के अनुयायी हैं, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे हैं. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का यह भी कहना है पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के संविधानों में एक विशिष्ट धर्म को राज्य धर्म का दर्जा दिया गया है और इसलिए वहां के हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई नागरिकों को प्रताड़ित किया जा रहा है. (यह सही नहीं है क्योंकि सन् 1971 में अपने निर्माण के वक्त से ही बांग्लादेश एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य रहा है, सिवाय सैनिक शासन के कुछ वर्षों के). उन्होंने कहा कि भारत चूँकि हिन्दुओं का देश है, इसलिए यहाँ हिन्दुओं का स्वागत किया जाना चाहिए.

समाजशास्त्री वाल्टर फर्नांडिस का कहना है कि यह धारणा गलत है कि बांग्लादेशी भारत में इसलिए आ लिए आ रहे हैं, क्योंकि वे अपने देश में धार्मिक प्रताड़ना के शिकार है. फॉरवर्ड प्रेस से एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “वे भूमिहीन किसान हैं और ज़मीन की तलाश में यहाँ आ रहे हैं. वे धार्मिक प्रताड़ना के कारण यहाँ नहीं आ रहे हैं. मैंने उनमें से कई से बातचीत की है. वे ज़मीन के लिए यहाँ आते हैं. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि उत्तरपूर्व में जनसंख्या घनत्व, बांग्लादेश से काफी कम है. हमने त्रिपुरा में यह होते देखा है. वहाँ आदिवासी आबादी 59.1 प्रतिशत से घट कर 31 प्रतिशत रह गयी है. आदिवासियों की 40 प्रतिशत से अधिक भूमि प्रवासियों के हाथों में चली गयी है. आदिवासियों से उनकी ज़मीनें छीनने के लिए कानून तक बदल दिया गया.” 

सीएए, नागरिकता के विभिन्न अभिलेखों जैसे आधार कार्ड, पासपोर्ट, मतदाता परिचय पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, बैंक पासबुक आदि को मान्यता नहीं देता. यद्यपि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस आशंका को ख़ारिज किया है कि इसके कारण भारत के नागरिकों को परेशानियों का सामना करना पड़ेगा. परन्तु, नए कानून के प्रावधानों को देखते हुए, सरकार के इस दावे में दम नहीं नज़र आता. नागरिकों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए सन् 1971 से पूर्व के अभिलेख प्रस्तुत करने होंगे. अतः सीएए न केवल मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करेगा, बल्कि बड़ी संख्या में आदिवासी, दलित, भूमिहीन और गरीब लोग भी इसके शिकार होंगे, क्योंकि उनके पास ऐसा कोई सबूत नहीं है कि वे या उनके पूर्वज सन् 1971 के पहले भारत में रहते थे. इसके विपरीत, ‘धार्मिक प्रताड़ना’ के शिकार प्रवासी को केवल यह साबित करना है कि वह 31 दिसंबर 2014 के पहले भारत आ गया था. और यह साबित करते ही वह देश की नागरिकता प्राप्त करने का पात्र बन जायेगा. 

पसमांदा मुसलमानों के नेता और पूर्व सांसद अली अनवर ने फारवर्ड प्रेस से साक्षात्कार में अपनी समस्या इन शब्दों में व्यक्त की, “मेरे परदादा बिहार के डुमरांव महाराज के मैनेजर की बग्घी के कोचवान थे. इसलिए मैनेजर के घर के सामने उन्हें अपना घर बनाने की जगह दी गई थी. उनके पास कोई कागजात नहीं था. बस डुमरांव महाराज के कहने पर जमीन का वह टुकड़ा मेरे परदादा को मिला…आज भी मेरे पास यही एक संपत्ति है. मेरे पिता ने जब मेरा दाखिला मदरसे में करवाया तो उन्होंने मौलवी साहब से बस मेरा नाम लिख लेने को कहा. तब मेरी जन्मतिथि व अन्य आवश्यक जानकारियां उन्होंने मुंहजबानी बता दीं. मेरे पिता बीड़ी मजदूर थे. उनके पास जब अपनी पहचान का कोई दस्तावेज  नहीं था, तो मेरे लिए उनके पास कागजात कहां से होते.”

पूरे भारत में दलित और आदिवासी नेताओं ने भी सीएए का विरोध किया है. उनका कहना है कि मुसलमानों के अलावा, यह गैर-मुस्लिम समूहों के साथ भी भेदभाव करता है. प्रकाश आंबेडकर ने सीएए को गरीबों, दलितों और आदिवासियों को निशाना बनाने वाला बताया. छत्तीसगढ़ के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम का कहना था यह अधिनियम आदिवासियों के खिलाफ षड़यंत्र है और उसका उद्देश्य आदिवासियों को इस बात के लिए मजबूर करना है कि वे अपनी ज़मीनें, उद्योगपतियों को सौंप दें. दोनों का मानना है कि दस्तावेजी सबूतों की मांग करना, लोगों को उनकी नागरिकता से वंचित करने का सबसे कारगर बहाना है.

जामिया मिल्लिया इस्लामिया के विद्यार्थी, विश्वविद्यालय के बाहर सड़क पर सीएए, 2019 के विरोध में पेटिंग बनाते हुए

प्रवासियों के सम्बन्ध में कुछ तथ्य

नागरिकता कानून में वर्तमान विवादस्पद संशोधनों की शुरुआत सीएबी 2016 से हुई. इस विधेयक में यह कहा गया था कि पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक वर्गों के सदस्यों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा. अर्थात, केवल मुसलमानों को अवैध प्रवासी माना जाएगा. 

सीएबी को औचित्यपूर्ण बताते हुए, अमित शाह ने यह दावा किया कि इस कानून से उन लाखों लोगों को देश की नागरिकता मिल सकेगी जो हमारे तीन पड़ोसी इस्लामिक देशों में धार्मिक प्रताड़ना से बचने के लिए भारत आये हैं. परन्तु इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के आकंडे, गृह मंत्री के बयान से मेल नहीं खाते. संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी), ने  जनवरी, 2016 में प्रस्तुत अपनी रपट में इन आंकड़ों का हवाला दिया है. जब आईबी से यह पूछा गया कि प्रस्तावित संशोधन से पड़ोसी देशों में प्रताड़ना के शिकार अल्पसंख्यक समुदायों के कितने व्यक्ति लाभान्वित होंगे, तो उसका उत्तर था : “हमारे अभिलेखों के अनुसार, भारत में ऐसे 31,313 व्यक्ति (हिन्दू- 25,447, सिक्ख-5,807, ईसाई-55, बौद्ध-2 और पारसी-2) हैं, जिन्हें उनके इस दावे के आधार पर लम्बी अवधि का वीसा दिया गया है कि वे उनके देशों में धार्मिक प्रताड़ना के शिकार थे. अतः ये व्यक्ति इस संशोधन से लाभान्वित होंगे.”  

जेपीसी ने फिर आईबी से पूछा कि उन व्यक्तियों की क्या स्थिति होगी जो धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत आये हैं, परन्तु जिन्होंने भारत में आते समय इस आशय की घोषणा नहीं की. आईबी का उत्तर स्पष्ट था – और वह यह कि उन लोगों को यह साबित करना होगा कि वे ‘धार्मिक प्रताड़ना’ के कारण भारत आये हैं. इस विषय में अपनी राय रखते हुए आईबी ने कहा : “अगर उन्होंने देश में प्रवेश करते समय इस आशय की घोषणा नहीं की होगी तो उनके लिए अब ऐसा दावा करना मुश्किल होगा. भविष्य में किये जाने वाले ऐसे किसी भी दावे की जांच की जाएगी और इस जांच में रॉ को भी शामिल किया जायेगा. ऐसी जांच के बाद ही इस मामले में अंतिम निर्णय लिया जायेगा.” रॉ ने जेपीसी को यह भी बताया कि विदेशी एजेंटों द्वारा इस प्रावधान का उपयोग भारत में घुसपैठ करने के लिए किए जाने की आशंका भी है. जाहिर है कि ये तथ्य, केंद्रीय गृह मंत्री और उनके मंत्रालय के दावों को झुठलाते हैं. 

नागरिकता का सबूत 

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कितने भारतीय यह साबित कर सकेंगे कि वे या उनके माता-पिता, 1971 के पूर्व से भारत में रहते थे. सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में 17 लाख बेघर लोग हैं, जो कि देश की आबादी का लगभग 0.15 प्रतिशत है. देश के करीब 7.8 करोड़ नागरिक झुग्गियों में रहते हैं. 

विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि देश में करीब 15 करोड़ डीनोटिफाईड और घुमंतू जनजातियों के सदस्य हैं जिनके पास किसी प्रकार के कोई दस्तावेज नहीं हैं. आदिवासियों के आबादी करीब 8 करोड़ है और उनमें से अधिकांश के पास, सीएए के अंतर्गत अपेक्षित दस्तावेज नहीं हैं. 

शाहीन बाग़, नई दिल्ली में महिलाएं 15 दिसंबर, 2019 से सीएए के विरोध में धरना दे रही हैं

असम में एनआरसी के निर्माण में लगभग 10 वर्ष लग गए. इस काम में 52 हजार लोगों को लगाया गया और पूरी कवायद पर 1600 करोड़ रुपए खर्च हुए. असम की कुल आबादी 30 लाख है. इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के लगभग 131 करोड़ नागरिकों का रजिस्टर तैयार करने में 73 हज़ार करोड़ रुपए की भारी-भरकम राशि खर्च होगी. 

इन्हीं कारणों से कुछ मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्यों में सीएए लागू करने और एनआरसी करवाने से इंकार कर दिया है. परन्तु केंद्रीय गृह मंत्रालय का कहना है कि राज्य सरकारें सीएए को लागू होने से नहीं रोक सकतीं. मंत्रालय ने कहा, “नया कानून, संविधान की सातवीं अनुसूची की संघ सूची में शामिल विषय पर बनाया गया है. राज्यों को इसे खारिज करने का कोई अधिकार नहीं है”.  

यह अधिनियम निश्चित तौर पर भारत के प्रजातान्त्रिक ढ़ांचे को गंभीर क्षति पहुँचाने वाला है. क्या हमारे पास ऐसा कोई अन्य तरीका नहीं है जिससे हम अवैध प्रवासियों की पहचान कर सकें. यह अधिनियम, न केवल भारत के मुसलमानों वरन् यहाँ के गरीबों, दलितों, हाशियाकृत समुदायों और अन्य अल्पसंख्यकों को नागरिकता-विहीन कर देगा. यह कानून हिन्दू राष्ट्र के पैरोकारों के लिए एक बड़ी सफलता और बहुसंख्यक भारतीयों के लिए एक बड़ा धक्का और खतरा है. 

अनुवाद:अमरीश हरदेनिया

संपादन : नवल

लेखक के बारे में

गोल्डी एम जार्ज

गोल्डी एम. जॉर्ज फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक रहे है. वे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी हैं और लम्बे समय से अंग्रेजी और हिंदी में समाचारपत्रों और वेबसाइटों में लेखन करते रहे हैं. लगभग तीन दशकों से वे ज़मीनी दलित और आदिवासी आंदोलनों से जुड़े रहे हैं

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