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भारत के वन क्षेत्र में इज़ाफे का सच

गोल्डी एम. जॉर्ज लिखते है कि हाल में जारी इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट की रिपोर्ट को ध्यानपूर्वक पढ़ने और अन्य अध्ययनों से उसकी तुलना करने से यह साफ़ जाहिर होता है कि सरकार दरअसल इस तथ्य को छुपाने का प्रयास कर रही है कि समृद्ध जैव विविधता वाले वनों का क्षेत्रफल घटता जा रहा है। इन वनों का स्थान पर एक ही प्रजाति के वृक्षों वाले व्यावसायिक बागान ले रहे हैं

हाल में, भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने दो वर्ष में एक बार प्रकाशित होने वाली इंडिया स्टेट ऑफ़ फारेस्ट रिपोर्ट (भारत वन स्थिति रिपोर्ट) 2019  जारी की। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पिछले दो वर्षों में भारत के वन क्षेत्र में 5,188 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट जारी करते हुए, केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि 2017 की तुलना में देश के कार्बन स्टॉक (कार्बन की वह मात्रा जो वृक्ष वातावरण से हटाते हैं) में 4.26 करोड़ टन की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उत्तर-पूर्वी भारत में वन क्षेत्र में 765 वर्ग किलोमीटर (0.45 प्रतिशत) की कमी आयी है।    

रिपोर्ट में कहा गया है कि मध्यप्रदेश में देश का सबसे बड़ा वन क्षेत्र है, इसके बाद अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र हैं। कुल भौगोलिक क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में वन क्षेत्र के मामले में, शीर्ष पांच राज्य मिजोरम (85.41 प्रतिशत), अरुणाचल प्रदेश (79.63 प्रतिशत), मेघालय (76.33 प्रतिशत), मणिपुर (75.66 प्रतिशत) और नागालैंड (75.31 प्रतिशत) हैं। ये सभी देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र  में हैं।

सन् 2011 में भारत का कुल वन क्षेत्र (टीएफसी) 6,92,027 वर्ग किलोमीटर था। तब से लेकर अब तक इसमें 20,222 वर्ग किलोमीटर (3 प्रतिशत) की वृद्धि हुई है। भारत ने अपने सकल भौगोलिक क्षेत्रफल का 33 प्रतिशत वनाच्छादित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में कुल वन क्षेत्र, भारत के क्षेत्रफल का 21.54 प्रतिशत था, जो 2019 में बढ़कर 21.67 प्रतिशत हो गया। 

परन्तु सामाजिक कार्यकर्ताओं और शोधार्थियों ने कई आधारों पर इस रिपोर्ट के निष्कर्षों को चुनौती दी है।

आखिर सच क्या है? 

यद्यपि जावड़ेकर और उनका मंत्रालय, देश के वन क्षेत्र में वृद्धि का जश्न मनाने में जुटे हुए हैं, परन्तु सच कुछ और ही है। रिपोर्ट में दिए गए कुछ आंकड़ों पर सरसरी निगाह डालने से ही यह साफ़ हो जायेगा कि पिछले एक दशक में भारत के वन क्षेत्र में किस तरह के अवांछित परिवर्तन आए हैं।

पिछले एक दशक में वन क्षेत्र (वर्ग किलोमीटर में)

 20112013201520172019
अत्यंत घने वन

(वीडीएफ)
  83,47183,50285,90498,15899,278
मध्यम घने वन

(एमडीएफ)
320,736318,745315,374308,318308,472
खुले वन

(ओएफ)
287,820295,651300,395301,797304,499
कुल692,027697,898701,673708,273712,249

स्रोत : इंडिया स्टेट ऑफ़ फारेस्ट रिपोर्ट 2019

पिछले एक दशक में कुल वन क्षेत्र में 20,222 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। अत्यंत घने वनों (वीडीएफ) का  क्षेत्रफल 99,278 वर्ग किलोमीटर है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 3.02 प्रतिशत है। मध्यम घने वनों (एमडीएफ) का कुल क्षेत्रफल 3,08,472 वर्ग किलोमीटर है, जो भौगोलिक क्षेत्रफल का 9.39 प्रतिशत है जबकि खुले वन (ओएफ), 3,04,499 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हुए हैं। यह भौगोलिक क्षेत्रफल का 9.26 प्रतिशत है। जहाँ वीडीएफ और ओएफ के क्षेत्र में लगातार वृद्धि हुई है वहीं एमडीएफ सिकुड़े है। 

वरजीनिअस खाखा टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस), गुवाहाटी के पूर्व उप संचालक हैं। वे 2013 में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक, स्वास्थ्य व शैक्षणिक स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए नियुक्त समिति के अध्यक्ष थे। उनका कहना है कि रिपोर्ट में जिन क्षेत्रों को ‘वन क्षेत्र’ घोषित किया गया है, उनकी स्थिति को समझना ज़रूरी है। “इस तरह की रिपोर्टें, खनन, औद्योगिकीकरण और अन्य विकास परियोजनाओं के कारण वनों के गायब होते जाने को छुपाने का आसान तरीका हैं।” 

झारखण्ड में विरोध

मध्यम घने वन (एमडीएफ), मानव बसाहटों, विशेषकर आदिवासियों के रहवास स्थलों, के नज़दीक हैं। इस श्रेणी के वनों के क्षेत्र में कमी आई है। पिछले एक दशक के आंकड़ों से यह साफ़ है कि खुले वनों (ओएफ) के क्षेत्रफल में लगातार वृद्धि हो रहे है। इसमें व्यावसायिक बागान शामिल हैं। यह वृद्धि, एमडीएफ की कीमत पर हुई है – अर्थात उन वनों की जो मानव बसाहटों के नज़दीक हैं। इसका अर्थ यह है कि ओएफ के क्षेत्रफल में 16,679 वर्ग किलोमीटर की जो वृद्धि हुई है, वह 12, 264 वर्ग किलोमीटर एमडीएफ की कीमत पर हुई है। एमडीएफ के आसपास आदिवासियों और अन्य देशज समुदायों की बसाहटें हैं।

झारखण्ड जंगल आन्दोलन (जेजेए) से जुड़े वनाधिकार कार्यकर्ता संजय बसु मल्लिक कहते हैं, “जिसे वन क्षेत्र में वृद्धि बताया जा रहा है वह एक स्तर पर असत्य है तो दूसरे स्तर पर हमारे अनवरत संघर्ष का नतीजा है।” वे कहते हैं, “ओएफ श्रेणी में उन्होंने सागवान, यूकेलिप्टस, रबर और चाय के बागानों को शामिल कर लिया है। दूसरी ओर, एमडीएफ श्रेणी की वन भूमि का औद्योगिक इस्तेमाल के लिए बड़े पैमाने पर डायवर्सन किया जा रहा है।” 

रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2011 से एमडीएफ श्रेणी के वन लगातार विलुप्त हो रहे हैं। केवल 2017 और 2019 के बीच इनके क्षेत्रफल में 0.04 प्रतिशत की मामूली वृद्धि हुई। सन् 2011 और 2013 के बीच, इस श्रेणी के वनों के क्षेत्रफल में 0.62 प्रतिशत की और 2013 और 2015 के बीच, 1.05 प्रतिशत की कमी आई। सन 2015 और 2017 के बीच इस श्रेणी के वनों का क्षेत्रफल 2.2 प्रतिशत घटा। 

यह रिपोर्ट वनों की रक्षा और उनकी गुणवत्ता में वृद्धि में आदिवासी समुदाय की भूमिका को नज़रअंदाज़ करती है। इसके विपरीत, कई अन्य  रपटें वनों की रक्षा में आदिवासियों की भूमिका को रेखांकित करती हैं। जेजेए आदिवासियों के सहयोग को मान्यता देते हुए उनके वनाधिकार उन्हें लौटाने पर जोर देता है। जेजेए के संजय बसु मल्लिक कहते हैं, “हम लोग अपने संघर्षों के ज़रिए 542 गांवों में वनों की रक्षा करने में सफल रहे हैं। अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 (जिसे सामान्यतः वनाधिकार अधिनियम कहा जाता है) के अंतर्गत हमने 2,26,691.875 एकड़ वन भूमि पर सामुदायिक वन अधिकारों (सीएफआर) का दावा किया है। आम लोग इन वनों की रक्षा कर रहे हैं और जैव विविधता के संदर्भ में इनकी गुणवत्ता में वृद्धि हुई है। वहां वनों की कीमत पर एक ही प्रजाति के वृक्षों के बागानों का निर्माण  रोका गया है। परन्तु अब तक केवल 18 दावों को स्वीकार कर पट्टे जारी किए गए हैं। अन्य दावे या तो लंबित है या उन्हें विभिन्न बहानों से ख़ारिज कर दिया गया है। परन्तु लोगों ने वनों में अपने रहवास के स्थानों को छोड़ा नहीं है। वे वनों की देखभाल कर रहे हैं। वे न तो जंगल कटने दे रहे हैं और ना ही उद्योगों या खनन के लिए वन भूमि का डायवर्सन होने दे रहे हैं।”

क्या सीएएमपीए (कैम्पा) से कोई बदलाव आया? 

वन विभागों की भूमिका, वन संरक्षण नीतियों और आदिवासियों के वनाधिकारों पर हमले के सन्दर्भ में कई प्रश्न उठाये जा रहे हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) 1980 वनों के विनाश को रोकने में असफल सिद्ध हुआ है। दूसरी ओर, खनन और औद्योगिक परियोजनों के लिए वन भूमि के इस्तेमाल से आदिवासियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है। ‘पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा)’ और एफआरए इसलिए लागू किए गए थे ताकि आदिवासियों को उनकी भूमि से वंचित न किया जा सके और उनके समुचित पुनर्वास या उन्हें वैकल्पिक भूमि प्रदान किये बगैर सार्वजनिक और निजी उपयोगों के लिए वन भूमि का बड़े पैमाने पर अधिग्रहण न हो। परन्तु उपर्युक्त लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सके हैं। आज भी, वनों से सम्बंधित सरकारी मशीनरी, आदिवासियों  के बचे-खुचे अधिकारों और गरिमापूर्ण जीवनयापन के उनके अधिकार पर डाका डाल रही है। 

यद्यपि उच्चतम न्यायालय द्वारा क्षतिपूरक वनीकरण के लिए निर्धारित धनराशि के प्रबंधन के लिए दिशा-निर्देश जारी करने के पहले भी कुछ हद तक क्षतिपूरक वनीकरण हुआ था, परन्तु इस हेतु आवंटित धन का अधिकांश मामलों में पूरा उपयोग नहीं हो सका। सन् 2002 में उच्चतम न्यायलय ने प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (कैम्पा) गठित करने का निर्देश दिया। यह कदम आदिवासियों के हितों के विपरीत था। 

अब प्रतिपूरक वनीकरण कोष अधिनियम (सीएएफए) 2016 और उसके क्रियान्वयन के लिए नियम (2018) बना दिए गए हैं। एफसीए के अंतर्गत, प्रतिपूरक वनीकरण अनिवार्य नहीं था। के.बी. सक्सेना ने विस्तारपूर्वक  बताया है कि इन क़दमों से किस तरह वन भूमि पर अधिकार को लेकर एक ओर आदिवासियों और दूसरी ओर कॉर्पोरेट घरानों, नौकरशाही और राजनीतिज्ञों के शक्तिशाली काकस के बीच युद्ध जैसे स्थितियां बन गईं हैं। सीएएफए के अधिनियमन के बारे में वे लिखते हैं, “यह कानून उच्चतम न्यायालय के निर्देश का हवाला देते हुए जल्दबाज़ी में बनाया गया। विधायिका ने इस पर समुचित विचार नहीं किया और विपक्ष की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया गया। यह कानून पिछले किसी भी अन्य कानून की तुलना में, आदिवासियों के वनों पर अधिकार को कहीं अधिक सीमित करता है। इसके अंतर्गत, वन ग्रामों, चरनोई की भूमि और सार्वजनिक ज़मीनों पर जबरिया कब्ज़ा किया जा रहा है और आदिवासियों को सुरक्षित वनों से जबरदस्ती खदेड़ा जा रहा है।” 

सीएएफए 2016 घोषित रूप से इसलिए बनाया गया था ताकि वन भूमि के अन्य उपयोगो के लिए डायवर्सन के बदले प्रतिपूरक वनीकरण करने के लिए वन विभागों के पास जमा धन का सदुपयोग किया जा सके। परन्तु इस अधिनियम की भूमिका में प्रतिपूरक वनीकरण से कहीं आगे जाकर वनों के संरक्षण, अधोसंरचना विकास, वन्यजीवों की रक्षा, कृत्रिम पुनर्जनन (बागान) और प्राकृतिक पुनर्जनन के लिए प्रतिपूरक वनीकरण कोष के इस्तेमाल के बात कही गयी है। वनाधिकार कार्यकर्ता तुषार दास कहते हैं, “सीएएफए में योजना बनाने, उसके क्रियान्वयन, पर्यवेक्षण और मूल्यांकन में आदिवासियों की कोई भूमिका नहीं है। विभाग का तर्क है कि आदिवासी तो वनों के लिए खतरा हैं। इससे बड़ा झूठ कोई हो नहीं सकता।”

वन भूमि का डायवर्सन 

सीएएफए वन भूमि के डायवर्सन की बात करता है जबकि कैम्पा का उद्देश्य इससे होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति करना है। भारत में आज वन भूमि के बारे में झूठे आकंडे प्रसारित किये जा रहे हैं और आदिवासियों के विस्थापन का खतरा बढ़ता जा रहा है। मल्लिक के अनुसार, “केवल 2018 में मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, 26,000 एकड़ वन भूमि का डायवर्सन गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए किया गया।” 

इंडिया स्टेट ऑफ़ फारेस्ट रिपोर्ट 2019, असली और सच्ची कहानी नहीं बताती। दास के अनुसार, “इस रिपोर्ट में साफ़ तौर पर यह नहीं बताया गया है कि औद्योगिक, खनन और अन्य परियोजनाओं के लिए कितनी वन भूमि का डायवर्सन किया गया। बागानों से जैव विविधता को तो क्षति पहुँचती ही है, वे धारणीय नहीं होते और पारिस्थितिकी के लिए घातक होते हैं। वे आदिवासियों के जीवनयापन, भोजन और पोषण के लिए नुकसानदेह होते हैं। इस मिथ्या प्रचार का उद्देश्य वन प्रबंधन के क्षेत्र में एक नए विमर्श की शुरुआत करना है।” 

यूपीए सरकार में पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश, वन भूमि के डायवर्सन के पक्ष में नहीं थे और तत्समय उनके मंत्रालय ने मैनपाट (छत्तीसगढ़) और नियमगिरि (ओड़िशा) में वन भूमि का डायवर्सन करने का वेंदाता रीसोर्सेज नामक कम्पनी का आवेदन निरस्त कर दिया था।

नियमगिरी के आदिवासी

सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि कैम्पा, वनाच्छादित क्षेत्र को सुरक्षित रखने और प्रतिपूरक वनीकरण को जारी रखने का व्यवहारिक तरीका प्रस्तुत करता है। परन्तु ऐसा है नहीं। इसके कारण आदिवासी और अन्य मूल निवासी समुदाय प्रताड़ित हो रहे हैं। वे दो बार प्रताड़ित होते हैं – पहली बार तब जब विकास परियोजनाओं के नाम पर उन्हें उनकी ज़मीनों से बेदखल कर दिया जाता है और दूसरी बार तब जब डायवर्सन की प्रतिपूर्ति के लिए उनकी ज़मीनों पर बागान बना दिए जाते हैं।  

प्रतिपूरक वनीकरण के भूमि और वन अधिकारों पर प्रभाव पर एक अध्ययन से पता चलता है कि केवल चार राज्यों – छत्तीसगढ़, ओड़िशा, झारखण्ड और महाराष्ट्र – को सरकारी एजेंसियों और निजी कम्पनियों से प्रतिपूरक वनीकरण कोष हेतु 42,000 करोड़ रुपये प्राप्त हुए।  इस कोष का उपयोग कैम्पा द्वारा किया जा रहा है। रिपो्र्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि किस प्रकार बागान और औद्योगिक प्रयोग के लिए लैंड बैंक बनाकर और पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में ग्रामसभाओं के अधिकारों की अवहेलना कर आदिवासियों के सामुदायिक वनाधिकारों को चोट पहुंचाई जा रही है। 

आदिवासी-बहुसंख्यक गांवों की ग्राम सभाओं से बागान बनाने के लिए सहमति नहीं ली जाती फिर चाहे वे क्षेत्र की जैव विविधता के लिए खतरा ही क्यों न हों और आदिवासियों व अन्य मूल निवासी समुदायों, महिलाओं और विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (पीवीटीजी) के जीवनयापन और पोषण पर विपरीत प्रभाव क्यों न डालते हों। नतीजा यह है कि प्रतिपूरक वनीकरण के नाम पर भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन का बोलबाला है और वन भूमि को लेकर टकराव बढ़ रहा है।   

लैंड कनफ्लिक्ट वाच ने भारत में वनीकरण के मुद्दे पर 44 स्थानों पर चल रहे संघर्षों का दस्तावेजीकरण किया है। इन संघर्षों में 51,000 व्यक्ति शामिल हैं और विवादग्रस्त भूमि 1,14,000 हेक्टेयर है। ई-ग्रीन वाच ने 1980 से 2016 के बीच 15,10,146 हेक्टेयर वन भूमि का गैर-वानिकी उपयोगों के लिए डायवर्सन का दस्तावेजीकरण किया है। इसमें से 46 प्रतिशत (7,02,551 हेक्टेयर) भूमि का डायवर्सन 2006-2016 की दस वर्षों में किया गया।

गैर-वानिकी उद्देश्यों से डाइवर्ट की गयी वन भूमि

 1980-2016  (हेक्टेयर में)2006-16 (हेक्टेयर में)प्रतिशत
भारत1,510,146702,55146
छत्तीसगढ़50,13830,49461
झारखण्ड37,17623,70764
ओड़िशा72,27530,66742
महाराष्ट्र37,75316,60744
राजस्थान41,40620,87050

स्रोत : ई-ग्रीन वाच 

लीगल इनिशिएटिव फॉर फारेस्ट एंड एनवायरनमेंट (लाइफ) द्वारा किये गए एक अध्ययन में जनवरी से जून 2019 के बीच वन भूमि के डायवर्सन का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन से पता चलता है कि इस अवधि में 9,220.64 हेक्टेयर (लगभग 100 वर्ग किलोमीटर) वन भूमि के गैर-वानिकी उपयोगों जैसे खनन, सड़क निर्माण, रेल लाइनों को बिछाने व जल विद्युत संयंत्रों और ढांचागत परियोजनाओं के निर्माण के लिए डायवर्सन करने की सिफारिश की गयी। इसमें से 43 प्रतिशत भूमि ऐसे इलाकों में थी जहाँ वन्यजीव वास करते थे। ज़मीन के डायवर्सन के जो 240 प्रस्ताव प्रस्तुत किये गए, उनमें से केवल सात को ख़ारिज किया। मात्र 1.01 प्रतिशत वन भूमि से सम्बंधित प्रस्ताव स्वीकार नहीं किए गए। जिस वन भूमि के डायवर्सन के सिफारिश की गयी, उसमें से 53.66 प्रतिशत सड़कों, रेलवे लाइनों, विद्युत आपूर्ति लाइनों और पाइपलाइनों के लिए मांगी गयी थी। यह महत्वपूर्ण है जिस वन भूमि के डायवर्सन की सिफारिश की गयी, उसमें से 59.16 प्रतिशत, एमडीएफ और वीडीएफ क्षेत्रों में थी। 

भारत सरकार की वन नीति की कई आधारों पर आलोचना की जा सकती है। एक ओर, कार्बन उत्सर्जन कम करने की देश की प्रतिबद्धता के सन्दर्भ में वैश्विक समुदाय को गलत जानकारी दी जा  रही है तो दूसरी ओर बागानों और निजी वनों को वनाच्छादित क्षेत्र के रूप में दिखाया जा रहा है। सीएएफए के चलते, जिसे वन क्षेत्र में वृद्धि बताया जा रहा है वह, दरअसल, आदिवासियों व अन्य मूल निवासी समुदायों के सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक जनजीवन पर विपरीत प्रभाव डाल रही है और जैव विविधता और वन्य जीवों को नुकसान पंहुचा रही है। यह समुदाय-आधारित वन प्रबंधन प्रणाली की आत्मा का हनन है। 

खाखा  कहते हैं, “सामुदायिक भूमि को वन भूमि के रूप में दिखाने के कई तरीके हैं। भूमि के किसी भी टुकड़े को पहले लैंड बैंक में शामिल कर लिया जाता है और फिर उसे खनन या औद्योगिक उद्देश्यों के लिए हस्तांतरित कर दिया जाता है। खनन और औद्योगिकीकरण से वनों का नाश होता है, जिसकी प्रतिपूर्ति वनीकरण के जरिए करने की बात कही जाती है। तथ्य यह है कि वास्तविक वन सिकुड़ रहे हैं। कृत्रिम बागान, जिनमें एक ही प्रजाति के वृक्ष होते हैं, कभी वनों का स्थान नहीं ले सकते। ऐसा सोचना भी गलत है। इस सबसे आदिवासियों और वन विभाग सहित अन्य शासकीय विभागों के बीच संघर्ष और गहरा हो रहा है।”

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, कॉपी : संपादन-सिद्धार्थ)

लेखक के बारे में

गोल्डी एम जार्ज

गोल्डी एम. जॉर्ज फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक रहे है. वे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी हैं और लम्बे समय से अंग्रेजी और हिंदी में समाचारपत्रों और वेबसाइटों में लेखन करते रहे हैं. लगभग तीन दशकों से वे ज़मीनी दलित और आदिवासी आंदोलनों से जुड़े रहे हैं

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