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जानें, कौन थे डॉ. मोतीरावण कंगाली, जिन्होंने दुनिया को बताया कोया पुनेम का राज

डॉ. कंगाली ने अपना पूरा जीवन कोया पुनेम दर्शन की खोज और इसका लेखन करने में लगाया। आज उन्हीं के प्रयासों से भारत के पूरे कोइतूर समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना का एक नया तूफान उठ खड़ा हुआ है। बता रहे हैं संजय श्रमण जोठे

डॉ. मोतीरावण कंगाली जयंती विशेष (2 फरवरी, 1949 – 30 अक्टूबर, 2015)

भारत की धरती पर कई महानायकों ने जन्म लिया है। कुछ नायकों को समय और साहित्य ने अपने पन्नों पर स्थान देकर अमर कर दिया है और कई ऐसे हैं जो समय और साहित्य की राजनीति की धुंध में कहीं खो गए हैं। प्राचीन भारत में ऐसे कई महानायक हुए हैं, जिनकी यश-गाथा का अब हमें कोई अनुमान भी नहीं मिलता। ऐसे ही एक नाम है डॉ. मोतीरावण कंगाली का। उन्होंने बड़े चुनौतियों को पारकर गोंड समुदाय की संस्कृति, परंपराओं और इतिहास संबंधी तथ्यों को खोजा और ब्राह्मणवादी द्विज अवधारणाओं को खारिज किया। ऐसी मान्यताएं हैं कि गोंड समुदाय भारत के प्राचीनतम सभ्यता के वाहक है।

कौन थे डॉ. मोतीरावण कंगाली?

सन् 2 फरवरी, 1949 को महाराष्ट्र के विदर्भ जिले के रामटेक तहसील के दुलारा गाँव में मोतीरावण कंगाली का जन्म हुआ था। इनके पिता तिरुमाल छतिराम और माता दाई रायतार ने बड़े कष्ट उठाकर इनका लालन पालन किया और उन्हें उच्च शिक्षा हासिल करने की प्रेरणा दी थी। कंगाली ने अपने अध्ययन के दौरान इस बात को बहुत बारीकी से अनुभव किया कि उनकी अपनी महान कोया पुनेमी धार्मिक परंपरा के बारे मेंं लोगों को जानकारी नहीं है। न केवल तथाकथित मुख्य धारा में बल्कि खुद गोंड-कोइतूर समाज में अपने महान कोया पुनेम दर्शन के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। डॉ. कंगाली इस बात से बहुत चिंतित हुए और उन्होंने संकल्प लिया कि वे भारत के इस मूलवासी समुदाय अर्थात कोइतूर समाज के महान धर्म का वास्तविक स्वरूप दुनिया के सामने लाएंगे।

नागपुर स्थित घर में डॉ. मोतीरावण कंगाली की आवक्ष प्रतिमा

इसी संकल्प को अपने दिल में संभाले जीवन भर उन्होंने अपने महान कोया पुनेम दर्शन और महान कोइतूर संस्कृति पर गहन अध्ययन किया और एक विशाल साहित्य की रचना की। इस पृथक साहित्य को गहराई से देखने पर समझ में आता है कि महान कोया पुनेम दर्शन कितना उन्नत और कितना वैज्ञानिक है, जो समय की धुंध में कहीं खो गया था। अपनी इन रचनाओं और लेखन, भाषण के जरिए उन्होंने कोया पुनेम दर्शन की वास्तविकता को अपने लोगों के सामने रखा है। कोइतूर समुदाय की मौखिक परंपराओं से अनेक गीतों और लोक-कथाओं को लिपिबद्ध करते हुए उन्होंने इनका सरल हिन्दी और मराठी में अनुवाद भी किया। इसके अनुवाद के साथ साथ उन्होंने इन गीतों और परंपराओं में छुपे धर्मसूत्रों का व्याख्यान किया है। इसके अलावा कली कंकाली (कंगाली, 2011 बी), डोंगरगढ़ की बमलाई दाई बमलेश्वरी (कंगाली, 1983), बस्तर की दँतेवाड़ीन वेनदाई दंतेश्वरी (कंगाली, 2011ए) आदि से जुड़ी बहुत सारी धार्मिक एवं लोक मानस में प्रचलित आख्यानों का संकलन उन्होंने किया है।

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तिरोहित कोया पुनेम के इतिहास का खोज

कंगाली ने कई वर्षो तक ने गोंड समुदाय से जुड़े अनेक जानकारी को संग्रहित किया। संग्रहित तथ्यों के आधार पर कंगाली ने सबसे पहले यह सिद्ध किया कि मध्य भारत सहित दक्षिण भारत में आज भी जो गोंड, कोरकू, हलबा, बैगा, उरांव, मुंडा आदि जनजातियां हैं, वे असल में एक साझे कोया पुनेम के वारिस हैं। अलग-अलग भाषाओं और उनके शब्दों के तुलनात्मक विश्लेषण के आधार पर उन्होंने इन सभी जनजातीय समुदायों को कोइतूर नाम देते हुए इनके बीच आपस में एक अनिवार्य धार्मिक और सांस्कृतिक एकता को सूत्रपात किया। 

कंगाली के लेखन में कोया पुनेम और पारी कुपार लिंगो सहित संभू सेक और कोयामुरी द्वीप का उल्लेख बार-बार आता है। वे बताते हैं कि प्राचीन भारत मेंं सर्वप्रथम जब महान कोइतूरों का शासन था, तब यहाँ कोया पुनेम दर्शन का पालन किया जाता था। कोया पुनेम धर्म को मानने वाले इन शासकों का देश का नाम कोया मूरी द्वीप या सिंगार द्वीप था (कंगाली, 2011)। इस कोया पुनेम दर्शन के सबसे महत्वपूर्ण धर्मगुरु पारी कुपार लिंगो थे, जिन्होंने इस धर्म की स्थापना प्रकृति और मनुष्य के बीच आपसी संतुलन के रिश्ते को ध्यान में रखते हुए की थी। संभू सेक इस प्राचीन भारत अर्थात कोयामूरी द्वीप में महान कोया पुनेम धर्म को संरक्षण और उसका प्रसार करने वाले शासक थे। ऐसे 88 संभू सेक हुए हैं, जिनकी एक बहुत लंबी परंपरा रही थी। यह धर्म प्रकृति से मानव के संबंध और मानव से मानव के संबंधों के वैज्ञानिक आधार पर निर्मित पहला और सबसे विराट धर्म था (कंगाली, 1994)। 

कंगाली बताते हैं कि चूंकि इस धर्म का जन्म प्रकृति की गोद में हुआ है, इसीलिए इस धर्म में प्रकृति और मनुष्य सहित मानव समाज के विभिन्न आयामों के बीच एक वैज्ञानिक तालमेल की व्यवस्था है। महान धर्मगुरु पारी कुपार लिंगो द्वारा दिया गया यह कोया पुनेम दर्शन भारत के सभी इंडिजिनस अर्थात कोइतूर समुदाय का धर्म है। इस धर्म में मनुष्य, पेड़ पौधे और अन्य जीव जंतुओं के सह-अस्तित्व को कुलचिन्ह (टोटम) की त्रिमूर्ति के रूप में चित्रित किया गया है। कोया पुनेम की व्यवस्था में प्रत्येक कोइतूर गोत्र को अपने टोटेमीक चिन्ह के रूप में एक पशु, एक पक्षी और एक पेड़ को देने की व्यवस्था है। इन गोत्रों के लोग इन तीन टोटेमीक पशुओं, पक्षियों और पेड़ों की आजीवन रक्षा करते हैं। 

इस वैज्ञानिक व्यवस्था में आगे जाकर मनुष्य-मनुष्य के बीच में एक खास किस्म का कार्य विभाजन और गोत्र एवं विवाह सहित रिश्ते-नाते की व्यवस्था दी गयी है। मनुष्य जीवन और समाज में जितने भी संभव रिश्ते और नाते हैं, उनके सभी प्रकारों का उल्लेख इस महान धर्म में पाया जाता है और इन रिश्ते-नातों को वैज्ञानिक रूप से बनाने और चलाने की एक बहुत विकसित व्यवस्था इस धर्म में पाई जाती है। गाँव बसाने की प्रणाली, जन्म के संस्कार, मृत्यु के संस्कार, घर बनाने के संस्कार, शिक्षा और प्रशिक्षण सहित वैवाहिक जीवन के लिए सही तैयारी की व्यवस्था, परिवार और नगर सहित राज्य के संचालन के नियम इत्यादि इस धर्म में समाहित हैं। प्राचीन भारत में इन सब बातों के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए महान गोटुल व्यवस्था का पूरे विस्तार से निर्माण किया गया था। यह एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसमें मनुष्य के शिकारी जीवन से कृषि जीवन और आगे नगरीय जीवन की व्यवस्था एक साथ नजर आती है (कंगाली, 1994)। 

डॉ. कंगाली ने अपना पूरा जीवन इस महान धर्म की खोज और इसका लेखन करने में लगाया। आज उन्हीं के प्रयासों से भारत के पूरे कोइतूर समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना का एक नया तूफान उठ खड़ा हुआ है। इन्ही कारणों से आज भारत के कोइतूर समाज में एक नए किस्म की धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना का जन्म हो रहा है जो इस समाज की तकदीर को निर्णायक रूप से बदल देने वाली है। इस लिहाज से अभी तक कोइतूर समुदायों पर जितने भी समाजशास्त्रीय या मानवशास्त्रीय अध्ययन हुए हैं, वे सब अधूरे हैं। ये सभी अध्ययन इस तरह से हुए हैं जैसे कि कोई सभ्य समाज का व्यक्ति किसी असभ्य या जंगली लोगों का अध्ययन कर रहा हो। यह पूरी बात ही अपमानजनक है। इन अध्ययनों में जिन प्रणालियों का उपयोग किया गया है और जिस तरह के नेरेटिव का निर्माण किया गया है, वे यह बताते हैं कि कोइतूर समुदाय पहला मूल एवं सभ्य धर्म है, जिसका अपना कोई धर्म या संस्कृति नहीं है। इसे एक अन्य स्तर पर देखा जाए तो यह अकादमिक दुनिया की एक उपेक्षापूर्ण राजनीति है (हेंड्री एंड फिजनॉर, 2012) जिसमें तथाकथित “सभ्य” समाज के लोग तथाकथित “आदिम समुदायों” का अध्ययन करके उन्हें बाहर से समझने का प्रयास करते हैं और फिर उन्हें “मुख्य-धारा” में लाने के लिए मदद करते हैं।

द्विजों की राजनीति का भंडाफोड़

कंगाली द्विजों की राजनीति को अच्छे से समझते थे। उनके लेखन में और उनके भाषणों में यह बात बार-बार आती है कि कोइतूर समाज और कोया पुनेम कोई पिछड़ा समुदाय या धर्म नहीं हैं। वे सिद्ध करते हैं कि कोया पुनेम और कोइतूर समुदाय बहुत विकसित रचनाएं हैं। आज हम जिसे सभ्यता और नैतिकता कहते हैं वह कोया पुनेम और कोइतूर समुदाय की जीवन और धर्म व्यवस्था में बहुत विकसित रूप में हजारों साल पहले से ही समाहित थी। स्त्री-पुरुष के संबंधों में, प्रकृति और मानव के संबंधों में, जंगल और गाँव के संबंधों में और गाँव से नगर के संबंधों में जिस तरह की वैज्ञानिक व्यवस्था या परस्पर निर्भरता की आवश्यकता होती है, उसका पूरा विस्तार इस महान धर्म द्वारा सबसे पहले दिया गया है। इसी कारण कंगाली के अध्ययन में जो कोया पुनेम और जो कोइतूर संस्कृति उभरती है, वह एकदम अलग है। इस नई खोज से यह पता चलता है कि बाहर से आने वाले अध्येताओं ने जो अध्ययन किया है और एक इनसाइडर के रूप में डॉ. कंगाली ने जो अध्ययन किया है, वह गुणात्मक रूप से भिन्न है। 

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उनके अध्ययन और लेखन में कोया पुनेम और कोइतूर समाज व्यवस्था का एक वैज्ञानिक और विकसित रूप सामने आता है। वहीं दूसरों के अध्ययन में कोइतूर समाज एक गरीब पिछडे, अंधविश्वासी और आधुनिकता से मुंह छुपाने वाले के रूप में सामने आता है। किसी समुदाय को इस तरह पिछड़े और आधुनिकता के विरोधी समाज के रूप में पेश करने के कुछ ठोस कारण रहे हैं। ऐसा एक खास कारण से किया जाता है। पहले समजशास्त्रीय या मानवशास्त्रीय अध्ययन द्वारा किसी समाज को पिछड़ा और अंधविश्वासी घोषित किया जाता है फिर उसे आधुनिकता सिखाकर “मुख्य-धारा” में लाने के लिए दूसरे धर्म और विचारधाराएं उनपर थोपी जाती हैं (सटॉन, 2019)।

कंगाली अपने कठिन परिश्रम और महान प्रतिभा के जरिए इस निष्कर्ष तक आ चुके थे। उन्होंने देख लिया था कि शोषण, दमन, अत्याचार और पिछड़ेपन पर बना समाज व्यवस्था कभी तरक्की नहीं कर सकते हैं। इसीलिए उन्होंने व्यर्थ के रोने-धोने वाले साहित्य की रचना नहीं की, बल्कि उस साहित्य की रचना की जिसके जरिए अपने लोगों में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास का निर्माण किया जा सके। यह उनका एक गजब का निर्णय था जिसका परिणाम आज हमारे सामने आ रहा है। अपने पूर्वजों के साथ हुए शोषण और अत्याचार की बात करने से हम अतीत में ही उलझे रहते हैं, इसके विपरीत अगर हम अपने अतीत की महानता को उजागर करें तो वह हमारे भविष्य की महानता की तरफ हमेंं ले जाता है। यह बात हम बाबा साहब आंबेडकर के लेखन में भी पाते हैं। बाबा साहब के पहले, प्राचीन समाज में भारत के वास्तविक निवासियों के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। इस गैप को पूरा करने के लिए आंबेडकर (आंबेडकर, 1970) सबसे पहले अतीत की खोज करते हैं और शूद्रों की खोज और जाति व्यवस्था की उत्पत्ति को समझाने के बाद सीधे भविष्य के निर्माण के लिए प्राचीन बौद्ध भारत की यश गाथा का लेखन करते हैं।

कंगाली के लेखन मेंं हमेंं ठीक इसी रणनीतिक समझ के प्रमाण मिलते हैं। उन्होंने पहले प्राचीन कोयामुरी द्वीप में सामाजिक और सांस्कृतिक रचनाओं के जन्म पर शोध कार्य किया और इसके तुरंत बाद वे भी महान कोया पुनेम दर्शन की पूरी महिमा को भविष्य के लिए उजागर कर देते हैं। दुर्योंगवश डॉ. कंगाली 66 साल की उम्र में 30 अक्टूबर, 2015 को अपना महान मिशन नई पीढ़ी को सौंपकर चले गए। 

संदर्भ : 

  1. अंबेडकर, बी.  आर. 2018. रिवोल्यूशन एंड काउंटर रिवोल्यूशन इन एनशिएन्ट इंडिया, अमेजॉन डिजिटल सर्विसेस LLC-KDP प्रिन्ट यूनाइटेड स्टेटस 
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  8. ———. 2011a. बस्तर की दंतेवादिन वेनदाई दंतेश्वरी (हिन्दी), प्रथम संस्करण.   नागपूर: तिरुमाय चंद्रलेखा कंगाली.
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(संपादन : नवल/गोल्डी)

(आलेख परिवर्द्धित : 19 फरवरी, 2020 12:25 PM)

लेखक के बारे में

संजय श्रमण जोठे

संजय श्रमण जोठे एक स्वतंत्र लेखक और शोधकर्ता हैं,। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीस से अंतरराष्ट्रीय विकास में MA हैं और वर्तमान में TISS मुम्बई से पीएचडी कर रहे हैं। इसके अलावा सामाजिक विकास के मुद्दों पर पिछले 15 वर्षों से विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत रहे हैं।जोतीराव फुले पर इनकी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है और एक अन्य किताब प्रकाशनाधीन है। साथ ही, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व वेब-पोर्टलों के लिए लेखन में सक्रिय हैं

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