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165 साल पहले ‘मांग- महारों का दुख’, पहली दलित महिला लेखिका की कलम से

पढ़ें, भारत की पहली दलित महिला लेखिका मुक्ता सालवे का ऐतिहासिक लेख। यह लेख उन्होंने तब लिखा जब वह महज 14 वर्ष की थीं और सावित्रीबाई फुले-जोतीराव फुले की पाठशाला की छात्रा थीं।

[भारत के शूद्रोंअतिशूद्रों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कारण कितने दुख सहे हैं, किस प्रकार पशुवत जीने को मजबूर किए गए, इन सबका उल्लेख जोतीराव फुले से लेकर डॉ. आंबेडकर आदि ने खुलकर किया है। लेकिन एक 14 वर्षीय दलित लड़की इन उत्पीड़नों को किस रूप में देखती थी और उसके अंदर किस तरह का आक्रोश उत्पन्न हुआ, इसकी मुखर अभिव्यक्ति पहली दलित महिला लेखिका मुक्ता सालवे के निबंधमांगमहारों का दुखशीर्षक निबंध में हुआ  है, जो 165 वर्ष पहले मराठी पत्रिका ज्ञानोदय मेंमंग महाराच्या दुखविसाईशीर्षक से दो भागों में प्रकाशित हुआ था। पहला भाग 15 फरवरी, 1855 को तथा दूसरा भाग 1 मार्च,1855 को प्रकाशित हुआ। इस विशेष अवसर पर पढ़ें, मूल लेख का हिंदी अनुवाद, जिसे हम त्रैमासिक पत्रिकास्त्रीकालसे साभार प्रकाशित कर रहे हैं]

मूल निबंध का हिंदी अनुवाद : मांग महारों का दुख

  • मुक्ता सालवे

ईश्वर ने मुझ जैसी दीन-दुर्बल के अंतःकरण में हम दुर्दैवी, पशु से भी नीच माने गए दरिद्र मांग-महारों के दुःखों के विषय में वेदना भरी हैं। उस परमपिता परमेश्वर का चिंतन करते हुए मैंने इस निबंध के विषय में अपनी शक्तिनुसार इस विषय पर लिखने का काम अपने हाथों लिया हैं। परंतु बुद्धिदाता और इस निबंध को फल देने वाले मांग, महार और ब्राह्मणों के उत्पन्नकर्ता वे एकमात्र जगन्नाथ हैं।

2. महाराज, वेदों को आधार बनाकर हमारा द्वेष करनेवाले इन लोगों के मतों का खंडन करने पर हमसे ऊँचे माने जानेवाले ये लड्डूखोर पेटू ब्राह्मण लोग कहते हैं कि वेद सिर्फ हमारी बपौती हैं जिसे सिर्फ हम ही देख सकते हैं। इस बात को देखने से स्पष्ट हो जाता हैं कि हम अछूत लोगों की कोई धर्म पुस्तक नहीं हैं। वेद ब्राह्मणों के लिए हैं। वेदों के अनुरूप जीवन जीना ब्राह्मणों का धर्म हैं। इन धर्म पुस्तकों को देखने मात्र की छूट भी हमें नहीं हैं तब यह साफ़ हो जाता हैं कि हम धर्मरहित हैं। ब्राह्मणों के मतानुसार वेदों को हमारे द्वारा पढ़े जाने पर महापातक घटित होता हैं फिर उसके अनुसार आचरण किए जाने पर तो हमारे पास कितने दोष पैदा हो जाएँगे? मुसलमान लोग कुरआन को, अंग्रेज लोग बाइबिल को और ब्राह्मण लोग वेदों को आधार बनाकर चलते हैं, इसलिए वे अपने-अपने सच्चे-झूठे धर्म के नाते हमसे कुछ कम-अधिक सुखी हैं, ऐसा लगता हैं। तब हे भगवान, तेरी ओर से आया हुआ ऐसा कौन सा धर्म हैं हमें बता यानी हम सब उसकी रीति से अनुभव लेंगे। लेकिन जिस धर्म का केवल किसी एक ने अनुभव लेना और बाकी के पेटू लोगों के मुहँ तांकते रहने वाले जैसे दूसरे धर्म इस पृथ्वी से नष्ट हो जाए। बल्कि इन जैसे धर्म के अभिमान का लेश मात्र भी हमारे मन में कभी न आए।

मुक्ता सालवे

3. उदक[1] ईश्वर की देन हैं। उसका उपभोग गरीब से लेकर अमीरों तक एक समान सभी कर सकते हैं। परंतु कहा जाए कि वेद यदि देवों की ओर से आए हुए हैं तब उनका अनुभव ईश्वर से उत्पन्न हुए मनुष्य भला क्यों नहीं कर सकते। हैं ना यह आश्चर्य की बात! इस विषय में बोलने पर भी शर्म महसूस होती हैं। देखिए, एक पिता से चार पुत्रों का जन्म हुआ। सभी के धर्मशास्त्रों का ऐसा सुझाव हैं कि उस पिता की संपत्ति को चारों में एक समान बाँट दिया जाए।| लेकिन किसी एक को ही यह संपत्ति मिले और बाकी बचे हुए लोग पशुवत अपनी बुद्धि और चातुर्य के उपयोग के बिना ही अपना जीवन जीते रहें, यह सबसे बड़ी अन्याय की बात है। अब जिन वेदों के योग पर ईश्वर के विषय में और मनुष्यों के विषय में कैसा बर्ताव किया जाए और शास्त्र, और कला-कौशल के योग से अपने जीवन के क्रम को उत्तम रीति से इस जगत में जिए जानेवाली इस प्रणाली को हमसे दबावपूर्वक छीन बैठना, कितना बड़ा क्रूर कर्म हैं?

4. लेकिन इतना ही नहीं, हम महार-मांग लोगों को हांककर इन लोगों ने बड़ी-बड़ी इमारतें बना लीं और उसमें बैठ गए हैं। और इन इमारतों की नींव में हमें तेल पिलाकर और सिंदूर लगाकर दफन करते हुए हमारे वंश के नाश करने का क्रम भी चलाया है इन लोगों ने।

15 फरवरी, 1855 को ज्ञानोदय में मुक्ता सालवे के प्रकाशित लेख की छायाप्रति

सुनो, बता रही हूँ कि हम मनुष्यों को गाय भैंसों से भी नीच माना हैं इन लोगों ने। जिस समय बाजीराव का राज्य था उस समय हमें गधों के बराबर ही माना जाता था। आप देखिए, लंगड़े गधे को भी मारने पर उसका मालिक भी आपकी ऐसी-तैसी किए बिना नहीं रहेगा, लेकिन मांग-महारों को मत मारो, ऐसा कहने वाला भला एक भी नहीं था। उस समय मांग या महार गलती से भी तालीमखाने के सामने से यदि गुजर जाए तो गुल-पहाड़ी के मैदान में उनके सिर को काटकर उसकी गेंद बनाकर और तलवार से बल्ला बनाकर खेल खेला जाता था। जब ऐसे पवित्र राजा के द्वार से गुजरने कि भी पाबंदी हो तब विद्या अध्ययन की आजादी भला कैसे मिलेगी? कदाचित किसी मांग-महार ने पढ़ना सीख भी लिया और यह बात बाजीराव को पता चल जाए तो वह कहता तुम महारमांग होकर भी पढ़ने लगे हो, तब क्या ब्राह्मणों के दफ्तर का काम तुम्हें सौप दिया जाय और ये ब्राह्मण क्या बगल में थैला दबाए विधवा स्त्रियों की हजामत बनाते फिरें?” ऐसा फरमान देकर वह उन्हें दण्डित करता था।

5. दूसरी बात यह कि लिखाई-पढ़ाई की पाबंदी मात्र से इनका समाधान नहीं हुआ। बाजीराव साहब तो काशी में जाकर धूल-मिट्टी में तद्रूप हो गए, लेकिन उनके सहवास के गुणों से यहाँ का महार भी मांग जाति की छाँव पड़ जाने की छूत से दूर रहने की कोशिश कर रहा है। सोवळे[2] अंगवस्त्र को परिधान कर नाचने वाले इन लोगों का हेतु मात्र इतना ही हैं कि अन्य लोगों से पवित्र एकमात्र वे हैं। ऐसा मानकर वे चरम सुख की अनुभूति भी करते हैं, लेकिन वही हमसे बरती जानेवाली छुआछुत से हमपर बरसने वाले दुखों से इन निर्दय लोगों के अंतःकरण भी नहीं पिघलते। इस अस्पृश्यता के कारण हमें नौकरी करने पर भी पाबंदी लगी हुई हैं। नौकरी की इस बंदी से हम धन भी भला कहाँ कमा पाएँगे? इससे यह खुलासा भी होता हैं कि हमारा दमन और शोषण चरम तक किया जाता हैं। पंडितों, तुम्हारें स्वार्थी, और पेटभरु पांडित्य को एक कोने में गठरी बांधकर धर दो और जो मैं कह रही हूँ, उसे कान खोलकर ध्यान से सुनो। जिस समय हमारी स्त्रियाँ जचकी हो रही होती है, उस समय उन्हें छत भी नसीब नहीं होती, इसीलिए उन्हें धुप, बरसात और शीत लहर के उपद्रव से होनेवाले दुःख तकलीफों का अहसास खुद के अनुभवों से जरा करके देखो। यदि ऐसे में उन्हें जचकी से जुड़ा कोई रोग हो जाए तब उसकी दवा और वैद्य के लिए पैसा कहाँ से आएगा! आप लोगों में ऐसा कौन-सा संभावित वैद्य था, जिसने लोगों का इलाज भी किया हों और मुफ्त में दवाएँ भी बाँटी हो?

15 फरवरी, 1855 को प्रकााशित ज्ञानोदय पत्रिका का मास्ट हेड

6. ब्राहमणों के लड़के पत्थर मारकर जब किसी मांग-महार के बच्चों का सिर फोड़ देते हैं तब भी ये मांग-महार सरकार में शिकायत लेकर नहीं जाते, क्योंकि उनका कहना हैं कि उन्हें जूठन उठाने के लिए इन्हीं लोगों के घूरे पर जाना पड़ता हैं। हाय हाय, हे भगवान, यह दुःखों का हिमालय! इस जुल्म की दास्ताँ को विस्तार से लिखूं तो रोना आता हैं। इसी कारण भगवान ने हमपर कृपा करते हुए दयालु अंग्रेज सरकार को यहाँ भेज दिया, जिस कारण हमारे दुःखों का निवारण शुरू हो गया हैं, जिसे अनुक्रम से आगे भी लिखती रहूंगी।

दूसरा भाग : ज्ञानोदय, मुंबई, 1 मार्च सन 1855, पुस्तक-14, अंक- 5

वीरता दिखाऊंगा और घर में चूहा मारनेवाले ऐसे गोखले, आपटे, त्रिमकजी, आंधळा, पानसरा, काळे, बेहरे इत्यादि लोगों ने निरर्थक ही मांग-महारों पर चढ़ाई करते हुए अपने कुँए भर रहे थे, उनपर और गर्भवती औरतों पर किए जानेवाले शारीरिक अत्याचार पर भी बंदी आयी। पुणे प्रांत में मांग महारों के कल्याणकारी दयालू बाजीराव महाराज के राज्य में ऐसी अंधेड़गर्दी थी कि जिसके भी मन जब आए तब वह मांग महारों पर किसी आसमानी तूफान और  टिड्डीदल की तरह सिपाही टूट पड़ते और जुल्म करते थे, वह भी बंद हुआ। किले की नींव में दफना दिए जाने की प्रथा भी बंद हुई। हमारा वंश भी बढ़ रहा है। मांग महारों में यदि कोई बढ़िया से पहन-ओढ़कर चलता था तब भी इनकी आँखों फूटे नहीं सुहाता। “ये तो चोरी का है, ये इसने चुराया होगा”। ऐसा बढ़िया ओढ़ना तो सिर्फ ब्राह्मण ही ओढ़ सकते हैं। यदि मांग महार ओढ़ लेंगे तो धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, ऐसा कहकर वे उसे खंबे से बाँधकर पीटते थे, लेकिन अब अंग्रेजी राज में जिसके पास भी पैसा होगा, वह खरीदेगा। ऊँचे वर्ण के लोगों द्वारा किए गए अपराध का दंड मांग और महारों के सिर मढ़ दिया जाता था, वह भी बंद हुआ। जुल्म से भरी बेगारी को भी बंद किया गया। कहीं-कहीं पर छू जाने स्पर्श हो जाने का खुलापन [छूआछूत में कमी] भी आया हैं |

अब इस निष्पक्षपाती दयालु अंग्रेज सरकार के राज्य बन जाने से एक ऐसी चमत्कारिक बात हुई है, जिसे लिखते हुए मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। वह यह कि जो ब्राह्मण पहले उपर कही गयी बातों के अनुसार हमें दुःख दे रहे थे, आज वही स्वदेशीयप्रियमित्रबंधु हमें इन दुःखों से उबारने में रात-दिन सतत मेहनत कर रहे हैं, लेकिन सभी ब्राह्मण ऐसा कर रहे हैं, ऐसा भी नहीं। उनमें से भी जिनके विचार शैतान ले गया है, वे पहले जैसा ही हमारा द्वेष करते हैं। और ये जो मेरे प्रिय बंधु जब हमें इस व्यवस्था से उबारने में प्रयासरत हैं, उन्हें जाति से निकालने की धमकी दी जा रही है।

हमारे प्रिय बंधुओं ने मांग महारों के बच्चों के लिए पाठशालाएँ लगाई हैं और इन पाठशालाओं को दयालु अंग्रेज सरकार मदद करती है। इसीलिए, इन पाठशालाओं का बहुत सहाय है। दरिद्रता और दुःखों से पीड़ित, हे मांग महार लोगों, तुम रोगी हो, तब अपनी बुद्धि के लिए ज्ञानरुपी औषधि लो यानी तुम अच्छे ज्ञानी बनोगे जिससे तुम्हारे मन की कुकल्पनाएँ जाएंगी और तुम नीतिवान बनोगे तब तुम्हारी जिस जानवरों जैसी रात-दिन की हाजरी लगायी जाती है, वह भी बंद होगी। अब पढ़ाई करने के लिए अपनी कमर कस लो। यानी तुम ज्ञानी बनकर कुकल्पनाएँ नहीं करोगे; लेकिन तब भी मुझसे यह सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके लिए उदाहरण हैं, जो शुद्ध पाठशालाओं में पढ़कर निपुण हुआ है और अपनेआप को सुधरा हुआ मानता है, वह भी किसी समय शरीर पर रोंगटे खड़े कर देने जितने बुरे कर्म करता है, फिर तुम तो मांग महार हो।

(मराठी से हिंदी अनुवाद : संदीप सपकाले, संपादन : नवल)

[1] पानी

[2] महाराष्ट्र में चित्तपावण आदि ब्राह्मणों द्वारा पूजापाठ के समय पहने जानेवाला पीताम्बर रंग का एक रेशमी अंगवस्त्र

लेखक के बारे में

मुक्ता सालवे

मुक्ता सालवे जोतीराव फुले-सावित्रीबाई फुले की पाठशाला की छात्रा थीं। महज 14 साल की उम्र में उन्होंने मांग महारों के दुखों, चुनौतियों और निवारण के उपायों के संबंध में विस्तृत निबंध लिखा, जिसे मराठी पत्रिका ज्ञानोदय ने प्रकाशित किया।

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