h n

संत गाडगे : कीर्तन से क्रांति

हाथ में गाडगा यानी खप्पर और झाड‍़ू लिए गाडगे जी जहां भी गंदगी पाते, साफ करने लगते। ऐसा कर वे बाहरी सफाई करते तो अपने विचारों से लोगों के मन में सैंकड़ों वर्षों से जमे मैल को साफ करते। उनका स्मरण कर रहे हैं ओमप्रकाश कश्यप

संत गाडगे (23 फरवरी, 1876 – 20 दिसंबर, 1956) पर विशेष 

जीवन चारि दिवस का मेला रे
बांभन(ब्राह्मण) झूठा, वेद भी झूठा, झूठा ब्रह्म अकेला रे
मंदिर भीतर मूरति बैठी, पूजति बाहर चेला रे
लड्डू भोग चढावति जनता, मूरति के ढिंग केला रे
पत्थर मूरति कछु न खाती, खाते बांभन चेला रे
जनता लूटति बांभन सारे, प्रभु जी देति न अधेला रे
पुन्य-पाप या पुनर्जन्म का, बांभन दीन्हा खेला रे
स्वर्ग-नरक, बैकुंठ पधारो, गुरु, शिष्य या चेला रे
जितना दान देवे देव गे ब्राह्मण को देवोगे, वैसा निकरै तेला रे
बांभन जाति सभी बहकावे, जन्ह तंह मचै बबेला रे
छोड़ि के बांभन आ संग मेरे, कह रैदास अकेला रे

 —संत रैदास

तीरथ जाव काशी जाव, चाहे जाव गया।
कबीर कहे क, सबसे बड़ी दया।

—कबीर

इन दिनों परिस्थितिकीय असंतुलन सर्वाधिक चिंता का विषय है। होना भी चाहिए। वातावरण में रोज तरह-तरह के जहर घुलकर जिस तरह से उसे विषाक्त कर रहे हैं, यह चिंता वाजिब है। लेकिन एक और किस्म का प्रदूषण होता है। पहले वाले प्रदूषण पर बड़ी-बड़ी पोथियां लिखने वाले, रोज जार-जार आंसू बहाने वाले लोग दूसरी किस्म के प्रदूषण की ओर से चुप्पी साधे रहते हैं। इस प्रदूषण का नाम है सामाजिक-सांस्कृतिक प्रदूषण। इसे फैलाते हैं, जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रीयता, रंगभेद जैसे विषाणु।पहली किस्म का प्रदूषण समाज के बीच भेद नहीं करता। उसका असर सभी पर बराबर पड़ता है, हालांकि चपेट में गरीब और दलित-पिछड़े वर्ग ही आते हैं, क्योंकि वे उससे जूझने लायक संसाधन नहीं जुटा पाते। दूसरे प्रकार का प्रदूषण समाज को नीची जाति-ऊंची जाति, स्वामी-मालिक, निदेशक-अनुपालक आदि में बांट देता है। पहली प्रकार के प्रदूषण से निपटने के लिए समाज की सामूहिक चेतना काम करती है। दूसरे प्रदूषण से निपटने के लिए केवल प्रभावित वर्गों को आगे आकर संघर्ष करना पड़ता है। संघर्ष के दौरान उन्हें शीर्षस्थ वर्ग जो उस विकृति का लाभकारी, परजीवी वर्ग है उसका विरोध भी सहना पड़ता है। इसलिए दूसरे प्रदूषण से मुक्ति आसान नहीं होती। ऐसे में जो लोग तमाम अवरोधों और मुश्किलात के बावजूद अपने अनथक संघर्ष द्वारा, धूल अटी संस्कृति को थोड़ा-भी साफ कर पाते हैं, इतिहास उन्हें संत, महात्मा, महापुरुष, युगचेता, युगनायक आदि कहकर सहेज लेता है। ऐसे ही कर्मयोगी संत थे गाडगे जी महाराज, जिन्हें हम संत गाडगे या गाडगे बाबा के नाम से भी जानते हैं।

 

मराठी में “गाडगा” का अर्थ है खप्पर। टूटे हुए घड़े या हांडी का नीचे का कटोरेनुमा हिस्सा। गाडगे महाराज की वही एकमात्र पूंजी थी। कहीं जाना हो तो उसे अपने सिर पर रख लेते। हाथ में झाड़ू लगी होती। जहां कहीं भी गंदगी दिखाई पड़ती, वहीं झाड़ू लगाने लगते। कोई कुछ खाने को देता तो उसे गाडगा में रखवा लेते। कालांतर में गाडगा और झाड़ू ही उनकी पहचान बन गई। झाड़ू से बाहर की सफाई। विचारों से सैकड़ों वर्षों से लोगों के मन में जमे सांस्कृतिक-सामाजिक मैल को साफ करने की कोशिश। किसी भी एक जगह वे एक दिन से ज्यादा नहीं ठहरते थे। रोज नया गांव, नई जगह की सफाई। नए-नए लोगों को सदोपदेश। 

संत गाडगे का असली नाम था डेबूजी झिंगराजी जाणोरकर। उनका जन्म 23 फरवरी, 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के शेड्गांव के एक गरीब धोबी परिवार में हुआ था। पिता का नाम था झिंगराजी और मां थीं साखूबाई। उनका जीवन बेहद चुनौतीपूर्ण रहा। पढने-लिखने की उम्र में वे गृहस्थी चलाने में जुट गए। आठ वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहांत हो गया। तब मां ने उन्हें अपने भाई के यहां भेज दिया। मामा खेती-बाड़ी करते थे। डेबूजी भी उनके साथ खेतों पर जाने लगे। वे शरीर से हृष्ट-पुष्ट और परिश्रमी थे। सो कुछ ही दिनों में मामा की खेती संभालने लगे। युवावस्था में कदम रखने के साथ ही उनका विवाह कर दिया गया। पत्नी का नाम था कुंतीबाई। दोनों के चार बच्चे हुए। उनमें दो बेटे और दो बेटियां थीं। उस समय तक डेबूजी खेतों में काम करते। खूब मेहनत करते। साहस उनमें कूट-कूट कर भरा था। जरूरत पड़ने पर आततायी से अकेले ही भिड़ने का हौसला रखते थे। 

उन दिनों खेती करना आसान नहीं था। जमींदार लगान और साहूकार ब्याज के बहाने किसानों के सारे मेहनत को हड़प लेते थे। कई बार किसान के पास अपने खाने तक को अनाज न बचता था। डेबूजी को यह देखकर अजीब लगता था। एक बार जमींदार का कारिंदा उनके पास लगान लेने पहुंचा तो किसी बात पर डेबूजी का उनसे झगड़ा हो गया। हृष्ट-पुष्ट डेबूजी ने कारिंदे को पटक दिया। उस शाम घर पहुंचने पर उन्हें मामा की नाराजगी झेलनी पड़ी। कुछ दिनों के बाद उनके मामा का भी देहावसान हो गया। डेबूजी के लिए वह बड़ा आघात था। सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति पहले ही कम थी। 

संत गाडगे जी महाराज की तस्वीर

मामा की मृत्यु के बाद तो उनपर वैराग्य-सा छा गया। डेबूजी को भी समझ में आ गया कि किसानों और मजूदरों की लूट की असली वजह लोगों की अशिक्षा है। लोग गरीबी के असली कारण को जानने के बजाए, उसे अपना भाग्यदोष मानकर चुप हो जाते हैं। बीमार पड़ते हैं तो वैद्य-हकीम से ज्यादा गंडे-ताबीज पर भरोसा करते हैं। 1905 में उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। उसके बाद 12 वर्षों तक लगातार भटकते रहे। आरंभ में उनकी यात्रा ईश्वर की खोज को समर्पित थी। लेकिन मंदिरों और शिवालयों में धर्म की धंधागिरी देख पारंपरिक धर्मों से उनका विश्वास उठ गया। उसके बाद उन्होंने अपना समूचा जीवन मनुष्यता की सेवा को समर्पित कर दिया।

उनपर संत रविदास और कबीर के अलावा महाराष्ट्र के विद्रोही संत परंपरा से आनेवाले संत तुकाराम, नामदेव और ज्ञानेश्वर  का काफी प्रभाव था। इसके अलावा वे जोतीराव फुले के विचारों से भी प्रभावित थे। यही वजह था कि उनकी नज़र समाज में व्याप्त गंदगी पर सीधी पड़ती थी। वे देखते कि लोग अशिक्षा के कारण अज्ञानता में फंसे हैं। अज्ञानता उन्हें जाति की मार सहने को मजबूर करती है। यह मजबूरी सामंंतों की चाटुकारिता करने को विवश करती है। वही समाज में व्याप्त तरह-तरह की रूढ़ियों और अंधविश्वास का कारण है उससे उद्धार का एकमात्र रास्ता है शिक्षा। इसलिए “शिक्षित बनो और बनाओ” पर उन्होंने जोर दिया। सादगी उनका जीवन थी। 

गाडगेजी झाड़ू उठाए गांव-गांव घूमते थे। जहां जाते, वहीं सफाई में जुट जाते। फकीरनुमा आदमी को सफाई करते देख, लोग कौतूहलवश सवाल करते – तब उनका जवाब होता “शाम को कीर्तन होगा, आ जाना।” इतना कहकर वे पुनः सफाई में लग जाते। जब लोग कहते कि “कीर्तन के लिए गांव में साफ-सुथरे ठिकाने हैं” तब गाडगेजी का जवाब होता था “हमें सिर्फ अपना घर नहीं, पड़ोस भी साफ रखना चाहिए।” गाडगे महाराज बातों-बातों में सामूहिकता की महत्ता बताते रहते थे। शाम को कीर्तन होता। उसमें वे लोगों को सफाई का महत्त्व समझाते थे। अशिक्षा, रूढ़ि, धार्मिक-सामाजिक आडंबरों की आलोचना करते थे। जब मौज में होते तो “गाडगा” को ही वाद्ययंत्र बना लेते। लकड़ी की मदद से उसे बजाते-बजाते अपनी ही धुन में खो जाते। 

वे लोगों को समझाते “मनुष्यता ही सच्चा धर्म है। मनुष्य होना सबसे महान लक्ष्य है। इसलिए मनुष्य बनो। भूखे को रोटी दो। बेघर को आसरा दो। पर्यावरण की रक्षा करो। एक जगह काम पूरा हो जाता तो “गाडगा” को सिर पर औंधा रख, फटी जूतियां चटकाते हुए, किसी नई बस्ती की ओर बढ़ जाते। फटेहाल अवस्था, मिट्टी के कटोरे और झाड़ू के साथ देखकर कई बार लोग उन्हें पागल समझने लगते। विचित्र भेष के कारण आवारा कुत्ते उनपर भौंकते। लोग हंसी उड़ाते, मगर आत्मलीन गाडगे बाबा आगे बढ़ते जाते थे। कोई उनकी वेशभूषा को लेकर सवाल करता तो मुस्कराकर कहते “इंसान को हमेशा सीधा-सादा जीवन जीना चाहिए। शानो-शौकत उसे बरबाद कर देती है।”

विदेशों में व्यक्ति की महानता का आकलन उसकी योग्यता और लोकहित में किए गए कार्यों द्वारा किया जाता है। भारत में योग्यता और सत्कर्म दूसरे स्थान पर आते हैं। पहले स्थान पर आती है, उसकी जाति। ब्राह्मण की संतान को जन्म से ही सबसे ऊपर की श्रेणी में रख दिया जाता है और जो शूद्र और अंतज्य हैं, उन्हें सबसे निचली श्रेणी प्राप्त होती है। इसलिए एक शूद्र को समाज में अपनी योग्यता को स्थापित करने के लिए, न केवल अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है, अपितु चुनौतियों के बीच अपनी योग्यता भी प्रमाणित करनी पड़ती है। 

गाडगे बाबा का हृदय करुणा से आपूरित था। स्वार्थ के नाम पर निरीह पशु-पक्षियों की बलि देना उन्हें स्वीकार्य न था। वे उसका विरोध करते। जरूरत पड़ने पर उसके लिए परिजनों और पड़ोसियों से भी लड़ जाते थे। ईश्वर और धर्म की उनकी अपनी परिभाषा थी। लोग धर्म के बारे में सवाल करते तो कहते – “गरीब, कमजोर, दुखी, बेबस, बेसहारा और हताश लोगों की मदद करना, उन्हें हिम्मत देना ही सच्चा धर्म है। वही सच्ची ईश्वर भक्ति है।” ईश्वर को प्रसन्न करना है तो “भूखे को रोटी, प्यासे को पानी, वस्त्रहीन को वस्त्र तथा बेघर को घर दो। यही ईश्वर सेवा है।”

गाडगे जी का जीवन पूरी तरह निस्पृह जीवन था। कहते थे कि, “अगर आप दूसरों के श्रम पर सिर्फ अपने लिए जीयेंगे तो मर जाएंगे। लेकिन यदि आप अपने श्रम से, दूसरों के लिए जीयेंगे तो अमर हो जाएंगे।” कई बार गांव वाले भोजन के साथ कुछ पैसे भी थमा देते। उन पैसों को वे जोड़ते चले जाते। जब पर्याप्त रकम जमा हो जाती तो लोगों की जरूरत के हिसाब से जमाराशि को स्कूल, धर्मशाला, अस्पताल, सड़क आदि बनाने पर खर्च कर देते थे। अपने विचारों को सीधी-सरल भाषा में व्यक्त करते। यह मानते हुए कि धर्मप्राण लोग शब्द-कीर्तन पर ज्यादा विश्वास करते हैं, इसलिए अपने विचारों के बारे में कीर्तन के माध्यम से लोगों को समझाते। कहते कि मंदिर-मठ आदि साधु-संतों के अड्डे हैं। ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग-नर्क जैसी बातों पर उन्हें विश्वास ही नहीं था। आंख मूंदकर राम नाम जपने या रामनामी ओढ़ लेने को वे पंडितों का ढोंग बताते थे। पंढरपुर भक्तिमार्गी हिंदुओं का बड़ा तीर्थ है। गाडगे महाराज प्राय: वहां जाते। लेकिन विट्ठल भगवान के दर्शन करने के लिए नहीं, बल्कि लोगों को मानव-धर्म का उपदेश देने के लिए। उनके लिए मानव-धर्म का मतलब था “प्राणिमात्र के प्रति करुणा की भावना।”

उनके जीवन की एक रोचक घटना है। गाडगे महाराज को मथुरा जाना था। उसके लिए मथुरा जाने वाली गाड़ी में सवार हो गए। सामान के नाम पर उनका वही चिर-परिचित “गाडगा”, लाठी, फटे-पुराने चिथड़े कपड़े और झाड़ू था। रास्ते में भुसावल स्टेशन पड़ा तो वहीं उतर गए। कुछ दिन वहीं रुककर आसपास के गांवों में गए। वहां झाड़ू से सफाई की। कीर्तन कर लोगों को उपदेश दिए। मथुरा जाने की सुध आई तो वापस फिर रेलगाड़ी में सवार हो गए। इस बार टिकट निरीक्षक की नजर उनपर पड़ गई। गाडगे बाबा के पास न तो टिकट था, न ही पैसे। टिकट निरीक्षक ने उन्हें धमकाया और स्टेशन पर उतार दिया। उससे यात्रा में आकस्मिक व्यवधान आ गया। लेकिन जाना तो था। देखा, स्टेशन के पास कुछ रेलवे मजदूर काम रहे हैं। डेबूजी उनके पास पहुंचे। कुछ दिन मज़दूरों के साथ मिलकर काम किया। मजदूरी के पैसों से टिकट खरीदा और तब कहीं मथुरा जा पाए।

अपने जीवनकाल के दौरान उनका डॉ. अंबेडकर, गांधी सहित अपने समय के कई प्रगतिशील नेताओं से संपर्क था।  सभी ने गाडगे जी के कार्यों की सराहना की। डॉ. आंबेडकर से वे 15 वर्ष बड़े थे। डॉ. अंबेडकर ने दलितोद्धार के लिए आंदोलन आरंभ किया तो डेबुजी भी अपनी तरह जुट गए। अपने कीर्तन के माध्यम से वे मनुष्य की समानता और स्वतंत्रता का समर्थन करते। छूआछूत को अमानवीय बताकर उसकी आलोचना करते रहे। लोगों को सामाजिक कुरीतियों से दूर रहने की सलाह देते। वैसे डॉ. अंबेडकर साधु-संतों से दूर ही रहते थे। परंतु संत गाडगे के कार्यों की उपयोगिता को वे बखूबी से समझते थे। दूरदराज के गांवों में, अत्यंत विषम परिस्थितियों में रह रहे दलितों के उद्धार का एकमात्र रास्ता है कि उनके बीच रहकर लोगों उन्हीं की भाषा में, उनके करीब रहते हुए समझाना। संत गाडगे यही काम करते रहे। इसलिए दोनों समय-समय पर मिलते भी रहते थे। 

हिंदू धर्म में साधुओं की कमी नहीं है। एक आम साधु-संत के पास पैसे जाएं तो वह सबसे पहले मंदिर बनवाता है, या फिर धर्मशालाएं, ताकि बैठे-बैठाए जीवनपर्यंत दान की व्यवस्था हो जाए। गाडगे बाबा ने अपने लिए न तो मंदिर बनवाया, न ही मठ। एक सच्चा, त्यागमय और निस्पृह जीवन जिया। उन्होंने कभी किसी को अपना शिष्य नहीं बनाया। रवींद्रनाथ के एकला चलो के सिद्धांत पर वे हमेशा अकेले ही आगे बढ़ते रहे। उनके कार्यों और उपदेशों से प्रभावित होकर लोग कई बार उन्हें रोकने का प्रयास करते। इसपर वे मुस्करा कर कहते “नदिया बहती भली, साधु चलता भला। धीरे-धीरे उनका यश बढ़ता जा रहा था।” कीर्तन में सभी वर्गों के लोग आते थे। उनसे कभी-कभी मोटी दक्षिणा भी हाथ लग जाती। उसे वे ज्यों का त्यों संस्थाओं के निर्माण के नाम पर खर्च कर देते थे। शिक्षा के बारे में बात होती तो कहते “शिक्षा बड़ी चीज है। पैसे की तंगी आ पड़े तो खाने के बर्तन बेच दो। औरत के लिए कम दाम की साड़ियां खरीदो। टूटे-फूटे मकान में रहो। मगर बच्चों को शिक्षा जरूर दो।” धनी लोगों को समझाते – “शिक्षित करने से बड़ा कोई परोपकार नहीं है। गरीब बच्चों को शिक्षा दो। उनकी उन्नति में मददगार बनो।” दान में मिले पैसों की पाई-पाई जोड़कर उन्होंने लगभग 60 संस्थाओं का निर्माण कराया। सारा पैसा उन्होंने ग़रीबों के लिए स्कूल खोलने, अस्पताल,वृद्धाश्रम, धर्मशालाएं परिश्रमालय, बनवाने पर खर्च करते रहे। 

संत गाडगे जी की तबीअत 13 दिसंबर, 1956 को अचानक खराब हुई। 17 दिसंबर को उनकी हालत अधिक खराब हो गई। 19 दिसंबर, 1956 को रात्रि 11 बजे अमरावती के लिए जब रेलगाड़ी चली तो रास्ते में ही उनकी हालत गंभीर होने लगी। गाड़ी में सवार चिकित्सकों ने उन्हें अमरावती ले जाने की सलाह दी। लेकिन गाड़ी कहीं भी जाती, गाडगे बाबा तो अपने जीवन का सफर पूरा कर चुके थे। बलगांव पिढ़ी नदी के पुल पर गाड़ी पहुंचते-पहुंचते मध्यरात्रि हो चुकी थी। उसी समय, रात्रि के 12.30 बजे अर्थात 20 दिसंबर 1956 को उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली। संत गाडगे सच्चे संत थे। दिखावा उन्हें नापसंद था। अपने अनुयायियों से अक्सर यही कहते, मेरी मृत्यु जहां हो जाए, वहीं मेरा संस्कार कर देना। न कोई मूर्ति बनाना, न समाधि, न ही मठ या मंदिर। लोग मेरे जीवन और कार्यों के लिए मुझे याद रखें, यही मेरी उपलब्धि होगी। गाडगे जी की इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार जिस जगह किया गया, वह स्थान गाडगे नगर कहलाता है। आज वह वृहद अमरावती शहर का हिस्सा है।

(संपादन : गोल्डी)

लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

संबंधित आलेख

पढ़ें, शहादत के पहले जगदेव प्रसाद ने अपने पत्रों में जो लिखा
जगदेव प्रसाद की नजर में दलित पैंथर की वैचारिक समझ में आंबेडकर और मार्क्स दोनों थे। यह भी नया प्रयोग था। दलित पैंथर ने...
राष्ट्रीय स्तर पर शोषितों का संघ ऐसे बनाना चाहते थे जगदेव प्रसाद
‘ऊंची जाति के साम्राज्यवादियों से मुक्ति दिलाने के लिए मद्रास में डीएमके, बिहार में शोषित दल और उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय शोषित संघ बना...
‘बाबा साहब की किताबों पर प्रतिबंध के खिलाफ लड़ने और जीतनेवाले महान योद्धा थे ललई सिंह यादव’
बाबा साहब की किताब ‘सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें’ और ‘जाति का विनाश’ को जब तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जब्त कर लिया तब...
जननायक को भारत रत्न का सम्मान देकर स्वयं सम्मानित हुई भारत सरकार
17 फरवरी, 1988 को ठाकुर जी का जब निधन हुआ तब उनके समान प्रतिष्ठा और समाज पर पकड़ रखनेवाला तथा सामाजिक न्याय की राजनीति...
जगदेव प्रसाद की नजर में केवल सांप्रदायिक हिंसा-घृणा तक सीमित नहीं रहा जनसंघ और आरएसएस
जगदेव प्रसाद हिंदू-मुसलमान के बायनरी में नहीं फंसते हैं। वह ऊंची जात बनाम शोषित वर्ग के बायनरी में एक वर्गीय राजनीति गढ़ने की पहल...