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समयांतर के बीस वर्षों की कहानी, संपादक पंकज बिष्ट की जुबानी

मासिक हिंदी पत्रिका “समयांतर” के बीस वर्ष पूरे हो गए हैं। इसके संपादक पंकज बिष्ट के लिए यह बीस वर्ष का सफर कैसा रहा, पूंजीवादी व्यवस्था में बदल रही परिस्थितियों, दलित-बहुजनों के तेज होते स्वर व लेखकों-पाठकों के संदर्भ में उनकी राय क्या है, के संबंध में सुशील मानव ने उनसे विस्तृत बातचीत की

साक्षात्कार

हिंदी के महत्वपूर्ण कथाकार और वैचारिक मासिक हिंदी पत्रिका “समयांतर” के संपादक पंकज बिष्ट 20 फरवरी 2020 को 75 वर्ष के हो गए। सितंबर 2019 में उनके संपादन में निकलने वाली महत्वपूर्ण पत्रिका समयांतर ने भी अपने प्रकाशन के 20 साल पूरे कर लिए। कुछ माह पहले ही पंकज बिष्ट को राजकमल चौधरी स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया। फारवर्ड प्रेस के लिए सुशील मानव ने पंकज बिष्ट से पत्रकारिता और साहित्य के समाजिक और राजनीतिक सरोकारों पर विशेष बातचीत की।

सुशील मानव : “समयांतर” पत्रिका के 20 साल के सफ़र को आप कैसे आंकते हैं?

पंकज बिष्ट : सितंबर 2019 अंक के साथ समयांतर ने 20 वर्ष पूरे कर लिए। मैंने जब नौकरी छोड़ी तो मैं चाहता था कि अपना उपन्यास लिखूं। ये मेरे दिमाग में था। मूलतः मैं रचनात्मक लेखक के तौर पर जाना जाता था। नौकरी छोड़ने के बाद मैंने यह करना भी शुरु कर दिया। मैंने एक उपन्यास 150 पेज का लिखा भी। लेकिन इस बीच मेरा दिल लगातार उचाट होता, तो मुझे लगा कोई ज़्यादा सीधा इंटरवेंशन होना चाहिए। मैं सरकारी पत्रकारिता में था और बहुत लंबे अरसे तक जुड़ा रहा। लेकिन वह पत्रिका साहित्य और संस्कृति पर थी। इसमें राजनीतिक सवाल नहीं उठाए जाते थे। जबकि मेरी रुचि मूलतः राजनीति में थी और मैं विविध पत्र-पत्रिकाएं पढ़ता रहता था। मेरी इच्छा यह हुई कि हिंदी में एक ऐसी पत्रिका होनी चाहिए जो चीजों को ज़्यादा ऑबजेक्टिवली देखे। और उसे ज़्यादा तटस्थता और ज़्यादा प्रोफेशनल तरीके से सामान्य पाठकों के लिए प्रस्तुत करे। ऐसे पाठकों के लिए जो सामान्य रूप से थोड़ा ज़्यादा सजग हों। समयांतर की शुरूआत इसी उद्देश्य से की थी।

पंकज बिष्ट, संपादक, समयांतर

शुरुआत में मैंने जो पत्रिका निकाली वह 32 पृष्ठों की थी और वह भी बिना कवर के। उसका उस समय दाम 5 रुपए था। ऐसा ही करीब 3-4 साल तक समयांतर के अंक निकालते रहे। लेकिन मेरी इच्छा पत्रिका की कीमत बढ़ाने की नहीं थी। परंतु, पाठकों के दबाव पर कवर के साथ प्रकाशित किया। मेरी हमेशा कोशिश रही कि समयांतर पत्रिका सस्ती रहे। चूंकि लोग सस्ते की इकोनॉमिक्स नहीं समझते, बाज़ार की ज़रूरतें नहीं समझते तो हमने पत्रिका सस्ता रखा था। लेकिन फिर बाद में मेरी समझ में आया कि वो लोग मेरी पत्रिका बेचेंगे ही नहीं। क्योंकि 5 रुपए का तो दैनिक अख़बार हो चुका था फिर वो लोग हमारी पत्रिका रखेंगे ही क्यों। वह भी तब जब बमुश्किल 5-6 प्रति से ज़्यादा पत्रिका निकलती नहीं थी। इसलिए उसके पेज बढ़ाए गए, दाम बढ़ाया गया। इस तरह जब पाठकों का रिस्पांस बढ़ता गया तो उसमें लेखकों की भी भागीदारी बढ़ी। विषयों की विविधता बढ़ी। हमने उन्हें लेना शुरु कर दिया। हमारे लिए तो ये फख्र की बात है कि कई अंग्रेजी लेखकों को पहली बार हमने हिंदी में छापा। उसमें नामचीन लेखिका अरुंधति रॉय, जिन्हें उस समय हिंदी में कोई नहीं छापता था, वहीं समयांतर में वह लगातार छपी हैं। समयांतर में उनके इंटरव्यू छपे। हमने हिंदी पाठकों से उनका परिचय करवाया।

लोग कहते थे कि हिंदी में पाठक नहीं हैं। हिंदी के पाठक गंभीर चीजें नहीं चाहते। लेकिन हमने लगातार कोशिश की कि पाठकों तक गंभीर चीजें लेकर जाएं। कोई भी समाज एक ही समझ वाला समाज नहीं होता। धीरे-धीरे मेरी समझ बनी कि इतने बड़े हिंदी पाठक वर्ग तक हम नहीं पहुंच सकते। क्योंकि उसके लिए हमें करोड़ों रुपए की ज़रूरत है जो हम कभी नहीं इकट्ठा कर पाए। मान लें कि आप अकेले उत्तर प्रदेश को ही लेना चाहते हैं, जिसकी आबादी 20 करोड़ है तो आपको इतनी बड़ी आबादी तक पहुंचने के लिए करीब डेढ़-दो लाख प्रतियां हर माह छापनी होगी। फिर ये उन तक पहुंचनी भी चाहिए। इसके लिए साल भर आपको मार्केट में रहना चाहिए। तभी आपके ग्राहक बनेंगे। तो इतना पैसा कहां से आए। तब तक तो आप बिक जाएंगे। इसलिए हमने अपने आपको सीमित रखा और बाकी चीजें जैसे कि हमारी विचारधारा आदि तो स्पष्ट था ही। जो भी व्यापक जनता के हित में हो उन बातों को रखने की कोशिश की। ज़रूरी नहीं है कि हम सदा सही ही होंगे। हम सही नहीं भी हैं तो जो दूसरे पक्ष हैं, उनको भी रखने की कोशिश करते हैं ताकि संतुलन बना रहे।

सु. मा. : क्या समायांतर के संपादक ने आपके कथाकार को प्रभावित किया या उसके काम को नुकसान पहुंचाया?

पं. बि. : यह सवाल अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं। लेकिन मैं कोई उस तरह का लेखक नहीं हूं, जो बहुत लिखता है। आप यदि मेरा पूरा कैरियर देखें तो वर्ष 1968 में मेरी पहली कहानी छपी थी और मेरा पहला उपन्यास 1982 में आया था। मैं धीरे-धीरे लिखने वाला लेखक हूं। मैं बहुत ज़्यादा लिखने वाला लेखक नहीं हूं। जो विषय मुझे अच्छे लगते रहे हैं, मैं उन पर सोचता रहा और मनन करता रहा। तब मैंने उनको अभिव्यक्त करने की कोशिश की। मेरे उपन्यासों को लेकर मेरा यह मानना है कि हम व्यावसायिक नहीं हैं। तब यह बड़ी मुश्किल है कि आप एक ज़िंदग़ी में 4-5 उपन्यासों से ज़्यादा लिख पाएंगे। आप बड़े से बड़ा उपन्यासकार को ले लीजिए। उनके 2-3 उपन्यास ही होते हैं जिनके लिए उन्हें जाना जाता है। कारण यह है कि एक आदमी की ज़िंदगी और उसके अनुभव का दायरा सीमित होता है जबकि उपन्यास बड़े फलक पर चीजों को लेता है। जब तक ज़िंदग़ी के बारे में आपके अनुभव का विस्तार नहीं होगा तब तक आप नई रचनाएं नहीं लिख सकते। मैंने तीन उपन्यास लिखे हैं। तीनों विषय में एक दूसरे से अलग हैं। उनका फॉर्म अलग है। मैं चाहता हूं कि मैं एक उपन्यास और लिखूं। मैं लिख पाया तो लिखूंगा। नहीं लिख पाया तो न सही। इस तरह से यह कहना कि मेरे संपादक ने मेरे कथाकर को प्रभावित किया है, ऐसा नहीं है। अधिकांश हमें कोई न कोई काम और करना ही पड़ता है। भारतीय समाज में विशेषकर हिंदी समाज में पिछले एक अरसे से कोई प्रोफेशनल लेखक नहीं हुआ या कम से कम मेरी पीढ़ी का कोई लेखक ऐसा नहीं है जो कह सके कि वो पूरी तरह से अपने लेखन पर ही निर्भर है।

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सु. मा. : वर्तमान में हिंदी पाठकों में बन-बिगड़ रही चेतना के संबंध में क्या कहेंगे? खासकर जब देशभर में कई लेखकों ने भी सरकार द्वारा मिले सम्मानों-पुरस्कारों को विरोध स्वरूप लौटाया। वर्तमान में लेखकों की भूमिका के संबंध में आपके क्या विचार हैं?

पं. बि. : देखिए, इसके कई स्तर हैं। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ़ लेखकों के ही जिम्मे हैं। जिस समाज में पढ़ा लिखा आदमी नहीं होगा उसमें चेतना का स्तर सबसे कम होगा। देश में आज भी हिंदी बेल्ट में सबसे कम पढ़ा लिखा समाज है। इसका जिम्मा आप अकेले लेखकों पर नहीं थोप सकते। क्योंकि पढ़ने की और ज्ञान की जो प्रक्रिया होती है वो धीरे धीरे होती है। जैसे आप फ्रांस से हिंदुस्तान की तुलना नहीं कर सकते। फ्रांस के लेखक का जो स्तर होगा वो हिंदुस्तान के लेखक का नहीं। वहां 1968 में छात्र आंदोलन हुआ था। “काम्बेट” नामक अखबार निकाला जाता था जो प्रो-माओइस्ट था, तो उसकी बिक्री पर पाबंदी लगा दी गई। चार्ल्स डि गॉल वहां का राष्ट्रपति था एक तरह से वहां तानाशाही शासन चलता था। तो [जीन पॉल] सार्त्र और उनके साथियों ने मिलकर “काम्बेट” अख़बार बेचा, लेकिन उन्हें अरेस्ट नहीं किया गया। सरकार ने कहा कि सार्त्र जो है वह फ्रांस की आत्मा है, हम उसे कैसे पकड़ सकते हैं। तो लेखक का वो दर्जा हमारे समाज में नहीं है। न ही उसका उस तरह का प्रभाव है। लेकिन आज जिस तरीके से लेखक खुद को दर्ज़ करवा रहे हैं, वह यह बता रहा है कि वो इंटरवेंशन करना चाहते हैं, कोशिश भी कर रहे हैं। हिंदी लेखकों का असर बहुत ही सीमित है। लेकिन उतने में ही उनकी आवाज़ लोग सुन रहे हैं। आज अधिकांश एस्टैबलिशमेंट के बाहर के अख़बार हैं वो एंटीगवर्नमेंट हैं एंटीइस्टैबलिशमेंट हैं, वो प्रोएस्टैबलिशमेंट नहीं हैं। जो यह बता रहा है कि जो सजगता का दायरा चाहे वो छोटे अख़बार हों, जितने लोगों तक भी पहुंचते हों, वो पहुंचते तो हैं। वे अपनी बात कहने की कोशिश कर रहे हैं।

समयांतर (फरवरी, 2020) का मुख्य पृष्ठ

दूसरी जो चेतना का स्तर है, वह अलग-अलग प्रदेशों में अलग है। मान लीजिए कि कर्नाटक है, वहां बिल्कुल अलग है। महाराष्ट्र में देखिए, केरल और बंगाल में देखिए। जहां अपनी भाषा में लोग लेखकों को पढ़ते हैं, वहां जानते हैं, पहचानते हैं, वहां उनकी बातों का भी असर होगा। अन्यथा जहां नहीं जानते वहीं नहीं होगा। मोदी की हार-जीत का लेखकों की अपील से बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला था। इसके और भी बहुत सारे कारण हैं जिसके कारण वो जीते हैं।

इस समय जिस तरह से सांप्रदायिक लहर चल रही है, जातिवाद चल रहा है, जिस तरह से लिबरलिज्म (उदारवाद) चल रहा है, उससे पूरी दुनिया में प्रतिक्रियावाद है। विश्व अर्थव्यवस्था मंदी के चंगुल में है। इस प्रकार लिबरलिज्म की पूरी की पूरी थ्योरी और पॉलिसी असफल हो रही ह। यह भी एक फैक्टर है। महत्वपूर्ण यह है कि लेखक कह रहे हैं।

आप यह भी देखिए कि हिंदी के लेखकों का एस्टैबलिशमेंट के साथ जाने का रिवाज रहा है (हालांकि मैं सरकारी नौकरी में था, इसके बावजूद लेखकों को एस्टैबलिशमेंट के साथ जाने का विरोधी रहा हूं) क्योंकि उसके अलावा उनका कोई अस्तित्व नहीं था। उन्होंने वह छोड़ा है। कितने लोग विरोध कर रहे हैं। बहुत सारे लोगों ने साहित्य अकादमी के कार्यक्रम में जाना छोड़ दिया, राज्य प्रायोजित कार्यक्रमों में नहीं जाते। यह कोई छोटी बात नहीं है, यह बड़ी बात है।

सु. मा. : दलित और मुस्लिम समुदाय के सवालों को समयांतर लगातार उठाती रही है। आदिवासी, दलित, मुस्लिम के सवाल समय के साथ और ज़्यादा प्रासंगिक होते जा रहे हैं। इनके सवाल उठाने वाले, इनके साथ खड़े होने वालों पर भी हमले लगातार तीखे होते जा रहा है। 

पं. बि. : हमले तो होंगे। जैसे-जैसे इन वर्गों का उभार होगा, इनकी चेतना बढ़ेगी और उनके उपर हमले होंगे। यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मूलतः शोषण पर निर्भर करती है। यही वजह है कि आज आदिवासियों को उनकी जगहों से हटाया जा रहा है। उनकी जमीनें छीनकर बेच दी जा रही है। उनको विस्थापित कर दिया जा रहा है। वर्षों से जो वहां रहते आए, उनको नहीं पता कि अब वो कहां जाएंगे। वो तैयार नहीं हैं। जो मुख्यधारा है समाज की, उसमें कहीं वह फिट नहीं हो सकते। वो मार्जिनलाइज्ड स्थिति से और बदतर स्थिति में पहुंचेंगे। इन बातों को नोटिस करना बहुत ज़रूरी है। अगर आप एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जिसमें समानता हो, जिसमें अन्याय न हो, शोषण न हो तो जो सबसे ज़्यादा शोषित लोग हैं, जब उनकी बात नहीं करेंगे तो किसकी करेंगे। मेरा तो यह मानना है कि बहुसंख्यकों के सवालों को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। समयांतर की कोशिश रही है कि पाठकों में यह चेतना पहुंचाई जाए।

सु. मा. : अंत में एक सवाल यह कि समयांतर के बीस वर्षों के दौरान भाषा के स्तर पर आप क्या बदलाव पाते हैं? 

पं. बि. : मानव समाज में जो चीज आ गई है और जो उसका आधार है वह खत्म नहीं होती। वह बरकरार रहती है। लेकिन जो चीजें सुपरफिशिअल हैं, वह रूप बदल लेती हैं। जैसे नाटक ने फिल्म का रूप ले लिया। फिल्म ने टेलीविजन का रूप लिया। लेकिन इनका उत्स एक ही है। लेकिन भारतीय समाज में ज्ञान की भाषा और आमजनों की भाषा अलग-अलग रही है। यह ब्राह्मणवादी समाज की देन है। उसने संस्कृत जैसी भाषा का ईजाद किया, जिसको सिर्फ़ पढ़ा लिखा एक वर्ग बोलता था और जिसमें एक तरह की शिक्षा मिलती थी।

भारतीय समाज के कई वर्गों को तो वेद को सुनना तक वर्जित था। इसके लिए उन्हें दंड दिया जाता था। क्योंकि उनको डर था कि ज्ञान यदि लोगों तक पहुंचेगा तो वो हमारी बराबरी करेंगे। और वो हमारे सारे हथकंडे जान जाएंगे। ये खास तरह से देखने लायक है कि पूरे भारतीय समाज में इस परंपरा को जीवित रखा है। एक सेक्शन जो लगातार सत्ता में रहा है, उसकी यह कोशिश रही है कि कोई ऐसी जनभाषा न आए जिसमें उसकी (सत्ता वर्ग) समानता सामान्य आदमी से हो जाए।

इसे यूं समझिए कि पहले संस्कृत राज-काज की भाषा थी, ज्ञान की भाषा थी, सामान्य आदमी की भाषा वो नहीं थी, फिर तुर्क आए तो उन्होंने तुर्की को अपने राज-काज की भाषा बनाई, फिर जो लोग आए उनकी भाषा फारसी थी, उन्होंने फारसी को राज-काज की भाषा बनाई। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जो आखिरी मुगल बादशाह था बहादुर शाह जफर उसकी भी कोर्ट की भाषा फारसी थी, उर्दू नहीं थी। फिर अंग्रेज आए तो अपने राज-काज की भाषा अंग्रेजी लाए। किसी को नहीं पता होता कि अंग्रेजी में क्या लिखा है। सामान्य जन बेचारा तो भुगतता ही रहा है।

देखिए, मेरा मानना है कि वर्तमान में जो भाषा हमारे यहां है उसमें कई प्रकार की विसंगतियां हैं। मैं तो यह भी मानता हूं कि ये विसंगतियां अचानक नहीं हुई हैं। राज्य सत्ता को आम जन की भाषा जैसे कि हिंदी कभी स्वीकार नहीं होगी, इसके कोई लक्षण मुझे नहीं नज़र आते। मेरा मानना है कि यह उसी से जुड़ा सवाल है। यदि आप सबको राज-काज की भाषा पढ़ा देंगे तो इनका ज्ञान का सारा आडंबर ढह जाएगा। वह सब इनको चुनौती देने लगेंगे। यह बड़ा भारी संकट है, जिसके कारण आपको भाषा का संकट दिखाई देता है। यह भाषा का संकट नहीं है। यह मूलतः बना बनाया एक षडयंत्र है जो हमेशा रहेगा। मैं मानता हूं कि हिंदी भाषा, मातृभाषा, विश्व भाषा, विश्व सम्मेलन यह सब नाटक है। यह चलता रहता है।


पंकज बिष्ट के बारे में

कथाकार और वरिष्ठ पत्रकार पंकज बिष्ट का जन्म 20 फरवरी, 1946 को मुम्बई में हुआ। वे मूलत: उत्तराखण्ड के कुमांऊँ क्षेत्र के अन्तर्गत अल्मोड़ा जिले में स्थित नौगॉंव नामक गॉंव के हैं। उनके पिता शेरसिंह बिष्ट सर दोराबजी टाटा संस्थान, मुंबई (वर्तमान टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज) के दूसरे बैच के छात्र थे। उन्होंने 1952 में हुए पहले आम चुनाव में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में अल्मोड़ा से चुनाव लड़ा था। उनकी मां गोदावरी देवी भी विदूषी महिला थीं।

पंकज बिष्ट ने आगरा विश्वविद्यालय से 1966 में अंग्रेजी, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र विषयों में स्नातक करने के बाद 1969 में मेरठ विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। अध्ययन के दौरान ही वे लेखन करते रहे। पंकज बिष्ट 1969 में ही भारत सरकार के सूचना सेवा विभाग से जुड़े। इस दौरान वे विभिन्न पदों पर रहे। वर्ष 1998 में उन्होंने भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से स्वैच्छिक अवकाश ले लिया। वर्तमान में वे “समयांतर” नामक मासिक पत्रिका के संपादक हैं।

उनके प्रकाशित कृतियों में “लेकिन दरवाज़ा”, “उस चिड़िया का नाम”, “पंखवाली नाव”, “शताब्दी से शेष” (सभी उपन्यास), बाल उपन्‍यास “गोलू और भोलू” के अलावा “हिंदी का पक्ष”, “कुछ सवाल कुछ जवाब”, “शब्दों के घर” (लेख संग्रह) आदि शामिल हैं।

(संपादन : नवल/गोल्डी)

लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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