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जाति जनगणना की मांग हुई तेज, केंद्र सरकार कर रही परहेज

जातिगत जनगणना को लेकर देश भर में मांग उठने लगी है। महाराष्ट्र के बाद ओडिशा सरकार ने इसके लिए पहल किया है। परंतु, केंद्र सरकार का अड़ियल रवैया कायम है। विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा उठाए जा रहे सवालों के बारे में बता रहे हैं कमल चंद्रवंशी

देश में जातिगत जनगणना को लेकर मांग तेज हो गई है। हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष नाना पटोले ने आह्वान भी किया है कि यदि केंद्र सरकार जातिगत जनगणना नहीं कराती है तो दलित-बहुजन जनगणना का बहिषकार करें। इसी कड़ी में ओडिशा में नवीन पटनायक सरकार ने केंद्र सरकार से 2021 की जनगणना को सामाजिक-आर्थिक पिछड़े वर्ग (एसईबीसी) और जाति आधारित करने की मांग की है। राज्य कैबिनेट में पिछले ही दिनों इस आशय का प्रस्ताव पास किया गया। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की अध्यक्षता में हुई बैठक के बाद ओडिशा के कानून मंत्री प्रताप जेना ने भारतीय संविधान की उन विभिन्न धाराओें का हवाला दिया है, जिसके मुताबिक राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में काम करने की हिमायत करती हैं।

इन सबके बावजूद केंद्र सरकार का अड़ियल रवैया बरकरार है। केंद्र की तरफ से आडिशा सरकार को साफ-साफ जवाब भी दे दिया गया है कि 2021 में होने वाले जनगणना में जातिवार गणना नहीं होगी।

ओडिशा सरकार के कानून मंत्री प्रताप जेना ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि आगामी जनगणना के आंकड़ों में सामाजिक-आर्थिक जाति आधारित किया जाना चाहिए। सामान्य जनगणना के साथ या तो जनगणना प्रारूप में ऐसे उपयुक्त कॉलम सम्मिलित किए जाएं या सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों और अन्य पिछड़ा वर्ग/ जातियों के साथ गणना के लिए एक अलग प्रारूप ही तैयार किया जाए।

प्रताप जेना, कानून मंत्री, ओडिशा सरकार

जेना ने कहा कि अनुच्छेद 16 (4) राज्य को किसी भी पिछड़े वर्ग के नागरिकों के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण का प्रावधान करने में सक्षम बनाता है। ओडिशा ने समाज के वंचित वर्गों की मानविकी को बेहतर बनाने के लिए काम किया है। विशेष रूप से पिछले दो दशक में समावेशी विकास और परिवर्तन की इस प्रक्रिया को और तेज करने की आवश्यकता है। मंत्री ने आगे कहा कि सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों और अन्य पिछड़े वर्गों/ जातियों की सही संख्या के बारे में विश्वसनीय और प्रामाणिक डेटा की अनुपलब्धता के कारण, उनके प्रसार और घनत्व के भौगोलिक क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने और परिणाम को सुनिश्चित करने में एक बड़ी चुनौती रही है।

केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को आयी ओबीसी की याद

ओडिशा सरकार के फैसले को देखते हुए भाजपा नेतागण भी आरक्षण का सवाल उठाने को मजबूर हुए हैं। ओडिशा में भाजपा के कद्दावर नेता व केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण के लिए और राज्य में शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक रूप से शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) के लिए अपने अनुरोध को दोहराया है। प्रधान ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि ओबीसी और एसईबीसी ओडिशा में कुल आबादी का काफी बड़ा हिस्सा हैं। राज्य में एसईबीसी के रूप में पहचाने जाने वाले 209 से अधिक समुदाय हैं जो परंपरागत रूप से संसाधनों से वंचित हैं। इनमें से कई गरीबी और अशिक्षा के दोहरे अभिशाप से पीड़ित हैं। 

केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान

प्रधान ने कहा कि केंद्र सरकार ने सरकारी नौकरियों के साथ-साथ शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी को 27% आरक्षण प्रदान किया है जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुरूप समाज के वंचित तबकों के लिए कल्याणकारी उपाय है। हालांकि, उक्त आरक्षणों के कार्यान्वयन के लगभग तीस साल बाद भी, यह समझना मुश्किल है कि ओडिशा सरकार सार्वजनिक रोजगार या शैक्षणिक संस्थानों में और शैक्षणिक संस्थानों में एसईबीसी को ऐसा कोई आरक्षण क्यों नहीं दे रही है। अधिकांश राज्यों ने अपने राज्य सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में 27% आरक्षण कोटा लागू किया है।

प्रधान ये भी कहते हैं कि कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और बिहार जैसे कुछ राज्यों ने अपनी जनसंख्या में इन विशेष श्रेणियों के लिए आरक्षण कोटा बढ़ा दिया है। उन्होंने मुख्यमंत्री से ओडिशा में एसईबीसी का वैज्ञानिक और मात्रात्मक अध्ययन करने के लिए राज्य में एक पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन को अनिवार्य करने के लिए तत्काल कदम उठाने का आग्रह किया और ओडिशा में यथोचित आरक्षण देने के लिए विकल्प तैयार करने की बात कही है।

संसद में जेडीयू ने भी उठाई आवाज

संसद के मौजूदा सत्र में जेडीयू सासंद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कहा कि साल 1931 में देश में जातीय आधारित जनगणना जनगणना हुई थी। उसके बाद से आज तक जातीय आधारित जनगणना नहीं हुई है। एक बार यह साफ तो होना चाहिए कि इस देश में जो लोग जातीय आधार पर दावे-प्रतिदावे करते हैं, उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? सरकार वास्तविक स्थिति नीतियां बनाने में सरकार को सुविधा होगी। सरकार को ये पता चलेगा कि किस जाति के कितने लोग हैं।

जातिगत जनगणना की मांग को लेकर महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में 683 किलोमीटर लंबी पदयात्रा 5 फरवरी से निकाली जा रही है।इसका समापन 19 फरवरी को होगा।

क्यों जरूरी है जाति आधारित जनगणना?

दरअसल, सरकारी योजनाओँ का ढांचा तैयार करने के लिए जाति और आर्थिक आधार पर जमा आंकड़े मददगार होते हैं। पिछले दिनों जब आयुष्मान योजना को लागू करने की बारी आई तो कहा गया कि पहले चरण में समाज के वंचित, पिछड़े, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के परिवारों को इसका लाभ मिल रहा है। योजना के अंतर्गत सामाजिक, आर्थिक एवं जाति पर आधारित कुछ परिवार चिह्नित किए गए। स्वत: सम्मिलित श्रेणियों एवं शहरी क्षेत्र की 11 कामगार श्रेणियों के तहत आने वाले लोग, जैसे कचरा उठाने वाले और फेरी वालों को भी इस योजना का लाभ दिया गया। प्रधानमंत्री जन आरोग्य अभियान के अंतर्गत पात्र परिवार के सभी सदस्य योजना के पात्र माने गए।   

सरकार का एनपीआर पर जोर 

राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने मौजूदा सत्र में ही सदन में कहा कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के बगैर जातिगत जनगणना संभव नहीं है।

नायडू ने शून्यकाल के दौरान यह टिप्पणी उस समय की जब जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के रामनाथ ठाकुर ने साल 2021 में जनगणना के साथ ही जातिगत गणना करने की भी सरकार से मांग उठाई।

उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू

ठाकुर ने कहा कि साल 1931 में ब्रिटिश काल में जातिगत गणना की गई थी। इसके बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने साल 2011 में भी जातिगत सर्वे कराया, लेकिन उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई। दरअसल, जातिगत गणना नहीं होने के कारण पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को विकास कार्यों का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पा रहा है। उन्होंने केन्द्र सरकार से साल 2021 में प्रस्तावित राष्ट्रीय जनगणना के साथ ही जातिगत गणना कराने की मांग की और कहा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कई बार इसकी मांग कर चुके हैं।

दिक्कत कहां हैं

वरिष्ठ पत्रकार अमरीक के अनुसार जाति और आर्थिकी आधारित जनगणना में कहां अड़चन हैं तो उन्होंने कहा- मौजूदा समय में एक ब्राह्मणवादी सरकार सत्ता में आरूढ़ है। वह सिर्फ सवर्णों को तवज्जो देती है। इसी मानसिकता से उसने पिछड़ों का हक छीनने के लिए 10 फीसदी सवर्ण आरक्षण दिया। जहां तक एनपीआर को आगे बढ़ाने का काम है तो पहली बात कि उसने मौजूदा प्रारूप में जाति का अलग का कोई कॉलम नहीं बनाया है और दूसरा जिस तरह का माहौल इस समय बनाया गया है उनसे समाज का 70 फीसदी तबका और पिछड़ों में भी तरक्कीपसंद लोगों की एक बड़ी संख्या इस सरकार को सहयोग करने की इच्छुक नहीं है क्योंकि उसने सरकारी नौकरियों में इस वर्ग को रोज-ब-रोज वंचित करने का काम किया है। 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

कमल चंद्रवंशी

लेखक दिल्ली के एक प्रमुख मीडिया संस्थान में कार्यरत टीवी पत्रकार हैं।

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