वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस और वर्ष 2002 में गुजरात में हुए मुसलमानों के कत्लेआम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के शूद्र और अतिशूद्र कार्यकर्ताओं ने अहम भूमिका निभायी थी। कहने की ज़रुरत नहीं कि वे अपने द्विज आकाओं के इशारे पर काम कर रहे थे। हाल के कुछ वर्षों में गौरक्षा के नाम पर दलितों और मुसलमानों की पीट-पीट कर हत्या की कई घटनाएं सामने आईं हैं। लव जिहाद का मुद्दा आज भी जीवित है जबकि उसके अस्तित्व का कोई प्रमाण अब तक सामने नहीं आया है। मुसलमानों के खिलाफ विषवमन अनवरत जारी है और अब उनकी लानत-मलामत करने वालों को नागरिकता कानून ने एक नया बहाना दे दिया है। इन सब के पीछे “दूसरे” के प्रति नफरत का भाव है।