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पेरियार का आत्मसम्मान आंदोलन : द्रविड़ अस्मिता का उद्घोष

जिन सामाजिक विसंगतियों ने पेरियार को आत्मसम्मान की लड़ाई छेड़ने के लिए विवश किया था, वे आज भी मौजूद हैं। ओमप्रकाश कश्यप लिखते है कि आज वर्चस्वकारी शक्तियां लोकतंत्र को कमजोर कर जाति, धर्म, पूंजी और राजनीति की मदद से अपनी पुनर्वापसी में लगी हैं। संविधान को निशाना बनाया जा रहा है

एक दिन हम फिर होंगे महान भाईचारे के साथ
ऐसा भाईचारा, जिसे जाति का आतंक मिटा नहीं सकेगा
जो मौजूद था इस समाज में बहुत पहले से
उन दिनों जब सभी मनुष्य एक थे
वे दिन जो अब बीत चुके हैं।

— पेत्रिहारियार, तमिल कवि 

आधुनिक भारत के निर्माण में जिन आंदोलनों की प्रमुख भूमिका रही है, उनमें जोतीराव फुले के “सत्यशोधक समाज” के अलावा दक्षिण भारत के “आत्मसम्मान आंदोलन” का प्रमुख स्थान है। इन दोनों आंदोलनों का मूल कार्यक्षेत्र सामाजिक था। मगर राजनीतिक सहभागिता की मांग भी उनमें स्वतः अंतनिर्हित थी। ब्राह्मणवादी शोषण के विरुद्ध फुले ने सामाजिक न्याय को समर्पित जिस आंदोलन की नींव महाराष्ट्र में रखी थी, एक तरह से पेरियार का “आत्मसम्मान आंदोलन” उसी का दक्षिण-भारतीय विस्तार था। ब्राह्मणवाद और वर्चस्वकारी संस्कृति की विसंगतियां तथा उनसे जन्मीं विषमताएं दोनों के निशाने पर थीं।

 

“आत्मसम्मान आंदोलन” की शुरुआत दिसंबर 1925 में हुई थी। मगर औपचारिक रूप से इसका आरंभ 1926 के शुरुआती महीनों में हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार इस आंदोलन का जन्म “कुदी अरासु” की प्रकाशन-तिथि से माना जाना चाहिए। अतएव एन. के. मंगलामुरुगेसन ने आंदोलन का आरंभ 1926 से माना है। संगठन की आरंभिक सूची में जो नाम शामिल हुए, उनमें पेरियार के अलावा थिरु. वी. कल्याणसुंदरम, डॉ. नायडू, आर. के.  षण्मुगम् चेट्टियार, जे. एस. कन्नप्पर, एन. थंडाप्पनी पिल्लई आदि के नाम सम्मिलित थे। एस. रामानाथन जिन्हें “आत्मसम्मान आंदोलन” का महासचिव नियुक्त किया गया और जो पेरियार के घनिष्ठ मित्र-मंडली में शामिल थे – इनका नाम पहली सूची में नहीं था।[i] संगठन के प्रमुख कर्ता-धर्ता पेरियार ही थे।

कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में एक जनसभा को संबोधित करते पेरियार

“आत्मसम्मान आंदोलन” का नामकरण तमिल शब्द “स्वयंमरियाथई” के आधार पर किया गया था। “स्वयंमरियाथई” शब्द का प्रयोग पेरियार के आरंभिक भाषणों में खूब मिलता है। “आत्मसम्मान आंदोलन” को आरंभ में “पारप्पनाल्लाथर स्वयंमरियाथई संघम्” (गैर-ब्राह्मण आत्मसम्मान लीग), “पारप्पनाल्लाथर वेलिबार स्वयंमेरियाथई संघम् (गैर-ब्राह्मण युवा आत्मसम्मान लीग) जैसे तमिल नामों से भी पुकारा गया। बाद में उसका सरलीकरण करते हुए उसे “स्वयंमरियाथई इयक्कम: (आत्मसम्मान आंदोलन) कर दिया गया। उसका नारा था – न ईश्वर, न धर्म, न गांधी, न कांग्रेस और न ही ब्राह्मण।”

आत्मसम्मान आंदोलन के उद्देश्य

आत्मसम्मान आंदोलन का उद्देश्य, धर्म, जाति और पुरोहितवाद के विरुद्ध समाज में लोक-चेतना लाना था। इसलिए आंदोलन का प्रथम उद्देश्य था – “द्रविड़ जनता के मनस् की ब्राह्मणवाद से मुक्ति। उन्हें उनके प्राचीन गौरव का विश्वास दिलाना। उसके लिए उन सभी धर्मग्रंथों, रीति-रिवाज़ों और परंपराओं से मुक्त करना जो ब्राह्मण-वर्चस्व को अपरिहार्य ठहराते थे।” तमिल ब्राह्मण स्वयं को आर्यों का उत्तराधिकारी बताते थे। इस कारण उनका अहं-बोध प्रबल था। आंदोलन की सैद्धांतिकी, जातिवाद और ब्राह्मणवाद विरोधी विचार प्राचीन तमिल कवियों, सिद्धों से अनुप्रेत थे। “आत्मसम्मान आंदोलन” के मुख्य मांगों में शामिल थे –

  • समाज में आदमी-आदमी के बीच किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  • आर्थिक विषमताओं को समाप्त किया जाना चाहिए।
  • भूमि और दूसरे संसाधनों का बंटवारा सामाजिक न्याय की भावना को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।
  • स्त्री-पुरुष के बीच सभी तरह के भेदभाव को खत्म होना चाहिए।
  • जाति, धर्म, राष्ट्र, वर्ण और ईश्वर को लेकर जो भी भ्रम समाज में व्याप्त हैं, उन्हें पूरी तरह से समाप्त हो जाना चाहिए।
  • मनुष्य को उसके श्रम का पूरा लाभ मिलना चाहिए।
  • मनुष्य को किसी भी सूरत में किसी का भी दास नहीं होना चाहिए।
  • मनुष्य को अपने ज्ञान, तर्क, भावनाओं और विश्वासों के साथ जीवन जीने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।

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“आत्मसम्मान आंदोलन” के मुख्य कार्यक्रम पेरियार के अपने जीवनानुभवों की देन थे। अंतरजातीय विवाह का मुद्दा स्त्री-मुक्ति से जुड़ा था। उसकी प्रेरणा उन्हें अपनी युवावस्था की एक घटना से मिली थी। वेलाला जाति के एक युवक ने नौकरी की इच्छा के साथ पेरियार से संपर्क किया। पेरियार ने उसे अपनी दुकान पर मुनीम का काम सौंप दिया। कुछ अवधि के बाद उस लड़के की मां ने पेरियार से संपर्क कर, उसका विवाह कराने की प्रार्थना की। पेरियार ने उसके लिए जिस लड़की को चुना, वह नायडू परिवार की थी। लोग उसपर अवैध संतान होने का लांछन लगाते थे। शादी पेरियार के दोस्तों, स्थानीय नेताओं तथा सरकारी कर्मचारियों की उपस्थिति में बड़ी धूमधाम से हुई। वह पहली शादी थी, जिसे पेरियार ने “आत्मसम्मान आंदोलन” के तहत कराया था। उसकी खूब चर्चा हुई। इससे पेरियार के विद्रोही स्वभाव की खबर दूर तक फैल गई। “स्त्री-मुक्ति” के क्षेत्र में उनका दूसरा कार्यक्रम विधवा विवाह को प्रोत्साहन देना था। बनारस सहित अन्य धर्मस्थानों पर उन्होंने ऐसी अनेक विधवाओं को देखा था, जिन्हें पति की मृत्यु के बाद घर छोड़ना पड़ा था।

मई 1927 में तामिलनाडु के तंजौर जिले के मायावरम नामक स्थान पर एक न्यायिक सम्मेलन हुआ। उसे आत्मसम्मान सम्मेलन का नाम दिया गया। सम्मेलन में पेरियार ने हमेशा की तरह जातीय भेदभाव और पुरोहितवाद पर हमला किया। उन्होंने कार्यकर्ताओं और आम जनों से अपील की कि वह जाति-आधारित भेदभाव और पारिवारिक-सांस्कृतिक मामलों में ब्राह्मणों को बुलाना छोड़ दें। सार्वजनिक मार्गों, जलाशयों, कुओं, मंदिरों आदि को सभी के लिए खोल दिया जाए। पेरियार की इस अपील का आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने जोरदार स्वागत किया। के. ए. पी. विश्वनाथम् उसी समय हजारों कार्यकर्ताओं के साथ मंदिर प्रवेश के लिए निकल पड़े। उनमें सभी जातियों के लोग शामिल थे।

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तत्कालीन परिस्थितियों में यह एक साहसपूर्ण कदम था। देखते ही देखते वह सूचना मंदिर प्रबंधकों तक पहुंच गई। उन्होंने मंदिर का मुख्य द्वार बंद कर दिया। लेकिन बगल के दोनों द्वार खुले रखे गए थे। मंदिर का मुख्य कक्ष भी बंद था। कार्यकर्ताओं ने मंदिर के प्रांगण में खड़े होकर पूजा-पाठ किया। नारियल तोड़े। बाहर निकलना चाहा तो मुख्य-द्वार सहित साइड के दरवाजे भी बंद कर दिए गए थे। एकाएक भीड़ आक्रोश में आ गई। आत्मसम्मान आंदोलन के कार्यकर्ताओं पर ईंट और पत्थर बरसाए जाने लगे। दीवार का सहारा लेकर उन्होंने खुद को बचाने की कोशिश की। फिर भी दर्जनों कार्यकर्ता घायल हो गए।

आत्मसम्मान आंदोलन की पहली वार्षिक बैठक 28 नवंबर, 1927 को तिरुनेलवेलि में हुई। पेरियार की अध्यक्षता में संपन्न हुई उस बैठक में संगठन की 32 उपनियम बनाए गए। मात्र एक वर्ष के भीतर “आत्मसम्मान आंदोलन” का असर दिखने लगा था। उससे पहले तमिल में नामकरण के लिए उत्तर भारत के देवताओं और महापुरुषों के नाम को आधार बनाया जाता था। तमिल अस्मिता की उभार के लिए पेरियार ने उसका विरोध किया। उन्होंने अपने समर्थकों से आग्रह किया कि वे अपने बच्चों के नामकरण के लिए तमिल परंपरा को अपनाएं। तमिल गौरव की याद दिलाने वाले नाम रखें। “आत्मसम्मान आंदोलन” के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नामकरण जैसी पारिवारिक प्रथा को भी पेरियार ने सार्वजनिक उत्सव बना दिया था। उससे पहले तमिलनाडु के लोग अपने बच्चों के नाम संस्कृत परंपरा के अनुसार अथवा उत्तर भारत के महापुरुषों के नाम पर रखा करते थे।

आजादी का आंदोलन आरंभ हुआ तो अनेक तमिलवासी स्वाधीनता सेनानियों के नाम के आधार पर अपने बच्चों का नामकरण करने लगे। नामकरण सामूहिक किए जाने लगे थे। उसके लिए आयोजन किया जाता था, जिसमें राजनीति, समाज और संस्कृति के विभिन्न आंदोलनों में शामिल नेताओं को भी आमंत्रित किया जाता था। पेरियार स्वयं इस काम में सक्रिय थे, वे नवजात शिशुओं को गौतम बुद्ध की परंपरा से जोड़ते हुए, आमतौर पर “सिद्धार्थ” या “गौतम” जैसे नाम दिया करते थे। आत्मसम्मान आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए धन की आवश्यकता थी। नामकरण के लिए पेरियार ने एक नई प्रथा की शुरुआत की। वे “गौतम” या “सिद्धार्थ” जैसा नाम देने के लिए 1 रुपये का चंदा लेते थे। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की मृत्यु के पश्चात  के. कामराज तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने तो “कामराज” नाम देने के लिए चंदे की राशि बढ़ाकर दो रुपए कर दी गई।[ii] तमिल परंपरा के अनुसार नामकरण को बढ़ावा देने के लिए पेरियार ने तरह-तरह की प्रोत्साहन योजनाएं आरंभ की थीं। ऐसे लोगों जो विवाह, मृत्यु, नामकरण संस्कार जैसे अवसरों पर ब्राह्मणों का बहिष्कार करते थे, उनके नाम “कुदी आरसु” में प्रकाशित किए जाते थे।

“आत्मसम्मान आंदोलन” की परंपरा के अनुसार विवाह कराते समय कई बार स्वयं पेरियार भी पुरोहित बन जाते थे। पेरियार के नेतृत्व में पहला आत्मसम्मान वैवाहिक संस्कार रामनाड जिले के, अरुपकोट्टई ताल्लुक के सुकलीनाथम् गांव में संपन्न हुआ था। उसमें दो लड़कियों का विवाह कराया गया था। उस समारोह में पेरियार के अलावा के. ए. पी. विश्वनाथम्, जे. एस. कान्नप्पर, पुत्तुकोत्तई अलगिरीसामी, एस. वी. लिंगम्, सुब्रमन्नम् पिल्लई जैसे आंदोलन के प्रमुख नेता और कार्यकर्ता मौजूद थे। समारोह के दौरान उस सभी ने पेरियार को हर्ष-ध्वनि के साथ जोरदार बधाई दी। पेरियार को रेलवे स्टेशन से समारोह स्थल तक ले जाने के लिए फूलों से सुसज्जित रथ का इस्तेमाल किया गया था। विवाह के समय नवदंपति  द्वारा सभी पारंपरिक रस्मों का निर्वाह किया गया था। इसके अलावा तमिल के पारंपरिक देवताओं “अम्मी मिथीतल”(सप्तपदी) तथा प्रेम और ऐश्वर्य की देवी “अरुंधति पार्थल” से जुड़ी रस्मों को भी पूरा किया गया।[iii]

“आत्मसम्मान आंदोलन” की आरंभिक दिनों में सिंगलपत्तु की बैठक बहुत महत्त्वपूर्ण थी। 17 फरवरी, 1929 को संपन्न हुई बैठक में उन अनेक नेताओं की सहभागिता थी, जो आंदोलन के आरंभिक दिनों में जुड़े थे और एक केंद्रीय इकाई का गठन करना चाहते थे ताकि आंदोलन के लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सके। हालांकि वह बैठक “आत्मसम्मान आंदोलन” की ओर से आहूत की गई थी, मगर उसमें बड़ी संख्या “जस्टिस पार्टी” के नेताओं और कार्यकर्ताओं की थी। बैठक में ब्रिटिश सरकार के झंडों को लगाया गया था।[iv] हालांकि “आत्मसम्मान आंदोलन” के विरोधियों ने यह कहकर उस बैठक की आलोचना की थी कि आयोजकों ने उसे दलदल में ढकेल दिया है। उस बैठक को सरकार का समर्थन भी प्राप्त था। विकास मंत्री की ओर से वहां कृषि उपकरणों की प्रदर्शनी लगाई गई थी। जस्टिस पार्टी के नेताओं के अलावा उसमें दो-चार ब्राह्मण नेता भी शामिल थे।

बैठक में तीन हजार से अधिक लोगों की भागीदारी थी। हालांकि सब कुछ पेरियार के नियंत्रण में था। बैठक का उद्घाटन करते हुए तमिल सरकार के स्वतंत्र प्रभार युक्त मुख्यमंत्री पी. सुब्रायन ने कहा था कि हिंदू धर्म ने हमें स्वार्थी बनाया है। सम्मेलन में कहा गया कि ब्राह्मण मंदिरों के चढ़ावे पर अपना अधिकार रखते हैं। यही उनकी उच्च सामाजिक-आर्थिक हैसियत का कारण है। बैठक में कई प्रस्ताव रखा गया था जिनमें से तीन पर सभी की सहमति बनी –

  • सम्मेलन इस नतीजे पर पहुंचा है कि भविष्य में मंदिरों के चढ़ावे या सामग्री में एक भी पैसा ईश्वर के नाम पर खर्च न किया जाए। न ही श्रद्धालु और ईश्वर के बीच किसी पुजारी को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जाए।
  • परिषद इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि भविष्य में कोई भी नया मंदिर न बनाया जाए। संबंधित मंदिर के प्रशासन और बाकी जरूरतों से बची धनराशि को तकनीकी एवं वोकेशनल संस्थानों, औद्योगिक शोध को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया जाए।
  • परिषद इस नतीजे पर पहुंची है कि मंदिरों में कोई भी उत्सव न कराया जाए। और उस धनराशि को लोगों के बीच ज्ञान, स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता और मेलजोल बढ़ाने के लिए किया जाए।

जाति और धर्म के नाम पर उत्पीड़न का शिकार रहे लोगों पर आंदोलन कितना असरकारी था, इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि “आत्मसम्मान आंदोलन” से प्रभावित होकर डेढ़ लाख से अधिक लोग अपने नाम के आगे जाति-सूचक चिह्न लगाना छोड़ चुके थे।

दिसंबर 1929 में पेरियार मलाया में बसे तमिलों के बुलावे पर वहां पहुंचे। दो सप्ताह की उस यात्रा में उन्हें गांवों, कस्बों और शहरों में रह रहे तमिल मूल के निवासियों को संबोधित किया। 1930 में उन्हें श्रंगेरी मठ के शंकराचार्य का आमंत्रण मिला। उन्होंने “आत्मसम्मान आंदोलन” की मदद करने और गलतफहमियों को दूर करने का आश्वासन दिया। शंकराचार्य के पत्र को उन्होंने 2 मार्च 1930 के अंक में प्रकाशित किया। उन्हें लगता था कि शंकराचार्य से मुलाकात का कोई सार्थक परिणाम निकलने वाला नहीं है। इसलिए उस आमंत्रण को  उन्होंने ठंडे बस्ते में डाल दिया।

 

“आत्मसम्मान आंदोलन” दिनोंदिन फैल रहा था। सक्रिय राजनीति को अलविदा कह चुके पेरियार अब  सामाजिक क्रांति लाने के लिए दृढसंकल्पित थे। फिर एक ऐसी घटना घटी जिसने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया। त्रावणकोर रियासत के वायकम में महादेव का पुराना मंदिर था। उसमें अछूतों का प्रवेश निषिद्ध था। मंदिर के आसपास की कुछ सड़कें ब्राह्मणों और राजपरिवार के सदस्यों के लिए आरक्षित थीं। अछूत उनपर चल नहीं सकते थे। इस अमानवीय व्यवस्था का विरोध लंबे समय से चला आ रहा था। जनता की मांग को देखते हुए त्रावणकोर सरकार ने 1865 में अध्यादेश के जरिए कानून बनाया था, जिसके अनुसार राज्य के सभी नागरिकों को सार्वजनिक स्थानों पर आने-जाने की छूट दी गई थी। यह व्यवस्था की गई थी कि राज्य की सभी सड़कें सभी नागरिकों के लिए खुली रहेंगी। कोई भी नागरिक उनपर आ-जा सकेगा। किंतु ब्राह्मण तथा राजपरिवार के सदस्य इस आदेश का विरोध करते आ रहे थे। उनकी परवाह न करते हुए 1884 में सरकार की ओर से एक और आदेश जारी किया गया था, जिसमें पिछली व्यवस्था का समर्थन किया गया था। उसके विरोध में ब्राह्मणों ने त्रावणकोर उच्च न्यायालय में अपील कर दी, जिसमें मंदिर के आसपास की कुछ सड़कों पर अछूतों के लिए चलना निषिद्ध कर दिया गया। उस आदेश की अछूतों में तीखी प्रतिक्रिया हुई। नारायण गुरु के नेतृत्व में उन्होंने अपना आंदोलन तेज कर दिया। दूसरी ओर दलितों और पिछड़ों को सबक सिखाने के लिए सवर्ण भी ब्राह्मणों के नेतृत्व में संगठित होने लगे थे।

“आत्मसम्मान आंदोलन” लंबे समय तक अनौपचारिक संगठन के रूप में काम करता रहा। उसे विधिसम्मत संस्था के रूप में 1952 में त्रिरुचिलापल्ली में पंजीकृत कराया गया। नाम रखा गया—”पेरियार आत्मसम्मान प्रचार संस्था।” संस्था का प्रमुख लक्ष्य था—अंधविश्वास और रूढ़ियों से मुक्त ऐसे समाज की संरचना पर बल देना जो समानता और समरसता के सिद्धांतों पर टिका हो।

स्त्री-समानता पर पेरियार के विचार आधुनिकता से भरपूर थे। वैदिक रीति से विवाह, जिसमें पंडित मंत्रोच्चार करता है, वर-वधु अग्नि की सप्तपदी लेते हैं, के वे घोर विरोधी थे। मानते थे कि स्त्री-पुरुष का विवाह स्वर्ग में बनी जोड़ियां नहीं हैं। वह दांपत्य सुख के लिए किया गया समझौता है, जिसमें लड़का और लड़की दोनों बराबर के सहभागी होते हैं। मातृत्व स्त्री का चयन होना चाहिए। कर्तव्य नहीं। यदि कोई स्त्री संतान नहीं चाहती, तो उसे संतानोत्पत्ति के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।

हिंदू धर्म के प्रति उनकी विरोध का एक कारण मंदिरों में चल रही देवदासी प्रथा भी थी, जिनमें ईश्वर की सेवा के नाम पर युवा लड़कियों को अघोषित वेश्यावृत्ति की ओर ढकेल दिया था। देवदासी प्रथा को समाप्त करने के लिए 1930 में पेरियार ने मद्रास विधानसभा में एक बिल भी पेश किया था। उन्होंने विधवा विवाह का समर्थन किया, जिसकी उस समय स्त्रीवादी संगठनों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उनके विचारों से प्रेरणा लेते हुए 1938 में मद्रास में प्रांतीय महिला संगठनों का बड़ा सम्मेलन हुआ था। उसमें पेरियार के स्त्री-उत्थान को लेकर चलाए जा रहे कार्यक्रमों की प्रशंसा करते हुए उन्हें “पेरियार” की उपाधि से अलंकृत किया था।

पेरियार के आदर्श समाज में किसी भी प्रकार के भेद-भाव, छूआछूत और रूढ़ियों के लिए कोई स्थान न था। “आत्मसम्मान आंदोलन” के पीछे निहित पेरियार की भावना को समझना कठिन नहीं है। पेरियार ने जाति और धर्म के आधार पर ब्राह्मणों द्वारा गैर-ब्राह्मणों के शोषण को अपनी आंखों से देखा था। इसके लिए अछूतों और शूद्रों के बीच आत्मसम्मान की भावना का संचार करना आवश्यक है। इसके लिए उन्हें पहले ब्राह्मणवाद के चंगुल से बाहर निकालना होगा।

कुछ ही वर्षों में “आत्मसम्मान आंदोलन” और पेरियार एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे। हिंदू धर्म पर तीखा हमला बोलते हुए उन्होंने अनेक बार मनुस्मृति और रामायण का दहन किया। कई बार जेल भी गए। श्रमिक आंदोलनों का नेतृत्व किया। उनके विरोधियों ने उनपर हमले करवाए। मगर एक भी घटना उनके हौसले को कम न कर सकी। अपने निधन (24 दिसंबर 1973) से पहले 19 दिसंबर के अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था :

“महानतम लक्ष्य जो मेरे जीवन से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है, वह है शूद्रों को बनियों और ब्राह्मणों के चंगुल से मुक्त कराना। यहां तक कि उनके लिए स्वतंत्र राज्य प्राप्त करना जहां वे वास्तविक स्वतंत्रता का आनंद ले सकें। अमेरिका के गोरे लोगों के राज में कालों की जो हालत थी, हमारी स्थिति भी उससे भिन्न नहीं है। अब वहां काले लोग बराबरी के स्तर को प्राप्त कर चुके हैं। भारत में ब्राह्मण स्वयं को ऊंची जाति का मानते हैं, जबकि हमें नीची जाति का मानकर व्यवहार किया जाता है। यदि हमारा देश ईसाइयों और मुसलमानों के अधीन होता तो निश्चित रूप से हम इस भेदभाव से मुक्त हो चुके होते…। मैं सभी धर्मों का बैरी हूं। चाहता हूं कि उन्हें खत्म हो जाना चाहिए। मेरा एकमात्र लक्ष्य यह देखना था कि द्रविड़ आत्म सम्मान का जीवन जिएं। इसके लिए मैं हमेशा काम करूंगा।”

पेरियार ने जैसा सोचा वैसा किया भी। वे आजीवन लोगों के आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ते रहे। जिन सामाजिक विसंगतियों ने उन्हें आत्मसम्मान की लड़ाई छेड़ने के लिए विवश किया था, वे आज भी मौजूद हैं। वर्चस्वकारी शक्तियां लोकतंत्र को कमजोर कर, जाति, धर्म, पूंजी और राजनीति की मदद से अपनी पुनर्वापसी में लगी हैं। संविधान को निशाना बनाया जा रहा है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार संविधान तभी अच्छा रह सकता है, जब उसको लागू करने वाले वाले अच्छे हों। संविधान निर्माता का संदेश सिर्फ नेताओं के लिए नहीं, सामान्य नागरिकों के लिए भी है। लोग संविधान के मूल तत्वों समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के साथ-साथ अस्मिताबोध को भी समझेंगे, तभी वे अपने अधिकारों की रक्षा कर पाएंगे।

[i] कुदी आरसु, 8 अगस्त, 1926, सेल्फ रेस्पेक्ट मूवमेंट इन तमिलनाडु, एन. के. मंगलामुरुगेसन, द्वारा उद्धृत, पृष्ठ-61

[ii] चार्ल्स रीयरसन, “रीजनलिज्म एंड रिलीजन”, पृष्ठ-97।

[iii] के. ए. पी. विश्वनाथम् का साक्षात्कार, 18 अप्रैल, 1976, एन. के. मंगलामुरुगेसन, पृष्ठ-67-68

[iv] एन. के. मंगलामुरुगेसन, पृष्ठ-83

(कॉपी संपादन : नवल/गोल्डी)

लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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