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कोविड 19 : आस्था रखें, विवेक से काम लें

इक्कीस दिनों के लॉकडाउन को हम एक सुनहरे अवसर में बदल सकते हैं। इससे हमें अपने परिजनों से जुड़ने और स्नेहभाव को व्यक्त करने का अवसर मिला है; और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह कि इसने हमें जीवन के उद्देश्यों और सरोकारों पर मनन और यह चिंतन करने का अवसर प्रदान किया है कि जीवन में सबसे महत्वपूर्ण क्या है। अगर यह वायरस आज हमें निगल जाए तो हम अपने बच्चों के लिए विरासत में क्या छोड़ जाएंगे?

सबसे पहले मैं हमारे नए पाठकों को अपना परिचय देना चाहूंगी। मैं डा. सिल्विया फर्नाडीस हूँ। पेशे से मैं एक प्लास्टिक सर्जन हूं। मेरे पति आयवन कोस्का और मैंने साथ मिलकर सन 2009 में फारवर्ड प्रेस का प्रकाशन शुरू किया था। कुछ वर्षों तक मैं पत्रिका के हर अंक में चिकित्सा से जुड़े किसी विषय पर एक लेख लिखा करती थी। बाद में प्रकाशन से जुड़े प्रशासनिक व प्रबंधन कार्यों में व्यस्तता के चलते यह सिलसिला बंद हो गया। 

परंतु आज हमारा देश और हमारी दुनिया संकट के जिस दौर से गुजर रही है, उसके चलते मुझे लगा कि मैं हमारे पाठकों को कुछ ऐसे सुझाव दे सकती हूं, जिनसे वे अपना और अपने परिजनों का बचाव कर सकें। 

कोरोना वायरस पूरी मानव जाति का शत्रु है। वह लिंग, धर्म, जाति, नस्ल, वर्ग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करता। वह हममें से किसी को भी अपना शिकार बना सकता है। 

इस वायरस ने पहले ही दुनिया के दर्जनों बड़े शहरों की सड़कों और बाज़ारों को वीरान कर दिया है। अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें लगभग बंद हैं। लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि वे क्या करें और क्या न करें। एक तरह की अफरातफरी और अराजकता ने पूरी दुनिया को जकड़ लिया है। कई लोग घबड़ाकर खाने-पीने का ज्यादा से ज्यादा सामान खरीद रहे हैं। उन्हें लगता है कि कल कुछ भी हो सकता है। 

जैसा कि मैंने कहा कि मैं एक सर्जन हूं। मैं न तो फिजीशियन हूं और ना ही महामारी विशेषज्ञ। परंतु मैं अपने पाठकों से वे कुछ सावधानियां और कदम साझा करना चाहूंगी, जो मैंने और मेरे परिजनों ने अपनाए हैं। 

हाल ही में मेरे पति और मुझे कुछ दिनों के लिए दिल्ली से बाहर जाना पड़ा था। हवाईअड्डे पर हमलोग अन्य यात्रियों से ज्यादा से ज्यादा दूरी पर बैठे। इसे ही ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ कहा जाता है। सच पूछा जाए तो इसे ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ (भौतिक दूरी) कहा जाना चाहिए। इसका अर्थ है दूसरों से एक मीटर (लगभग तीन फीट) की दूरी बनाए रखना। सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) तो वह है जो भारत में उन जातियों व वर्गों के साथ रखी जाती है, जिन्हें सामाजिक आधार पर नीचा माना जाता है। 

अपनी यात्रा के दौरान हम अपने बहुत से ऐसे मित्रों और रिश्तेदारों से नहीं मिले, जिनसे हम सामान्यतः मिलते थे। जिन लोगों से मिलना आवश्यक था, हम उनसे मिले परंतु न तो हमने उन्हें गले लगाया और ना ही उनसे हाथ मिलाया। हम किसी रेस्त्रां में नहीं गए। यात्रा के लिए हम अपने साथ डब्बाबंद खाद्य सामग्री ले गए थे। हमने टैक्सियों, दरवाजों के हैंडिलों इत्यादि को छूने के बाद हर बार अपने हाथ धोए। हमने अपने हाथ बार-बार धोए, शायद सामान्य से बीस गुना अधिक बार। हमने अपने हाथ साबुन और पानी से धोए और जहाँ साबुन और पानी उपलब्ध नहीं था वहां हमने हैंड सेनिटाईजर का उपयोग किया।

चूंकि यह वायरस हमारे मुंह, नाक और आंखों के रास्ते शरीर में प्रवेश कर सकता है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने चेहरे को छूने से बचें। मास्क पहनने से हम अपनी नाक और मुंह को छूने से बच सकते हैं। इसके अलावा, अगर खुदा ना खस्ता हमें संक्रमण हो तो हम अपनी खांसी और छींक से अपने आसपास के वातावरण को दूषित नहीं करेंगे। खांसते और छींकते समय अगर हमारे पास रूमाल या टिशु पेपर न हो तो हम अपनी कुहनी को मोड़कर उससे अपने मुंह को ढंक लें। 

गुजरात के मुन्द्रा में एक किराना दुकान के बाहर एक-दूसरे से करीब एक मीटर की दूरी बनाकर सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते ग्राहक

घर लौटने के बाद हमलोगों ने स्नान किया और यात्रा में इस्तेमाल किये गए अपने कपड़े धोए। फिर हमने स्वयं को ‘आईसोलेट’ कर लिया। न तो हम एफपी टीम के सदस्यों से मिले, जो अपने-अपने घरों से काम कर रहे हैं और ना ही हमारे बच्चों और नाती-पोतों से। इसमें उनके साथ-साथ हमारी सुरक्षा भी थी। यद्यपि इस वायरस से कोई भी व्यक्ति संक्रमित हो सकता है परंतु हम जैसे वरिष्ठ नागरिक, या ऐसे व्यक्ति जिन्हें डायबिटीज या ब्लड प्रेशर जैसे जीवनशैली से उद्भूत रोग हों, इस वायरस के लिए आसान शिकार हैं। इस समय दूसरे व्यक्तियों से भौतिक दूरी बनाए रखना बहुत ज़रूरी है ताकि वायरस को फैलने से रोका जा सके। लौटने के बाद से हम एक बार भी अपने घर से बाहर नहीं निकले हैं। 

ऐसा कहा जाता है कि रोकथाम हमेशा इलाज से बेहतर होती है। और कोरोना के मामले में तो कोई इलाज है ही नहीं – कम से कम अब तक तो नहीं। इसलिए केवल रोकथाम ही की जा सकती है। अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए हमने विटामिन डी3 के 60,000 यूनिट का एक-एक कैप्सूल खाया। यही कैप्सूल हमने अपने सहायक को भी दिया। आगे भी हम हर सप्ताह एक कैप्सूल खाएंगे। अगर हम कोरोना से संक्रमित हो जाते हैं तो हम लगातार चार दिनों तक एक-एक कैप्सूल लेंगे। हम प्रतिदिन कम से एक ग्राम विटामिन सी लेते हैं। हम स्टार्च और शक्कर से यथासंभव दूर रह रहे हैं और ज्यादा से ज्यादा गर्म पेय पदार्थ ले रहे हैं। इसके अलावा हम नमक के गुनगुने पानी से गलाला भी कर रहे हैं क्योंकि कोरोना सबसे पहले गले पर हमला करता है और गर्म पानी के इस्तेमाल से इसे फेफडों तक पहुंचने से पहले ही नष्ट किया जा सकता है। 

यदि हमें ऐसा लगेगा कि हममें वायरस के संक्रमण के लक्षण हैं तो हम तुरंत अस्पताल जाकर अपना टेस्ट कराएंगे। परंतु हम पानी में ल्यूगाल्स आयोडीन की कुछ बूंदे डालकर भाप के बफारे भी लेंगे। हम अपने फेफड़ों की क्षमता बढ़ाने के लिए दस-पन्द्रह सैकेंड तक अपनी सांस रोकने जैसे अभ्यास भी करेंगे। 

हमारे दिल्ली लौटने के कुछ दिन बाद लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। हमने इतनी मात्रा में आवश्यक वस्तुएं खरीद लीं जिनसे हमें कम से कम एक हफ्ते तक बाहर न जाना पड़े। हमने ऐसा इसलिए नहीं किया क्योंकि हमें डर था कि बाद में हमें सामान नहीं मिलेगा।

घर से बाहर न निकल पाने की मजबूरी को हम एक सुनहरे अवसर में बदल सकते हैं। इससे हमें अपने परिवारजनों के साथ जुड़ने और उनके प्रति अपने स्नेहभाव को व्यक्त करने का अवसर मिला है; जो कुछ हमें मिला है, उसके लिए कृतज्ञ होने का मौका मिला है; इसने हमें घर की सफाई करने का समय दिया है; और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इसने हमें हमारे जीवन के उद्देश्यों और सरोकारों पर मनन करने और यह चिंतन करने का अवसर प्रदान किया है कि हमारे लिए जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है क्या है। अगर यह वायरस आज हमें निगल जाए तो हम अपने बच्चों के लिए क्या विरासत छोड़ जाएंगे? क्या यह विरासत केवल भौतिक होगी? या हम ईश्वर और लोगों के प्रति प्रेम और सेवा की विरासत छोड़ जाएंगे? 

व्यक्तिगत रूप से मैं यूरोप में धर्म-सुधार के प्रणेता मार्टिन लूथर के उन शब्दों से प्रेरणा ग्रहण करती हूं जो उन्होंने 1527 में यूरोप में फैली ब्यूबोनिक प्लेग की महामारी के समय कहे थेः

मैं ईश्वर से विनयपूर्वक प्रार्थना करूंगा कि वे हम पर दया करें और हमारी रक्षा करें। फिर, मैं हवा को साफ़ करने के लिए धुआं (एक तरह का छिड़काव) करूंगा, दूसरों को दवा दूंगा और स्वयं भी दवा खाऊंगा। मैं ऐसी जगहों पर जाने और ऐसे लोगों से मिलने से बचूंगा, जहां मेरी उपस्थिति आवश्यक नहीं होगी ताकि मैं स्वयं दूषित न हो जाऊं और इस तरह दुर्योग से दूसरों को दूषित न कर दूं और मेरी लापरवाही के कारण किसी की जान न चली जाए। 

अगर ईश्वर मुझे अपने पास बुलाना चाहेगा तो वह मुझे ढूंढ़ ही लेगा। और इसलिए मैं अपनी या किसी और की मौत के लिए जिम्मेदार नहीं हूं। परंतु यदि मेरे पड़ोसी को मेरी जरूरत पड़ेगी तो मैं न तो उसके घर जाने से बचूंगा और ना ही उससे मिलने से। मैं ईश्वर से डरूंगा परंतु कोई उतावलापन या मूर्खता नहीं करूंगा। (द एनोटेटिड लूथर, खंड-4)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा की है। आइए, हम सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों में उसका साथ दें और कंधे से कन्धा मिलाकर हम सबके दुश्मन कोरोना से लड़ें और उस पर विजय प्राप्त करें।

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

डा. सिल्विया कोस्का

डा. सिल्विया कोस्का सेवानिव‍ृत्त प्लास्टिक सर्जन व फारवर्ड प्रेस की सह-संस्थापिका हैं

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