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डॉ. आंबेडकर का सामाजिक जेहाद

गांधी के हरिजन से लेकर दलित तक - इसी में अछूतों के आत्मबोध के रूपांतरण की समूची प्रक्रिया निहित है और इस रूपांतरण के पीछे आंबेडकर ने ही गतिमान प्रेरणा का काम किया है। संभवत: वे पहले दलित नेता थे, जिन्होंने दलितों के सामाजिक जागरण में और राजनीतिक रूप से उन्हें सामने लाने में खासी सफलता हासिल की। डॉ. आंबेडकर के संबंध में भाकपा माले के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव विनोद मिश्र के विचार

डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल 1891 – 6 दिसंबर, 1956) पर विशेष

गांधीवदी रूख, बुनियादी रूप् से हिंदू धर्म के अंदर “रचनात्मक कार्य”  के जरिए कुछ सुधार करना था ताकि स्वतंत्रता संघर्ष में कांग्रेस के सवर्ण नेतृत्व के पीछे अछूतों का का समर्थन बटोरा जा सके। दूसरी ओर डॉ. आंबेडकर ने खुद जाति व्यवस्था का विनाश करने के लिए और उभरती दलित आकांक्षा को एक राजनीतिक मंच प्रदान करने के लिए हिंदू धर्म के रैडिकल पुनर्गठन की कोशिश की। गांधी और आंबेडकर के इन दो परस्पर विरोधी रूखों ने एक दूसरे के साथ, मुस्लिम सरीखे समुदायों के साथ और ब्रिटिश सरकार के साथ उनके संबंधों को निर्धारित किया था।

मेरा मानना रहा कि मशीन और उससे निर्मित सभ्यता के चलते उत्पन्न आर्थिक बुराइयों के गांधीवादी विश्लेषण में कुछ भी नया नहीं था। ये पुराने सड़े-गले तर्क ही थे – रूसो, पुश्किन और टॉलस्टाय के तर्कों को दुहराना भर था। उनका अर्थशास्त्र भ्रांतिपूर्ण था, क्योंकि मशीन आधारित उत्पादन व्यवस्था और सभ्यता से उत्पन्न बुराइयां वस्तुत: मशीन के चलते उत्पन्न नहीं हुई हैं। वे वस्तुत: गलत सामाजिक संगठन से पैदा हुई हैं जिसने निजी संपत्ति और व्यक्तिगत लाभ हासिल करने को पवित्र बना दिया है। लिहाजा, निदान मशीन और सभ्यता को कोसने में नहीं है, बल्कि सामाजिक संगठन को बदलने में है।

आंबेडकर की भविष्यदृष्टि एक रैडिकल बर्जुआ दृष्टि थी और वह गांधी की रूढिवादी बुर्जुआ दृष्टि के साथ वाद-विवाद के दौरान खासतौर पर मुखर हुई थी। “बुर्जुआ” शब्द हमारे देश में इतना कुख्यात हो चुका है कि लोग रैडिकल और रूढिवादी बुर्जुआ दृष्टि के बीच फर्क नहीं कर पाते है और इस तथ्य को नजरअंदाज करने लगते हैं कि जनवादी क्रांति के हमारे फौरी संदर्भ में रैडिकल बुर्जुआ दृष्टि एक क्रांतिकारी दृष्टि का प्रतीक है। बुर्जुआ के बतौर आंबेडकर का चरित्र निर्धारण करने के चलते उनके अधंभक्तों ने मुझे काफी खरी-खोटी सुनाई, लेकिन एक रैडिकल बुर्जुआ के बतौर आंबेडकर का चरित्र चित्रण कर मैंने कम्युनिस्ट आंदोलन में उनका पहला सकारात्मक पुनर्मूल्यांकन किया है, उन्हें उनके समकालीनों से ऊंचा स्थान दिया है और कम्युनिस्टों व रैडिकल आंबेडकरपंथियों के बीच लंबे दौर तक संश्रय का मार्ग प्रशस्त किया है।

डॉ. बी. आर. आंबेडकर व विनोद मिश्र की तस्वीर

गांधी के हरिजन से लेकर दलित तक – इसी में अछूतों के आत्मबोध के रूपांतरण की समूची प्रक्रिया निहित है और इस रूपांतरण के पीछे आंबेडकर ने ही गतिमान प्रेरणा का काम किया है। संभवत: वे पहले दलित नेता थे जिन्होंने दलितों के सामाजिक जागरण में और राजनीतिक रूप से उन्हें सामने लाने में खासी सफलता हासिल की। 

आंबेडकर का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान था स्वतंत्र भारत के संविधान का मसविदा तैयार करना। आधुनिक भारत के बारे में उनका स्वप्न नेहरू के स्वप्न से मिलता-जुलता है। एक अर्थ में नेहरू की तुलना में आंबेडकर ने गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया। भारत एक खोज पर नेहरू के जोर के विपरीत उन्होंने घोषणा की, “यह मानकर कि हम एक राष्ट्र हैं, वस्तुत: हम एक मरीचिका के पीछे दौड़ रहे हैं। हम केवल निर्माणाधीन राष्ट्र होने भर का दावा कर सकते हैं।”

आंबेडकर संवैधानिक राजकीय समाजवाद के पक्षधर थे। वे शक्तिशाली केंद्र चाहते थे और उन्होंने एक ऐसे आर्थिक कार्यक्रम की वकालत की जिसमें भूमि का राष्ट्रीयकरण और सामूहिक खेती के लिए किसानों के बीच उनका वितरण तथा मुख्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण सन्निहित था। वे मानते थे कि स्पष्टत: दलित वर्गों की पक्षधरता पर आधारित राज्य संपोषित कल्याण कार्यों से जुड़कर यह आर्थिक कार्यक्रम उनके और लक्ष्य “जातियों के उन्मूलन” की ओर बढ़ जाएगा।

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मेरा मानना है कि दलितों की सामाजिक मुक्ति के लिए आंबेडकर ने जेहाद किया। उनका यह जेहाद उनके लिए हमेशा केंद्रीय वस्तु बना रहा और जब नेहरू ने हिंदू कोड बिल के विषय पर अनुदारवारवादी दबाव के सामने घुटने टेक दिए तो वे नेहरू से अलग हो गए। इसने आंबेडकर को इस बात के लिए और कायल कर दिया कि जातिवाद, हिंदू धर्म की बुनियाद है और दलितों के सामने उसका परित्याग कर देने के अलावा कोई चारा नहीं।

और इस प्रकार उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। उन्होंने इस धर्म की आधुनिक अर्थों में व्याख्या की – इस उम्मीद के साथ कि यह दलितों में एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का अग्रदूत साबित होगा। राजनीतिक कार्यवाही के क्षेत्र में उन्होंने उत्पीड़ित वर्ग की एक स्वतंत्र जनवादी पार्टी के बतौर रिपब्लिकन पार्टी के निर्माण की परिकल्पना की।

इस प्रकार आंबेडकर अपने जेहाद के शिखर पर पहुंचे। दुर्भाग्यवश बौद्ध धर्म स्वीकारने में केवल उनकी जाति महारों ने उनका साथ दिया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी राजनीतिक धारा, जिसका प्रतिनिधित्व रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया करती थी, टुकड़ों में बंट गई और उसे कांग्रेस ने हड़प लिया।

(डॉ. आंबेडकर के संबंध में भाकपा माले लिबरेशन के भूतपूर्व महासचिव विनोद मिश्र के विचार “विनोद मिश्र : संकलित रचनाएं” के अध्याय “वर्ग-जाति वैपरीत्य के बारे में कुछ बातें : श्री थामस मैथ्यू के प्रत्युत्तर का जवाब, लिबरेशन, जनवरी, 1995” से उद्धृत हैं)

प्रस्तुति : नवल किशोर कुमार

लेखक के बारे में

विनोद मिश्र

मध्यप्रदेश के जबलपुर में जन्में विनोद मिश्र (24 मार्च, 1947-18 दिसंबर, 1998) 1975 से 1998 तक भाकपा-माले ( लिबरेशन) के महासचिव रहे। "मेरे सपनों का भारत", "केसरिया साजिश का भंडाफोड़ : एक लोकप्रिय लेख माला", "बिहार के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान की भूमिका" आदि समेत इनके दर्जनों वैचारिक-राजनीतिक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा "का. विनोद मिश्र की संकलित रचनाएं" में संग्रहित हैं

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