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कब बहुरेंगे सफाईकर्मी जातियों के दिन?

इन जातियों के लोगों को डॉ. आंबेडकर के विचारों से जोड़ने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए। निश्चित तौर पर इसमें शेष दलित जातियों को पहल करनी होगी, ताकि अमानवीय पेशे से उन्हें मुक्ति मिल सके। इसके लिए राजनीतिक एकता बहुत जरूरी है। संजीव खुदशाह का विश्लेषण

वैश्विक महामारी कोरोना के कारण लॉकडाउन के दौरान “सोशल डिस्टेंशिंग” शब्द को मीडिया सहित सबने हाथोंहाथ स्वीकार किया। एक वजह यह कि इस शब्द का उपयोग भारत में सदियों से चले आ रहे जाति के आधार पर सामाजिक बहिष्करण के लिए किया जाता रहा है। जबकि कोरोना के मौजूं दौर में “फिजिकल डिस्टेंशिंग” शब्द का उपयोग किया जाना चाहिए। इसके अलावा एक और शब्द प्रचलन में आया है। यह शब्द है हेल्थ वर्कर्स। डाक्टर से लेकर नर्स और क्वारेंटाइन केंद्रों में साफ-सफाई करने वाले मजदूरों सभी के लिए इस शब्द का उपयोग किया जा रहा है। इतना ही नहीं पुलिसवालों को भी खूब मान-सम्मान मिल रहा है कि उनलोगों की सख्ती के कारण लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे हैं। इन सबके बीच वे सफाईकर्मी हाशिए पर हैं जो सड़कों, गलियों, नालों की सफाई में जुटे हैं। ऐसी खबरें भी प्रकाश में आयी हैं, जिनसे यह पता चलता है कि उनके पास कोरोना से बचने के आवश्यक उपकरण तक नहीं हैं। 

हालांकि एक बदलाव यह भी आया है कि लोग साफ-सफाई का महत्व समझने लगे हैं। कई खबरें भी आयी हैं, जिनमें सफाईकर्मियों पर फूल बरसाए जाने की घटना तक शामिल हैं। आज भी सफाई का काम दलित जातियों के लोग ही करते हैं। सफाईकर्मियों में गैर दलितों की हिस्सेदारी करीब 10 फीसदी ही है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि आज भी सफाईकर्म एक परंपरागत पेशा है जिसे संबंधित जातियों के लोग अपनाते रहे हैं। 

कौन है ये सफाई कामगार जातियां?

सफाईकर्म करने वाली जातियों में भंगी, मेहतर, डोम आदि शामिल हैं। इन्हें अलग-अलग नामों से बुलाया जाता है। मसलन कोई इन्हें स्वीपर कहता है तो कोई जमादार। इन जातियों के सामाजिक ताने-बाने की दास्तां अलग ही है। अधिकांश सफाईकर्मी भूमिहीन होते हैं। जहां रोजगार मिले, वहां चल पड़ते हैं। यही वजह है कि इन जातियों के लोगों ने देश के अलग-अलग हिस्से में जाकर सफाईकर्म किया है। जैसे जम्मू-कश्मीर में वाल्मिकी समुदाय के लोगों ने साफ-सफाई का बोझ अपने माथे पर ले रखा है। ये सभी पंजाब व आसपास के राज्यों से आए लोग हैं। कुछ सफाईकर्मी अपने राज्य को छोड़ दूसरे राज्यों में चले जाते हैं। एकदम खानाबदोश की तरह। जैसे छत्तीसगढ़ में उड़ीसा से आये सफाईकर्मी मिल जाएंगे। तमिलनाडु में आंध्र प्रदेश के सफाईकर्मी। बिहार और उत्तर प्रदेश के सफाईकर्मी तो देश के लगभग सभी हिस्सों में मिल जाएंगे। लगभग हर शहर में जहां पर नगर निगम या नगर पालिका का अस्तित्व है, वहां इन जातियों के लोग एक खास बस्ती में निवास करते हैं। इस बस्ती के लिए अलग से नामकरण भी किया जाता है। मसलन कहीं भंगी टोला, तो वाल्मिकी बस्ती तो कहीं डोमखाना। अब तो इन बस्तियों को अंग्रेजी नाम भी दिया जाने लगा है – स्वीपर बस्ती। 

इस गंदे पेशे से जुड़े रहने की मजबूरियां?

आखिर क्या वजह है कि सफाईकर्म करने वाली जातियों के लोग आज भी अपने परंपरागत व अमानवीय पेशे को ही अपनाने को मजबूर हैं। एक युवा सफाईकर्मी के मुताबिक,  वह और उसके सवर्ण दोस्‍त दोनों ने दसवीं कक्षा एक साथ उत्तीर्ण की। लेकिन सवर्ण दोस्त को नगर निगम रायपुर के एक ही ऑफिस में क्लर्क की नौकरी मिली तो दूसरे को सफाईकर्मी की नौकरी। क्या ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि लोगों का नजरिया अब भी नही बदला? 

कोरोना के कारण स्वच्छता दूत बने सफाईकर्मी!

एक चुनौती जाति प्रमाण पत्र की भी है। मसलन छत्तीसगढ़ में आज जाति प्रमाण पत्र के लिए 1950 से पूर्व का दस्तोवज मांगा जाता है, जिसमें प्रार्थी की जाति का स्पष्ट उल्लेख हो। अब इसमें पेंच यह है कि अधिकांश सफाईकर्मी भूमिहीन होते हैं और वे पलायन के शिकार भी होते हैं, ऐसे में वे सरकारी तंत्र द्वारा मांगे जा रहे दस्तावेज जुटाने में विफल हो जाते हैं। ऐसे में वे संविधान प्रदत्त आरक्षण का अधिकार लेने में भी पीछे रह जाते हैं। इन सबके अलावा समाज में उनके प्रति भेदभाव आज भी बरकरार है।

गौरतलब है कि सफाईकर्मी जातियों और शेष दलित जातियों में भी भेदभाव है। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि दलित जातियों में ऊंची श्रेणी की जातियों के लोगों द्वारा कमोवेश वैसे ही व्यवहार करते हैं जो ऊंची जातियों के लोगों के द्वारा दलितों के साथ किया जाता है। 

सामान्य स्थिति में यह मुमकिन है कि सफाईकर्मी जातियों के लोग पारंपरिक पेशे को छोड़ कोई अन्य काम करना भी चाहें तो भी उन्हें चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जाति हमेशा आड़े आती है। ऐसे में जबकि बचपन से ही अभाव में रहने के कारण उनकी शिक्षा बाधित होती है, जाति प्रमाण पत्र के कारण आरक्षण से वंचित कर दिए जाते हैं और कोई अन्य कार्य करने पर भेदभाव का शिकार होते हैं, उनके सामने सिवाय अमानवीय पेशे को अपनाने के कोई विकल्प नहीं रह जाता है।

धर्म का फेरा

कहना गैर वाजिब नहीं कि आज भी दलित जातियों के लोग समाज में सम्मान से वंचित हैं। इसी क्रम में वे हिंदू धर्म के शिकंजे में भी फंसते चले जा रहे हैं। एक तरफ तो उन्हें यह लगता है जिस पेशे को वे कर रहे हैं, उनकी किस्मत में लिखा है तो दूसरी ओर उन्हें लगता है कि हिंदू धर्म के कर्मकांड करने से उन्हें समाज में इज्जत मिलेगी और यह भी कि अगले जन्म में इस घृणित काम से मुक्ति मिले।

सफाईकर्मियों की पीढ़ियों को गुलाम बना रहा नशा

सफाईकर्म करने वाले नशा करते हैं। उनके मुताबिक, बिना नशा किये वे इस तरह का गंदा काम नहीं कर सकते हैं। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि इसका काम से कोई लेना-देना नहीं है। सफाईकर्मियों की बस्ती में नशा सेवन को गलत नहीं माना जाता है। इसका असर उनकी पीढ़ियों पर पड़ता है। अत्याधिक नशा के कारण उनके स्वास्थ्य में गिरावट होती है और बहुत ही कम उम्र में वे विभिन्न गंभीर रोगों के शिकार हो जाते हैं। फिर इलाज के क्रम में जीवन भर की कमाई एक झटके में खर्च कर देते हैं। इन सबका असर अगली पीढ़ी पर पड़ता है और वे भी अपने पूर्व की पीढ़ी के रास्ते पर चलने लगती है। 

शेष दलितों के साथ बने राजनीतिक एकजुटता

बहरहाल, सफाईकर्म करने वाली जातियों को कभी भी राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है। इसकी वजह यह है कि इन जातियों के लोग शहर या कस्बों में किसी खास जगह पर भी रहते हैं और वह भी सीमित संख्या में। इस कारण राजनीति में इनकी बड़ी भागीदारी नहीं बन पाती है। इन जातियों के लोगों को डॉ. आंबेडकर के विचारों से जोड़ने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए। निश्चित तौर पर इसमें शेष दलित जातियों को पहल करनी होगी, ताकि अमानवीय पेशे से उन्हें मुक्ति मिल सके। इसके लिए राजनीतिक एकता बहुत जरूरी है। 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

संजीव खुदशाह

संजीव खुदशाह दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इनकी रचनाओं में "सफाई कामगार समुदाय", "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" एवं "दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल" चर्चित हैं

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