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उषा गांगुली : अलविदा, क्षितिज में जगमगाते सितारे

उषा गांगुली के लिए हाशिए के वर्ग और व्यक्ति हमेशा महत्वपूर्ण बने रहे। “चांडालिका” नाटक में उन्होंने समाज की चक्की में पिस रही शूद्र समाज की एक महिला के जीवन को पूरे साहस के साथ लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया, बता रहीं हैं एनाक्षी डे बिस्वास

श्रद्धांजलि

बीते 23 अप्रैल, 2020 को उषा गांगुली का निधन हो गया। इसके साथ ही भारतीय रंगमंच को आलोकित करने वाला एक सितारा डूब गया। स्त्रियों से संबंधित विषयों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना उनकी बड़ी खासियत थी। कई अवसरों पर उन्होंने तमाम जोखिम उठाते हुए इस दिशा में पहल की। जोखिम इसलिए क्योंकि आज भी भारतीय रंगमंच पुरुष प्रधान है और यही कारण है कि महिलाओं से संबंधित ऐसे विषयों को प्रमुखता नहीं मिलती, जिनमें पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दी जा रही हो। उषा गांगुली ने ऐसे ही विषयों को प्राथमिकता दी। उनके द्वारा रचित/निर्देशित नाटकों में समाज के अंतिम पायदान की महिलाएं बेखौफ अपनी बात कहती थीं और मध्यम वर्ग की महिलाएं अपनी बेड़ियां काटती नजर आती थीं।

हम रंगमंच की दुनिया के लोग उन्हें “उषा दी” कहते थे।  वे महिला सशक्तिकरण की जीती-जागती मिसाल थीं। उनके निर्देशन में काम करने की मेरी अभिलाषा, अभिलाषा ही रह गयी। मुझे उनके साथ काम करने की प्रबल इच्छा इसलिए थी क्योंकि वे नाटक में अपना सर्वस्व लगा देतीं थीं। नाटक के हर पक्ष पर उनकी पकड़ होती थी – फिर चाहे वह संवाद हो या शरीर की भाषा। यहां तक कि वे हर दृश्य के तकनीकी पहलुओं का बारीकी से अध्ययन करती थीं। कहीं कोई कसर न रह जाये, वे इसकी हरसंभव कोशिश करतीं और सह-कलाकारों से भी यही अपेक्षा रखती थीं। यही वजह थी कि रंगमंच की दुनिया में वे एक संस्था बन गईं थीं। 

मैं अधिकांश समय कोलकाता से दूर ही रही। जब कभी कोलकाता जाना होता, मैं प्रयास करती थी कि उनसे मिलूं और कुछ सीख सकूं। जब भी फोन पर बात होती वे आत्मीयता से कहतीं – “आ जाओ एनाक्षी। आकर नाटक की रिहर्सल देखो। देखकर ही बहुत कुछ सीख सकोगी। एक अच्छा एक्टर होने के लिए एक अच्छा दर्शक होना बहुत महत्वपूर्ण है।”

फिर भी कभी-कभार नाटकों के मंचन के दौरान उनसे मिलना-जुलना होता। हर बार कोई न कोई नयी सीख जरूर मिलती। और अच्छा करने पर तारीफ करना नहीं भूलतीं। निश्चित तौर पर वे ऐसा प्राेत्साहित करने के लिए ही करती थीं।

स्मृति शेष : उषा गांगुली एक नाटक के दौरान

उषा गांगुली रिश्ते बनाती थीं और उन्हें निभाती भी थीं। वे प्रयोगधर्मी थीं। उनकी वजह से ही बंगाल में हिंदी नाटकों में बांग्लाभाषियों की दिलचस्पी बढ़ी। वे लेखिका, अभिनेत्री और निर्देशक तीनों थीं।

मुझे उनके द्वारा रचित नाटक “रूदाली” (1992) याद है। इस नाटक में उन्होंने बहिष्कृत दलित-पिछड़े वर्ग की स्त्रियों के जीवन को रंगमंच पर प्रस्तुत किया। यह उनका नायाब प्रयोग था। वहीं उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी “सात तरह की सात कहानियां” की सात महिला पात्रों पर केंद्रित “सप्तपर्णी” (1992) नाटक की रचना की। यह मूल कहानी की अलग व्याख्या थी जिसके केंद्र में महिलाएं थीं। इस नाटक में आजादी के पूर्व महिलाओं की स्थिति को बताया गया है। मसलन, उनकी सामाजिक हैसियत क्या थी और यह भी कि किस तरह वे पुरुष, जो कथित तौर पर आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, महिलाओं को गुलाम बनाए रखना चाहते थे । इसी तरह “बेटी आई” (1996) नाटक में उषा गांगुली ने महिलाओं के जीवन के हर चरण को रंगमंच पर प्रस्तुत किया – जन्म के पहले यानी भ्रूणावस्था से लेकर मृत्यु तक। महिलाओं को हर दौर में किस तरह के भेदभाव, शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, इन सबको अत्यंत ही बारीकी से उषा गांगुली ने बताया।

“हम मुखतरा” नाटक में उन्होंने यह दिखाया कि पुरुष कैसे स्त्री देह पर अपना वर्चस्व स्थापित करता है और इसके लिए किस तरह की साजिशें रचता है। वहीं “हिम्मत माई” (1998) नाटक में उन्होंने एक मां को प्रस्तुत किया जो हर चुनौती में अडिग रहती है। यह नाटक ब्रतोल्त ब्रेख्त की कहानी “मदर करेज” का हिंदी नाट्य रूपांतरण है।

उषा गांगुली का जन्म 1945 में जोधपुर,राजस्थान में हुआ। बाद में उनका परिवार कलकत्ता चला गया। वहां श्री शिक्षायतन कॉलेज से उन्होंने हिंदी में स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की। उन्होंने 1971 में भवानीपुर एजुकेशन सोसाइटी कॉलेज में बतौर हिंदी शिक्षक काम किया। वहीं से वर्ष 2008 में वे सेवानिवृत्त हुईं। अध्यापन के साथ ही उषा गांगुली रंगमंच की दुनिया में भी सक्रिय रहीं। शुरुआत उन्होंने संगीत कला मंदिर के साथ “मिट्टी की गाड़ी” (1970) से की। इसमें उन्होंने वसंतसेना का चरित्र निभाया। उनके अभिनय ने सबका ध्यान उनकी ओर आकर्षित किया। निर्देशक बनने से पहले उषा गांगुली ने तृप्ति मित्र और मृणाल सेन के साथ काम किया। बाद में 1976 में उन्होंने अपनी संस्था “रंगकर्मी” की स्थापना की। 

काबिले गौर है कि जिन दिनों वे  कोलकाता में हिंदी नाटक करती थीं, उन दिनों वहां हिंदी नाटकों के दर्शक न के बराबर हुआ करते थे। इस प्रकार उनके सामने कई चुनौतियां थीं। परंतु, उन्होंने हारना जाना ही नहीं था। वे एक के बाद एक नाटकों की प्रस्तुति करती रहीं। उन्होंने रबीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर महाश्वेता देवी और सआदत हसन मंटो तक की कहानियों को अपने अंदाज में पेश किया।

उषा गांगुली की विचारधारा वामपंथी थी। उनके लिए हाशिए के वर्ग और व्यक्ति महत्वपूर्ण थे। “चांडालिका” नाटक में उन्होंने समाज की चक्की में पिस रही शूद्र समाज की एक महिला के जीवन को पूरे साहस के साथ लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया। उन्होंने 2004 में आयी फिल्म “रेनकोट” की स्क्रिप्ट को संवारा। यह फिल्म् ओ’ हेनरी की “दी गिफ्ट ऑफ मागी” पर आधारित थी। इसका निर्देशन ऋतुपर्ण घोष ने किया था। 

उषा गांगुली की रंगयात्रा वैविध्यपूर्ण रही। “प्रस्ताव” (1977), “महाभोज” (1984), “लोककथा” (1987), “अपहरण” (1989), “होली” (1989), “काशीपुर की काशीनामा” (1991), “कोर्ट मार्शल” (1991), “खोज” (1994), “मुक्ति” (1999), “शोभायात्रा” (2000), “सरहद पर मंटो” (2000) इत्यादि  उनके बहुचर्चित नाटक रहे। 

उषा गांगुली हम सबकी प्रेरणा थीं और एक पथ प्रदर्शक के रूप में हमेशा रहेंगी। 

अलविदा, क्षितिज में जगमगाते सितारे!

(संपादन : नवल/अमरीश)

लेखक के बारे में

एनाक्षी डे बिस्वास

लेखिका विगत डेढ़ दशक से रंगमंच में सक्रिय। बहुचर्चित एकल नाटक "सबेरा"। संप्रति पटना वीमेंस कॉलेज, पटना में प्रदर्शन कला विषय के लेक्चरर के रूप में कार्यरत

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