h n

बहुजनों के लिए अवसर और वंचना के स्तर

संचार का सामाजिक ढांचा एक बड़े सांस्कृतिक प्रश्न से जुड़ा हुआ है। यह केवल बड़बोलेपन से विकसित नहीं हो सकता है। यह बेहद सूक्ष्मता और संवेदनशीलता की मांग करता है। संसद और विधानसभाओं में जाने वाले बहुत सारे नेता हो सकते हैं लेकिन एक सांस्कृतिक नेता की सामाजिक परिवर्तन में भूमिका उन सभी से बहुत महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि वह वंचना के कई स्तरों और रूपों की जानकारी से चेतना को धारदार बनाने में मदद कर सकता है। अनिल चमड़िया का विश्लेषण

भारतीय समाज में केवल समाचारपत्र, टीवी चैनल या कुल मिलाकर जनसंचार माध्यम ही सूचना एवं जानकारी हासिल करने के स्रोत नहीं हैं। जाति-बिरादरी एवं नाते-रिश्तेदारी का संचार ढांचा भी है जो ज्यादा सशक्त है। हम इस बात को इस तरह समझ सकते हैं कि गांवों के दलित, ओबीसी, आदिवासी समाज के सदस्यों को क्या पढऩा है, किस तरह की नौकरी पाने की तैयारी करनी है आदि की जानकारी कैसे और कहां से मिलती है। दलितों, ओबीसी, आदिवासियों के बीच एक सर्वेक्षण हम कर सकते हैं कि वे राजनीतिक-सामाजिक सत्ता में हिस्सेदारी से जुड़ी जरूरी और उत्साहजनक सूचनाओं के लिए किन जनसंचार माध्यमों के कितने हिस्से का इस्तेमाल करने की क्षमता रखते हैं। तथ्य यह है कि जो थोड़े-बहुत सक्षम हैं, वे भी एक से ज्यादा समाचारपत्र नहीं देख पाते हैं। यानी जनसंचार माध्यमों तक उनकी पहुंच बहुत सीमित है। पढ़ाई और नौकरी के संबंध में सूचनाएं देने के लिए उन माध्यमों का इस्तेमाल किए जाने का भी कोई नियम नहीं है, जिन तक दलित, ओबीसी, आदिवासी समाज के लोगों की ज्यादा पहुंच हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि समाज में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए संचार का सामाजिक ढांचा अति महत्वपूर्ण होता है।

यदि यह सर्वेक्षण किया जाए कि किस तरह की पढ़ाई और किस तरह की नौकरियों की तरफ  दलितों, ओबीसी, आदिवासियों का रूझान है तो बहुत ज्यादा असंतुलन की स्थिति सामने आएगी। मसलन एक जैसे विषयों और एक तरह की नौकरियों की तरफ ज्यादा रूझान मिलेगा। जैसे दिल्ली की माता सुंदरी महिला महाविद्यालय से प्राप्त आंकड़ों पर नजर डालें। वहां 2007 से 2011 के बीच चार सालों में 2658 लड़कियों को दाखिला दिया गया। स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं में 17 विषयों में दाखिला हुआ लेकिन इनमें ओबीसी लड़कियों की कुल तादाद महज 33 थी और उनमें केवल एक विषय बीईएलईडी में तीस थीं। इनमें से एक एमए हिन्दी और एक एमए संस्कृत की छात्रा थी। आखिर इसके क्या कारण हो सकते हैं। दरअसल, जो लोग दलित, ओबीसी-पिछड़े समाज से जुड़े विमर्शों में सक्रिय हैं उनकी अपनी सीमाएं हैं। उनमें विस्तार की कोई गुंजाइश भी अभी नहीं दिखाई देती है। सूचनाओं और जानकारियों का एक सामाजिक ढांचा कैसे विकसित किया जा सकता है, इसकी कोई तैयारी भी नहीं दिखती है। डा. आम्बेडकर के इस वाक्य को रटकर कि शिक्षित बनो, स्कूल-कॉलेज की तरफ जाने की एक भूख पैदा कर दी जाती है। शिक्षा को लेकर चेतना विकसित करने के राजनीतिक आयाम होते हैं। स्कूल-कॉलेज की तरफ जाने की भूख से अधिक महत्वपूर्ण शिक्षा की दिशा को निर्धारित करना होता है।

मैंने कई ऐसे विषयों में दलितों, ओबीसी, आदिवासियों की उपस्थिति की जानकारी हासिल करने की कोशिश की जिन तक समाज के इन हिस्सों की पहुंच नहीं हो पाने का अनुमान था। जैसे, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् में सूचना के अधिकार के तहत आवेदन देकर पूछा कि पिछले दस वर्षों के दौरान संस्थान में सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में किन-किन विषयों में कितने विद्यार्थियों को जेआरएफ फेलोशिप दी गई व उनमें से पांच वर्षों के दौरान ओबीसी, अनुसूचित जाति, आदिवासी की संख्या कितनी है। संस्थान के बारे में एक गलत धारणा बैठी हुई है कि आयुर्विज्ञान का मतलब चिकित्सा से संबंधित विषयों का संस्थान ही हो सकता है। पहली बात तो यह है कि किसी संस्थान के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं हो पाती है। दरअसल, यहां उस तरह के कॉमनसेंस से काम चलाया जाता है जो कॉमनसेंस नहीं वरन दिमागी जड़ता होती है। इस जड़ता को संचार का सामाजिक ढांचा ही तोड़ता है। पता चला कि यहां मनोविज्ञान, मानवविज्ञान, समाजशास्त्र, सामाजिक कार्य, स्वास्थ्य का अर्थशास्त्र, गृह विज्ञान और स्टेटेस्टिक्स, बायो स्टेटेस्टिक्स में शोधार्थियों को जूनियर, रिसर्च फैलोशिप दी जाती है।

लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि इन सालों में 1705 शोधार्थियों को चुना गया और उनमें महिलाओं की तादाद तो 682 थी लेकिन अनुसूचित जाति के कुल 57 और आदिवासी मात्र 11 थे। फिर आंकड़ों के भीतर घुसने की हमने कोशिश की। 2006 में एक अनुसूचित जाति तो सात ओबीसी थे। 2007 में केवल एक आदिवासी और एक ओबीसी था। 2008 में केवल एक अनुसूचित जाति और दो ओबीसी थे। 2009 में केवल एक अनुसूचित जाति और तीन-तीन आदिवासी और ओबीसी थे। 2010 में एक भी आदिवासी नहीं चुना गया और दो अनुसूचित जाति और सात ओबीसी थे। कुल मिलाकर पांच वर्षों में ओबीसी, अनुसूचित जाति और आदिवासी के 29 शोधार्थियों को चुना गया जबकि कुल सीटों की संख्या 140 थी और उनमें से 105 को ही योग्यता के आधार पर चुने जाने का दावा किया गया।

आंकड़ों के विश्लेषण की कई सतहें होती हैं। जिन अनुसूचित जाति के सदस्यों को चुना गया उनमें एक भी बिहार, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश यानी पूरे देश के पचहत्तर प्रतिशत से ज्यादा हिस्से का बाशिंदा नहीं था। एक भी आदिवासी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, गुजरात, झारखंड यानी खासी आदिवासी आबादी वाले राज्यों का नहीं था। ओबीसी में भी बिहार के तीन और उत्तरप्रदेश के लखनऊ से एक थे और मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात जैसे राज्यों से एक भी नहीं था। दिल्ली के शोधार्थियों की संख्या सबसे ज्यादा थी।

इस विश्लेषण को यहां प्रस्तुत करने का एक मकसद संचार के सामाजिक ढांचे के महत्व को समझना है। दो बातें यहां सामने आती हैं। पहली कि इस व्यवस्था में ओबीसी, अनुसूचित जाति और आदिवासियों की जो हिस्सेदारी होनी चाहिए वह नहीं है। लेकिन, दूसरी तरफ यह तथ्य भी उभरकर सामने आया कि एक खास तरह की पढ़ाई और नौकरी के जरिए ही हिस्सेदारों की संख्या बढ़ रही हैं। जो लोग हिस्सेदारी की बात करते हैं उनका शोध से कोई रिश्ता नहीं है। इसीलिए उनकी बातों में एक तरह का दोहराव बना रहता है। वे समाज निर्माण के जरूरी उपकरणों से वंचित हैं। इसी तरह हमने राष्ट्रीय संग्रहालय संस्थान से भी जानकारी हासिल की कि वहां दस वर्षों के दौरान ओबीसी, अनुसूचित जाति और आदिवासी कितनी तादाद में एमए और पीएचडी के लिए आए। 2001 में 20 पुरुषों और 31 महिलाओं को यहां चुना गया। लेकिन उनमें एकमात्र अनुसूचित जाति की महिला और एक-एक आदिवासी महिला और पुरुष थे। 2009 तक केवल सात ओबीसी चुने गए, जिनमें दो महिलाएं थीं। जबकि 2001 से 2009 के बीच कुल 432 लोगों का यहां दाखिला हुआ। 14 अनुसूचित जाति के पुरुष और महिलाओं का दाखिला हुआ। इनमें आदिवासियों की संख्या 17 हैं। इन संस्थानों का कहना है कि वहां जिन विषयों को पढाया जाता है, उसकी सूचना वे समाचारपत्रों व बेवसाइट के जरिए देते हैं। समाचारपत्रों का चुनाव यही संस्थान करते हैं। बेवसाइट एक नई तकनीक है और उसकी पहुंच समाज के इन वर्गों तक होते-होते न जाने कितना वक्त लगेगा।

बहुजनों की हिस्सेदारी केवल संसद के एक फैसले से सुनिश्चित नहीं की जा सकती है। संसद का कोई फैसला तो केवल वंचना के एक स्तर को कम कर सकता है। लेकिन उससे पहले और उसके बाद कई स्तरों पर और कई रूपों में वंचना की स्थितियां बनी रहती हैं। संघर्ष वर्चस्व को बनाए रखने का होता है इसीलिए उस वर्चस्व का रूप बदल दिया जाता है ताकि भ्रम की स्थिति बनी रहे।

संचार का सामाजिक ढांचा एक बड़े सांस्कृतिक प्रश्न से जुड़ा हुआ है। यह केवल बड़बोलेपन से विकसित नहीं हो सकता है। यह बेहद सूक्ष्मता और संवेदनशीलता की मांग करता है। संसद और विधानसभाओं में जाने वाले बहुत सारे नेता हो सकते हैं लेकिन एक सांस्कृतिक नेता की सामाजिक परिवर्तन में भूमिका उन सभी से बहुत महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि वह वंचना के कई स्तरों और रूपों की जानकारी से चेतना को धारदार बनाने में मदद कर सकता है। वह एक ऐसे उपकरण का विकास कर सकता है जो समाज के बहुत सारे लोगों को वंचना की कडिय़ों को समझने की दृष्टि दे सकता है।

(फारवर्ड प्रेस के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

संबंधित आलेख

न्याय को भटकते गोमपाड़ के आदिवासी
सवाल यह नहीं है कि 2009 में सुकमा इलाक़े में मारे गए 16 लोग नक्सली थे या नहीं। सवाल यह है कि देश के...
दलित पैंथर : पचास साल पहले जिसने रोक दिया था सामंती तूफानों को
दलित पैंथर के बारे में कहा जाता है कि उसका नाम सुनते ही नामी गुंडे भी थर्रा उठते थे और दलित पैंथर के उभार...
दलित पैंथर : पचास साल पहले जिसने रोक दिया था सामंती तूफानों को
दलित पैंथर के बारे में कहा जाता है कि उसका नाम सुनते ही नामी गुंडे भी थर्रा उठते थे और दलित पैंथर के उभार...
भाषा विवाद : शोषकों की मंशा को समझें दलित-बहुजन
यह आवश्यक है कि हिंदी को जबरन न थोपा जाए। हर राज्य का निवासी जब अपनी भाषा में पढ़ेगा तो अच्छा रहेगा। लेकिन यह...
भाषा विवाद : शोषकों की मंशा को समझें दलित-बहुजन
यह आवश्यक है कि हिंदी को जबरन न थोपा जाए। हर राज्य का निवासी जब अपनी भाषा में पढ़ेगा तो अच्छा रहेगा। लेकिन यह...