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सामाजिक विषमताओं में हस्तक्षेप करतीं रामजी यादव की कहानियां

रामजी यादव की कहानियों में ज्यादातर, छूट चुका और थका वक्त है जो, वर्तमान की अंगुली से चिन्हित किए जाने को अभिशप्त है। रामजी यादव के कहानी संग्रह, “आधा बाजा” से गुजरते हुए समय के उस गूढ़ मकड़जाल को समझा जा सकता है जिनके छल-बल, चिंघाड़ मार रहे हैं। बता रहे हैं सुभाषचंद्र कुशवाहा

हिन्दी कहानी में 1980 के बाद जो धमक सुनाई देती है वह, हाशिए के समाज की ओर से आई है। इसने कहानी कला के प्रायोजित रूप विधानों, बनावटी सिंगारों से सामाजिक विषमताओं को जिस चालाकी से तोप-ढांक कर रखा था, उसे एक झटके से बेपर्दा कर देती है। हाशिए के समाज के कई महत्वपूर्ण कहानीकारों ने अपनी खुरदुरी इबारतों से, समाज की बजबजाहट से, समाज के पांवों को स्पर्श कराया है। उनके अनुसार, कहानी केवल प्रयोगधर्मिता की चीज नहीं होती, वह जीवन के जहालत की वास्तविक अक्स होती है। आज ये कहानीकार उस जहालत को सामने लाना चाहते हैं, जिनमें उनके समाज के आंसू हैं, उत्पीड़न हैं, उनके पीठ के घाव हैं, अपमान और मानमर्दन है। संभव है उनकी कहानियां, उन्हें पसंद न आएं जो ऐसे जहालत से, स्वयं को कुलीन बनाये रखने की कला सीखते थे। उन्हें भी पसंद न आएं जो हाशिए के समाज को मूक-बधिर बना कर रखना चाहते हों। उन्हें ऐसी कहानियों से जलन स्वाभाविक है मगर आज एक व्यापक पाठक वर्ग इन कहानियों को हाथों-हाथ लेने को तैयार है। उसे हाशिए के समाज के कहानीकारों की कहानियों में, अपनी वेदना के करीब की तस्वीर उभरती दिख रही है और इसलिए वे उन्हें पढ़ रहे हैं। वे अपने कहानीकारों को पहचान रहे हैं। ऐसे ही कहानीकारों में रामजी यादव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है जिन्होंने गंवई जीवन को न केवल भोगा, बिछाया और ओढ़ा है, बल्कि वहां की बोली-भाषा से मन-मस्तिष्क को सामाजिक विज्ञान को परिभाषित करने की कला सृजित की हैं।  उनकी गंवई खदकती भाषा, मन में देर तक पूरा का पूरा नैरेटिव व्यक्त करने का हुनर सिखाती है।  

रामजी यादव की कहानियों में ज्यादातर, छूट चुका और थका वक्त है जो, वर्तमान की अंगुली से चिन्हित किए जाने को अभिशप्त है। रामजी यादव के कहानी संग्रह, “आधा बाजा”, से गुजरते हुए समय के उस गूढ़ मकड़जाल को समझा जा सकता है जिनके छल-बल, चिंघाड़ मार रहे हैं। इस संग्रह में कुल आठ कहानियां हैं। “आधा बाजा”, औपनिवेशिक सत्ता के बाद, भारतीय सत्ता समझ की देशी विद्रूपदाओं की पूष्ठभूमि में रचा-बसा कहानी संग्रह है, जिसकी शुरुआत ही ‘सूदखोर के पांव’ से होती है। 

पूर्वांचल के गंवई पाठकों को पता है कि यहां के सूदखोरों और सामंतों ने हाशिए के समाज की पूरी आबादी के साथ धूर्तता और चालाकी का जो खेल खेला है, वह प्रेमचंद ले लेकर कई कहानीकारों की कहानियों में दिखाई देता है। यहां सूदखोरों या सामंतों का एक वर्ग है, जो समाज के ज्ञान-विज्ञान विहीन संरचना के बीच, अंधभक्ति की फंतासियों का जाल बिछाया हुआ है। ब्राह्मणवाद की धूर्तता ने भोली-भाली गरीब जनता को धर्म की परिधि में सीमित कर, शोषण की धार तेज की है। इन तीनों ने गंवई समाज को ऐसा उलझा रखा है, जिससे उसे आसानी से और जब चाहे तब, चूसा जा सके। हाशिए के समाज को ज्ञान से दूर रखने के पीछे महज चूसने और चाकरी करवाने का सिद्धांत ही मुख्य रहा है। सूदखोर और जमींदार, मानवाकृत आदमखोर रहे हैं। व्यापक आबादी को भूखा नंगा रखने में सूदखोरों का रक्तपान मुख्य कारण रहा है जो एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक जाती रही है। यह समाज मानवीय होने का जितना भी नाटक कर ले या पुण्य-प्रसाद ग्रहण कर ले, मगर उसके माथे से अमानवीयता का दाग छूटता नहीं। रामजी यादव ने अपनी कई कहानियों में, विभिन्न कथानायकों के माध्यम से इन विद्रूपताओं को उजागर किया है। 

समीक्षित पुस्तक “आधा बाजा” का कवर पृष्ठ

यहां मैं केवल कुछ कहानियों का जिक्र करना चाहूंगा। ‘सूदखोर के पांव’ कहानी की शुरुआत एक काॅलेज से होती है जिसमें अध्यापकों के दो गुट हैं-एक मानसवादी जो हर बात के लिए गोस्वामी तुलसीदास को सामने रखते हैं। दूसरा वर्ग जनमानसवादी है, जिनका तर्क कि जिन बातों से जनता का भला न हो, वे फर्जी होती हैं। उसके अगुवा शैलेश जी हैं मगर जब रामजियावन पूछते हैं कि-‘शैलेश जी, आप हमेशा योग्य और गरीब विद्यार्थियों की मदद करते हैं लेकिन जरा उनकी जाति भी बताएंगे?’ कहानीकार कहता है कि यही शैलेश की कमजोर नस है। 

काॅलेज के प्रिंसिपल साहब के भाई हैं, श्याम बिहारी, पैर तोड़ बैठे हैं । उन्हें कभी प्रिंसिपल साहब ने उधार रुपए दिए थे। उसी उधारी के एवज में  उनका खेत जुतवाना चाहते हैं प्रिंसिपल साहब। जबकि श्याम बिहारी आफत में हैं। घर बैठे हैं । प्रिंसिपल साहब ऐसे समय, भाई की मदद को नहीं सोचते। वहीं श्याम बिहारी ने कभी प्रिंसिपल साहब के बेटे को पांच हजार देकर सुपरवाइजरी की नौकरी हासिल करने में मदद की थी।  

इस कहानी का पूरा नैरेटिव, मास्टर बलिराम के इर्द-गिर्द बुना गया है जो फक्कड़ हैं, मुंहफट हैं मगर हैं, संवेदनशील। पिछड़े समुदाय से आने वाले बलिराम मास्टर का जातिदंश के बाणों से गुुजरना स्वभाविक है। मगर वह व्यंग्य करने के बजाय, प्रिंसिपल साहब को याद दिलाते हैं कि अगर श्याम बिहारी न होते तो आज उनका बेटा आसनसोल जूट मिल में सुपरवाइजर न होता। प्रिंसिपल साहब की आंख खुलती है। वह जिसे व्यंग्य से घायल रखते थे, वही उनकी आंखों के माढे को हटा देता है। 

इस कहानी में भारतीय समाज की जाति संरचना के कुविचारों की नजदीकी बुनावट को साफ-साफ देखा जा सकता है। राम जियावन, दलित समुदाय से आते हैं। काॅलेजों में जातिगत वैमस्यता भरी पड़ी है। अध्यापकों की बातों में जाति न खदबदाए, संभव नहीं। उससे बचने के लिए राम जियावन को मास्टर बलिराम का सहारा मिलता है। वहीं प्रगतिशीलता का तगमा थामे मास्टर शैलेश, जातीय कुलीनता से मुक्त नहीं दिखते।  यहां कहानीकार वैचारिक प्रगतिशीलता के छद्म पर प्रहार करने से नहीं चूकता।  

भारतीय गांव और समाज की परिकल्पना (चित्रकार जियाउर रहमान)

ऊंच-नीच की लिजलिजाहट को पटखनी देने के लिए रामजी यादव की भाषा में आए देसज शब्द हैं जो बिना किसी शब्दकोश में स्थान पाये, देर तक पाठक के मस्तिष्क में कुलबुलाते हैं क्योंकि वे लोक समाज से उठाए गए शब्द हैं। लोकसमाज से मजबूत पकड़, रामजी यादव की कहानियों की दूसरी विशेषता है। 

जाति-विन्यास को समझने के लिए इस संग्रह में एक मजेदार कहानी है-अंबेडकर होटल। जंक्शन पर होने के कारण यह होटल सदा यात्रियों से भरा रहता था। वहां राम प्रसाद का होटल था, जो नामहीन होने के बावजूद, बेहतर खान-पान और स्वाद के कारण, वहां के दो अन्य होटलों की तुलना में अपनी अलग पहचान बना चुका था। वह उनकी तुलना में ज्यादा चलता था। राम प्रसाद जाति के अहिरवार थे पर नाम के आगे कुछ न लिखने के कारण, उनके प्रतिद्वंदी रहस्य की तलाश में लगे रहते। राम प्रसाद शुरु में हाशिए के समाज के नायकों यथा अंबेडकर और फुले आदि को पढ़े नहीं थे। बाद में वह अंबेडकर मिशन के कुछ कार्यकर्ताओं के संपर्क में आते हैं। उन्हें अंबेडकर और फुले को पढ़ने की जिज्ञासा बनती है। वह पढ़ने लगते हैं। वैचारिक परिवर्तन होते ही, घर में आंबेडकर और फुले के पोस्टर टंग जाते हैं। 

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राम प्रसाद ने अपने होटल की जो पहचान बनाई थी, वह बेहतर खान-पान के स्वाद के कारण बनी थी। वह गुण आधारित साख भी एकाएक कैसे धराशाई हो जाती है, यही इस कहानी का केन्द्रीय तत्व है। 

स्टेशन पर जो तीन होटल थे, उनके नाम नहीं थे। होटलों के नाम लिखना जब अनिवार्य कर दिया गया तो राम प्रसाद ने सोच विचार कर अपने होटल का नाम ‘अंबेडकर होटल’ रख लिया। तिवारी जी के होटल का नाम- ‘सनातनी तिवारी ढाबा’ और यादव जी के होटल का नाम-‘आदर्श हिंदू होटल’ रखा गया। बस क्या था, लोगों ने अंबेडकर होटल के नाम से होटल मालिक की जाति का अनुमान लगा लिया। खाने में लाजवाब स्वाद देने वाला होटल, बेस्वाद हो गया और देखते ही देखते वीरान हो गया। गुण संपन्न निम्नजातियों के जीवन की यही त्रासदी, इस कहानी को एक बड़ी कहानी बनाती है। 

संग्रह की ‘अंतिम इच्छा’ कहानी जंगबहादुर सिंह के गांव से मुंबई आने, बिल्डर बन अथाह दौलत कमाने के बावजूद, जीवन के अंतिम दिनों में गांव की रंग-गंध में बसा सांवां का भात खाने की इच्छा होती है। वह अपने बेटे से सांवां का भात खिलाने की जिक्र करते हैं। उनके बेटों ने सांवां का नाम नहीं सुना हुआ है। वे सांवां की तलाश शुरू करते हैं। 

सांवां की तलाश में गुगल और विकीपीडिया की मदद ली जाती है। सांवां कहां मिलेगा, ज्योतिष बताते हैं। मुंबई के आसपास, बाजार, हर कहीं सांवां की तलाश होती है। 

पिता की अंतिम इच्छा की पूर्ति के लिए उनके बड़े बेटे अमर बहादुर ने तय कर लिया था कि जैसे भी हो जहां भी जाना पड़े, पिताजी की अंतिम इच्छा वह जरूर पूरी करेंगे। वह भटकते हुए अपने पैतृक गांव में पहली बार गए मगर वहां भी सांवां नहीं बचा था। अंत में वह पुनः मुबई में आते हैं।  उन्हें सांवां वहीं कहीं मिल जाता है। भात बनता है मगर भात सूंघते ही जंगबहादुर थाली हटा देते हैं। उनकी माटी के सांवां की गंध से वह गंध मेल नहीं खाती। बेटों ने धोखा दिया है। नकली सांवां का भात भला वह नहीं पहचान सकते?  

इस संग्रह की शीर्षक कहानी ‘आधा बाजा’ लोकवाद्य कलाकार सुखदेव पर आधारित है जिनकी कला को सब पसंद करते मगर दलित समुदाय के उस लोक कलाकार को कोई पसंद नहीं करता। उसे सम्मान चाहिए था मगर हर कहीं गालियां और अपमान मिलता है। निम्नजातीय लोक कलाकारों के जीवन का यह कटु यथार्थ है। पेट पालने वाले इस लोक कलाकार को न तो घर पर बेटे-पत्नियां सम्मान देतीं न समाज। समाज में सम्मान के रूप में उन्हें लतखोरवा कहा जाता है। 

शादी-ब्याह में सट्टा पर सुुखदेव का बाजा चलता है। बेशक वह पूरी बैंड बाजा टीम का सट्टा कर, कुछ को किराए पर उठा देते हैं और वह केवल अपनी दफला से ही सबको चमत्कृत करते हैं। सम्मान का भूखा यह कलाकार अंततः भूखा रह कर भी परछावन के समय अद्भुत जोश में अपना आधा बाजा बजाता है। वह महिलाओं को भरपूर आनंद देता है, उन्हें थिरकने को मजबूर करता है। तब वही महिलाएं, जो कभी अपने बरतन में पानी नहीं देतीं, सुखदेव को अपने बरतन में पूछ-पूछ कर भरपूर भोजन करातीं हैं। दाल-भात, मिठाई, सुखदेव सुख पाते हैं। पेट की तृप्ति ही सुखदेव का वास्तविक सुख है। एक लोक कलाकार की दुनिया, पेट तक सिमटती जान पड़ती है। उसी पेट को भरने के लिए उसे अपमानित होना पड़ता है। 

देखा जाए तो पूरे संग्रह में ऐसे अपमान की ओर, कहानीकार बार-बार लौटता है। वह समाज के अहंकार, पाखंड को नंगा करता है। वह कहता है कि रोजमर्रा के युद्ध में आजाद भारत में सबसे बुनियादी श्रम करने वाले अपनी आजादी के लिए आहुतियां दे रहे हैं। 

इसलिए रामजी यादव की कहानियों में समाज की जातीय अमानवीयता, सांस्कृतिक घिनौनापन, ऊंच-नीच की दीवारों का कठोरपन, ब्राह्मणवादी सोच का झूठपन, आदि को एक साथ जाना-समझा जा सकता है। कहानियों का शिल्प, खेतों में लहराती फसलों की मानिंद पाठकों को झुमाता, बहाता ले चलता है मगर दिल-दिमाग में बजबजाहट की तस्वीर छाई रहती है। 

समीक्षित पुस्तक : आधा बाजा
कहानीकार : रामजी यादव
प्रकाशन : अगोरा प्रकाशन, वाराणसी
मूल्य : 140 रुपए

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

सुभाष चंद्र कुशवाहा

सुभाष चन्द्र कुशवाहा एक इतिहासकार और साहित्यकार के रूप में हिंदी भाषा भाषी समाज में अपनी एक महत्वपूर्ण जगह बना चुके हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘चौरी-चौरा: विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’, ‘अवध का किसान विद्रोह : 1920 से 1922’, ‘कबीर हैं कि मरते नहीं’, ‘भील विद्रोह’, ‘टंट्या भील : द ग्रेट इंडियन मूनलाइटर’ और ‘चौरी-चौरा पर औपनिवेशिक न्याय’ आदि शामिल हैं। वे अपनी किताबों में परंपरागत इतिहास दृष्टियों के बरक्स एक नयी इतिहास दृष्टि प्रस्तुत करते हैं।

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