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केरल : सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की उपज है प्रवासी श्रमिकों के प्रति सम्मान का भाव

भारत पर कोरोना वायरस के हमले के बाद विनिर्माण श्रमिकों की देश की सबसे पुरानी सहकारी संस्था ने प्रवासी मजदूरों के साथ जो व्यवहार किया, वह भारत सरकार के उनके प्रति हृदयहीन रवैये से एकदम उलट था। आज से 95 वर्ष पहले जन्मी यूएलसीसीएस के इतिहास से वाकिफ लोग जानते हैं कि यह संस्था प्रवासी श्रमिकों का कितना सम्मान करती है, बता रहे हैं अनिल वर्गीज

बीते 24 मार्च, 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 21 दिन के राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा की। यह घोषणा अचानक की गई और इसे चार घंटे में ही लागू कर दिया गया। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए रोज़ कमाने-खाने वाले श्रमिक, विशेषकर वे जो अपने घरों से दूर बड़े शहरों में मेहनत-मजदूरी कर अपना पेट पाल रहे थे। उनके पास दो ही विकल्प थे – या तो वे लॉकडाउन की अवधि में सरकार या परोपकारी संस्थाओं के रहमोकरम पर वहीं रहे या फिर सैकड़ों मील दूर अपने घरों के लिए पैदल कूच कर दें। 

इस घटनाक्रम से कुछ दिन पहले केरल में काम कर रहे श्रमिकों को लेकर तीन बसें पश्चिम बंगाल के मालदा पहुंची। इन बसों को उरालुंगल लेबर कॉन्ट्रैक्ट कोआपरेटिव सोसाइटी (यूएलसीसीएस) ने किराये पर लिया था ताकि संस्था में काम कर रहे श्रमिकों को उनके घर पहुँचाया जा सके। उस समय केरल में कोविड-19 के मामले बढ़ रहे थे और निर्माण कार्य बंद हो रहे थे। यूएलसीसीएस के कुछ ‘अतिथि श्रमिकों’ ने अपने घर लौटने की इच्छा व्यक्त की। ट्रेनों में जगह नहीं थी, इसलिए संस्था ने बसों का इंतजाम किया। जो लोग अपने घर वापस नहीं जाना चाहते थे, उनके लिए यूएलसीसीएस ने केरल में रहने के लिए जगह का इंतजाम किया और निशुल्क भोजन का भी।  

केरल के वित्त मंत्री थॉमस आईज़ेक ने ट्वीट किया, “प्रवासी श्रमिकों के सपरिवार अपने घरों के लिए पैदल निकल पड़ने के फोटो देश के विभाजन के दिनों की याद दिलाते हैं। इसकी तुलना देश की सबसे बड़ी विनिर्माण श्रमिक सहकारी संस्था यूएलसीसीएस से करें, जिसने विशेष बसों से उन्हें कोलकाता पहुंचाया…”। मंत्री ने मिशेल विलियम्स के साथ मिलकर यूएलसीसीएस पर एक पुस्तक लिखी है जिसका शीर्षक है, “बिल्डिंग अल्टरनेटिव्ज : द स्टोरी ऑफ़ इंडियास ओल्डेस्ट कंस्ट्रक्शन वर्कर्स कोआपरेटिव”। (लेफ्टवर्ड, 2017)

यूएलसीसीएस के लिए हमेशा से मुनाफे की तुलना में मजदूर अधिक महत्वपूर्ण रहे हैं। यह संस्था आज से 95 साल पहले केरल के मालाबार क्षेत्र में (आज के) कोड़िकोड ज़िले के कराक्कड़, वादकारा में अस्तित्व में आई थी। और तभी से उसकी यही नीति रही है। और इसमें आश्चर्य कैसा? आखिर इस संस्था का गठन जिन 14 व्यक्तियों ने मिलकर किया था, उनमें से तीन को छोड़कर बाकी सभी मजदूर थे। ये सभी थिय्या (जिसका मलयालम में शाब्दिक अर्थ ‘बुरे लोग’ होता है) थे। ऊंची जातियां, जो मालाबार क्षेत्र की कुल आबादी का 15 प्रतिशत थीं, लगभग 80 प्रतिशत ज़मीनों की मालिक थीं, जबकि थिय्या सहित नीची जातियों का आबादी में प्रतिशत 70 होते हुए भी वे केवल पांच प्रतिशत ज़मीनों की मालिक थीं। अधिकांश जमींदार नम्बूदरी ब्राह्मण थे।

बीसवीं सदी की शुरुआत में बासल मिशन के एक कारखाने में काम करतीं महिलाएं

जाहिर है कि ऐसी स्थिति में श्रमिकों का शोषण होना ही था। मालाबार पर टीपू सुल्तान के कब्जे से कुछ समय के लिए हालात सुधरे, परन्तु अंग्रेजों द्वारा मालाबार को मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा बनाने के साथ ही शोषकों की हिम्मत और बढ़ गई। वे और बेरहमी और क्रूरता से नीची जातियों के लोगों का खून चूसने लगे। अपनी पुस्तक में थॉमस आईज़ेक और मिशेल विलियम्स लिखते हैं, “औपनिवेशिक शासकों ने मालाबार क्षेत्र के क्रूर जातिगत वर्चस्व को कभी चुनौती नहीं दी। उन्हें इस बात से कोई परेशानी नहीं थी कि इलाके के अधिकांश रहवासी अपने मूल नागरिक अधिकारों से वंचित थे। वे अपने इस निस्पृह भाव को इस आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराते थे कि स्थानीय लोगों की धार्मिक आस्थाओं में हस्तक्षेप न करना उनकी स्थाई नीति है और जातिगत वर्चस्व को धार्मिक आस्था के अलग करके देखना संभव नहीं है। इस तरह पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक रिश्तों को औपनिवेशिक शासन ने मजबूती दी।” 

परन्तु आमजनों को जातिगत शोषण के पंजों से मुक्त करवाने के अन्य प्रयास हुए। बासल मिशन, जो कि स्विट्ज़रलैंड की एक कैल्विनिस्ट मिशन थी, ने 19वीं सदी के मध्य में मालाबार में अनेक कपड़ा मिलों की स्थापना की जिनमें हजारों श्रमिकों को काम मिला। इन मिलों से स्थानीय निवासियों को नयी तकनीकी का ज्ञान मिला, उन्हें डाई (कपड़ों को रंगने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले रसायन) के बारे में पता चला और फैक्ट्रियों के संचालन के नए तरीकों के बारे में भी। मिशन ने इस इलाके में प्राथमिक स्कूलों का जाल बिछा दिया जिससे जाति प्रथा के बंधन कुछ कमज़ोर पड़े। मिशन द्वारा अपना पहला प्राथमिक स्कूल स्थापित करने के कुछ ही साल पहले (आज के) कन्नूर जिले के थालास्सेरी के नज़दीक पातयाम गांव में एक थिय्या परिवार में वयालेरी कुंजिकन्नन गुरुक्कल का जन्म हुआ। वे एक प्रभावी वक्ता थे और अपने भाषणों में जाति व्यवस्था, अंधविश्वास और मूर्तिपूजा के विरुद्ध आग उगलते थे. उनका जोर ‘आत्मविद्या’ पर था। उन्हीं की प्रेरणा से 1925 में “उरालुंगल कूलिवेलाक्कारुड़े परस्पर सहाय संघम” या यूएलसीसीएस का जन्म हुआ। 

वाघभटानन्द (बाएँ); यूएलसीसीएस के मुख्यालय भवन के बाहर लगी एक मूर्ति, जिसमें यह दिखाया गया कि दशकों पहले किस प्रकार मजदूर अपने हाथों से सड़क बनाने के लिए रोलर खींचते थे

थिय्याओं को दक्षिणी केरल, जो पूर्व त्रावणकोर राज्य का भाग था, में एझावा के नाम से जाना जाता है। यही वह इलाका है, जहां श्री नारायणगुरु, जो कि स्वयं एझावा जाति के थे, ने ‘एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर’ का अपना संदेश दिया था। गुरुक्कल, जो अपने पिता से ज्ञानार्जन कर संस्कृत के उद्भट विद्वान बन गए थे, ने एक संस्कृत स्कूल खोला। वे लम्बे समय तक ब्राह्मो समाज के शिव योगी के सबसे प्रभावशाली प्रचारक रहे। ब्राह्मो समाज एक अखिल-भारतीय हिन्दू सुधारवादी आन्दोलन था। शिव योगी ने गुरुक्कल को ‘वाघभटानन्द’ की उपाधि ने नवाज़ा. परन्तु 1917 आते-आते, गुरुक्कल ने शिव योगी का साथ छोड़ दिया और वे श्री नारायणगुरु के अनुयायी के रूप में ‘आत्मविद्या’ का प्रचार करने लगे। 

आईज़ेक और विलियम्स लिखते हैं, “कराप्पयिल कनरन के नेतृत्व में क्रन्तिकारी युवकों के एक समूह ने वाघभटानन्द को कराक्कड़ में व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया। वहां उपस्थित एक बड़ी भीड़ को वाघभटानन्द के तार्किक भाषण ने चमत्कृत कर दिया। अपने भाषण में उन्होंने मूर्ति पूजा, कर्मकांडों और सड़ी-गली परम्पराओं की जम कर खिल्ली उड़ाई। इसी कार्यक्रम में आत्मविद्या संघम नामक एक संस्था का गठन किया गया जिसका लक्ष्य था आत्मविद्या का अध्ययन और प्रचार…संघम के सदस्य परस्पर अभिवादन के लिए जिन शब्दों का प्रयोग करते थे वे ईश्वर के नाम पर किये जा रहे जातिगत अन्यायों के खिलाफ उठ खड़े होने का बिगुल था। वे एक-दूसरे से कहते थे, ‘जागो, अपने निर्माता को याद करो; उठो और न्याय के लिए लड़ो”। वाघभटानन्द को निम्न जातियों के अधिकारों के लिए अपने संघर्ष में मुथु कोयल थंगल नामक अपने एक धनी और प्रगतिशील मुस्लिम मित्र का पूरा सहयोग हासिल था।  

आत्मविद्या संघम को ऊंची जातियों के साथ-साथ थिय्या समुदाय के श्रेष्ठी वर्ग का कोपभाजन भी बनना पड़ा क्योंकि संघम जातिगत विभेद के अतिरिक्त थिय्याओं में प्रचलित अंधविश्वासों के खिलाफ भी आवाज़ बुलंद करता था. संघम के सदस्यों को सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार का सामना भी करना पड़ा। इससे निपटने के लिए संघम ने 1922 में अपने स्कूल, 1924 में अपनी सहकारी साख समिति (ऐक्य नान्या संघम) और 1925 में यूएलसीसीएस की स्थापना की। यूएलसीसीएस के पहले अध्यक्ष थे चप्पयिल कुंज्येक्कू गुरुक्कल। गुरुक्कल एक मंजे हुए राजमिस्त्री थे। उन्होंने कराक्कड़ में एक अंतरजातीय भोज आयोजित किया, जिसमें बहिष्कृत समुदायों के सदस्यों को आमंत्रित किया गया। एक अन्य संस्थापक सदस्य थे पालेरी चन्दमान, जो यूएलसीसीएस के वर्तमान अध्यक्ष रामेशन पालेरी के दादा थे। वे एक समृद्ध परिवार से थे। आईज़ेक और विलियम्स लिखते हैं, “उन्होंने अपने घर के मंदिर की सभी मूर्तियों को एक कुएं में फेंक दिया। यह देखकर पूरा गांव भौचक्का रह गया। उन्होंने थिय्या महिलाओं का एक जुलूस भी निकाला, जिसमें सदियों पुरानी परंपरा को अंगूठा दिखाते हुए सभी महिलाएं ब्लाउज पहने हुईं थीं। उन्होंने मंदिरों में घुस कर और सार्वजनिक तालाबों में नहाकर उन्हें अपवित्र करने का अनूठा आन्दोलन भी चलाया…चन्दमान ने अपनी ज़मीन और अपने मकान का तलघर, संस्था के कार्यालय के लिए दान दे दिया। एक अन्य संस्थापक सदस्य कय्याला चेक्कू ने अपनी ज़मीन पर दलितों के लिए एक कुआं खुदवाया”। 

यूएल साइबरपार्क और उसका निर्माण करने वाले श्रमिक

आज 95 साल बाद भी यूएलसीसीएस के बगावती तेवर बरकरार हैं। आज भी कोई सफाईकर्मी, कोई पत्थर काटने वाला या कोई अन्य श्रमिक इसका सदस्य बन सकता है और फिर निदेशक या अध्यक्ष भी। जो श्रमिक अपनी कार्यकुशलता प्रमाणित कर देता है, उसे सदस्य नियुक्त कर दिया जाता है और फिर वह अन्य सदस्यों में से संस्था का निदेशक मंडल चुन सकता है। निदेशक मंडल सभी निर्णय लेता है। 

केरल की सरकार, निर्माण परियोजनाओं के ठेके देने में श्रमिकों की सहकारी समितियों को प्राथमिकता देती है। सरकार की इस नीति से यूएलसीसीएस लाभान्वित हुआ है। पिछले कई वर्षों में यूएलसीसीएएस की छवि एक ऐसी संस्था की बन गई है, जो समय पर और गुणवत्तापूर्ण काम करती है। उसके पास आधुनिक मशीनरी है और उसने कई इंजीनियरों को नियुक्त कर रखा है। उसे सड़कों, फ्लाईओवर और पुल बनाने के अनेक ठेके मिल चुके हैं। परन्तु समय के साथ, उसे कुछ चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। कराक्कड़ क्षेत्र की नयी पीढ़ी शिक्षित है और स्वाभाविक तौर पर युवा अब मजदूर के रूप में काम नहीं करना चाहते। सच तो यह है कि पूरे केरल में ही श्रमिकों की कमी है। आज यूएलसीसीएस द्वारा कार्यान्वित ही जा रही परियोजनाओं में राज्य की अन्य निर्माण गतिविधियों की तरह, प्रवासी श्रमिकों की सेवाएं ली जा रहीं हैं। हाल में, इस सहकारी संस्था की सदस्यता प्रवासी मजदूरों के लिए भी खोल दी गई है। अब प्रवासी श्रमिक, जिन्हें यूएलसीसीएस ‘अतिथि श्रमिक’ कहना पसंद करती है, भी निदेशक मंडल के चुनाव में भाग ले सकते हैं और अन्य सदस्यों की तरह उन्हें भी संस्था के शेयर सहित प्रोविडेंट फण्ड और ब्याज-मुक्त ऋण जैसे सुविधाएं मिलतीं हैं। जो श्रमिक सदस्य नहीं हैं, उन्हें भी चिकित्सा बीमा और बोनस का लाभ मिलता है। 

द इकनोमिक टाइम्स के अनुसार, यूएलसीसीएस के अंतर्गत 12,000 से अधिक श्रमिक काम कर रहे हैं और 2018-19 में उसकी कुल आय 1,100 करोड़ रुपए थी। इनमें से 4,500 प्रवासी श्रमिक हैं। संस्था के सदस्यों की संख्या 2,969 है। लगभग 30 प्रतिशत श्रमिक महिलाएं हैं और 70 प्रतिशत के अधिक थिय्या, अन्य ओबीसी, एससी व एसटी हैं। 

नयी पीढ़ी के सपनों को आकार देने के लिए यूएलसीसीएस अपनी गतिविधियों का विस्तार कर रही है। सन् 2011 में उसने थिरुवनंतपुरम में यूएल टेक्नोलॉजी सोल्युशंस (यूएलटीएस) नामक आईटी कंपनी की स्थापना की और उसके बाद कोड़िकोड में साइबर पार्क के भवन का निर्माण भी किया। यूएलटीएस का कार्यालय अब यूएल साइबर पार्क में है।

गत 14 अप्रैल, 2020 को प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की अवधि को 3 मई तक बढ़ाने का एलान किया। इस बार भी उनकी योजना में प्रवासी श्रमिकों के लिए कोई जगह नहीं थी। प्रवासी श्रमिक पैदल अपनी घरों की ओर निकल पड़े और उनमें से कई सडकों पर गिर कर मर गए। बारह साल की आदिवासी लड़की जमालो मद्कम तेलंगाना में मिर्ची के एक खेत में काम करती थी। वह छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के अपने गांव अदेड के लिए पैदल ही निकल पडी। उसने 100 किलोमीटर की दूरी भी तय कर ली। परन्तु जब उसका घर केवल 11 किमी दूर बचा था, तब वह बेदम होकर सड़क पर गिर गई और उसकी सांसें थम गईं। 

यूएलसीसीएस का इतिहास हमें बताता है कि अगर हमें इस देश के लोगों में सचमुच बंधुत्व का भाव विकसित करना हैं, अगर हमें यह सुनिश्चित करना है कि हमारे नेता प्रवासी श्रमिकों, जिनमें से अधिकांश दलित-बहुजन होते हैं, के हालात के प्रति संवेदनशील हों तो एक सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति अपरिहार्य है। उससे कम कुछ भी नहीं चलेगा।

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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