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न्यूज चैनलों पर मुसलमान : हाशिए पर हक और हुकूक के सवाल

भारतीय न्यूज चैनल मंडल कमीशन, सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन आदि पर बात करते नहीं क्योंकि इन रिपोर्टों में मुस्लिमों के वंचित तबक़ों का ज़िक्र है। यह अपनी सामाजिक संरचना को बदलना नहीं चाहते इसलिये अपने अंदर मौजूद वंचित तबक़ों एवं उनके जायज़ सवालों को नकारते हैं। बता रहे हैं जुबैर आलम

नजरिया

कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है। मुश्किलों का सामना कर रहे विश्व भर के मुल्कों में वायरस के लिये किसी विशेष व्यक्ति, समुदाय या क्षेत्र को दोषी नहीं ठहराया गया। लेकिन हमारे मुल्क भारत में कुछ न्यूज़ चैनलों ने ठीक इसके विपरीत काम किया। इन चैनलों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं विशेषज्ञों की मनाही के बावजूद भी कोरोना को एक समुदाय एवं क्षेत्र के साथ जोड़कर देखा। चैनलों की इस संकीर्णता की वजह से समाज में भी धार्मिक आधार पर भेदभाव के मामले बढ़ गये। इस रवैये पर दुनिया भर में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। विशेष रूप से गल्फ देशों ने एतराज़ किया। मामले की संजीदगी को देखते हुये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट के द्वारा कहा कि कोविड-19 हमला करते समय धर्म, जाति, रंग और भाषा आदि नहीं देखता है। 

शायद इन चैनलों के लिये सामाजिक ताना-बाना अहमियत नहीं रखता। उनके कंटेंट से किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति नकारात्मकता बढ़ती है, इससे कोई मतलब नहीं।डिबेट के माध्यम से पूरे समुदाय को कटघरे में खड़ा करना। तथ्यों को गलत ढंग से पेश करना, गलतियों को स्वीकार न करना आदि इसके उदाहरण हैं।

क्या यह सब कुछ अकेले एंकर कर रहे हैं? ज़ाहिर सी बात है कि एक अकेले इंसान के लिये यह मुमकिन नहीं। दरअसल इन एंकर्स के पास विभिन्न सहायक बतौर पैनलिस्ट और विशेषज्ञों के रूप में मौजूद हैं। इसलिये क्या बोलना है और क्यों बोलना है पहले इसकी स्क्रिप्ट तैयार होती है फिर ज़रूरी सहायकों को बुलाया जाता है। 

ख़ुदसाख्ता यानी स्वघोषित बुद्धिजीवी 

आजकल चैनलों के माध्यम से मुसलमानों में तरह-तरह के बुद्धिजीवी उभर रहें हैं। बतौर डिबेटर और विशेषज्ञ इन्हें विभिन्न चैनलों पर देखा जा सकता है। इनमें कोई मौलाना है तो कोई मौलाना नुमा। यह ख़ुदसाख्ता यानी स्वघोषित बुद्धिजीवी हैं। इनमें कोई सर सैयद की विरासत को आगे बढ़ाना चाहता है तो कोई मौलाना आज़ाद की तरह सोचने का दावा करता है। किसी को अपनी क़यादत का चस्का है। मतलब कि हर एक बन्दे ने अपने वज़न के साथ एक अदद विरासत का बोझ भी उठा रखा है।

न्यूज चैनलों के लिए कब महत्वपूर्ण होंगे पिछड़े मुसलमानों के सवाल

इनकी वजह से कुछ चैनलों के दिन बदल गये हैं। इन चैनलों के डिबेट के टॉपिक और बहस में हिस्सा लेने वालों के प्रोफ़ाइल की मदद से इनके उद्देश्यों को समझा जा सकता है। कुछ चैनलों का रवैया इतना एकतरफ़ा है कि देश के कई राजनीतिक दलों ने इनका खुले तौर पर बहिष्कार कर रखा है। इन चैनलों पर न तो कोई पार्टी प्रवक्ता जाता है और न ही कोई शुभचिंतक। 

इस हक़ीक़त से वाकिफ़ होने के बावजूद भी इन चैनलों में डिबेट के लिये जाने वालों मुस्लिम डिबेटरों की मंशा क्या है? अगर यह लोग कम्यूनिटी के नुमाइंदे हैं तो फिर इनको किसने चुना है और चुनाव का पैमाना क्या था? क्या कोई ऐसा स्कूल है जो इन लोगों को सारे मुसलमानों का नुमाइंदा होने का सर्टिफिकेट देता है?

मुस्लिम डिबेटर सिर्फ समुदाय के मामलों पर बोलेगा?

क्यों यह मान लिया गया है कि मुस्लिम डिबेटर सिर्फ अपने समाज के मामले पर बोल सकता है। देश की अर्थव्यवस्था पर नहीं बोल सकता। वह विदेश नीति पर चर्चा करने में सक्षम नहीं है। शिक्षा पर बहस नहीं कर सकता। लॉकडाउन में ऑनलाइन क्लासों से कमज़ोर तबक़े के बच्चों को होने वाले नुक़सान पर चर्चा नहीं कर सकता। मज़दूरों के सवालों पर चर्चा में नहीं जा सकता। 

कोरोना के वजह से दस्तकारों/शिल्पकारों को होने वाले नुक़सान पर उसकी राय महत्वपूर्ण हो सकती है। बुनकरों की हालत पर चर्चा में मुस्लिम डिबेटर जा सकता। स्वास्थ्य विभाग के हवाले से भी उसकी राय हो सकती है। लाकडाउन के नतीजे में उद्योग धन्धों पर पड़ने वाले प्रभाव के आकलन में वह भी सक्षम है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में उसकी राय भी सहायक हो सकती है। 

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विडंबना यह है कि इन मुद्दों पर चर्चा के लिये उपयुक्त मुस्लिमों को बुलाया नहीं जाता। शायद इसलिये नहीं बुलाया जाता क्योंकि इससे पूर्वाग्रहों के सामने आने का डर है। इन मुद्दों पर बात रखने वाले लोग इतने सक्षम हैं कि वह एंकर्स के अधीन नहीं होंगें। इस तरह के मुद्दों पर चर्चा करने से इन चैनलों का मक़सद भी शायद पूरा नहीं होगा। इन चैनलों में कंटेंट कैसे तैयार होता है इस पर भी सवाल खड़ा होगा। यह खुलासा भी होगा कि अमुक एंकर की सफलता का राज़ क्या है एवं किस एंकर की डिबेटस से किसी विशेष पार्टी, व्यक्ति या समुदाय की नकारात्मक छवि उभरती है। 

असल मुद्दों से नज़र चुराना

इन चैनलों, डिबेटरों और बुद्धिजीवियों में समानता यह है कि तीनों असल मुद्दों से नज़र चुराते हैं और ग़ैर अहम मुद्दों को उठाने में दिलचस्पी रखते हैं। अगर ऎसा नहीं होता तो चैनलों के एंकर्स कोरोना वायरस से निपटने के लिये सरकारों के प्लान और उसके विभिन्न आयामों के बारे में ज़्यादा चर्चा करते। लॉकडाउन और मज़दूरों से जुड़े सवालों पर डिबेट करते। इसी तरह मुस्लिमों के नुमाइंदे समाज के असली मुद्दों पर चर्चा करने के लिये चैनलों पर नज़र आते। मंडल कमीशन, सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन आदि के संदर्भ में बहस करते। वे इस पर भी चर्चा करते कि पिछड़े मुसलमानों यानी पसमांदा समाज के लोगों को मंडल कमीशन से क्या लाभ हुआ है। सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशों के लागू होने से क्या बदलाव आया है। सवाल यह भी उठता कि दलित मुस्लिमों और दलित ईसाईयों को एससी में शामिल करने के लिये आर्टिकल 341 में संशोधन क्यों नहीं हुआ। 

दरअसल डिबेटरों और बुद्धिजीवियों का तबक़ा एक जैसा है। यह अपने वर्ग चरित्र को तरजीह देता है। अन्यथा यह डिबेटर एवं बुद्धिजीवी ऐसे मुद्दों पर डिबेट में शामिल होते जिससे संविधान की समझ ज़ाहिर होती और राज्य की नीतियां सामने आतीं। इसके विपरीत यह लोग एंकर्स के मनचाहे मुद्दे स्वीकार करते हैं और इस तरह उनके जाल में फंसते हैं फिर नतीजा आपको सबको पता है।

बहरहाल, मंडल कमीशन, सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा कमीशन आदि पर बात करते नहीं क्योंकि इन रिपोर्टों में मुस्लिमों के वंचित तबक़ों का ज़िक्र है। यह अपनी सामाजिक संरचना को बदलना नहीं चाहते इसलिये अपने अंदर मौजूद वंचित तबकों एवं उनके उनके जायज़ सवालों को नकारते हैं। ऐसे डिबेटरों एवं बुद्धिजीवियों के लिये सुविधा इसी में है कि एंकर्स की पिचों पर खेलते रहें, फिर चाहे उसका खामियाज़ा समुदाय के कमज़ोरों को क्यों न भुगतना पड़े। 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

जुबैर आलम

जुबैर आलम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधार्थी हैं तथा स्वतंत्र रूप से विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर लेखन कार्य करते रहे हैं

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