h n

ट्रांसजेंडरों के लिए नियमों का ड्राफ्ट जारी, सरकार की नीयत पर सवाल

मौजूदा समय में जबकि केंद्र सरकार ने तीसरे चरण के लॉकडाउन की घोषणा कर दी है, ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए नये नियमों के प्रारूप को सार्वजनिक कर दिया गया है। लोगों से सुझाव व आपत्तियां मांगी जा रही हैं। इसे लेकर इस समुदाय के लोगों में आक्रोश है। बता रहे हैं जैगम मुर्तजा

ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को अधिकार दिए जाने संबंधी क़ानून एक बार फिर विवादों के घेरे में है। हाल ही में जारी लॉकडाउन के दौरान सरकार ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) क़ानून के तहत नियमों पर लोगों से सलाह और आपत्तियां देने को कहा है। उभयलिंगी लोगों के अधिकारों की पैरवी कर रहे लोगों ने सरकार की कोशिश को ग़ैर-ज़रूरी और ग़लत समय पर लिया गया फैसला बताया है।

गौर तलब है कि 18 अप्रैल, 2020 को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) क़ानून के तहत नियमों का प्रारूप अपलोड कर दिया। मंत्रालय ने लोगों से इनपर सलाह और आपत्तियां दर्ज कराने को कहा है। लेकिन जिस तरह से सरकार ने लॉकडाउन के दौरान यह कोशिश की है, वह तमाम लोगों और संस्थाओं को नागवार गुज़र रही है। इन लोगों की आपत्ति इन नियमों को अपलोड करने के समय और हालात को लेकर ज़्यादा है। ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के अधिकारों को लिए संघर्ष कर रही नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी यानि नालसा का कहना है कि इस समय सरकार की यह कोशिश नियमों पर सलाह या आपत्ति मांगने का मक़सद ही ख़त्म कर देगी। 

दरअसल, भारत सरकार ने इन नियमों पर 30 अप्रैल तक अपनी सलाह औऱ आपत्तियां दर्ज कराने को कहा। इधर लॉकडाउन की वजह से हालात ऐसे हैं कि लोग अपने घरों में क़ैद हैं। तमाम दफ्तर बंद हैं औऱ लोगों को आवाजाही की इजाज़त नहीं है। ऐसे में कोई कैसे इन नियमों पर अपनी आपत्ति दर्ज करा सकता है। इसके अलावा नियमानुसार आपत्ति दर्ज कराने के लिए तीस दिन का समय निर्धारित है। ऐसे में जब 18 अप्रैल को नियम अपलोड हुए हैं तो अंतिम तिथि 30 अप्रैल कैसे हो सकती है? इससे भी बढ़कर परेशानी की बात यह है कि नियम सिर्फ अंग्रेज़ी में अपलोड किए गए हैं जबकि ट्रांस्जेंडर समुदाय का एक बड़ा हिस्सा न तो अंग्रेज़ी जानता है औऱ न ही इंटरनेट तक उसकी पहुंच है।

ध्यातव्य है कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) क़ानून संसद में जुलाई 19, 2019 को पेश हुआ था। इसके बाद लोकसभा ने इसे 5, अगस्त 2019 को और राज्यसभा ने 26 नवंबर, 2019 को पारित कर दिया। इससे पहले तमाम संगठनों ने ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों के अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी, जिसके उपरांत सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों को क़ानूनी मान्यता दी। यह क़ानून नालसा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के नतीजे में बनाया गया। लेकिन जिस तरह यह क़ानून पारित हुआ और इसके नियम बनाए गए, उन्हें लेकर शुरु से ही विवाद हैं।

बिल का विरोध करते ट्रांसजेंडर समुदाय के लोग

मसलन, जिस समय यह क़ानून पारित हुआ उस समय ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों द्वारा कहा गया था कि यह उनके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं करता, साथ ही उनके मूलभूत और निजी अधिकारों का उल्लंघन करता है। इनमें ट्रांसजेंडर व्यक्ति की पहचान, प्रक्रिया औऱ सर्जरी से जुड़े नियमों को लेकर तमाम आपत्तियां लोगों ने व्यक्त की थीं।

एक विवाद ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण दिए जाने की मांग को लेकर भी है। इसका सबसे ज़्यादा विरोध ओबीसी समुदाय से जुड़े लोग कर रहे हैं। उनका कहना है कि पहले ही ओबीसी वर्ग में संख्या ज़्यादा है जबकि हिस्सेदारी पूरी नहीं है। इस मामले में गुर्जर महासभा से जुड़े यशवीर सिंह का कहना है कि जातीय आधार पर जनगणना कराकर लोगों की हिस्सेदारी तय की जानी चाहिए और संख्या के आधार पर ट्रांसजेंडर लोगों को पृथक प्रतिनिधित्व मिले तो फिर किसी को ऐतराज़ नहीं होगा।

इधर नियम तय करने के विरोध में जो पत्र लिखा गया है उसपर क़रीब डेढ़ सौ लोगों के नाम हैं। इनमें तमाम सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि शामिल हैं। इनमें सांगली की मुस्कान संस्था से जुड़े सुधीर का कहना है कि यह मामला अभी भी अदालत में विचाराधीन है। जब तक सुप्रीम कोर्ट इस क़ानून की संवैधानिकता और नालसा मामले में दिए गए निर्देशों के आधार पर इसकी परख न कर ले सरकार को जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा पत्र में कहा गया है कि जब तक लॉक़डाउन ख़त्म न हो जाए और जनजीवन सामान्य न हो सरकार को इस क़ानून से जुड़ा कोई नियम तय नहीं करना चाहिए।

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

संबंधित आलेख

‘अमर सिंह चमकीला’ फिल्म का दलित-बहुजन पक्ष
यह फिल्म बिहार के लोकप्रिय लोक-कलाकार रहे भिखारी ठाकुर की याद दिलाती है, जिनकी भले ही हत्या नहीं की गई, लेकिन उनके द्वारा इजाद...
उत्तर प्रदेश में लड़ रही हैं मायावती, लेकिन सवाल शेष
कई चुनावों के बाद लग रहा है कि मायावती गंभीरता से चुनाव लड़ रही हैं। चुनाव विश्लेषक इसकी अलग-अलग वजह बता रहे हैं। पढ़ें,...
वोट देने के पहले देखें कांग्रेस और भाजपा के घोषणापत्रों में फर्क
भाजपा का घोषणापत्र कभी 2047 की तो कभी 2070 की स्थिति के बारे में उल्लेख करता है, लेकिन पिछले दस साल के कार्यों के...
शीर्ष नेतृत्व की उपेक्षा के बावजूद उत्तराखंड में कमजोर नहीं है कांग्रेस
इन चुनावों में उत्तराखंड के पास अवसर है सवाल पूछने का। सबसे बड़ा सवाल यही है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड के विनाश...
‘आत्मपॅम्फ्लेट’ : दलित-बहुजन विमर्श की एक अलहदा फिल्म
मराठी फिल्म ‘आत्मपॅम्फलेट’ उन चुनिंदा फिल्मों में से एक है, जो बच्चों के नजरिए से भारतीय समाज पर एक दिलचस्प टिप्पणी करती है। यह...