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कांशीराम, जिन्होंने देखा था बहुजनों को धन-धरती का मालिक बनाने का सपना

एच. एल. दुसाध बता रहे हैं कांशीराम के सपने और उनके संघर्ष के बारे में। उनके मुताबिक यदि आज कांशीराम होते तो बहुजनों को धन-धरती का मालिक बनाने के अपने सपने को पूरा कर रहे होते

मान्यवर कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006) ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने सदियों से गुलाम जातियों के लोगों को शासक बनने की प्रेरणा दी, उनमें महत्वाकांक्षा पैदा की। यह उनके आंदोलन का असर ही था कि लाखों पढ़े-लिखे नौकरीशुदा दलितों में ‘पे बैक टू द सोसाइटी’ की भावना पनपी। उनके आंदोलन का असर दलित साहित्य पर भी पड़ा जिसके कारण फुले-पेरियार-आंबेडकर की क्रांतिकारी चेतना और अधिक स्पष्ट रूप से मुखर हुई। सत्ता में भागीदारी पर भी उनके आंदोलन का असर हुआ है। पहली लोकसभा के मुकाबले वर्तमान लोकसभा में पिछड़ी जातियों के सांसदों की संख्या में वृद्धि तथा सवर्ण सांसदों की संख्या में गिरावट देखी जा सकती है।

 

 यह भी कहा जा सकता है कि यह उनके आंदोलन का ही असर था कि राष्ट्रीय स्तर पर दलितों का अपना दल आकार ले सका। लालू-मुलायम सहित अन्यान्य शूद्रातिशूद्र नेताओं की राजनीतिक हैसियत के पीछे भी कांशीराम के आंदोलन का प्रभाव था। यह उनके आंदोलन का ही प्रभाव था कि जातीय चेतना के राजनीतिकरण का मुकाबला धार्मिक-चेतना से करने के लिए संघ परिवार मजबूर हुआ ।

वर्ग संघर्ष के महानायक  

वर्ष 1934 के 15 मार्च को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में कांशीराम का जन्म हुआ। अपने व्यक्तिगत जीवन में कांशीराम सफल थे। वे पुणे के इआरडीएल में सरकारी नौकरी कर रहे थे। फिर कुछ ऐसा हुआ जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया और भारतीय सियासत को नयी दिशा में मोड़ दिया। कांशीराम ने अपने हितों को दरकिनार कर अपना सर्वस्व वंचितों के समाज के नाम कर दिया। यह ठीक वैसा ही था जैसा कि राजसी सुख-ऐश्वर्य के अभ्यस्त गौतम बुद्ध का सब कुछ परित्याग करना। कांशीराम के जीवन में बदलाव लाने वाले व्यक्ति का नाम दीनाभाना था। फिर तो दीनाभानाओं के जीवन में बदलाव लाने के लिए कांशीराम ने देश के कोने-कोने तक फुले, शाहू जी, नारायण गुरु, डॉ. आंबेडकर, पेरियार इत्यादि के समाज-परिवर्तनकामी विचारों तथा खुद की अनोखी परिकल्पना को पहुंचाने का जो अक्लांत अभियान छेड़ा, उससे जमाने  ने उन्हें ‘सामाजिक परिवर्तन के अप्रतिम-नायक’ के रूप में देखा व स्वीकार किया। हालांकि सामाजिक परिवर्तन के इस महानायक पर समाज विज्ञानियों ने हजारों-लाखों पन्ने रंगे हैं पर वर्ग संघर्ष के अप्रतिम नायक के रूप उनकी भूमिका अगोचर रह गयी, जबकि उनकी पूरी परिकल्पना वर्ग संघर्ष से प्रेरित थी।

कांशीराम (15 मार्च,1934 – 9 अक्टूबर, 2006)

तत्कालीन हालात 

प्रबुद्ध पाठक जानते हैं कि मार्क्स ने एक सौ सत्तर साल पहले इतिहास की व्याख्या करते हुए कहा था, “अब तक के विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास, वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है अर्थात जिसका शक्ति स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक- पर कब्जा है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है। पहला वर्ग सदैव ही दूसरे वर्ग का शोषण करता रहता है। समाज के शोषक और शोषित: ये दो वर्ग सदा ही आपस मे संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता। नागर समाज मे विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों के बीच होने वाली होड़ का विस्तार राज्य तक होता है। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है।” 

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कांशीराम के पहले ग़ुलाम भारत में डॉ. आंबेडकर के एकल प्रयास से समाज के स्वरूप में खासा परिवर्तन हो चुका था, बावजूद इसके स्वाधीनोत्तर भारत में समाज की स्थिति वैसी ही थी जिन स्थितियों में दुनिया भर मे वर्ग संघर्ष  हुए। हजारों वर्ष पूर्व ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों के जिस जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का संपदा, संस्थाओं और उच्चमान के लाभकारी पेशों सहित उत्पादन के समस्त साधनों पर एकाधिकार था; स्वाधीन भारत में भी उनका शक्ति के समस्त स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा रहा। हजारों वर्ष पूर्व की भांति स्वाधीन भारत मे भी ब्राह्मणों की ‘भूदेवता’; क्षत्रियों की जन अरण्य के ‘सिंह’ और वैश्यों की ‘सेठ जी’ के रूप मे सामाजिक मर्यादा बरकरार थी। 15 प्रतिशत से अधिक लोग कोर्ट-कचहरी, ऑफिस, शहर और शिल्प व्यवस्था, चिकित्सा और बाज़ार, फिल्म-मीडिया के अवसर का लाभ उठाने की क्षमता अर्जित नहीं कर पाए थे। 15 प्रतिशत वाले जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग को छोड़कर शेष जनता में 16-18 प्रतिशत लोग विधर्मी के रूप मे उपेक्षित; 44 प्रतिशत पिछड़े-अतिपिछड़े अयोग्य रूप मे विघोषित; साढ़े सात प्रतिशत आदिवासी धिक्कृत व निंदित तथा 15-16 प्रतिशत लोग अछूत रूप मे तिरस्कृत व बहिष्कृत रहे। 

‘गरीबी हटाओ’ और ‘संपूर्ण क्रांति’ नारा देने वालों के साथ बंदूक के बल पर सत्ता दखल का सपना देखने वाले लोग उसी जन्मजात शोषक व सुविधाभोगी वर्ग से रहे, जिनका शक्ति के स्रोतों पर हजारों वर्ष पूर्व की भांति ही स्वाधीन भारत में एकाधिकार था। ये ऐसे लोग थे जिनका डेमोक्रेसी की ताकत में कोई भरोसा नहीं था। भारतीय समाज से लगभग पूरी तरह अंजान इन लोगों ने रूस-चीन जैसे श्रेणी समाजों में गरीबी की जठर से पैदा हुई क्रांति की सफलता से उत्साहित होकर ऐसा मान लिया कि भारत के जाति समाज में भी गरीबी क्रांति का निर्णायक कारक बन सकती है। वंचित समाजों से कटे-फटे इन कल्पना विलासी क्रांतिकारियों को पता नहीं था कि भारत मे सर्वहारा नहीं, ‘सर्वस्वहारा’ रहते हैं और ये पूंजी के दास नहीं, हिन्दू ईश्वर-धर्मशास्त्र सृष्ट ‘दैविक-दास’ और ‘दैविक-सर्वस्वहारा’ हैं। हिन्दू धर्म का प्राणाधार जाति/वर्ण-व्यवस्थाजनित  मानसिकता के कारण इनमें स्वधीनता की चेतना, वित्त-वासना व सर्व-सुविधासंपन्न सवर्णों की भांति उन्नततर जीवन जीने की कोई चाह ही नहीं है: ये सब चेतनायेँ इनके जीवन से कपूर की भांति उड़ा दी गयी है। बहरहाल लेनिन-माओ के अनुयायियों के विपरीत स्वाधीन भारत में उपजी वर्ग-संघर्ष की स्थितियों के सदव्हवहार के लिए कांशीराम ने एक भिन्न परिकल्पना के साथ सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया।

कांशीराम के वर्ग-संघर्ष की परिकल्पना और बामसेफ  

कांशीराम को लोकतंत्र में अपार विश्वास था। इसी विश्वास के कारण उन्हे यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि लोकतंत्र में संख्या-बल की अहम भूमिका है और भारत में यह संख्या-बल दलितों-आदिवासी-पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबक़ों के पास है। लेकिन इन तबक़ों की समस्या मानसिक है जिस कारण ये न तो शासक बनने का सपना देखते हैं और ना ही सवर्णों की भांति सुख-समृद्धि का जीवन जीने की आकांक्षा पालते हैं। अपनी परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए कांशीराम ने पहले खुद को शूद्रातिशूद्रों समाज में जन्में जोतीराव फुले, शाहूजी महाराज, नारायणा गुरु, पेरियार और डॉ. आंबेडकर इत्यादि क्रांतिकारी महापुरुषों के विचारों से लैस किया। फिर वीभत्स-संतोषबोध के शिकार जन्मजात शोषितों की मानसिकता में इच्छित बदलाव लाने हेतु बामसेफ के निर्माण की दिशा में अग्रसर हुए। 

कांशीराम बहुजनों को धन-धरती का मालिक बनाना चाहते थे 

वर्ग संघर्ष के इतिहास मे शोषितों कि लड़ाई लड़ने वाले हर नेतृत्वकारी व्यक्ति/संगठन का लक्ष्य सत्ता दखल कर वंचितों को धन-धरती का मालिक बनाना रहा है। और भारत में यह लड़ाई सबसे सुपरिकल्पित रूप में किसी ने लड़ी तो, वह कांशीराम ही थे। इस देश की संपदा-संस्थाओं पर एकाधिकार जमाए वर्ग के विरुद्ध लोकतांत्रिक पद्धति से निर्णायक विजय पाने के मकसद से ही उन्होंने 6 हजार से अधिक जातियों/उपजातियों में बंटे लोगों को जोड़कर एक वर्ग, ‘बहुजन समाज’ में तब्दील करने का असंभव सा काम शुरू किया। यह काम बहुत कठिन था। उन्होंने खुद ही स्वीकार किया था कि भारी प्रयासों के बाद भी वे बमुश्किल 600 जातियों/उपजातियों को ही जोड़ सके हैं। 

जाति चेतना का चमत्कार 

कांशीराम ने सदियों के जन्मजात शोषकों के खिलाफ संघर्ष की सुचिन्तित परिकल्पना के तहत ही शोषितों के सक्षम लोगों को पे बैक टु द सोसाइटी के मंत्र से दीक्षित किया; इस हेतू ही उन्होंने ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’, ‘तिलक तराजू और तलवार..’ तथा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा दिया। इसी मकसद से उन्होंने जाति चेतना के राजनीतिकरण का अभियान चलाया। 

कांशीराम के प्रयासों से सबसे पहले दलित समुदाय की अग्रसर जातियां इस चेतना से लैस हुईं और बाद के दिनों में आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबकों में यह प्रसारित हो गयी। इसके फलस्वरूप बीसवीं सदी के शेष तक शक्ति के स्रोतों पर काबिज सवर्ण राजनीतिक तौर पर लाचार समूह मे तब्दील हो गए और वे अपना वजूद बचाने के लिए कांशीराम के जातीय चेतना से साधारण से महाबली बने मायावती-मुलायम, लालू-पासवान के चरणों मे आश्रय ढूंढने लगे। लेकिन  21वीं सदी के शुरुआती वर्षों (2003) में बीमारी के कारण राजनीतिक रूप से कांशीराम के निष्क्रिय होने के बाद भारतीय राजनीति पर जाति चेतना का प्रभाव शिथिल होने लगा और 2006 में उनके परिनिर्वाण के बाद से शिथिलता और बढ़ी है। जाति चेतना से महाबली बने बहुजन नेता पीएम-सीएम बनने की चाह मे जाति-मुक्त दिखने की होड़ लगाने लगे। अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने कांशीराम के विचारों से पल्ला झाड़ना शुरू किया। 

आज की तारीख में दावे के साथ कहा जा सकता है कि जाति चेतना की राजनीति कमजोर हुई है। साथ ही शक्ति के समस्त स्रोतों के साथ राजनीति पर भी द्विजों की पकड़ मजबूत हुई है, जिनके खिलाफ कांशीराम ने भारत के जन्मजात शोषितों को संगठित करने की परिकल्पना की थी।

बहरहाल उपरोक्त स्थिति को देखते हुए क्या दावे से नहीं कहा जा सकता कि आज की तारीख मे यदि कांशीराम होते तो वे अवश्य ही शक्ति के स्रोतों पर जन्मना कब्ज़ा जमाए वर्गों के खिलाफ लोकतांत्रिक क्रांति घटित कर जन्मजात वंचितों को धन-धरती का मालिक बनाने का जो उनका सपना था, उसे पूरा कर दिखाते।  

(संपादन : नवल/अमरीश)

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बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

एच.एल.दुसाध

लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

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