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भारत के वंचितों में क्यों नहीं बनती अमेरिकी अश्वेतों के जैसी एकजुटता?

अमेरिका में जारी अश्वेतों के आंदोलन की पृष्ठभूमि में प्रेम कुमार, भारतीय समाज और इसकी वैचारिकी का विश्लेषण कर रहे हैं। उनके मुताबिक, भारत में जातीय अंतर्विरोधों से ऊपर उठकर अश्वेत जैसी कोई वर्गीय अवधारणा का विकास अभी तक संभव नहीं हो पाया है। शोषण और भेदभाव के पीड़ित मजबूत और टिकाऊ सामाजिक गठबंधन बना सकते हैं

बीते 25 मई, 2020 को अमेरिका के मिनियापोलिस शहर में श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक शॉविन द्वारा अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गई। इस घटना ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। सबसे अधिक आक्रोशित अमेरिका के लोग हुए और विरोध प्रदर्शनों का आलम यह है कि ट्रंप हुकूमत हिल उठी है। यह घटनाक्रम 1960 के दशक के अमरीकी नागरिक अधिकार आंदोलन की याद दिलाता है।

1960 के दशक में अमेरिकी अश्वेतों का समानता और स्वतंत्रता के लिए आंदोलन अमेरिका के इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ था। लेकिन जार्ज फ्लाॅयड की हत्या के बाद शुरू हुए विरोध प्रदर्शन कई मायनों में खास हैं। इसलिए भी क्योंकि इस समय पूरे विश्व में कोरोना का कहर है। अमेरिका में अब तक कोरोना से सबसे अधिक 1.16 लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है[i]

कोरोना के कहर के बावजूद लोग अपनी जान की परवाह न करते हुए अमेरिका की सड़कों पर निकल रहे हैं। यह कहना गैर-वाजिब नहीं होगा कि अमेरिका के 140 शहरों में नस्लवाद और नस्लीय हिंसा के खिलाफ यह लड़ाई अपने निर्णायक दौर में पहुंच चुकी है। कई शहरों में हिंसक वारदातों के कारण कर्फ्यू लगा दिया गया है।

अमेरिका के न्यूयार्क में जार्ज फ्लॉयड की तस्वीर लेकर प्रदर्शन करते लोग

अश्वेतों के पक्ष में न्याय की मांग का यह सिलसिला केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है। कनाडा और यूरोप के देशों  जैसे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इत्यादि में भी लोग विरोध प्रदर्शन कर नस्लवाद का विरोध और फ्लॉयड के लिए इंसाफ की मांग कर रहे हैं|

फ्लॉयड  के लिए न्याय के समर्थन में इस लेख के लिखे जाने के दौरान ही उत्तर प्रदेश के अमरोहा स्थित डॉनखेड़ा गांव में 9 जून की रात 17 वर्षीय दलित युवक विकास जाटव की हत्या उच्च जाति के कुछ लोगों द्वारा इस कारण कर दी गयी क्योंकि उसने मंदिर में प्रवेश करने का प्रयास किया था। आंबेडकर ने 1920 के दशक में मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन चलाया था लेकिन एक सदी के बाद आज भी दलितों को मंदिर में प्रवेश करने पर गोली मार दी जाती है।

क्या दलितों के साथ जाति आधारित उत्पीड़न व शोषण के सवाल और अश्वेतो के रंगभेद के खिलाफ संघर्षों का  तुलनात्मक अध्ययन संभव है ताकि नस्लवाद, जातिवाद और संप्रदायिकता जैसी सामाजिक बीमारियों का कोरोना  संकट के मध्य भी सामना किया जा सके?

नस्लवाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता को अलग-अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। जहां अमेरिका पिछली 3-4 सदियों से नस्लवाद की समस्या से लड़ रहा है वही भारत में जातिवाद की समस्या इससे कहीं अधिक पुरानी है। यहां जाति और जातीय भेदभाव को धर्म का संरक्षण प्राप्त है और यह संस्कृति का हिस्सा है।  अमेरिका में नस्लभेद का आधार रंग है तो भारत में जाति भेद का आधार जन्म है|  इस व्यवस्था में भले आप एक जैसे दिखते हों, आपकी आर्थिक स्थिति भी एक जैसी हो पर आप एक बराबर नहीं हो सकते। आपके जैसा दिखने वाला व्यक्ति सामाजिक रूप से आपसे उच्च होने का दावा कर सकता है| यदि ईमानदारी से लड़ी जाए तो जाति के विरुद्ध लड़ाई नस्लवाद के विरुद्ध लड़ाई से बहुत बड़ी साबित हो सकती है।

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असल में उत्तर प्रदेश के अमरोहा की घटना कोई नई या बड़ी बात नहीं है। भारत में जातीय उत्पीड़न की घटनाएं रोज की बात बन चुकी हैं। बहुत दिन नहीं हुए जब मध्यप्रदेश में दो दलित बच्चों को खुले में शौच करने के लिए मार दिया गया था। गुजरात के ऊना में तथाकथित गौरक्षकों द्वारा सात दलित युवकों को गाड़ी से बांधकर पीटे जाने की घटना भी लोगों के दिमाग से ओझल नहीं हुई है। तमिलनाडु में दो दलित युवकों को ज़बरदस्ती मल खिलाये जाने की घटना भी लोगों के सामने है। इन सबसे यही साबित होता है कि भारत के द्विज वर्गों में गैर-द्विजों के प्रति इतनी नफरत है कि वे हैवानियत की सारी सीमाओं को पार कर जाते  हैं। सोशल मीडिया पर ऐसी खबरें शेयर भी खूब होती हैं लेकिन कोई आंदोलन नहीं खड़ा होता, जैसा कि अमेरिका में हुआ है।

सवाल उठता है कि क्या दलितों के जीवन का कोई मूल्य नहीं ?

अमेरिका में मानव जीवन का महत्व है, उसकी अपनी गरिमा है और यह चेतना अश्वेतों में भी उतनी ही है जितनी कि श्वेतों में। उसी चेतना के कारण ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ जैसा विश्वव्यापी आंदोलन आज खड़ा हो पाया है। जबकि भारत में आज तक जातिवाद के खिलाफ कोई समग्र आंदोलन खड़ा नहीं हो सका। इसका कारण भी जाति व्यवस्था में निहित है। अमेरिकी समाज श्वेत-अश्वेत द्वन्द है। इस द्वंद्व के कारण वहां लड़ाई आमने-सामने की है। दुश्मन स्पष्ट रूप से दिखता है। परंतु भारतीय समाज एक जटिल समाज है और जाति व्यवस्था उसकी जटिलता के मूल कारणों में एक है।

भारतीय समाज मे जातिगत स्तरीकरण के कारण हम सामाजिक द्वंद को समझ नहीं पाते या सामाजिक द्वंद्व स्पष्ट नहीं दिख पाता है। आर्य और अनार्य, मूलनिवासी और गैर मूलनिवासी, ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण इत्यादि जैसे द्वंद्व अब असरकारक नहीं रह गए हैं। ऐसी स्थिति में जातीय विभेदों को दूर करते हुए नए द्वंद्व पैदा करने होंगे जिनसे शत्रु वर्ग को पहचानने में आसानी हो। इसके लिए सवर्ण और अवर्ण का द्वंद्व कारगर साबित हो सकता है। जहां सवर्ण शोषक अपने आप को एक पहचान में समेटने में कामयाब हुए हैं वहीं दलित, पिछड़े, आदिवासी इत्यादि अभी भी बिखरे हुए हैं। परिणामस्वरूप एक लंबे काल से अनवरत उनका शोषण जारी है। अपनी सामूहिक पहचान ना होने के कारण वे अपने शोषक को चुनौती देने में असफल हो जाते हैं। सामूहिकता का अभाव, जाति के विरुद्ध संघर्ष की एक बड़ी कमज़ोरी है जबकि अश्वेतों की सबसे बड़ी शक्ति है उनकी सामूहिकता है। जातीय अंतर्विरोध से ऊपर उठकर अश्वेतों जैसी कोई वर्गीय अवधारणा का विकास अभी तक संभव नहीं हो पाया है। सामाजिक गठबंधन अगर शोषण और भेदभाव के आधार पर बने तो मजबूत और टिकाऊ हो सकता है। भेदभाव और शोषण के पीड़ितों का दायरा बढ़ाकर इसमें अल्पसंख्यकों और औरतों को शामिल किया जा सकता है और उनके दर्द को बांटा जा सकता है।

समाज पर राजनीति हावी हो चली है, इसका परिणाम यह है कि हम सभी समस्याओं का समाधान राजनीति में ढूंढने लगे हैं। जातिवाद सबसे पहले एक सामाजिक समस्या है। इसका हल भी सामाजिक स्तर पर निकालना होगा। दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक – सब राजनीतिक शब्दावली में तब्दील हो चुके हैं।  दलित और पिछड़ों का राजनीतिक गठबंधन हाल के चुनावों मे कारगर साबित नहीं हो सका क्योंकि वह विशुद्ध रूप से राजनीतिक था। उसका कोई सामाजिक आधार नहीं था। परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, जहां दलित-पिछड़े लंबे समय तक सत्ता के केंद्र में थे और संख्यात्मक रुप से सबल हैं, वहां भी उन्हें सत्ता से  बाहर होना पड़ा। हाल के दिनों में चंद्रशेखर आजाद द्वारा गठित भीम आर्मी जातीय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है। अब उन्होंने अपनी एक पार्टी की घोषणा कर दी है, जिसका भविष्य तय होना अभी बाकी है।

1990 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद  जब पिछड़ी जातियों का राजनैतिक प्रभुत्व बढ़ा तो ऐसा लगा कि यह नई राजनीति, जाति व्यवस्था पर चोट करेगी। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। पिछड़ी जातियों ने सत्ता में आने के बाद जातीय असमानता के विरुद्ध कोई लड़ाई नहीं लड़ी। वैसे भी हमारे देश में जातीय समानता की लड़ाई, जाति के विरुद्ध लड़ाई नहीं बन पाती और जातिवाद हमेशा बना रहता है। कांशीराम के आंदोलन ने बहुजन की अवधारणा को जन्म दिया परंतु यह भी एक राजनीतिक अवधारणा बनकर रह गई। पिछड़ी जातियों की पहचान कांशीराम के बहुजन से अलग बनी। लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव हमेशा आंबेडकर से दूर रहे। वहीं मायावती ने भी कांशीराम के बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के पथ को छोड़ते हुए द्विजों के साथ समझौते किए और सत्ता की सौदेबाजी की।

दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी जैसी ब्राह्मण-बनिया पार्टी, आंबेडकर के नाम को इस्तेमाल कर दलितों को लुभाने में सफल रही। जातीय वोट बैंक भारतीय चुनावी राजनीति की एक महत्वपूर्ण पहलू है,  जिसका इस्तेमाल अधिकांश पार्टियां करती आई हैं। हर एक जाति का एक अपना वोट बैंक होता है। जातीय वोट बैंक इस्तेमाल आम लोग सहूलियतें पाने के लिए करते हैं तो राजनेता इस्तेमाल सत्ता में आने के लिए। सामाजिक सामूहिकता के अभाव में राजनीतिक गठबंधन का कोई मायने नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में इनका इस्तेमाल केवल एक जातिगत वोट बैंक के रूप में होता है और सत्ता प्राप्ति के बाद इन्हें वहीं हाशिए पर छोड़ दिया जाता है।

एक तरफ जहां भारतीय संविधान जातीय भेदभाव को असंवैधानिक घोषित करता है वहीं जाति व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता भी प्राप्त है। संविधान में इस अंतर्विरोध  के कारण भी जाति के विरुद्ध हमारा संघर्ष कमजोर हो जाता है। आरक्षण का संवैधानिक अधिकार गरीबी उन्मूलन में कारगर साबित हुआ और इससे कुछ हद तक राजनैतिक और आर्थिक विषमता भी घटी है और समाज और संस्थानों में आरक्षित वर्गों का प्रतिनिधित्व बढा है। लेकिन आरक्षण से जातिवाद को चुनौती नहीं मिली है। जातिवाद यथावत बना हुआ है।

सवर्णों को दिए गया आरक्षण का दलित-पिछड़ों द्वारा मन से विरोध न कर पाना इस बात का संकेत है कि हमने जातिवाद को आत्मसात कर लिया है। सारे आंदोलन जातिवाद के दायरे में ही लड़े गए| आरक्षण की लड़ाई भी जातीय दायरे से ऊपर नहीं उठ सकी। हाल के बरसों का मराठा आंदोलन, जाट आंदोलन, गुर्जर आंदोलन आदि एक जाति विशेष के लोगों के द्वारा जातीय व्यवस्था के भीतर अधिकार प्राप्ति के लिए किये गए आंदोलन थे न कि जाति व्यवस्था को चुनौती देने के लिए। इस तरह भारत में अलग-अलग जातियों द्वारा अलग-अलग समय पर आंदोलन किये गए परंतु वे जाति के खिलाफ एक साथ कभी नहीं आ सके।

भारत में आंबेडकर द्वारा चलाए गए आंदोलन जातिगत समानता के लिए थे व इनके बावजूद भारतीय जाति व्यवस्था की मूल संरचना बनी रही। उनके आंदोलन एक क्षेत्र विशेष तक सीमित थे। जाति के विरुद्ध पेरियार का सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट यानी आत्मसम्मान आंदोलन भी क्षेत्रीयता की भेंट चढ़ गया और यह तमिलभाषी क्षेत्रों से आगे नहीं बढ़ पाया। अंत में आंबेडकर ने जाति के विरुद्ध धर्म को अपना हथियार बनाया और वर्ष 1956 में अपने पांच लाख लोगों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और इस तरह समानता और स्वतंत्रता की लड़ाई को एक नया आयाम प्रदान किया।

आंबेडकर के बाद जाति व्यवस्था के खिलाफ कोई आवाज बुलंद नहीं हो पाई। आजादी के बाद आरक्षण के लिए लड़ाई ने एक अलग तरह का अंतर्द्वंद्व पैदा कर दिया था। अब लड़ाई जाति व्यवस्था के विरुद्ध ना होकर अपनी जाति के हितों लिए थी।

बहरहाल, जातिगत पहचान को आत्मसात कर लेने के कारण एक सामूहिक चेतना का विकास संभव नहीं हो सका है। दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक, आदिवासी चेतना तो विकसित हुई परंतु एक सामूहिक चेतना, जैसी की अमेरिका में अश्वेतों में है, विकसित नहीं हो पाई है। जहां अश्वेत चेतना समानता और स्वतंत्रता पर आधारित है वही दलित चेतना भेदभाव को आत्मसात करती हुई जातिवाद को और ज्यादा मजबूत करती है। जैसे-जैसे आप इसके अंदर जाते हैं एक स्वजाति चेतना स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती है। कई बार यह चेतना राजनैतिक चेतना बनकर रह जाती है और सारी लड़ाई सुविधा और सहूलियतों पर आकर टिक जाती है। गांवों में जातिवाद, सामंतवाद और सांप्रदायिकता के जडें मजबूत होती जा रही हैं। अन्याय पर हमारी चुप्पी से ऐसा लगता है कि हमने अन्याय सहते रहने की प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। जैसा कि डाक्टरों का कहना है कि एक समय के बाद कोरोना वायरस के विरुद्ध शरीर अपने आप एक प्रकार की इम्यूनिटी विकसित कर लेता है, जिसे हर्ड इम्यूनिटी की संज्ञा दी गई है। हमें इस प्रतिरोधक क्षमता को समाप्त करना होगा और गतिरोध को तोड़ना होगा तब जाकर हम अमेरिका के अश्वेतों के आंदोलन से कुछ सीख पाएंगे।

जार्ज फ्लॉयड के लिए न्याय का आंदोलन इसी का प्रतीक है। इस आंदोलन में अमेरिकी अश्वेत ही नहीं बल्कि श्वेतों की एक बड़ी संख्या शामिल है। यह अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन की एक बड़ी जीत है। भारतीय अवर्णों के साथ-साथ सवर्णों को भी इससे सीख लेनी चाहिए। अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन के दौरान मार्टिन लूथर किंग के द्वारा दिया गया ऐतिहासिक संबोधन “आई हैव ए ड्रीम” को एक बार फिर से पढ़ने की जरूरत है ताकि अन्याय, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ बदलावकारी आवाज उठे। ठीक वैसी ही आवाजें जो आज विश्व के सबसे ताकतवर देश की सड़कों पर गूंज रही है और जिन्होंने वहां की हुक़ूमत को बैकफुट पर ला दिया है।

[i] https://www.worldometers.info/coronavirus/country/us/ से दिनांक 12 जून, 2020 को पूर्वाहन 11:55  बजे प्राप्त जानकारी

(संपादन : गोल्डी/अनिल/अमरीश/नवल)

लेखक के बारे में

प्रेम कुमार

प्रेम कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में इतिहास विभाग के सहायक प्रोफेसर हैं

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