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आरक्षण एक मौलिक अधिकार : एक मुद्दा, दो फैसले

आरक्षण के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्देश और टिप्पणियां, इसी अदालत के सन् 1975 के एक निर्णय की मूल आत्मा पर गहरी चोट हैं, बता रहे हैं अनिल वर्गीज

गत 7 फरवरी 2020 को उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता की एक खंडपीठ ने उत्तराखंड सरकार द्वारा दायर एक विशेष अनुमति याचिका पर अपना निर्णय सुनाया। इस याचिका के माध्यम से राज्य सरकार ने अपने कुछ अनुसूचित जाति (एससी) वर्ग के कर्मचारियों द्वारा अपने विरुद्ध दायर एक मामले में उत्तराखंड उच्च न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी थी। राज्य की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 5 सितम्बर 2012 को यह निर्णय लिया कि राज्य के अधीन सेवाओं में एससी और एसटी (अनुसचित जनजाति) के उम्मीदवारों को आरक्षण नहीं दिया जाएगा। एससी कर्मचारियों ने उच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया, जिस पर न्यायालय ने राज्य सरकार का निर्णय रद्द कर दिया। बाद में राज्य की भाजपा सरकार द्वारा उक्त निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने पर उच्च न्यायालय अपने पिछले निर्णय से पलट गया। उसने कहा कि सरकार के लिए एससी और एसटी कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देना ज़रूरी नहीं है, परन्तु यह आवश्यक है कि वह यह पता लगाने के लिए तथ्यों का संकलन करे कि क्या राज्य के अंतर्गत सेवाओं में एससी/एसटी का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है और उस आधार पर यह तय करे कि आरक्षण की ज़रुरत है अथवा नहीं। उच्च न्यायालय ने उक्त तथ्य संकलित करने के लिए राज्य सरकार को चार महीने का वक्त दिया। इसी अवधि में राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर कर यह तर्क दिया कि सार्वजनिक सेवाओं में भर्ती और पदोन्नति में आरक्षण, किसी का मूल अधिकार नहीं है और ना ही यह राज्य सरकार का संवैधानिक कर्त्तव्य है कि वह आरक्षण प्रदान करे। सरकार का यह तर्क भी था कि अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4-ए) केवल समर्थकारी प्रावधान हैं।

फॉरवर्ड प्रेस से चर्चा में जानेमाने विधि विशेषज्ञ और नेशनल लॉ स्कूल, बेंगलुरु के पूर्व कुलपति प्रो. मोहन गोपाल ने कहा, “मुकेश कुमार विरुद्ध उत्तराखंड राज्य (निर्णय दिनांक 7 फरवरी 2020) में उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय और मुकेश कुमार मामले की पीठ के एक न्यायाधीश द्वारा मौखिक रूप से यह कहना कि आरक्षण मूल अधिकार नहीं है, अत्यंत चिंताजनक है।” 

हम यहाँ उक्त निर्णय का एक अंश उद्धृत कर रहे हैं :

11. अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4-ए) पदोन्नति में आरक्षण को मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं देते। इस न्यायालय के पूर्व के निर्णयों के आधार पर अजीत सिंह (II) (पूर्वोक्त) मामले में यह कहा गया था कि अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4-ए)  समर्थकारी प्रावधान हैं जो राज्य सरकार को यह विवेकाधिकार देते हैं कि अगर स्थितियों को देखते हुए उसे ऐसा आवश्यक लगे तो वह आरक्षण प्रदान करने पर विचार कर सकती है। यह स्थापित विधि है कि राज्य सरकार को सार्वजनिक पदों पर नियुक्ति में आरक्षण प्रदान करने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता। इसी तरह, राज्य के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह पदोन्नति में एससी व एसटी को आरक्षण दे। परन्तु अगर सरकार अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए आरक्षण देना चाहती है तो उसे ऐसे “मात्रात्मक तथ्य” एकत्र करने होंगे जिनसे यह जाहिर होता हो कि संबंधित वर्ग का सार्वजनिक सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है। अगर पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने के राज्य सरकार के निर्णय को चुनौती दी जाती है तो उसे संबंधित मात्रात्मक तथ्य न्यायालय के समक्ष रखने होंगे और न्यायालय को संतुष्ट करना होगा कि इस तरह का आरक्षण दिया जाना इसलिए आवश्यक है क्योंकि एससी और एसटी का किसी विशेष श्रेणी या श्रेणियों के पदों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है और इस तरह के आरक्षण से प्रशासन की कार्यकुशलता प्रभावित नहीं होगी, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 335 में अपेक्षित है। 

12. अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4-ए) राज्य को एससी व एसटी को नियुक्ति व पदोन्नति में आरक्षण देने का अधिकार देते हैं बशर्ते “राज्य की राय में, राज्य के अधीन सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व न हो’।”  यह राज्य सरकार को तय करना है कि नियुक्ति और पदोन्नति में आरक्षण की ज़रुरत है या नहीं। अनुच्छेद 16 के खंड (4) और खंड (4 ए) की भाषा एकदम स्पष्ट है और इनसे साफ़ है कि प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता या अपर्याप्तता का निर्णय राज्य को करना है। राज्य इस विषय में अपनी राय या तो ऐसी सामग्री के आधार पर बना सकता है जो पहले से ही उसे उपलब्ध हो या वह ऐसी सामग्री को किसी व्यक्ति, प्राधिकारी, समिति अथवा आयोग द्वारा एकत्र करवा सकता है। आवश्यक केवल यह है कि राज्य की राय का आधार कोई न कोई सामग्री होनी चाहिए। अदालत को राज्य की राय का समुचित सम्मान करना चाहिए हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं है कि राय की न्यायिक विवेचना की ही नहीं जा सकती… 

(स्रोत : indiakanoon.org)

संविधान के भाग 3 (मूल अधिकार) के अनुच्छेद 16 के प्रासंगिक खंड क्या कहते हैं?

16 (1) राज्य के अधीन किसी भी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समानता होगी. 

(2) राज्य के अधीन किसी भी पद के संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इसमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा। 

(3) इस अनुच्छेद की कोई बात संसद को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो [किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र की सरकार के या उसमें के किसी स्थानीय या प्राधिकारी के अधीन किसी वर्ग या वर्गों के पद पर नियोजन या नियुक्ति के सम्बन्ध में ऐसे नियोजन या नियुक्ति से पहले उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के भीतर निवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती है]।

(4) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। 

(4ए) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, राज्य के अधीन सेवाओं में (किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर पारिणामिक ज्येष्ठता, प्रोन्नति के मामलों में) आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।  

प्रो. मोहन गोपाल, पूर्व कुलपति, नेशनल लॉ स्कूल, बेंगलुरु

प्रो. गोपाल के अनुसार, “संवैधानिक पीठों के पूर्व निर्णयों की एक गलत श्रृंखला को आधार मान कर मुकेश कुमार निर्णय में यह कहा गया कि अनुच्छेद 16 (4) और 16 (4-ए), पदोन्नति में आरक्षण को मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं देते। पूर्व निर्णयों की इस श्रृंखला को जल्दी से जल्दी उपयुक्त आकार की खंडपीठ के समक्ष चुनौती दी जानी चाहिए। यह भी चिंताजनक है कि मुकेश कुमार निर्णय में इस सीमित (यद्यपि महत्वपूर्ण) विधिक विषय से बाहर जाकर कुछ टिप्पणियां की गईं हैं। उदाहरण के लिए, निर्णय में कहा गया है, ‘इस न्यायालय द्वारा निर्धारित विधि के प्रकाश में इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्य सरकार, आरक्षण प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं है।’। यह भी चिंता का विषय है कि मुकेश कुमार मामले में उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय का वह निर्णय रद्द कर दिया जिसमें राज्य को सेवाओं में प्रतिनिधित्व संबंधी आंकड़े इकट्ठा करने को कहा गया था ताकि यह पता लगाया जा सके कि आरक्षण देना आवश्यक है या नहीं। क्या इसका यह अर्थ है कि अदालत न सिर्फ यह कह रही है कि सरकार के लिए आरक्षण देना अनिवार्य नहीं है और आरक्षण पाना भेदभाव का शिकार रहे समुदायों का अधिकार नहीं है? क्या अदालत यह नहीं कह रही है कि वह ऐसे समुदायों के पक्ष में आरक्षण का समर्थन भी नहीं करती?” 

“आरक्षण के मूल अधिकार के सम्बन्ध में न्यायालय की संवैधानिक विवेचना त्रुटिपूर्ण है। यह विवेचना कमज़ोर तर्क पर खड़ी है। अदालत ने इस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया है कि समानता हमारे संविधान और हमारे समाज को एक न्यायपूर्ण समाज में बदलने के संवैधानिक मिशन का केंद्रीय तत्व है। इस आरक्षण-विरोधी न्यायशास्त्र को तुरंत चुनौती दी जानी चाहिए।”

केरल राज्य व अन्य विरुद्ध एन.एम. थॉमस व अन्य, 1975

पूर्व में कम से कम एक मौके पर, उच्चतम न्यायालय ने पदोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर विचार करते हुए यह स्वीकार किया है कि समानता, हमारे संवैधानिक सिद्धांतों का केंद्रीय तत्व है। एक सरकारी कार्यालय में पदस्थ एक निम्न श्रेणी लिपिक ने पदोन्नति की पात्रता पाने के लिए आवश्यक वर्षों की सेवा पूरी कर ली थी और निर्धारित परीक्षा में भी वह उत्तीर्ण हो गया था। परन्तु दो साल तक उसे पदोन्नत नहीं किया गया। लिपिक का नाम एन.एम. थॉमस था और वह सामान्य श्रेणी का था। उसे पदोन्नत करने के लिए पर्याप्त संख्या में पद उपलब्ध नहीं थे क्योंकि कुछ पद एससी और एसटी के लिए आरक्षित कर दिए गए थे। राज्य सरकार ने एक नया नियम (नियम 13ए-ए) बना दिया था जिसके अंतर्गत, एससी-एसटी उम्मीदवारों को पदोन्नति के बाद आवश्यक परीक्षा पास करने के लिए सभी उम्मीदवारों को उपलब्ध दो वर्ष की अवधि के अतिरिक्त और दो वर्ष की अवधि प्रदान कर दी गई थी। इसके पहले उन्हें इस शर्त पर पदोन्नति दी गई थी कि अगर वे दो वर्ष के अन्दर परीक्षा पास न कर सके तो उन्हें उनके पुराने पद पर पदावनत कर दिया जाएगा। दो वर्ष की निर्धारित अवधि बीत जाने के बाद भी एससी-एसटी उमीदवार आवश्यक परीक्षा पास नहीं कर सके थे परन्तु नए नियम के तहत उन्हें पदावनत नहीं किया गया और पद खाली नहीं हुए। फलतः थॉमस की पदोन्नति रुकी रही। इस पर थॉमस व अन्यों ने केरल सरकार के विरुद्ध मुकदमा दायर कर दिया। केरल उच्च न्यायालय ने एन.एम. थॉमस के पक्ष में निर्णय सुनाया और सरकार द्वारा लागू किये गए नए नियम को रद्द कर दिया। मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा। निर्णय 19 सितम्बर 1975 को सुनाया गया। खंडपीठ में शामिल थे न्यायमूर्तिगण ए.एन. रे. हंस राज खन्ना, कुट्टियिल कुरियन मैथ्यु, एम.एच. बेग, वी.आर. कृष्णा अय्यर, ए.सी. गुप्ता और एस.एम. फैज़ल अली।

उस समय अनुच्छेद 16 (4-ए), जिसके अंतर्गत एससी-एसटी को पदोन्नति में आरक्षण दिया जाता है, संविधान का भाग नहीं था। इसे एक संविधान संशोधन अधिनियम के ज़रिये सन 1995 में संविधान का हिस्सा बनाया गया। परन्तु इसके बावजूद, उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को 5-2 के बहुमत से रद्द कर दिया। न्यायमूर्तिगण ए.एन. रे. कुट्टियिल कुरियन मैथ्यु, एम.एच. बेग, वी.आर. कृष्णा अय्यर और एस.एम. फैज़ल अली ने राज्य सरकार की इस सकारात्मक कार्यवाही को उचित ठहराया जबकि  हंस राज खन्ना और ए.सी. गुप्ता अन्यों से सहमत नहीं थे। फैसले में न्यायमूर्ति के.के. मैथ्यु ने जो राय व्यक्त की वह अत्यंत महत्वपूर्ण थी। उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि आरक्षण एक मूल अधिकार है: 

(1) अवसर की समानता की संकल्पना, समानता की अधिक व्यापक अवधारणा का एक पहलू है। समानता के विचार के कई अर्थ और भेद है। इसके कई पक्ष और निहितार्थ हैं। 

(2) अवसर की समानता की अवधारणा का कोई मतलब तभी है जब सीमित संख्या में पद, जैसा कि इस प्रकरण में है, ऐसे आधारों पर आवंटित किये जाएं जिनसे नागरिकों के कोई उस हिस्से को, जो ये पद पाने का इच्छुक हो, पूर्वसिद्ध आधारों पर उनसे वंचित नहीं किया जा सके। पूर्वसिद्ध आधारों से आशय है ऐसे आधार जो उचित और तार्किक न हों। अवसर की समानता के लिए न केवल यह आवश्यक है कि किसी भी वस्तु तक पहुँच, उपयुक्त या तार्किक आधारों से इतर किसी आधार पर समाप्त न की जाए बल्कि ये उपयुक्त आधार भी ऐसे होने चाहिए जिनकी पूर्ति करने का अवसर समाज के सभी तबकों को बराबर उपलब्ध हो। 

(3) एससी-एसटी वर्गों के सदस्यों को रोज़गार में समान अवसर देने के लिए उनके सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक परिवेश को समझना आवश्यक है। सामान्यतः यह माना जाता है कि अनुच्छेद 46 में दिए गए राज्य के नीति निदेशक तत्त्व केवल विधि निर्माताओं पर बाध्यकारी हैं परन्तु उन्हें अदालतों के निर्णय लेने की प्रक्रिया को भी आलोकित करना चाहिए क्योंकि अनुच्छेद 12 में उल्लेखित “राज्य” का अदालतें भी भाग हैं और वे भी कानून बनातीं हैं, यद्यपि सीधे नहीं।

(4) अवसर की समानता से आशय केवल विधिक समानता से नहीं है। इसका अर्थ केवल अक्षमता की अनुपस्थिति नहीं वरन क्षमता की उपस्थिति है। 

(5) विधि के समक्ष समानता या रोज़गार के मामले में अवसरों की समानता की गारंटी, औपचारिक समानता से कहीं विस्तृत है। इसका अर्थ यह है कि गैर-बराबर लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाना चाहिए। समान अधकार के सिद्धांत में यह शामिल है कि सरकार का यह कर्त्तव्य है कि वह असमानताओं को समाप्त करे और सभी को उनके मानव अधिकारों का प्रयोग करने का अवसर प्रदान करे। 

(6) संविधान के भाग 3 में अधिनियमित मूल अधिकारों की प्रकृति मूलतः नकारात्मक है। वे केवल उस क्षेत्र का सीमांकन करते हैं जिनमें सरकार का कोई अधिकार–क्षेत्र नहीं होना चाहिए। यह मान कर चला जाता है कि इस मामले में, नागरिक का इससे सिवा कोई अधिकार नहीं है कि उसे अकेला छोड़ दिया जाय और सरकार उसके कार्यकलापों में अवांछित हस्तक्षेप न करे।  

(7) (ए) परन्तु अनुच्छेद 16(1) की भाषा, अनुच्छेद 14 की भाषा से एकदम अलग है। अनुच्छेद 14 में जोर इस बात पर है कि राज्य किसी नागरिक को विधि के समक्ष समानता या विधि की समान सुरक्षा से वंचित नहीं करेगी अर्थात यह अनुच्छेद बताता है कि सरकार को क्या नहीं करना चाहिए। इसके विपरीत अनुच्छेद 16 (1) यह बताता है कि सरकार को आवश्यक रूप से क्या करना चाहिए।

(बी) अगर अनुच्छेद 16(1) के अंतर्गत प्रदान की गई अवसरों की समानता से आशय प्रभावी और वास्तविक समानता से है तब अनुच्छेद 16(4), अनुच्छेद 16(1) का अपवाद नहीं है। वह केवल यह बताता है कि अवसरों की समानता स्थापित करने के लिए सरकार कहाँ तक जा सकती है – अर्थात आरक्षण प्रदान करने तक। 

(सी) अनुच्छेद 16(1) सभी क्षेत्रों में समानता सुनिश्चित करने की व्यापक परियोजना का एक भाग भर है। वह अनुच्छेद 14 और 15 में वर्णित विधिक समानता को लागू करने का तरीका है। अनुच्छेद 14 की तरह, अनुच्छेद 16 (1) भी  वर्गीकरण करने की इज़ाज़त देता है परन्तु इस वर्गीकरण के द्वारा केवल नस्ल, जाति या अनुच्छेद 16(2) में वर्णित अन्य कारकों के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। 

(डी) अनुच्छेद 16(2) में प्रयुक्त शब्द “जाति” में अनुसूचित जातियां सम्मिलित नहीं है। “अनुसूचित जातियों” की जोपरिभाषा अनुच्छेद 366 (24) में दी गई है उससे यह साफ़ है कि अनुसूचित जातियां, राष्ट्रपति की अधिसूचना से अस्तित्व में आयी हैं। यद्यपि अनुसूचित जातियों के सदस्य विभिन्न जातियों, नस्लों या जनजातियों के होते हैं तथापि राष्ट्रपति की अधिसूचना से वे एक नया दर्जा हासिल कर लेते हैं। इसके अतिरिक्त, यद्यपि किसी जनजाति के सदस्य को अनुसूचित जातियों में सम्मलित किया जा सकता है तथापि अनुच्छेद 16(2) में जनजाति शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। 

(ई) अनुच्छेद 16(1) और अनुच्छेद 16(2) नियुक्ति अथवा पदोन्नति के लिए किसी तर्कसंगत अर्हता के निर्धारण का निषेध नहीं करते। किसी नियोजन अथवा किसी पद पर नियुक्ति हेतु निर्धारित तर्कसंगत अर्हता, जो सभी के मामलों में लागू होती हो, अनुच्छेद 16(1) के अंतर्गत अवसरों की समानता के सिद्धांत से संगत है। 

(8) संवैधानिक विधि में अब यह धारणा मज़बूत होती जा रही है कि सरकार की यह सकारात्मक ज़िम्मेदारी है कि वह सामाजिक, आर्थिक या अन्य प्रकार की असमानताओं को दूर करे। 

(9) नियोजन में अवसरों की समानता की अवधारणा इतनी व्यापक है कि उसमें ऐसे प्रतिपूरक उपाय शामिल हैं जिनसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को अन्य समुदायों के समकक्ष लाया जा सके और जिससे उन्हें सार्वजनिक सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व मिल सके। 

(10) अगर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को नियोजन में समान अवसर उपलब्ध करवाने के लिए नियुक्ति के चरण पर या पदोन्नति के चरण पर या फिर दोनों चरणों पर आरक्षण दिया जाना आवश्यक है तो कोई कारण नहीं कि अनुच्छेद 16(1) के अंतर्गत इसकी अनुमति न हो क्योंकि इसी से वे अग्र समुदायों के समकक्ष आ सकेंगे और वही परिणाम हासिल कर सकेंगे जो अवसरों की समानता से हासिल होंगे। परिणाम की समानता ही अवसरों की समानता की कसौटी  हो सकती है।

(11) राज्य ऐसे कोई भी कदम उठा सकता है जिनसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों का सार्वजनिक सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके और उसे इस आधार पर औचित्यपूर्ण ठहरा सकता है कि ,वह अवसरों की समानता हासिल करने के लिए प्रतिपूरक उपाय हैं बशर्ते कि वह प्रशासन की कार्यकुशलता बनाये रखने के लिए ज़रूरी न्यूनतम बुनियादी योग्यता हासिल करने की आवश्यकता को समाप्त न करे।

(12) यह मानना गलत होगा कि किसी वर्ग, यथा निम्न श्रेणी लिपिकों, के अन्दर कोई वर्गीकरण नहीं हो सकता. अगर किसी वर्ग में ऐसे स्पष्ट भेदक चिन्ह हो जो उसके किसी समूह को अन्यों से अलग करते हों और अगर इन भेदक चिन्हों का संबंध, वर्गीकरण के उद्देश्य से हो तो वर्ग के अंदर वर्गीकरण पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती।

(13)  इस प्रकरण में नियम 13ए-ए इसलिए लागू नहीं किया गया है कि उच्च पद या दर्जे में पदोन्नति के लिए निर्धारित न्यूनतम योग्यता को समाप्त कर दिया जाये बल्कि उसे इसलिए लागू किया गया है ताकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति उम्मीदवारों को इस योग्यता को हासिल करने के लिए अधिक समय मिल सके। नियम 13ए-ए का उद्देश्य यह है कि उन्हें उच्च दर्जे में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके और वह भी उस कार्यकुशलता की बलि चढ़ाये बगैर, जो उक्त परीक्षा उत्तीर्ण करने में निहित है।     

(14) नियम 13ए-ए के तहत जो वर्गीकरण किया गया है उसका इस कानून के उद्देश्य से तर्कसंगत और यथोचित संबंध है. नियम 13ए-ए का उद्देश्य अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को परीक्षा उत्तीर्ण करने से स्थायी छूट देना नहीं है परन्तु उन्हें यह परीक्षा उत्तीर्ण करने के लिए यथोचित समय देना है. इस नियम का दुरुपयोग हो सकता है, यह उसे गलत ठहराने का आधार नहीं हो सकता.

(स्रोत : indiankanoon.org)

न्यायमूर्ति मेथ्यु के शब्दों पर ध्यान दें…” अनुच्छेद 16(4), अनुच्छेद 16(1) का अपवाद नहीं है. वह केवल यह बताता है कि अवसरों की समानता स्थापित करने के लिए सरकार किस हद तक जा सकती है – अर्थात आरक्षण प्रदान करने तक।

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया संपादन : गोल्डी/नवल)

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अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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