h n

‘आज भी आदिवासियों से जमीनें छीनी जा रही हैं’

हूल क्रांति (30 जून, 1855) की वर्षगांठ के मौके पर भाजपा के कद्दावर आदिवासी नेता व राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार साय से राजन कुमार की खास बातचीत

[हूल क्रांति के 165 वर्ष बाद भी देश का आदिवासी समुदाय मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर है। आदिवासी क्षेत्रों में पेयजल, बिजली, शिक्षा, दूरसंचार, सिंचाई, इन्फ्रास्ट्रक्चर इत्यादि की कमी है। सवाल उनके सांस्कृतिक और समाजिक अधिकारों का भी है और उनके शोषण-उत्पीड़न का भी। पलायन और बेरोज़गारी रोज-ब-रोज बढ़ती ही जा रही है। इन सवालों को लेकर भाजपा के दिग्गज आदिवासी नेता और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार साय से राजन कुमार ने दूरभाष पर विशेष बातचीत की। श्री साय छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रथम नेता प्रतिपक्ष रह चुके हैं, साथ ही मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ से तीन बार विधायक, तीन बार लोकसभा सदस्य और दो बार राज्यसभा सदस्य चुने गए हैं। प्रस्तुत है बातचीत का संपादित अंश]

क्या आपको नहीं लगता कि जिन कारणों से 1855 में हूल क्रांति हुई थी वे कारण आज भी  मौजूद हैं?

देखिए, भारत में तब अंग्रेज शासन कर रहे थे और संपूर्ण देश पर एक तरह से उनका कब्जा था। आदिवासी समुदाय ने उस समय भी अंग्रेजों का शासन स्वीकार नहीं किया था। हूल विद्रोह जिस जगह हुआ, वह पुराना बिहार और आज का झारखंड है। हूल का अर्थ कहें तो ‘संपूर्ण’ होगा, एक तरह से इसे संपूर्ण क्रांति कहेंगे। मैं समझता हूं कि उस समय अनेक जनजातियां उस आंदोलन में शामिल थीं, जिनके लोग लड़ाई लड़े और मरे। बिरसा मुंडा लड़े, तिलका मांझी लड़े, वीर बुधु भगत लड़े।

उस समय क्या था कि आदिवासी मुख्य रूप से अपनी जमीन पर खेती करते थे। जो अंग्रेज थे, वे आदिवासियों से उनके खेत में खेती करने पर टैक्स मांगते थे। जनजातीय समाज उसका विरोध करता था। उसका कहना था कि वह जमीन उनकी है, वे टैक्स क्यों देंगे। ये उनके पूर्वजों की जमीन है और लगभग वही स्थिति अभी भी है। अनेक स्थानों पर आदिवासियों की जमीनों को दूसरे लोग हड़पने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे छत्तीसगढ़ में जो गंगरेल बांध बना था, उसमें बड़ी संख्या में जनजातियों की जमीन चली गयी। उन्हें जमीन के बदले जमीन दी जानी थी, दी भी गयी, लेकिन अभी भी वह जमीन उनके कब्जे में नहीं है। उसी तरह झारखंड में भी, अलग-अलग जगहों में भी यही स्थिति है। 

आप राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रहे हैं। आपने अपने कार्यकाल के दौरान क्या अनुभव किया?

देखिए, मुझे ऐसा लगता है कि आदिवासियों में शिक्षा थोड़ी बहुत बढ़ी है लेकिन अभी भी बहुत सारे लोग विपन्न हैं, हाशिए पर हैं। उनके पास एजुकेशन नहीं है। उनकी बहुत सारी जमीन उनके नाम पर नहीं की गई है। मैं जब नेशनल कमीशन फॉर शिड्यूल्ड ट्राइब्स का चेयरपर्सन था तब मैंने दक्षिण के राज्यों तेलंगाना और तमिलनाडु की यात्रा की थी। इन राज्यों में भी आदिवासियों की हालत खराब है। खास कर तमिलनाडु में आदिवासी समुदय के लोगों के पास जमीन तो बिल्कुल ही नहीं है। पता नहीं बेचारे कैसे जीते हैं। मैंने उनसे पूछा कि रोजगार के क्या साधन हैं। जवाब में उन्होंने बताया कि उनके पास रोजगार के नाम पर केवल दिहाड़ी मजदूरी है और वह भी हमेशा नहीं मिलती है। 

नंदकुमार साय, पूर्व अध्यक्ष, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग

इस संबंध में मैंने तमिलनाडु के मुख्य सचिव से बात की। उन्हें कहा कि वे एक बैठक करें और उसमें सभी जनजातियों के प्रतिनिधियों को शामिल करें। मैंने अपने स्तर पर भी कुछ लोगों को आमंत्रित किया। लेकिन आमंत्रित प्रतिनिधियों में कई बेचारे पहुंच ही नहीं सके। मैंने बैठक में प्रतिनिधियों से पूछा कि आपके पूर्वज, जो पहाड़ों के नीचे तलहटियों में रहते थे, जो जमीन उनके कब्जे में थी, वह जमीन कहां गई? फिर मैंने अधिकारियों से पूछा कि इनकी जमीनें कहां गईं, किसने कब्जा कर लिया है या सरकार ने कब्जा किया है? मैंने जांच करने का निर्देश दिया और कहा कि इनकी सारी जमीन निकालकर दीजिए और इसके बाद मुझे सूचित कीजिए कि इनको जमीन दे दी गई है। हालांकि उसके बाद मेरा कार्यकाल समाप्त हो गया। 

इस तरह से अलग-अलग जगह मैंने दौरा किया। जनजातियों से संबंधित जो समस्याएं, जो भूमि से संबंधित हों या अन्य किसी प्रकार की हों, उनका पता लगाने के लिए जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश का हमने दौरा किया। और सर्वत्र जहां जो विषय सामने आए उनके समाधान की पूरी कोशिश की। भूमि जो जहां ले ली गई है या जबरदस्ती कब्जा की गई है, देश में…दक्षिण के राज्यों में भी हमने बैठक लेकर के मुख्य सचिवों और उनके सचिवालय के सारे लोगों को बुलाकर निर्देश दिया कि ये-ये इनकी (आदिवासियों) समस्याएं है और इनका समाधान करें। मैं आंध्र प्रदेश में एक हफ्ते तक दौरा करता रहा और जहां-जहां जो समस्याएं मिलीं, शिकायतें मिलीं; मैंने समाधान कराने का प्रयास किया। करीब-करीब एक हजार लोगों की अलग-अलग समस्याएं, केवल जमीन की नहीं थीं, दूसरी तरह की समस्याएं भी थीं, बैठक लेकर उनका समाधान करने का प्रयास किया।

यही स्थिति लगभग सारे प्रदेशों में अभी भी बनी हुई है। इन अत्यंत गरीब लोगों (आदिवासियों) का उद्धार नहीं हो पाया है।

हूल विद्रोह के समय जो बातें थीं, जो विषय थे, जिनके लिए वे सारे लोग लड़े, विशेषकर के जमीन के लिए, वह वर्तमान में कहीं-कहीं ही ठीक हुए हैं, लेकिन समग्र रुप से आदिवासी समाज अभी भी उतना ही विपन्न है। उन्हें और आगे लाने की जरूरत है, उनकी भूमि पर उन्हें पूरा कब्जा दे करके उनकी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक स्थिति ऊपर उठाने की आवश्यकता है।

सदियों से, आदिवासी जंगलों में रहते आए हैं। वे एक तरह से जंगलों का हिस्सा हैं। लेकिन अब देखने में आ रहा है कि बाघ एवं अन्य वन्यजीवों के संरक्षण या अभ्यारण्य बनाने के नाम पर आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है। और कई बार तो उनको रहने के लिए भूमि दिए बगैर या समुचित पुनर्वास किए बगैर विस्थापित किया जाता है।

मैंने कमीशन में बैठक लेकर एक कमेटी का गठन किया था। इसे यह अध्ययन करने की जिम्मेदारी दी कि जिस जगह जनजातीय लोग रह रहे हैं, वहां अभ्यारण्य बनाने के पहले उनके पुनर्वास की पूरी व्यवस्था की जा रही है अथवा नहीं। यदि नहीं तो उन्हें किसी भी कीमत पर विस्थापित नहीं किया जाना चाहिए। हमने कमेटी के सदस्यों से कहा कि आप जांच करें सभी जगह। यदि पुनर्वास की पूरी व्यवस्था नहीं होती है तो विस्थापन को न तो जनजातीय समाज स्वीकार करेगा और न ही आयोग।

आदिवासियों के समक्ष आजीविका से लेकर पहचान बचाने तक चुनौतियां हैं। क्या आपको नहीं लगता कि आदिवासियों से उनके सांस्कृतिक अधिकार छीने जा रहे हैं या उन पर बाहरी संस्कृति थोपी जा रही है?

हां, देखा है.. बहुत जगह। जनजातियों का मूल धर्म यह है कि वे धरती माता को मानते हैं। क्योंकि कभी भी खेती होती है तो वे धरती का पूजन करते हैं, जल का पूजन करते हैं, वे पूजन करते हैं वायु का, वे पूजन करते सभी पेड़-पौधों का, प्रकृति का, आसमान का। जैसे वेदों में जो पंचतत्व बताए गए हैं – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश। आदिवासी समुदाय भी प्रकृति के इन्हीं तत्वों को मानता रहा है। आज कोई उन्हें ईसाई बना दे रहा है तो कोई मुसलमान बना दे रहा है और कोई कुछ और बना दे रहा है। जहां तक मैं जानता और समझता हूं, वैदिक रीति-रिवाज मूल रूप से आदिवासी संस्कृतियों का हिस्सा रहे हैं। 

यह भी पढ़ें : कोयले की कार्मशियल माइनिंग का विरोध क्यों कर रहे हैं हेमंत सोरेन?

यानि आप कह रहे हैं कि जो हिंदू हैं या जो वैदिक समाज है, उन्होंने आदिवासियों के रीति-रिवाजों को अपना लिया है?

हां, ऐसा कह सकते हैं। आदिवासियों का जो मूल धर्म है, जो मान्यताएं थीं, मूल संस्कृति थी, उसे बाकी और लोगों ने, हिंदुओं ने भी और दूसरे लोगों ने भी, उन्हें अपनाया है।

लेकिन हिंदू धर्म या वैदिक समाज के जो अपने रिवाज हैं, उसे भी तो हिन्दुओं ने आदिवासियों पर थोप दिया है? आप क्या कहेंगे?

देखिए, मैं यह कह रहा हूं कि जनजातीय समाज के बहुत सारे रीति-रिवाजों को दूसरे समाजों ने, जिनमें हिंदू भी है, अपनाया है। ऐसा कहना तो ठीक हो सकता है लेकिन कब्जा कर लिया या थोप दिया, यह कहना उचित नहीं है। आदिवासी तो विराट प्रकृति को मानने वाले हैं। वे पहले भी थे और आज भी हैं। और उनके विचारों को अपनाने का काम बाकी और लोगों ने भी धीरे-धीरे शुरु किया है।

बहुत जगह आदिवासी लोग विस्थापित होने के बाद जमीन या रोजगार नहीं होने पर आजीविका के लिए शहरों की तरफ रूख कर गए हैं। शहरों में भी उनके समक्ष रोजगार की समस्या तो है, साथ ही अपनी पहचान बनाए रखने या बचाए रखने की चुनौती भी है

देखो भाई, जनजातीय समाज मूलतः जंगलों में, पहाड़ों में और ऐसे ही जगहों में रहे हैं, जहां उपजाऊ जमीन है। लेकिन कहीं बांध के कारण आदिवासी विस्थापित कर दिए गए तो कहीं कारखाने और खनन के लिए। होना तो यह चाहिए कि जहां भी विस्थापन हो वहां पहले जनजातियों को और कहीं व्यवस्थित रुप से बसाया जाए, जमीन के बदले जमीन दी जाए, क्योंकि वे मूलतः कृषक हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। उनके पुनर्वास के लिए जो व्यवस्थाएं होनी चाहिए, जो योजनाएं होनी चाहिए, सरकारों की जो सक्रियता होनी चाहिए, वह नहीं दिखती। इस कारण वे लोग, जिनकी जमीनें ले ली गईं, आज कहां हैं, इसका भी पता नहीं चलता है। 

जो आदिवासी बहुल क्षेत्र हैं, वहां बाहरी लोग बस रहे हैं, जिससे सांस्कृतिक टकराव भी देखने को मिल रहा है। 

हां, यह तो ज़बरदस्ती है। पूरे छत्तीसगढ़ में कहीं से भी बाहरी लोग आकर घुसे जा रहे हैं। जनजातियों की जमीनों पर कब्जा कर ले रहे हैं। एक जमाने में यहां बंगाल से आए थोड़े से लोगों को कांकेर के पास बसाया गया था। अब वहां बहुत सारे लोग आकर बस गए हैं। आदिवासियों की जमीन-जायदाद, बहन-बेटियां सब पर कब्जा करने की कोशिशें हो रही हैं। जंगलों को काट कर वो खुद मालिक बनने की कोशिश कर रहे हैं। इसको रोके जाने की जरूरत है। अगर पहले से बसाया गया है तो उनका पुनः व्यवस्थापन करके उस आबादी को दूसरी जगह बसाया जाना चाहिए। जनजाति समाज जहां है, वहीं पर उन्हें बसाने की क्या आवश्यकता है? उनको शहरों के नजदीक या अन्यत्र क्यों नहीं बसाया जाता? 

देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले आदिवासियों की समस्याएं भी अलग-अलग हैं? जैसे पूर्वोत्तर के आदिवासियों के साथ नस्लभेद की समस्या है या राजस्थान, पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासियों की भूमिहीनता इत्यादि। 

देखिए, पूर्वोत्तर के राज्यों में नस्लभेद की समस्या आदिवासियों के साथ नहीं है। वहां बांग्लादेशी मुसलमान उनकी जमीन-जायदाद पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं। मैं भी पूर्वोत्तर गया हूं, वहां से ऐसी कोई सूचना नहीं है कि वहां उनके साथ नस्लभेद की कोई समस्या है। लेकिन वो ऐसा है कि पढ़ने के लिए वहां के जनजाति समुदायों के बच्चे दिल्ली, बेंगलुरू आदि महानगरों की तरफ जाते हैं। वहां उनके साथ इस तरह के भेदभाव की खबरें आती हैं। इसकी भी वजह यह कि वे पढ़ने में बहुत तेज होते हैं, अंग्रेजी बड़ी अच्छी रहती है उनकी। इसी तरह से काम के सिलसिले में और दूसरे-दूसरे स्थानों में भी जाते हैं। इस तरह की घटनाएं जो आप बता रहे हैं वे इन्हीं कारणों से होती है। यह पूरी तरह से गलत है। इन सभी मामलों की पूरी जांच करवायी जानी चाहिए केंद्र सरकार को। कहां कौन किस कारण से उनके साथ इस तरह का भेदभाव हो रहा है, संज्ञान में लेकर इसको दूर करने का प्रयास होना चाहिए।

भूमिहीनता का सवाल तो है.. वहां वो भूमिहीन कैसे हुए पहले इसकी जांच होनी चाहिए। जनजातीय वर्ग जो है वह जंगलों में रहता था, पूरी भूमि उन्हीं की थी। आज राज्य सरकारों को चाहिए कि इसकी जांच करें कि वो कितने लोग हैं, भूमिहीन कैसे हो गए? उसके पहले वो कहां थे? उनकी जमीनें कहां गईं? इसके बाद यह तय किया जाना चाहिए कि अगर किसी ने या सरकारों ने भी उनकी भूमि पर कब्जा किया है तो उनकी ज़मीनें उन्हें वापस दिलाई जाएं। 

भौगोलिक रुप से आदिवासी लोग अलग-अलग हैं और उनके मुद्दे भी अलग-अलग हैं। क्या आपको लगता है कि देश भर के आदिवासियों के बीच एकता के सूत्र तलाशे जाने चाहिए जिससे सड़क से लेकर संसद तक उनके मुद्दों को मजबूती मिले? 

खासकर के नेशनल कमीशन फॉर सिड्यूल्ड ट्राइब्स  जो है वो केवल जनजातियों के उन्नयन के लिए काम करता है। देश की संपूर्ण जनजातियों में कहां-कहां कितनी विभिन्नता है, एजुकेशन कहां नहीं है, उनको सभी दृष्टियों से कैसे सक्षम बनाएं, यह जिम्मेदारी आयोग की है। लेकिन यह तभी संभव है जब कमीशन को और सशक्त बनाया जाए। देश भर की सभी जनजातियों के बीच एकजुटता लाने की कोशिश इस तरह हो सकती है। इसके लिए अलग-अलग राज्यों की सरकारें और केंद्र की सरकार भी सहयोग करे, क्योंकि जब तक कोई एक मजबूत संस्था नहीं होगी, तब तक यह नहीं हो सकेगा। 

अंतिम सवाल यह कि आज आदिवासियों के संदर्भ में मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य का आंकलन आप किस रुप में करेंगे?

देखिए, अलग-अलग राज्यों में जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित हैं, राज्य विधानमंडलों के लिए भी  और संसद के लिए भी। ऐसे क्षेत्रों में जो जनजातीय वर्ग के लोग (चुनाव में) खड़े होते हैं या चुनकर आते हैं, उनकी भूमिका को भी महत्वपूर्ण बनाया जा सकता है। और केवल एजुकेशन की दृष्टि से नहीं, उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वो संसद में, राज्य विधानमंडलों में अपनी भूमिका को और प्रभावकारी तरीके से निभा सकें। इससे क्या है कि सारे क्षेत्रों में जागरुकता भी बढ़ेगी और संसद और विधानमंडलों में उनकी समस्याओं का उल्लेख कर उनकी समस्याओं को केंद्र और प्रदेशों में ठीक से उनके विषय को रखा जा सकेगा। इससे जनजातियों के समस्याओं का समाधान हो सकेगा। मैं तो यह मानता हूं कि राजनीतिक दृष्टि से जनजातीय वर्ग के संसद और राज्य विधानमंडलों में हमारे जो सदस्य हैं, इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है, बशर्ते इन्हें अपने विषयों को रखने का प्रशिक्षण दिया जाय।  

(संपादन : नवल/गोल्डी/अमरीश)

फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

राजन कुमार

राजन कुमार ने अपने कैरियर की शुरूआत ग्राफिक डिजाइर के रूप में की थी। बाद में उन्होंने ‘फारवर्ड प्रेस’ में बतौर उप-संपादक (हिंदी) भी काम किया। इन दिनों वे ‘जय आदिवासी युवा शक्ति’ (जयस) संगठन के लिए पूर्णकालिक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे हैं। ​संपर्क : 8368147339

संबंधित आलेख

शीर्ष नेतृत्व की उपेक्षा के बावजूद उत्तराखंड में कमजोर नहीं है कांग्रेस
इन चुनावों में उत्तराखंड के पास अवसर है सवाल पूछने का। सबसे बड़ा सवाल यही है कि विकास के नाम पर उत्तराखंड के विनाश...
‘आत्मपॅम्फ्लेट’ : दलित-बहुजन विमर्श की एक अलहदा फिल्म
मराठी फिल्म ‘आत्मपॅम्फलेट’ उन चुनिंदा फिल्मों में से एक है, जो बच्चों के नजरिए से भारतीय समाज पर एक दिलचस्प टिप्पणी करती है। यह...
मोदी के दस साल के राज में ऐसे कमजोर किया गया संविधान
भाजपा ने इस बार 400 पार का नारा दिया है, जिसे संविधान बदलने के लिए ज़रूरी संख्या बल से जोड़कर देखा जा रहा है।...
केंद्रीय शिक्षा मंत्री को एक दलित कुलपति स्वीकार नहीं
प्रोफेसर लेल्ला कारुण्यकरा के पदभार ग्रहण करने के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा में आस्था रखने वाले लोगों के पेट में...
आदिवासियों की अर्थव्यवस्था की भी खोज-खबर ले सरकार
एक तरफ तो सरकार उच्च आर्थिक वृद्धि दर का जश्न मना रही है तो दूसरी तरफ यह सवाल है कि क्या वह क्षेत्रीय आर्थिक...