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समतामूलक समाज के महान स्वप्नद्रष्टा कबीर

कबीर मानवता और सांस्कृतिक आज़ादी के इतिहास में उस जलडमरूमध्य की तरह हैं जहां मानव मुक्ति बहुत सी पुरानी परम्पराएं आकर ठहर जाती हैं और बहुत सी नई परम्पराएं आगे बढ़ती हुई आधुनिक विचारों के निर्माण में घुल-मिल जाती हैं। बता रहे हैं रामजी यादव

कबीर जयंती पर विशेष

अक्सर मेरे सामने यह सवाल खड़ा होता है कि अपने समाज के नायकों की परंपरा का सबसे प्रखर प्रस्थान-बिन्दु कहां होना चाहिए? वह कौन सी चीज है जो हमारे बहुत व्यापक और विशाल समाजों को एक धरातल पर खड़ा करती है? कौन सा वह विचार है जो हमारा घोषणापत्र बनने की काबिलियत रखता है? और वास्तव में कौन सी लड़ाई है जो हमारे बिखरे, ब्राह्मणवादी जकड़न में पूरी तरह जकड़े और जाति व्यवस्था के सबसे निकृष्ट शिकार होने पर भी अपनी जाति की श्रेष्ठता का झूठ गढ़कर उसी में लिथड़े रहकर गुलामी का आनंद लेने में गौरव महसूस करने वाले, समता, समानता और बंधुता की भावनाओं को ब्राह्मणों की सेवा में लगाकर खुश होते हुए अपने समानधर्मा श्रमजीवी समाजों के प्रति नफरत और हिकारत रखने वाले समाजों को एक धरातल पर खड़ा कर सकती है। उनमें अपनी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक लड़ाई को निर्णायक मुकाम तक पहुंचाने की आग पैदा कर सकती है? 

निश्चित रूप से मुझे लगता है कि वह रैदास और कबीर की लड़ाई है। और इसीलिए हमारे समाज के नायकों की परंपरा का सबसे प्रखर प्रस्थान-बिन्दु भी रैदास और कबीर ही हैं। 

यहीं पर एक सवाल उठता है कि कबीर को लगातार प्रक्षिप्त क्यों किया गया होगा? तो लगता है कि कबीर की लड़ाइयों को कमजोर करने के लिए ही ऐसा किया होगा क्योंकि कबीर जैसा न उनका कोई पंथी था और न ही उनके जैसा उनका कोई व्याख्याता ही था। वे कबीर के विचारों की आग से जले होंगे और अपनी कायरता को छिपाने के लिए कबीर को ही बदलने की कोशिश की होगी। उनका अपने हिसाब से रूपान्तरण करने की कोशिश किया होगा लेकिन कबीर तो कबीर ठहरे। सारी बौद्धिकता और विद्याडंबर का सीना चीरकर चले आते हैं और बहुत गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक विपत्तियों के ऐन बीच में खड़े हो जाते हैं।   

उत्तरप्रदेश के बनारस में कबीर मठ में कबीर एवं उनके अनुयायियों की प्रतिमाएं

ऐसा क्यों है कि अपने जन्म के छह सौ से अधिक साल बाद कबीर आज भी हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक परेशानियों के बीच खड़े मिलते हैं। उनके बिना कोई समाधान ही नहीं है, जबकि उनके व्यक्तित्व को ओझल और कमतर करने की इतनी कोशिशें हुई हैं कि उन पर ही कई ग्रंथ लिखे गए हैं। कबीर के साथ विडंबनाओं और झूठ का पूरा महल खड़ा किया गया। उनके बारे में अनैतिहासिक और अवास्तविक किंवदंतियों को फैलाया गया। उनकी कविताओं को प्रक्षिप्त और भ्रष्ट किया गया। यह कोशिश तो व्यावहारिक रूप से यहां तक भी दिखती है कि जब धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक सद्भाव की सभाओं में वक्ता के रूप में चुटिया-त्रिपुंडधारी बाभन और दाढ़ी धारी मुल्ला भी शामिल कर लिए जाते हैं। अनेक बार तो ऐसे लोग पूर्व निर्धारित सहमति के साथ मुख्य वक्ता अथवा अध्यक्ष तक बनाए जाते हैं। कबीर के मुतल्लिक कोई बात होती है तो वह प्रायः एकांगी बात ही होती है और घिसे-पिटे निष्कर्षों पर जाकर समाप्त होती है। उनको चमत्कारी और भक्त सिद्ध करने की कोशिशों का भी कोई अंत नहीं है। 

जबकि कबीर की कविता आलोचकों के दिल-दिमाग के कभी न भरनेवाले घाव की तरह आजीवन उनका पीछा करती है। इसलिए हम देखते हैं कि वे कबीर को या तो नकारते हैं या फिर अपने हिसाब से उनकी व्याख्या करते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल उनको अपने साहित्येतिहास में कोई सम्मानजनक जगह नहीं दे पाये। कबीर की तल्खी के आगे शुक्ल जी की सारी विद्वत्ता और बौद्धिक ईमानदारी धरी की धरी रह गयी और कबीर उनके सिर के ऊपर से गुजर गए। बेचारे शुक्ल ने कबीर को बुरा-भला कहकर अपने दिल की जलन शांत की। यह सिलसिला बाद में और भी तेज हुआ। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कबीर को अपने हिसाब से कम बेइज्जत नहीं किया। अगर शुक्ल ने कबीर को खारिज करने की कुचेष्टा की तो द्विवेदी ने अपने झँपोले में अंटाने की कोशिश करके उन्हें अपने अनुकूल बनाया। यह सिलसिला लंबा खिंचा है। फिर निंदा की रस्सी रही हो या प्रशंसा की डोरी रही हो, उद्देश्य दोनों का ही कबीर का गला घोंटना ही था। 

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क्या इन कोशिशों से यह नहीं लगता कि जो वर्तमान हिन्दू समाज व्यवस्था की गलीज़ संरचना और सोच-व्यवहार को सिरे से नहीं नकारेगा वह कबीर को नहीं समझ सकता है। कबीर सिर्फ हिन्दू समाज व्यवस्था की संरचना को चुनौती नहीं देते। वह मुस्लिम समाज व्यवस्था की कठमुल्लावादी संरचना को भी नहीं बख्शते। वे एक नई दुनिया की बात करते हैं जहां न ‘हिन्दू राम कह मुए न मुसलमान खुदाई’ का आलाप ले। लेकिन कबीर की इस दुनिया पर कम बात हुई। सदियों बाद जब हमारे बचपन में कबीर शामिल हुये तो उनके आसपास ढेरों चमत्कार और किंवदंतियां थीं। और थोड़ा आगे पढ़े तब भी उनके जन्म और जीवन को लेकर ही भारी झगड़ा था। दर्शन का कुछ पता नहीं था। विद्वानों ने उन्हें जुलाहा साबित किया। अनेक साक्ष्य जुटाये और मुसलमान जुलाहा साबित कर दिया। 

लेकिन यहां पर मेरे मन में एक सवाल बार-बार उठता है कि एक मुसलमान जुलाहा ब्राह्मणवाद को क्यों चुनौती देगा? जिस जमाने में बनारस में कबीर थे वहां किसी जुलाहे की क्या मजाल कि वह बाभनों से कह दे कि ‘पांडे कौन कुमति तोहें लागी?’ और ‘घालि जनेऊ बाभन होना, मेहरी का पहिराया। वा ले जनम की सूदरिन परसै, तू पांडे क्यों खाया?’ इस तरह की तू-तड़ाक की भाषा में कोई जुलाहा बात कर सकता है? मतलब ही क्या है? दूसरे, बुनकर चाहे हिन्दू हो चाहे मुसलमान हो वह इतना कमजोर और जिंदगी के बोझ से दुहरा होता है कि वह कैसे किसी बाभन को चुनौती दे देगा? तीसरे, सार्वजनिक रूप से किसी मुसलमान जुलाहे का हिन्दू समाज-व्यवस्था में सबसे ऊपरी सोपान पर रहने वाली जाति के लिए अथवा हिन्दू जुलाहे द्वारा मुस्लिम समाज-व्यवस्था में सबसे ऊपरी सोपान पर रहने वाले शेख, पठान और मुल्ला-काजी के लिए ऐसा कहना एक असंभव क्रिया है। जो बाभन अपने को श्रेष्ठ मानने की हर हिकमत को पूरे दंभ के साथ जीता है उसको कोई जुलाहा कैसे कह सकता है कि ‘पंडित बाद बदन्ते झूठा। राम कह्या दुनिया गति पावै, खांड कह्या मुख मीठा।’ या फिर इतना तीखा सवाल पूछ दे कि ‘जो तू बामन बामनी जाया, आन बाट काहें नहीं आया।’ 

विद्वानों की सामाजिक समझ लगता है घास चरने गई थी और उन्होंने कबीर को कहीं जात कोरी कहीं जात जुलाहे में फंसा दिया और यह भी नहीं देख पाये कि उस समय तो छोड़ ही दीजिये आज भी कोई जुलाहा बाभन से ऐसे कह दे तो दंगा हो जाय। उस दौर में भी यह संभव था कि दंगा या मारपीट ही हुई हो। जब कबीर को बनारस से मगहर जाना पड़ा तो फिर यह आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोई सामान्य जुलाहा ब्राह्मणवाद पर इतना तीखा आक्रमण कैसे कर सकता है और अगर उसने किया तो इसका सिर्फ यही मतलब है कि उसका उद्देश्य बहुत महान रहा होगा और वह असाधारण रूप से दोनों ही समाज-व्यवस्थाओं को उखाड़-फेंककर किसी नई दुनिया को बनाने का सपना देख रहा होगा। 

इस सवाल का कोई मतलब नहीं कि कबीर किस जाति में पैदा हुये और किस धर्म के जुलाहे थे, लेकिन इस बात से सौ फीसदी मतलब है कि वे कौन सी दुनिया बनाने का सपना देख रहे थे? यह जानने की जरूरत है कि उनके मन में किस बात को लेकर गुस्सा था। किस स्थिति से वे क्षुब्ध थे? उन्हें किस चीज से नफरत थी और किन चीजों और लोगों से वे प्रेम करते थे? 

कबीर मानवता और सांस्कृतिक आज़ादी के इतिहास में उस जलडमरूमध्य की तरह हैं जहां मानव मुक्ति बहुत सी पुरानी परम्पराएं आकर ठहर जाती हैं और बहुत सी नई परम्पराएं आगे बढ़ती हुई आधुनिक विचारों के निर्माण में घुल-मिल जाती हैं। आज सामाजिक सद्भाव, भाईचारा और सांप्रदायिक एकता जैसे किसी भी मुद्दे पर बुद्ध या उनके अनुयाइयों को उतनी सहजता से नहीं लाया जा सकता जितनी सहजता और सप्राणता से कबीर को लाया जा सकता है। ऐसा क्यों है? जबकि बुद्ध ने बहुत पहले जन्म, जीवन, जाति, स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म, पाप, पुण्य, पृथ्वी जैसे मुद्दों पर अपनी बातें कह दी थी।

असल में बुद्ध सामाजिक विकास के उन अनुभवों को नहीं प्राप्त कर सके जिसे कबीर ने जन्म से ही प्राप्त किया और यह अनुभव है भारत में इस्लाम के आगमन और विस्तार का। बल्कि कबीर तो विस्तार के दौर से भी आगे इस्लाम के विकसित दौर में हुये। इस दौर ने उन्हें जो अंतर्विरोध सौंपे वह उनके बाद भी भारतीय समाज का एक बड़ा अंतर्विरोध बना रहा और उसने इस देश के सभी घटकों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। इसलिए कबीर इतिहास में जिस जगह खड़े हैं वहां से आनेवाली वैचारिक धारा आज भी इस ताने-बाने को सुलझा रही है। वे आज भी बिना लाग-लपेट के इस सामाजिक संरचना या इन सामाजिक संरचनाओं पर उतनी ही शिद्दत से वही बात कह रहे हैं कि इस समाज को न पंडित चाहिए न मुल्ला चाहिए। इस समाज को प्रेम चाहिए। इस समाज को बंधुत्व चाहिए और न्यायपूर्ण व्यवहार चाहिए। इस समाज को इतना रोजगार चाहिए जिसमें परिवार को सम्मान से पाला जाय और आए-गए को भी एक रोटी खिलाई जा सके। वे उस पस्ती के खिलाफ हैं जो बक़ौल दुष्यंत कुमार ‘आदमी का सारा जिस्म बोझ से दुहरा होने पर सजदे में होने का भ्रम देती है’। आज भी सद्भाव कमेटियां यही तो कहती फिर रही हैं कि मेहनतकशों का धर्म एक है फिर उनके बीच दंगा-फसाद कैसा? क्योंकि कबीर ने यह विचार पैदा किया। इसलिए हर कहीं वे आगे-आगे चलते हैं ।  

तो जब ऐसे स्वप्नद्रष्टा और क्रांतिकारी कबीर पूरे गौरव के साथ कहते हैं कि ‘तू बाभन मैं कासी का जुलाहा’ तब यह समझ लेना चाहिए कि वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं है और जन्म तथा जाति वाले उस झंझट से वे ऊपर उठ चुके हैं जिसे आलोचक आज भी अपनी विद्वता बघारने का साधन मानते हैं। असल में कबीर हिन्दू होने और मुसलमान होने पर झाड़ू फेर देते हैं। उनके सामने एक ऐसी धर्मसत्ता है जो भले ही हिन्दू-मुसलमान का दो चेहरा लगाए हो, लेकिन उसका चरित्र एक ही है। शोषण की अंतहीन परंपरा को कायम रखने में राजसत्ता की मदद करना। शूद्र अगर ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य की सेवा करने को अभिशप्त है, उनसे लगातार अपमानित और बहिष्कृत है तो जुलाहा भी इससे बेहतर स्थिति में नहीं है। तो फिर कबीर ने इस धर्मसत्ता को चुनौती दी। धर्मसत्ता द्वारा संरक्षित जाति-व्यवस्था को चुनौती दी। उन्होंने मनुष्य की जातिगत श्रेष्ठता और नीचता के पैमाने को तोड़ दिया। ‘एक बूंद एक मल मूतर एक चाम एक गूदा। एक जाति थे सब उपज्या को बामन को सूदा।’ 

वे एक ही मोर्चे पर सक्रिय नहीं थे बल्कि उन्हें दोहरे-तिहरे मोर्चों पर सक्रिय होना पड़ता था। एक तरफ एक शोषण, दमन और मिथ्या पर आधारित समाज-व्यवस्था को जड़-मूल से उखाड़ फेंकना था तो दूसरी ओर अपने लोगों को शिक्षित करना था। उनमें आत्माभिव्यक्ति और आत्मसम्मान की भावना भरना था। वे लबार ब्राह्मणों के अति बोलने को और दूसरे लोगों के अति चुप रहने को खतरनाक मानते थे। वे कहते थे कि इससे समाज का भला नहीं होगा। एक जाति विशेष के लोग लगातार झूठी और मनगढ़ंत कहानियां फैलाते रहेंगे तो इस समाज का इतना बुरा होगा कि सदियों लोग समझ नहीं पाएंगे कि सच क्या है। अगर बहुत सारी मेहनतकश जातियों के लोग अपने दुखों को छिपाए हुये चुप्पे बने रहेंगे तो इस समाज का इतना बुरा होगा कि सदियों लोग अपनी बात को कह ही नहीं पाएंगे और गुलाम बने रहेंगे। यह आसानी से समझा जा सकता है कि कबीर कैसा समाज बनाने का सपना देख रहे थे !

क्या किसी शुक्ल, द्विवेदी, शर्मा, पांडे, त्रिपाठी से उम्मीद की जा सकती है कि वह कबीर के इस एजेंडे की ओर इशारा करेगा? लेकिन क्यों नहीं, क्या इससे उसकी श्रेष्ठता रह जाएगी? जिसके लिए कबीर मुंहनोचवा हों और उसका मुलम्मा उतार देते हों वह उनको कितनी देर तक पचा सकता है? क्या वह कभी यह साहस कर सकता है कि अपने लोगों से कहे ‘मैं अपने को शूद्र के बराबर मानता हूं? “दूसरी परंपरा की खोज”  नामक अपनी पुस्तक में डॉ. नामवर सिंह ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के सम्मान में एक चैप्टर लिखा है जिसका शीर्षक है ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’। यानी वहां वे अछूत की तरह रहे लेकिन वहां से टले नहीं। उनमें अपने तिरस्कारकर्ताओं से इतनी घृणा नहीं हुई कि वहां से निकलकर उनकी आलोचना करें। तो फिर क्या निष्कर्ष नहीं निकलता है कि चमड़ी छिल जाय और मवाद बहे लेकिन ब्राह्मण अपनी जाति-चेतना को नहीं छोड़ सकता। तो क्या वह कबीर की व्याख्या कर सकता है? जवाब तो सामने ही है। उसके झूठ के महल को डॉ. धर्मवीर ने कैसे तर्कों के डायनामाइट से उड़ा दिये। फिर ब्राह्मण किसी और को जातिवादी किस मुंह से कह सकता है?

कबीर के अमरदेसवा को किसी और लोक का आलम मत समझिए और इसका सार समझिए कि कबीर दास जो संदेसवा लाये हैं कि ‘सार सबद गहि चलो ओहि देसवा’ का मतलब कोई और लोक नहीं है। ‘जहवाँ से आयो अमर वह देसवा’ मतलब जो आदिम कम्यून है, जिसकी वकालत कार्ल मार्क्स ने की और वर्गविहीन समाज को भी उसी के बिलकुल परिष्कृत रूप में देखते हैं। इसीलिए सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने अपनी किताब ‘कबीर हैं कि मरते नहीं’ में लिखते हैं कि ‘कबीर सर्वहारा के साथ खड़े हैं’ ‘वे जातिवादी और छुआछूत वाली दुनिया बदलना चाहते हैं।’ कबीर कहते हैं कि उस अमर देसवा में छलावे और धूर्तता से भरी गप्पों और कहानियों की कोई जगह नहीं होगी। वहां भोग उड़ाने वाले धूर्तों और चित्र-विचित्र देवताओं की कोई जगह न होगी। यह वास्तव में वही अमर देसवा है जिसकी कल्पना भारत के बहुसंख्य आंदोलनों का प्रस्थान बिन्दु है। क्या बिना उस अमर देसवा को बनाए समता, समानता, बंधुता और न्याय का राज्य बन सकता है? 

कबीर को आज इस संदर्भ में खोजे जाने और पढ़ने की जरूरत है जिसमें हम समाज की उत्पादक शक्तियों को फासिस्ट ताकतों पर भरोसा करते और हर पल धोखा खाते हुये देख रहे हैं। जातियों में बंटकर अपनी श्रेष्ठता को साबित करते हिन्दुत्व और जाति-व्यवस्था के उसी नाबदान में लिथड़ते हुये देख रहे हैं जो उन्हें सदियों से अमानवीय परिस्थितियों में रखती और उसी में रहने को मजबूर करती आई है। पतनशील और विकलांग पूंजीवाद और कॉर्पोरेटवाद के घिनौने तंत्र की शिकार श्रमजीवी ताकतों को सड़क पर भटकते हुये देख रहे हैं। फासिस्ट और अधिनायकवादी सत्ता के दौर में अपनी नागरिकता साबित करने पर मजबूर किए जाने वाली जमातों को देख रहे हैं। और जब इन संदर्भों में कबीर पढ़े जाएंगे तो उनकी परंपरा से जुड़े हमारे वे नायक भी अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में साकार होने लगेंगे जिनके चेहरों पर धूल-गर्द जमी है। कबीर की महान वैचारिकी और तर्क परंपरा हमारे संघर्ष के सूत्रों को अच्छी तरह जोड़ेगी और वह हमारे भीतर वह धार मुसलसल मजबूत बनाएगी जो बार-बार कुंद पड़ती जा रही है और प्रतिक्रियावादी निडर होकर हम पर हमले कर रहे हैं। वास्तव में कबीर हमको संचयित ही नहीं करते बल्कि संचारित भी करते हैं। उनकी चिंतन में बिलकुल हमारा जीवन है क्योंकि कबीर हमारे महान पूर्वज हैं जो हमारे लिए एक नई दुनिया बनाना चाहते थे।

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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