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मेडिकल कॉलेजों में आरक्षण : फिर सामने आयी अखबारों की द्विज मानसिकता

भारतीय मीडिया संस्थानों का “आरक्षण विरोधी चरित्र” एक बार फिर खुलकर सामने आया है। सुप्रीम कोर्ट की एक हालिया टिप्पणी को मीडिया द्वारा इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है मानो आरक्षण अधिकार ही नहीं है। जबकि सच्चाई यह है कि आरक्षण एक संवैधानिक अधिकार है जिसका संबंध संविधान के उन अनुच्छेदों से है जिनमें मौलिक अधिकारों का उल्लेख है, बता रहे हैं नवल किशोर कुमार

भारत में आरक्षण राजनीतिक और सामाजिक वर्गीकरण का एक पैमाना बन चुका है। देश में दो तरह के लोग हैं – एक वे जो आरक्षण का समर्थन करते हैं और दूसरे वे जो आरक्षण के विरोधी है। आरक्षण समर्थकों की संख्या अधिक है। इनमें दलित, पिछड़े और आदिवासी बहुलांश हैं, जो सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टिकोण से पिछड़े हैं और जिन्हें ध्यान में रखकर आरक्षण की व्यवस्था संविधान में की गयी है। इसके बावजूद आरक्षण-विरोधी खबरों को भारतीय अखबारों और न्यूज चैनलों में अधिक तवज्जो मिलती है क्योंकि मीडिया संस्थानों में आरक्षण समर्थक वर्गों की हिस्सेदारी न्यून है।

भारतीय मीडिया संस्थानों का “आरक्षण विरोधी चरित्र” एक बार फिर खुलकर सामने आया है। गत 11 जून को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल. नागेश्वर राव, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस रवींद्र भट की खंडपीठ ने तमिलनाडु के विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा दायर एक याचिका की सुनवाई की। लॉकडाउन के कारण आभासी सुनवाई के दौरान खंडपीठ ने अपनी मौखिक टिप्पणी में कहा कि आरक्षण मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं है और चूंकि याचिका भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर की गयी है, जिसका संबंध केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से है, इसलिए इस मामले की सुनवाई नहीं की जा सकती है।

दलगत राजनीति के परे ओबीसी के हक में एकजुट हुए दल

देश के अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लिहाज से यह मामला अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि तमिलनाडु की अनेक पार्टियों ने 2020-21 सत्र में मेडिकल के स्नातक व स्नातकोत्तर और डेंटल पाठ्यक्रमों के लिए अखिल भारतीय कोटे में तमिलनाडु के लिए निर्धारित सीटों में राज्य के कानून के तहत अन्य पिछड़े वर्गो (ओबीसी) के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित न करने के केंद्र के निर्णय के खिलाफ याचिका दायर की थीं। इनमें  माकपा, भाकपा, द्रमुक और तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी समेत अनेक राजनीतिक दल शामिल रहीं। दलगत राजनीति को परे रखकर ये पार्टियां तमिलनाडु के ओबीसी वर्ग के लिए अदालत से गुहार लगा रही थीं।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से भारतीय मीडिया में उत्साह

दरअसल, यह मामला केवल तमिलनाडु का नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर हर साल ओबीसी के लिए आरक्षित औसतन तीन हजार सीटों पर सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों को दाखिला दे दिया जाता है। इस संबंध में फारवर्ड प्रेस द्वारा इस वर्ष की शुरूआत में ही “मेडिकल कॉलेजों में दाखिला : ओबीसी की 3 हजार से अधिक सीटों पर उच्च जातियों को आरक्षण” शीर्षक खबर प्रकाशित की गयी थी।

बड़ी टिप्पणी का मुलम्मा

लेकिन अखबारों और न्यूज चैनलों की “आरक्षण विरोधी” चेतना खंडपीठ की इस टिप्पणी से ऐसे जागृत हुई मानों उनके हाथ एक ऐसा हथियार लग गया हो जिसके जरिए वे आरक्षण का खात्मा कर सकते हैं, विशेषकर इसलिए क्योंकि इसमें सुप्रीम कोर्ट का ठप्पा लगा था। विभिन्न न्यूज एजेंसियों से गुजरते हुए यह खबर अखबारों के दफ्तरों में डेस्क् तक पहुंची और फिर वह हुआ जो सबके सामने है। सबसे अधिक बवाल हिंदी अखबारों ने काटा। अधिकांश ने इस खबर को ऐसे पेश किया मानो सर्वोच्च अदालत ने आरक्षण की अवधारणा को ही खारिज कर दिया हो। साथ ही यह विचार परोसने की कोशिशें भी हुईं कि आरक्षण चूंकि मौलिक अधिकार नहीं है इसलिए इसका कोई महत्व ही नहीं है।

मसलन,दैनिक जागरण ने “सुप्रीम कोर्ट ने कहा, आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं; द्रमुक, माकपा समेत कई राजनीतिक दलों को लगा झटका” शीर्षक से खबर प्रकाशित की है। इस खबर की शुरूआत में कहा गया है – “सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि देश में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। इस टिप्पणी के साथ सर्वोच्च अदालत ने तमिलनाडु में मेडिकल सीटों में ओबीसी के लिए अलग से 50 फीसदी आरक्षण मांगने वाली विभिन्न राजनीतिक दलों की याचिका को सुनने से इन्कार कर दिया।”

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बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित हिंदी दैनिक प्रभात खबर ने पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से इस खबर को प्रकाशित किया है। “मेडिकल कॉलेज में ओबीसी कोटा, सुनवाई से किया इन्कार” के अलावा बोल्ड लेटर्स में शीर्षक लगाया गया है – “सुप्रीम कोर्ट बोला, मौलिक अधिकार नहीं है आरक्षण”। अखबार ने खबर की शुरूआत में कहा है – “सुप्रीम कोर्ट ने गुरूवार को आरक्षण की मांग को लेकर एक बड़ी टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। इस टिप्पणी के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें तमिलनाडु के राजनीतिक दलों ने मेडिकल कॉलेजों में ऑल इंडिया कोटा में ओबीसी को 50 फीसदी आरक्षण दिये जाने की मांग की थी।”

उपरोक्त तथाकथित बड़ी टिप्पणी का असर केवल हिंदी अखबारों के पन्नों पर ही नहीं दिखा। न्यूज चैनलों के लिए भी यह एक बड़ी खबर साबित हुई। आजतक ने “NEET रिजर्वेशन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा- आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं” शीर्षक से खबर प्रसारित की। सनद रहे कि खबर में “बड़ी टिप्पणी” को महत्वपूर्ण बताया गया और प्रस्तोता द्वारा बार-बार दर्शकों को यह याद भी दिलाया गया।

कोर्ट के आर्डर में जिक्र तक नहीं

अब जरा समझते हैं कि क्या वाकई यह बहुत बड़ी टिप्पणी है? जवाब है नहीं। कोर्ट ने अपने आर्डर में इतना ही कहा है कि “याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ताओं ने याचिका वापस लेने के लिए इस अनुरोध के साथ अनुमति मांगी है कि वे उसे भारतीय संविधान की धारा 226 के तहत हाईकोर्ट में याचिका दायर कर सकें। अदालत उन्हें अनुमति प्रदान करती है। इस प्रकार अदालत में दायर याचिकाएं वापिस लिए जाने के अनुरोध के साथ ही खारिज की जाती हैं।”

कहां से आया आरक्षण और मौलिक अधिकार का मामला

दरअसल, मामले की आभासी सुनवाई शुरू होते ही खंडपीठ ने अपनी टिप्पणी में कहा कि अदालत सभी राजनीतिक दलों की एकजुटता की सराहना करती है कि वे सभी राज्य के हित में एक साथ सामने आयी हैं। अदालत ने कहा कि आप सभी को याचिका को वापस ले लेना चाहिए और उच्च न्यायालय में इस मामले को ले जाना चाहिए।आप केवल एक राज्य तमिलनाडु में 50 प्रतिशत आरक्षण की मांग कर रहे हैं।

सुनवाई में भाग लेते हुए द्रमुक मुणेत्र कड़गम के वकील पी. विल्सन ने अदालत से कहा कि वे अलग से 50 फीसदी आरक्षण देने की मांग नहीं कर रहे हैं। वे केवल अदालत से उस आरक्षण को क्रियान्वित करने का अनुरोध कर रहे हैं जिसकी व्यवस्था पहले से है।

असल में सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने संविधान के अनुच्छेद 32 के आधार पर टिप्पणी की जिसके तहत याचिका दायर की गयी थीं। जस्टिस एल. नागेश्वर राव ने कहा कि “किनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है? अनुच्छेद 32 का संबंध केवल मूल अधिकारों के हनन से है।”

क्या कहता है संविधान का 32वां अनुच्छेद?[1]

(1) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।

(2) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी।

(3) उच्चतम न्यायालय को खंड (1) और खंड (2) द्वारा प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद, उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (2) के अधीन प्रयोक्तव्य किन्हीं या सभी शक्तियों का किसी अन्य न्यायालय को अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रयोग करने के लिए विधि द्वारा सशक्त कर सकेगी।

(4) इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत अधिकार निलंबित नहीं किया जाएगा।

मौलिक अधिकार में कौनकौन अधिकार शामिल हैं?

भारतीय नागरिकों को छह मूल अधिकार प्राप्त हैं, जिनमें समता या समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 18), स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 से 24), धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28), संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29 से 30) तथा संवैधानिक अधिकार (अनुच्छेद 32) शामिल हैं। संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 के अंतर्गत मूल अधिकारों का वर्णन है और संविधान में यह व्यवस्था भी की गई है कि इनमें संशोधन भी हो सकता है तथा राष्ट्रीय आपात के दौरान जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को छोड़कर अन्य मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है।

मौलिक अधिकार तो नहीं, लेकिन संवैधानिक अधिकार है आरक्षण

खैर, यह तो स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष तरीके से आरक्षण का अधिकार मूल अधिकार में शामिल नहीं है। इसका संबंध समता या समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 18) से है जो राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए विशेष प्रावधान करने का अधिकार देता है। इसी के तहत भारत में आरक्षण की व्यवस्था है।

ताकि आरक्षण पर आए आंच

जनहित अभियान के संयोजक और ओबीसी आरक्षण के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता राज नारायण बताते हैं कि कानून बनाना संसद का काम है और उसकी व्याख्या की जिम्मेदारी न्यायपालिका की है। संसद यदि चाहे तो वह आरक्षण के प्रावधानों को नवीं अनुसूची में शामिल कर सकती है और इस प्रकार आरक्षण को अदालती हस्तक्षेप से बचाया जा सकता है। इसी तरह की एक मांग हाल ही में बिहार के दलित विधायकों द्वारा की गयी है।

बहरहाल, वर्ष 2013 में जब देश में यूपीए सरकार थी। उस समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के शिक्षकों को नियुक्ति और पदोन्नति में आरक्षण नहीं देने के संबंध में जस्टिस अल्तमस कबीर द्वारा अपने कार्यकाल के अंतिम दिन दिए गए फैसले से सियासी गलियारे में हड़कंप मच गया था। फैसले में कहा गया था कि प्रतिष्ठित एम्स सहित देश के मेडिकल कालेजों में स्पेशियेलिटी एवं सुपर स्पेशियेलिटी पाठ्यक्रमों में शिक्षकों की नियुक्ति में कोई आरक्षण नहीं दिया जा सकता। तब संसद में इस पर विचार भी हुआ था कि आरक्षण को नवीं अनुसूची में डाल दिया जाय। परंतु, तब राजनीति आड़े आयी और यह संभव न हो सका।

[1] https://bit.ly/37mGq9z

(संपादन : अनिल/अमरीश)

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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