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दलित-आदिवासी समाज और ऑनलाइन एजुकेशन

जनार्दन गोंड बता रहे हैं झारखंड की सुषमा असुर और केरल की दलित छात्रा देविका बालाकृष्णन के बारे में। उनके मुताबिक सुषमा असुर एंड्रायड फोन और मोबाइल नेटवर्क के सुचारू नहीं होने से ऑनलाइन क्लासेज नहीं कर पा रही हैं तो दूसरी ओर देविका ने मारे हताशा के खुदकुशी कर ली

इतिहासकार बनना चाहती है असुर आदिम जनजाति की एक बेटी 

मेरी मित्र सुषमा असुर इन दिनों बहुत परेशान रहने लगी हैं। उनका जब भी फोन आता है, उनकी मजबूर आवाज गमज़दा कर जाती है। वह गुमला जिले के बिशुनपुर में एक आवासीय आदिवासी विद्यालय में अस्थाई आधार पर पढ़ाते हुए इग्नू से बी.ए. कर रही हैं। 

मेरी मित्र आदिम असुर समुदाय से हैं। हालांकि वह बी.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं, मगर आदिवासी कवियों में उनका एक मुकाम है। असुर भाषा में कविता करने वाली वह पहली आदिवासी कवि हैं। इसी वर्ष फरवरी में उनसे गुमला में मिलना हुआ। वह बहुत खुश थीं। उन्होंने मुझसे कहा– “तुमने पढ़-लिख कर कुछ नहीं किया। मैं तो इतना कुछ करूंगी कि तुम देखते रह जाओगे। दूसरा वर्ष चल रहा है। तीसरा साल पूरा होते ही बी.ए. पूरा। बी.ए. के तुरंत बाद इतिहास में एम.ए. करूंगी। देखना है कि क्या-क्या लिखा है इतिहास में।” 

बोलते समय उनकी आंखों में हसरतों का समंदर लहरा रहा था। चेहरे की चमक देखते बन रही थी। सच में अगर वह ऐसा कर पाईं, तो वह असुर समुदाय की स्नातकोत्तर करने वाली पहली महिला होंगी। इतिहास पढ़ने की जिज्ञासा करने वाली को पता ही नहीं कि वह स्वयं इतिहास गढ़ने जा रही है। हम सभी लोग चाहते हैं कि वह एम.ए. ही नहीं, बल्कि एम.फिल. और पीएच.डी. दोनों करें। विद्यालय में नहीं, विश्वविद्यालय में पढ़ाएं। असुर लड़की जिस दिन किसी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक होगी, वह दिन अपने आप में इतिहास सरीखा होगा। मगर उनके सपने की दिशा दूसरी है। वह इतिहास इसलिए पढ़ना चाहती है, ताकि अपनी जड़ों को खोजने का इतिहास सम्मत तौर-तरीका सीख सकें। 

सुषमा असुर

वह अनिरुद्ध और उषा की कहानी का असुर पाठ तैयार करना चाहती हैं। वह लोहा गलाने का इतिहास लिखना चाहती हैं। दरअसल वह अपने श्रम के इतिहास को खोजना चाहती हैं।

ध्यातव्य है कि असुर समुदाय में अनिरूद्ध और उषा की प्रेम कहानी रोमियो-जूलियट से कमतर नहीं है। उषा के बारे में बताया जाता है कि वह असुर समुदाय की थी और अनिरूद्ध संबंध कृष्ण के खानदान से है। दोनों के बीच प्यार होता है और फिर जंग जिसमें दोनों पक्षों के लोग मारे जाते हैं।  

मेरी मित्र गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के सखुआपानी गांव की रहनेवाली हैं। उनकी आदिम जनजाति झारखंड में विलुप्त होती जनजातियों में शामिल है और वर्ष 2011 की जनगणना के हिसाब से उनकी संख्या 22,459 है। झारखंड के अलावा किसी दूसरे प्रदेश में उनकी बसाहट नहीं है। असुर समुदाय किस कदर उपेक्षित रहा है अथवा रखा गया है, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि इस समुदाय से कोई व्यक्ति अब विधायक या सांसद नहीं बन पाया है। इतना ही नहीं, कोई भी असुर लड़की स्नातकोत्तर और पीएचडी तक नहीं पहुंच पाई है। हम सभी लोगों को यकीन है कि जिस तरह सुषमा असुर असुर भाषा की पहली कवियत्री होने का गौरव प्राप्त कर चुकी हैं, उसी तरह पहली असुर प्राध्यापिका का गौरव भी वही प्राप्त करेंगी।

मगर कोरोना के कारण लॉकडाऊन के दौरान जिस तरह वह संचार के सारे साधनों से कट चुकी हैं, उससे उनका भविष्य अधर में फंसता दिख रहा है। अब तो वह फोन पर बेबस सी लगने लगी हैं। हंसने का उपक्रम करती जरूर हैं, मगर खोखली हंसी दारुण दास्तान को उजागर कर देती है।

असुरों का गांव सुखआपानी नेतरहाट की ऊंची और चौरस पठारी भूमि पर बसा है। चौरस भूमि को पाट कहते हैं। लोहरदगा और गुमला के पाटों में असुरों की बसाहट प्राकृतिक रूप से बहुत संपन्न है, मगर मोबाइल टावरों के अभाव के कारण मोबाइल फोनों की हैसियत डब्बा से ज्यादा की नहीं है। मेरी दोस्त जो मेरी मुंहबोली बहन हैं, जब अपने गांव सखुआपानी से थोड़ा नीचे उतरती हैं, तभी दूर-दराज के मित्रों को फोन कर पाती हैं। इसलिए फोन उनकी ओर से ही आता है। हम लोग जानते हैं कि फोन नहीं लगेगा। दूरसंचार की दृष्टि से अभेद ऐसे ही सखुआपानी में रहने वाली हमारी मित्र उस दिन से हलकान हो रही हैं, जब उन्हें पता चला कि दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय (विद्यार्थी पंजीकरण में) लॉकडाउन में नई कक्षा में ऑनलाइन पंजीकरण प्रारंभ कर दिया है। बात–बात में दी पीपुल यूनिवर्सिटी (इग्नू) का बखान करने वाली हमारी मित्र महोदया पेशोपेश में पड़ गई हैं। नोकिया के पुराने मॉडल के माध्यम से दुनिया को मुट्टी में करने का उनका सपना दम तोड़ता नजर आ रहा है। इग्नू प्रवेश कोष्ठ का स्पष्ट आदेश है कि विद्यार्थी पंद्रह जून तक अपने अभिन्यास को स्कैन करके अथवा कराके पूरी फीस ऑनलाइन जमा करके परीक्षा और अगली कक्षा में प्रवेश को सुनिश्चित कर लें। 

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बहरहाल, मेरी मित्र चिंतित खूब हैं। उनके पास इतने पैसे नहीं कि नया एंड्रायड मोबाइल खरीद सकें। जो पैसे हैं, वह भी फीस जमा करने भर ही हैं। वह हर तरह से लाचार हैं। हम भी दुखी हैं। 

मुझे मेरे मित्र की यह पंक्तियां इन दिनों विचलित कर दे रही हैं – 

मैं असुर के बेटी हूं
आपके मिथकों, पुराणों और धर्मग्रंथों में
हजार बार मारी गई हूं
जलाई गई हूं
अपमानित की गई हूं
मैं आप सबसे पूछना चाहती हूं
क्या मुझे मार कर ही
आपका विकास होगा?
आप हजारों साल से मारते आ रहे हैं
आपकी हिंसा की भूख अभी भी नहीं मिटी
प्रार्थना करती हूं आपसे –
अब हमें हमारी  भाषा,  संस्कृति
जल-जंगल-जमीन के साथ जीने दें
असुर की बेटी जीना चाहती है। 

मेरी मित्र और बहन सुषमा असुर का फोन आज भी आया था। वह परेशान हैं, मगर हमें पता है कि वह बनैले सेखुआ की तरह हरी-भरी रहेंगी। वह रास्ता निकाल रही हैं। न भी निकला तो एक साल बाद ही सही, वह बी.ए. पास करके एम.ए. इतिहास में दाखिला जरूर लेंगीं। 

वह बदलाव चाहती थी, इसलिए पढ़ना चाहती थी 

एक दूसरी दास्तान दक्षिण के राज्य केरल की है। बीते एक जून को केरल के मल्लपुरम में आत्महत्या करने वाली छात्रा देविका बालाकृष्णन मनकेरी के दलित कालोनी में रहती थी, उसने इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि एंड्रायड फोन नहीं होने के कारण वह ऑनलाइन क्लासेज एक्सेस नहीं कर सकी। वह पढ़ना चाहती थी। 

मीडिया से प्राप्त सूचना के आधार पर पता चला है कि छात्रा कुशाग्र बुद्धि की थी। वह पढ़-लिखकर अपने मां-बाप के हालात में परिवर्तन लाना चाहती थी। चूंकि वह निहायत ही निर्धन परिवार से थी। इसलिए वह दलित विद्यार्थियों के लिए राज्य सरकार द्वारा उपलब्ध होने वाले श्री अयंकली छात्रवृत्ति में चयनित होना चाहती थी, ताकि उसकी पढ़ाई-लिखाई में आने वाली दिक्कतें इस छात्रवृत्ति से दूर हो जाएं। मतलब वह सुचारू रूप से पढ़ने के लिए एक माध्यम की तलाश में थी। यह माध्यम ही उसके सपने व लक्ष्य तक पहुंचने का एकमात्र विकल्प था। छात्रा के पिता बालाकृष्णन एक दिहाड़ी मजदूर हैं, जिन्हें लॉकडाउन के कारण काम नहीं मिल पा रहा है। बालाकृष्णन के लिए परिवार के सदस्यों का पेट भरना मुश्किल हो रहा है। ऐसे में वे स्मार्ट फोन कहॉ से खरीदते। ऑनलाइन कक्षा एक जून से शुरू हुई थी। स्मार्ट फोन के न होने से छात्रा ऑनलाइन कक्षा में हिस्सा नहीं ले पाई। उसे लगा कि अब वह स्कॉलरशिप नहीं पा सकेगी। वह भी महज एक स्मार्ट फोन के न होने ने कुशाग्र बुद्धि की छात्रा को गहरे अवसाद तक पहुंचा दिया। उसे लग गया कि अब श्री अयंकाली छात्रवृत्ति नहीं मिल पाएगी। अब पढ़ना संभव नही हो सकेगा। इसीलिए उसने आत्महत्या के विकल्प को चुन लिया। 

कहना गैर वाजिब नहीं कि मूलनिवासी बहुजनों और गरीबों के सपनों को पूरा करने का स्पेस लगातार सिकुड़ता जा रहा है। शिक्षा में व्यवसायीकरण तथा निजीकरण के बढ़ने और सरकार की सहभागिता कम होने से गरीब और वंचित तबके के विद्यार्थियों की पढ़ाई-लिखाई महंगा सौदा साबित होती जा रही है। पढ़ाई की तुलना में मजदूर होना ज्यादा सहज लगने लगा है। गरीब परिवार के बच्चे जो पढ़ाई से ही अपना भाग्योदय चाहते हैं, वे विकटतम परिस्थितियों का सामना करते हुए सरकार द्वारा दिए जाने वाले वजीफा तक पहुंचने का प्रयास करते हैं। 

घर की विपन्न स्थिति और छात्रवृत्ति तक की कठिन यात्रा से उनके अंदर भय और असुरक्षाबोध का भाव बढ़ने लगता है। ऐसे में जरा सी असफलता या परेशानी उन्हें अंदर तक तोड़ देती है, जिससे वे अविवेकहीन फैसला ले लेते हैं।

गौरतलब है कि श्री अयंकाली छात्रवृत्ति कोई मोटी रकम वाली छात्रवृत्ति नहीं थी। इसमें अनुसूचित जाति के कक्षा दस के विद्यार्थी को प्रतिवर्ष मात्र 4500 रुपए केरल सरकार के अनुसूचित जाति विकास विभाग द्वारा प्राप्त होता है। इतने ही रूपए की प्राप्ति की उम्मीद को फिसलते देख दलित छात्रा ने आत्महत्या कर ली जबकि कुलीन परिवार का विद्यार्थी इसका दूना रकम एक महीने में गैर शैक्षणिक गतिविधियों जैसे सिनेमा और मनोरंजन पर लूटा देता है। 

क्या सफलता और जिंदगी की संभावना स्मार्ट फोन तक सीमित होकर रह गई है? 

आइए प्रश्न करें कि छात्रा की मौत का जिम्मेदार कौन है? दिहाड़ी पर मजदूरी करने वाला बाप या वह संस्था, जिसका काम मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराना है? पहली नज़र में लगता है कि दोनों दोषी हैं। बाप का फर्ज़ था कि वह बेटी के भविष्य की बाधाओं को दूर करता। वह ऐसा नहीं कर सका इसलिए वह असफल बाप है। मूलनिवासी बहुजनों और गरीब विद्यार्थियों के ज्यादातर बाप असफल ही हैं। सरकार द्वारा वर्ष 2009 में शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित किया जा चुका है। शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। इसलिए विद्यार्थी को मुफ्त शिक्षा (7 से 14 साल) देना केंद्र और राज्य दोनों का उत्तरदायित्व है। केंद्र सरकार द्वारा निर्मित शिक्षा नीतियों को लागू करने का कार्य राज्य सरकार का है। इस देश में जिस तरह की बेरोजगारी है, उसे देखते हुए ऑनलाइन शिक्षा को स्वीकार नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके ऑनलाइन अध्यापन उस समय तक दलितों, आदिवासियों और अन्य गरीब बहुजनों के लिए शिक्षा और ज्ञान से वंचित रखने के माध्यम है, जब तक हर विद्यार्थी के हाथ में लैपटॉप और मुफ्त इंटरनेट सेवा नहीं आ जाती है तबतक पठन-पाठन की इस प्रक्रिया से वंचित तबके बच्चे वंचित रहेंगे। 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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