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कोरोना : आधी आबादी, दोहरी मार

अपर्णा बता रही हैं कि कोरोना संकट की मार सबसे अधिक महिलाओं पर पड़ी है। खासकर दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग की महिलाओं के उपर जिन्हें घर और बाहर की जिम्मेदारियां निभानी पड़ती हैं

सन् 2020 की शुरुआत ने दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं और सामाजिक जीवन को ग्रहण लगाना शुरू किया जो मार्च-अप्रैल आते-आते इतना डरावना हो गया कि मानव जीवन के अस्त्तित्व पर ही संकट लगने लगा। कोरोना महामारी और उससे उत्पन्न अफरा-तफरी ने साधारण जनजीवन को छिन्न-भिन्न करके घरों में रहने को मजबूर कर दिया। इसमें भी सबसे ज्यादा भयावह दशा भारत में नजर आई। इसके विभिन्न आयामों पर बहुत कुछ लिखा भी गया लेकिन आधी आबादी जिसके उपर कोरोना संकट की दोहरी मार पड़ी है, वह फिलहाल विमर्श के केंद्र में नहीं है। इनमें भी वे महिलाएं जो दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदायों की हैं, उनकी तो कोई खोज खबर ही नहीं।  

हम देख सकते हैं कि अभी एक विशाल आबादी ने संकट के समय गांव का रुख किया है। इस सच्चाई का पता कोरोना काल में ही चला कि देश के औद्योगिक और व्यापारिक केन्द्रों में भारी संख्या में -असंगठित श्रमिकों की पनाहगाह अभी भी गांव ही है। 2011 की जनगणना के अनुसार 45 करोड़ से ज्यादा मजदूर काम के लिए एक राज्य से दूसरे राज्य काम के लिए जाते हैं। 

मैं प्रवासी जैसा आपत्तिजनक शब्द नहीं कहूंगी क्योंकि पूरा देश एक है और देश में एक ही नागरिकता है । तब राज्यों की सीमा कैसे किसी को प्रवासी बना सकती है? 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में नौ करोड़ कुशल श्रमिक हैं जो संगठित क्षेत्र में शामिल हैं और इसका चार गुना यानी छत्तीस करोड़ अर्द्धकुशल और अकुशल श्रमिक असंगठित क्षेत्र में शामिल हैं। ये लोग काम की तलाश में शहर की तरफ कूच करते हैं जिनमें पुरुष और महिला दोनों शामिल हैं। आंकड़े बताते हैं कि गांव से शहर गए मजदूरों में 60 फीसदी केवल पूर्वांचल और पश्चिम बिहार के हैं, जहां रोज़गार के अवसर नहीं हैं। महिला श्रमिक शहरों में अक्सर घरेलू कामों को प्राथमिकता देती है ताकि उन्हें रहने की दिक्कत का सामना न करना पड़े। परिवार के साथ आईं महिलाएं निर्माण और उत्पादन सबंधी कामों में हिस्सा लेती हैं। 

शहरी औद्योगिक क्षेत्र में कुशल और अर्द्धकुशल महिला श्रमिकों की भारी संख्या लगी हुई है। घरेलू नौकरानी से लेकर इंब्रायाडरी, सिलाई-कढ़ाई-कताई-बुनाई, धोबीघाट, फल-सब्जी, मछली बेचने, सौन्दर्य-प्रसाधन बेचने, दुकानों पर छानने-पछोरने, बेकरियों, ढाबों और कैटरिंग के क्षेत्र में और मिड डे मील आदि बनाने जैसे अनगिनत क्षेत्रों में कई करोड़ महिलाएं लगी हुई हैं। इसके साथ ही खेती-किसानी, बागवानी, मनरेगा और दुग्ध उत्पादन में भी यह संख्या अधिक है। 

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लेकिन कोरोना ने सब बंटाधार कर दिया। बिना मजदूरों की स्थिति का खयाल किए लॉकडाउन लागू कर दिया गया और इसी अफरातफरी में मजदूरों के साथ वह हुआ जिसकी कल्पना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को सिहरा देने के लिए काफी थी। नियोक्ताओं ने इस अवसर का फायदा उठाकर श्रमिकों को बिना उनकी बकाया मजदूरी दिये काम बंद कर दिया। ऐसे में मजदूरों के सामने अपने गांव लौटने के कोई चारा ही नहीं बचा। मजदूरों के घर वापसी एक भयानक दुःस्वप्न और त्रासदी बनकर रह गई। इस लाकडाउन की समयावधि में श्रमिक वर्ग की जो तस्वीरें दिखाई पड़ीं उसने सरकार की श्रमिकों के लिए घोषित बड़ी-बड़ी नीतियों की सच्चाइयों को नंगा करके रख दिया। श्रमिक वर्ग के अर्थव्यवस्था का केंद्र होते हुए भी पूरे तंत्र ने उन्हें नकार दिया। इस कठिन समय में देश की सारी असलियत सामने आ गई है। 

बंदी में घर वापसी के लिए सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलते हुये सबसे ज्यादा कष्ट में महिलाएं ही रहीं। सारी दुनिया ने देखा कि सिर पर गृहस्थी लादकर काम बंद हो जाने का तनाव, खाली जेब, एक या दो वक्त के खाना-पानी के साथ, बच्चों को लेकर, राष्ट्रीय राजमार्गों पर बिना पेड़-छांव के तपती धूप और लू में पिघलती चौड़ी-चौड़ी सड़कों, जिन्हें पार करना साहस भरा काम होता है, पर ये मजदूर अपने परिवार के साथ पैदल चलते, पुलिस के डंडे खाते घर पहुंचने की उम्मीद में भूखे-प्यासे आगे बढ़े जा रहे थे। न खाना, न पानी। इन परिवारों को सही-सलामत घर पहुंचने में एक हफ्ता, डेढ़ हफ्ता या शायद और भी ज्यादा लगे हों। अबतक सामने आए आँकड़ों के अनुसार लगभग 667 लोगों की सड़क दुर्घटना में मौत हुई। यह तो केवल वह संख्या है जिसे दर्ज़ किया गया जिनकी गिनती नहीं हुई उनकी बात ही क्या की जाये, जिनकी गिनती अंतिम तौर पर हम जानते हैं कि इन सबका खामियाजा स्त्रियों को भुगतना पड़ा है। 

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पैदल चलती महिलाएं सबसे ज्यादा प्रताड़ित हुई हैं। महिलाओं की शारीरिक बनावट और प्रकृति अलग होने के कारण उन्हें अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। बेशक महिलाओं ने अपने जीवट और हिम्मत के साथ बहुत बुरे हालात का सामना किया। लेकिन यह सब कितना दर्दनाक है इसे तो सिर्फ भुक्तभोगी ही जान सकता है। बुजुर्ग, बीमार और गर्भवती महिलाएं लगातार चलती रहीं। किसी भी स्थान पर उनके लिए फारिग हो जाना संभव नही होता। ऐसे में शारीरिक दिक्कतों के साथ सेनिटाइजेशन और साफ़-सफाई की थी। जब पीने के लिए ही पानी उपलब्ध नहीं तब साफ़-सफाई के लिए कैसे होगा? हजारों-सैकड़ों मील चलते हुए हजारों महिलाएं माहवारी की पीड़ा से गुजरीं। जिन दिनों पेट, कमर पैरों में असह्य पीड़ा होती है, उस समय चलना कितना यातनादायक हुआ होगा, इसका हम केवल अंदाजा लगा सकते हैं। 

बंदी के दिनों में अनेक ऐसी खबरें आईं जो किसी भी सभ्य समाज को शर्म से झुका देने के लिए काफी थीं। एक गर्भवती महिला ने घर वापस आते हुए अस्सी किलोमीटर चलने के बाद सड़क पर ही एक बच्चे को जन्म दिया और कुछ घंटे बाद फिर से 160 किलोमीटर की यात्रा की। यह बहुत ही सिहराने वाली घटना है। हम जानते हैं कि जन्म देने के बाद मां और बच्चे दोनों को विशेष देखभाल एवं आराम की जरूरत होती है। ऐसे में कुछ ही घंटों बाद उस महिला का चलना कितना कठिन रहा होगा? अनेक महिलाओं ने ट्रेन में, ट्रक में और सड़क पर भविष्य को जन्म दिया। यदि बच्चा सड़क पर पैदा हो रहा है तो आने वाले समय में भविष्य कैसा होगा?

ऐसी कई खबरें एक के बाद एक आईं। जैसे कि झारखंड के दुमका जिले की दो आदिवासी महिलाओं को कर्नाटक के बेंगलुरू के करीब एक जंगल में दो बच्चों के साथ छिपी रहीं। बाद में उनमें से एक महिला ने पुलिस को बताया कि लॉकडाउन की घोषणा के बाद जिस फैक्ट्री में वे काम करती थीं, वहां के दो लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया। वहीं बीते 16 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में घरों में दाई का काम करने वाली 44 वर्षीया दलित महिला ममता के साथ मारपीट की गयी जब उसने राशन नहीं दिये जाने पर आवाज उठायी। एक घटना छत्तीसगढ़ की है। 18 अप्रैल को जमालो मकदाम नामक एक 12 वर्षीया बच्ची की मौत उस वक्त हो गई जब वह छत्तीसगढ़ के बीजापुर में अपने घर से महज 11 किलोमीटर दूर थी। वह अपने माता-पिता के साथ तेलंगाना से पैदल घर लौट रही थी। 

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कॉर्पोरेट घरानों और अमीरों की समृद्धि से देश की अर्थव्यवस्था के विकास को नापनेवाले लोगों और इस पैमाने को प्रचारित करनेवाली सरकारों को क्या यह पता है कि इस लॉकडाउन का असर महिलाओं पर क्या पड़ा है? एक झटके में काम बंद करने वाले बेईमान नियोक्ताओं का शिकार होनेवाली महिलाओं से बड़ी संख्या उन महिलाओं की है जो खेती-दुग्ध उत्पादन और घर में ही अनेक प्रकार के काम करती हैं। बंदी ने एकाएक सब कुछ को ठप कर दिया। आजीविका पर आया यह संकट भविष्य पर एक काली साया की तरह मंडराने लगा। अचानक भुखमरी की नौबत आ गई। बाज़ार बंद होने से घरेलू उत्पादन व्यवस्था धराशायी हो गई लेकिन इसी दौर में जमाखोरों और दुकानदारों के पौ बारह हो गए। उन्होंने चीजों के मनमाना दाम वसूल किया और बहुत बड़ी आबादी को जीवन बचा लेने के लिए जमा-पूंजी लुटा देने को मजबूर कर दिया।इसके बावजूद इस भयावह सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि न जाने कितनी बुनियादी जरूरतों को अभाव और मजबूरी की पोटली में दबा दिया गया होगा। 

फिर भी क्या इनसे कोई सबक लिया गया? इस पूरे मामले में राजनीति की गई और आपदा में अवसर तलाशते हुये अपने चेहरे को चमकीला बनाने के लिए न केवल झूठे वादे किए गए बल्कि वीभत्स तरीके से कोरोना से लड़ने और उस पर विजय पाने का प्रचार किया गया। केंद्र सरकार ने बीस लाख करोड़ रुपए का आर्थिक पैकेज घोषित किया है लेकिन उस पैकेज का प्रत्यक्ष लाभ किस वर्ग को हुआ यह आज तक स्पष्ट नही हो पाया है। लाॅकडाउन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनधन खाते में 3 माह तक पांच-पांच सौ रुपए डालने की घोषणा की। अब खातों से 500 रुपए निकालने के लिए बैंक जाना पड़ा और लोग खासकर महिलाएं बैंकों के आगे बेबस भीड़ में जन आयीं। आपस में दूरी बनाए रखने के सारे नियम टूट गए। वह भी केवल पांच सौ रुपए के लिए! यदि डाॅलर में गणना करें तो लगभग 7 डॉलर या तीन महीनों में 21 डॉलर के करीब। 

आखिर पांच सौ रुपए की राहत का पैमाना क्या है? केंद्र सरकार द्वारा कोरोना की जांच के लिए 4500 रुपए तय किए गए। क्या पाँच सौ रुपए में किसी की जांच हो सकती है? आखिर इतनी कम राशि में कोई भी कितनी जीवनोपयोगी वस्तुएं खरीद सकता है? 

अब ऐसे में सवाल उठता है कि मेहनतकश वर्ग पर इस आपदा ने इतना भयावह असर डाला है तो इस वर्ग की महिलाओं की स्थिति क्या होगी? बहुत कुछ लुट चुका है और बहुत तकलीफदेह हालात सामने आ चुके हैं और जीवन दरअसल पटरी से बुरी तरह उतर चुका है। लॉकडाउन खुल भले गया हो लेकिन महामारी का खतरा नहीं खत्म हुआ है। पिछले दिनों कोरोना माई की पूजा के वीडियो खूब वायरल किए गए। सोशल मीडिया पर इसे लेकर लोगों ने बहुत चटखारे लिए लेकिन वास्तव में मामला अधिक संगीन है और इसे समझने की जरूरत है। इस तरह की गतिविधियों से राज्य अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला आसानी से झाड़ ले रहा है। इसी खबर का एक विस्तार यह था कि एक महिला ने कोरोना माई का व्रत रखा और मर गई। व्रत को लेकर एक अफवाह फैलाई गई थी कि जो स्त्री व्रत रखेगी उसके खाते में मोदी जी पैसे भी भेजेंगे। अब व्रत की असलियत के बारे में कहने को क्या शेष रह जाता है लेकिन यह वास्तव में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। 

मैं जिन महिलाओं की बात कर रही हूँ वे किसी कुलीन घर की महिलाएं नहीं हैं बल्कि वे बहुजन समाजों की महिलाएं हैं जिनकी ज़िंदगी कितनी भी कठिन हो लेकिन इस अर्थव्यवस्था में उनका योगदान बेमिसाल है। उनके इस योगदान को न मानने वाला वर्ग ही उनके प्रति कृतघ्न और क्रूर हो सकता है और वह सत्ता के बल पर उनको दयनीय और लाचार बनाए रखना चाहता है। जब तक राज्य इन महिलाओं के योगदान को महत्वपूर्ण मानते हुए उनके जायज अधिकार नहीं देता तब तक दिल को हिला देने वाले और संवेदनाओं को ठूंठ बना देनेवाले दृश्यों में कमी होना असंभव होगा! 

(संपादन : नवल/गोल्डी)

लेखक के बारे में

अपर्णा

रंगकर्मी व विभिन्न महाविद्यालयों में वाणिज्य की व्याख्याता रहीं अपर्णा हिन्दी की लोकप्रिय पत्रिका 'गाँव के लोग' की कार्यकारी संपादक तथा समाज-विज्ञान, लोकसाहित्य और वैचारिक पुस्तकों के प्रमुख प्रकाशन-गृह अगोरा प्रकाशन की प्रबंध निदेशक हैं

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