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कोयले की कार्मशियल माइनिंग का विरोध क्यों कर रहे हैं हेमंत सोरेन?

झारखंड के युवा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा है कि पहले की खदानो के विस्थापितों के मामले तो अभी तक लंबित हैं। ऐसे में नए इलाकों में खनन का निर्णय आदिवासियों और जंगली इलाकों में रह रही आबादी के लिए खतरनाक साबित होगा। इसके लिए पेड़ों को काटना होगा और पर्यावरण संतुलन से जुड़ी समस्याएं भी खड़ी होंगी। बता रहे हैं रवि प्रकाश

वह साल 2016 का आखिरी सप्ताह था। लोग नए साल के आयोजनों की योजना बना रहे थे। तभी झारखंड के सुदूर संताल परगना इलाके की लालमटिया स्थित भोराय कोयला खदान में बड़ा हादसा हुआ। कोल इंडिया की सहायक कंपनी ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड (ईसीएल) ने गोड्डा जिले की उस ओपन कास्ट माइंस में खनन का जिम्मा एक निजी कंपनी को दे रखा था। वहां मिट्टी धंसने के कारण कई मजदूर उसमें दब गए। तब रघुबर दास झारखंड के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने तत्काल अपने अधिकारियों को वहां भेजा। एनडीआरएफ की टीम कई दिनों तक वहां मलबा हटाती रही। लाशें निकालती रही। माइंस में दबे 18 मजदूरों की लाशें निकालने के बाद एनडीआरएफ ने भी अपना काम बंद कर दिया। सरकार ने मान लिया कि उस हादसे में उतने ही लोग मरे, जिनकी लाशें निकाली गई हैं। 

इसके बावजूद वहां काम करने वाले मजदूरों ने कुछ लोगों के लापता होने के दावे किए। तब विपक्ष में रही कांग्रेस ने इसकी सीबीआई जांच कराने की मांग की। तत्कालीन बीजेपी सरकार ने इसपर कान भी नहीं दिया। बात धीरे-धीरे पुरानी होती चली गई। पास के लोहंडियां गाव के लोगों ने भी कोयले की उस खदान से होने वाली दिक्कतों, विस्थापितों के मुआवजे संबंधी विवादों समेत कई बाते बतायीं। ये सारी बातें अब बक्से में बंद हैं। इनकी चर्चा नहीं हो रही। 

झारखंड के कोयला खदानों में कोल इंडिया की सहायक कंपनियां आज भी खनन का काम करती हैं। सुदूर गांवों में काम करने वाला कोई स्थानीय पत्रकार कभी-कभार विस्थापितों को अभी तक मुआवजा नहीं मिलने की खबरें लिखता है। वे अखबार के पन्नों में कहीं 12वें या 13वें पेज पर छप जाती हैं। उसका कोई गंभीर असर नहीं होता। यह हालत तब है, जब इन खदानों मे माइनिंग का जिम्मा कोल इंडिया अर्थात भारत सरकार के स्वामित्व वाली कंपनी को है। देश की कोल राजधानी कहे जाने वाले धनबाद से लेकर रांची के पास के खदानों तक के नाम से उनके विस्थापितों की संघर्ष समितियां हैं। वे आज भी आंदोलन करती रहती हैं। ऐसी खबरें दिल्ली तो छोड़िए, रांची तक के अखबारों में प्रमुखता से नहीं छप पाती हैं। 

बीसीसीएल के एक कोयला खदान का दृश्य

ये बातें पुरानी हैं। आपको स्टिरियो टाइप लग सकती हैं। लेकिन, इनका उल्लेख इसलिए जरुरी था, ताकि आप-हम समझ सकें कि कार्मशियल माइनिंग का विरोध क्यों हो रहा है। खैर, चलिए अब कुछ नई बातें करते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों कहा कि हम दुनिया के सबसे बड़े कोयला उत्पादक देशों में ऊपर के कुछ नंबरों में शामिल हैं। इसके बावजूद हम आज भी कोयले का आयात कर रहे हैं। हमें तो निर्यात करना चाहिए। लेकिन, अब यह हालत बदलेगी। हम निजी और विदेशी कंपनियों के कोयले के खनन की लीज देंगे, ताकि हम धरती के नीचे स्थित कोयले के विशाल भंडार की माइनिंग कर दुनिया के दूसरे देशों को कोयले का निर्यात कर सकें। उनकी इस घोषणा का व्यापार जगत ने स्वागत किया। प्रधानमंत्री की वीडियो कांफ्रेसिंग से जुड़ी खबरें शेयर की गईं। उनके भाषण का मर्म निकाला जाने लगा। कोयले का ‘क’ भी नहीं समझने वाले लोगों ने उसके आयात और निर्यात से जुड़े ग्राफिक्स शेयर करना शुरू कर दिया और यह मामला राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ कर प्रचारित किया जाने लगा। कहा गया कि प्रधानमंत्री ने ऐतिहासिक काम करने की कोशिश की है। इससे भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। सारे घोटाले खत्म हो जाएंगे। हम कोयले का निर्यात करेंगे और जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, वे दरअसल राष्ट्रविरोधी हैं। आदि-आदि। भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री (जहां प्रायः कोल खदान नहीं हैं) इसके पक्ष में उतर आए। बात टीवी चैनलों पर भी होने लगी। लेकिन, तभी झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। छत्तीसगढ़ सरकार ने घने जंगलों वाले इलाके में माइनिंग के लिए होने वाली नीलामी का विरोध करते हुए भारत सरकार को चिट्ठी भेजी। वहीं झारखंड सरकार ने भारत सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी। अभी इसपर सुनवाई होनी है। कोयले के खदानों वे राज्यों ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यह न तो हमारे राज्य के नागरिकों के हित में है और न पर्यावरण के। ऐसा निर्णय सिर्फ औद्योगिक घरानों को मुनाफा दिलवा सकता है और उन्हीं को ध्यान में रखकर लिया गया है।

झारखंड के युवा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा है कि पहले की खदानो के विस्थापितों के मामले तो अभी तक लंबित हैं। ऐसे में नए इलाकों में खनन का निर्णय आदिवासियों और जंगली इलाकों में रह रही आबादी के लिए खतरनाक साबित होगा। इसके लिए पेड़ों को काटना होगा और पर्यावरण संतुलन से जुड़ी समस्याएं भी खड़ी होंगी। उन्होंने कहा कि भारत में संघीय ढांचे की शासन प्रणाली होने के बावजूद केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर राज्यों की राय नहीं ली। एकतरफा फैसला कर दिया। यह गलत है। इसलिए हमलोगों ने सुप्रीम कोर्ट में इसको चुनौती दी है। उन्होंने ;यह भी कहा कि जब पूरा देश कोरोना से लड़ने में परेशान है, तभी ऐसे निर्णय लेने की क्या हड़बड़ी थी। ऐसे वक्त में तो कोयला खदानों की उचित बोली भी नहीं लगेगी। यह केंद्र सरकार का गलत फैसला है। 

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन

झारखंड सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में रिट पीटिशन दायर करने वाले एडवोकेट तापेश कुमार सिंह ने कोल ब्लाक नीलामी को अवैध बताते हुए कहा है कि मिनरल ला एमेंडमेंट एक्ट 2020 की मियाद 14 मई को खत्म हो चुकी है। खनन के लिए सोशल और इनवायर्नमेंटल सर्वे भी नहीं कराया गया है। लिहाजा, सुप्रीम कोर्ट को इस ममाले में हस्तक्षेप करना चाहिए।कभी बीजेपी की रघुवर दास सरकार में मंत्री रहे और अब निर्दलीय विधायक सरयू राय हेमंत सोरेन के फैसले के साथ खड़े हो गए। भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग की। वहीं आजसू पार्टी के प्रमुख सुदेश महतो ने भी कहा कि सरकार को अपना पक्ष रखने का हक है लेकिन कोर्ट में नहीं जाना चाहिए था। अभी इस मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी थमी नहीं है। 

इस बीच कोयला खनन से जुड़े विभिन्न श्रमिक संगठनों ने भी कामर्शियल माइनिंग के निर्णय के खिलाफ 2 से 4 जुलाई तक तीन दिवसीय हड़ताल का आह्वान किया है। सीटू के महासचिव प्रकाश विप्लव ने कहा है झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के कोर्ट जाने का निर्णय सही है। जल, जंगल, जमीन और खनिज जैसी राष्ट्रीय संपदा को बचाने का संघर्ष अब नए दौर मे पहुंच गया है। हम बड़ा आंदोलन करेंगे और सरकार को बाध्य करेंगे कि वह अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे। कारपोरेट घरानों से राजनीतिक पार्टियां चल सकती हैं, देश नहीं। जाहिर है कि यह विरोध व्यापक है और असरदार होने की संभावना है। 

झारखंड में सत्तासीन झारखंड मुक्ति मोर्चा ने कहा है कि हमारी सरकार कोर्ट मे कानूनी लड़ाई लड़ रही है। जरुरत पड़ी तो हम इसके खिलाफ जनांदोलन भी करेंगे। पार्टी के केंद्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने यह बात रांची में एक मीडिया कांफ्रेंस के दौरान कही थी। यहां उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने नीलामी के लिए जिन 41 खदानों का चयन किया है, उनमें 9 खदानें झारखंड में हैं। हालांकि झारखंड सरकार के मुताबिक यह केवल 9 खदानों का मामला नहीं है बल्कि सूबे के 22 खदानों का है। इनमें से अधिकतर घने जंगलों वाले इलाको में हैं, जहां खनन से पहले सैकड़ों पेड़ काटने होंगे। केंद्रीय कोयला मंत्रालय के अनुसार इन 41 खदानों से यह उम्मीद की जा रही है कि 2025-26 तक इससे सर्वाधिक 225 मिलियन टन कोयले का उत्पादन होगा, जो भारत के कुल कोयला उत्पादन का 15 फ़ीसदी होगा।  इससे माइंस एंड मिनरल फंड में पैसे आएंगे लेकिन बीजेपी की दिलचस्पी यह बताने में नहीं है कि उनकी सरकार के वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुबर दास ने इस फंड का क्या इस्तेमाल किया और विस्थापन के कितने मसले हल किए गए।

भूपेश बघेल ने चिट्ठी भेज जताया है विरोध

इस बीच झारखंड जनाधिकार महासभा ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि कोल खदानों की कामर्शियल माइनिंग का फैसला केंद्र सरकार के घोर पूंजीवाद को बेनकाब करता है। विडंबना है कि सरकार इस कदम को आत्मनिर्भर पहल के रूप में बता रही है जबकि यह ज़मीन मालिकों और ग्राम पंचायतों के सभी ज़मीन के मालिकाना अधिकारों को छीनने की पहल है। इसके साथ ही कारपोरेट लूट के लिए प्राकृतिक संसाधनों को खोलता है। लिहाजा, इसका विरोध जरूरी है। यह निर्णय कई विधानों और वैसे संवैधानिक प्रावधानों का भी उल्लंघन करता है, जिनका उद्देश्य गरीबों,  हाशिए पर रहने वाले लोगों और आदिवासियों को स्वशासन (आत्मनिर्भर) का अधिकार देता है। 

महासभा ने कहा है कि पेसा और पांचवीं अनुसूची के प्रावधान ग्राम सभा को गांव से संबंधित निर्णय लेने का प्राथमिक निकाय परिभाषित करते हैं। 1997 के समता फैसला में सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्पष्ट रूप से आदिवासियों को अपनी भूमि में खनन करने का अधिकार दिया है। इसके अलावा साल 2013 के अपने ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट की लोढ़ा पीठ ने भी स्पष्ट रूप से कहा कि खनिजों का मालिकाना अधिकार ज़मीन के मालिकों का होना चाहिए। वन अधिकार अधिनियम भी वनों को ग्राम सभा की सामुदायिक संपत्ति के रूप में परिभाषित करता है। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने प्रासंगिक ग्राम सभाओं के साथ कामर्शियल कोयला खनन की नीलामी की योजना पर चर्चा भी नहीं की। 

बहरहाल, इंसाफ कहता है कि केंद्र सरकार इन तमाम सवालों के जवाब दे और तब कोई फैसला करे। लेकिन, सरकार ऐसा करेगी, यह खुद लाख टके का सवाल है।

(संपादन : नवल)

(आलेख परिवर्द्धित : 26 जून,2020 8:34 PM 27 जून 2020 7:56 PM)

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लेखक के बारे में

रवि प्रकाश

लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं तथा दैनिक जागरण, प्रभात खबर व आई-नेक्स्ट के संपादक रहे हैं

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