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क्या है ओबीसी साहित्य?

राजेंद्र प्रसाद सिंह बता रहे हैं कि हिंदी के अधिकांश रचनाकारों ने किसान-जीवन का वर्णन खानापूर्ति के रूप में किया है। हिंदी साहित्य में गेहूँ की झुकी-झुकी बालियों का चित्रण है। धानखेत  हैं। मटर और चने की फलियों से लेकर नीले आकाश के नीचे फूले अलसी तथा सरसो के ताजे-पीले फूलों का सविस्तार वर्णन है। परंतु किसानों पर कोई गंभीर विमर्श नहीं है

भारत में दो प्रकार की जातियाँ हैं– एक वे जो श्रम करती हैं, दूसरी वे जो दूसरों के श्रम पर जीवित हैं। ओबीसी साहित्य श्रमशील जातियों का साहित्य है। इसलिए इसे “श्रमण साहित्य” भी कहा जाता है। श्रम करनेवाली जातियाँ अर्जन करती हैं और दूसरों के श्रम पर जीवित रहनेवाली जातियाँ अर्जित की गई संपत्ति पर सिर्फ कब्जा करती हैं। ओबीसी साहित्य अर्जन करनेवाली जातियों का साहित्य है इसलिए इसे ‘अर्जक साहित्य’ भी कहा जाता है। निष्कर्ष यह हैं कि ओबीसी साहित्य अर्जन करनेवाली श्रमशील जातियों का साहित्य है, जिसमें उनकी संपूर्ण आशा, आकांक्षा, उल्लास एवं अवसाद की अभिव्यंजना होती है। यह श्रमशील जनता के श्रम-मूल्यों का रेखांकन है। इसमें विविध भावों और रसों के अतिरिक्त, कृषिकर्म, पशुपालन एवं विभिन्न प्रकार की कारीगरी से जुड़े लोगों का विवरण-विश्लेषण प्राप्त होता है। दूसरे शब्दों में, ओबीसी साहित्य, भारत की श्रमशील जातियों के जीवन और संस्कृति का वह दस्तावेज है, जिसमें उनकी जीविका, जीवन-संघर्ष, खानपान, सामाजिक ढाँचे एवं रीति-रिवाज, वेशभूषा, धार्मिक विश्वास से लेकर पर्व-त्योहार, कलाएँ तथा जीवन-दर्शन के विभिन्न आयामों और विविध पक्षों का उद्घाटन होता है तथा पेशे या पेशे की सामाग्रियों को मदद पहुँचाने वाली चीजें, बाधाएँ और ऐब तथा उनके शोषण-व्यूह की विविध प्रविधियाँ, कारकों एवं उनसे मुक्ति के विभिन्न सिद्धांतों एवं विचारधाराओं का कलात्मक परिपक्वता के साथ सन्निवेश किया जाता है।

ओबीसी साहित्य और किसान-विमर्श

किसान-विमर्श, ओबीसी साहित्य का अविभाज्य अंग है। कारण कि कृषि, पिछड़े वर्ग के लोगों का मुख्य पेशा है। भारत की श्रमशील जातियों में सबसे बड़ा तबका किसानों का है पर हिंदी साहित्य में किसान-विमर्श की परंपरा नहीं है जैसे दलित साहित्य और स्त्री-विमर्श का है। हिंदी में प्रेमचंद ने इस रचनात्मक चुनौती को स्वीकार किया और किसान-जीवन को बारीकी से अपनी रचनाओं में उकेरा। उनके उपन्यास “गोदान” (1936) को “कृषि संस्कृति का महाकाव्य” कहा जाता है। भैरव प्रसाद गुप्त, प्रेमचंद के किसान-जीवन को आगे बढ़ानेवाले दूसरे महत्वपूर्ण उपन्यासकार हैं। उनका “गंगा मैया” उपन्यास इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। “गंगा मैया” (1952) का मटरू, “गोदान” के होरी का विकसित रूप बनकर जमींदारों के विरुद्ध सामूहिक संघर्ष करता है। आगे, फणीश्वरनाथ रेणु, मधुकर सिंह जैसे उपन्यासकारों ने किसान-जीवन की परंपरा को अपने-अपने ढंग से विस्तार और परिष्कार प्रदान किया।

हिंदी के अधिकांश रचनाकारों ने किसान-जीवन का वर्णन खानापूर्ति के रूप में किया है। हिंदी साहित्य में गेहूँ की झुकी-झुकी बालियों का चित्रण है। धानखेत  हैं। मटर और चने की फलियों से लेकर नीले आकाश के नीचे फूले अलसी तथा सरसो के ताजे-पीले फूलों का सविस्तार वर्णन है। परंतु किसानों पर कोई गंभीर विमर्श नहीं है। फूलों के प्रकारों से रीतिकाल भरा पड़ा है। हरसिंगार और रजनीगंधा के फूल, केवड़ा और बेला की गंध, चंपा-चमेली और गेंदा की क्यारियाँ-सभी कुछ साहित्य में है। सिर्फ  उनको उपजाने वाले माली गायब हैं। अनूपलाल मंडल ने अपने उपन्यास “तूफान और तिनके” में क्रांतिकारी नक्षत्र मालाकार को पहली बार महत्व प्रदान करते हुए गहरे में रेखांकित किया है। अनूपलाल मंडल पिछड़े वर्ग की कैवर्त जाति से आते थे, फणीश्वरनाथ रेणु धानुक थे तथा मधुकर सिंह कोइरी हैं। इन ओबीसी उपन्यासकारों ने पिछड़े समाज के श्रमशीलों के दु:ख-दर्द, जीवन-संघर्ष, उनकी रूचियों और संस्कारों को गहरे में पकड़ा है। मधुकर सिंह ने अपने उपन्यास “अर्जुन जिंदा है” में एक कोइरी नायक अर्जुन महतो को केंद्र में रखा है। मास्टर जगदीश महतो का छद्म नाम अर्जुन है जो खेतिहर मजदूरों के शोषण के खिलाफ अपनी जिंदगी को धधकती आग में झोंक देता है। ऐसा ही, मधुकर सिंह का दूसरा उपन्यास “मनबोध बाबू” (1978) है जिसमें मुख्य पात्र मनबोध बाबू का जीवन कुर्मीचक (पिछड़ों का टोला) के लिए अर्पित हुआ है।

बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ने दो भागों में ‘कृषि-कोश’ प्रकाशित किया है। इस कृषि-कोश में ऐसे हजारों शब्द हैं, जो हिंदी के मानक शब्दकोशों में सिरे से गायब हैं। इसके एक-एक शब्द में कृषि-संस्कृति समाई हुई है। ऐसे आंचलिक शब्दों की उपेक्षा करके, किसानों की स्थिति, उनकी मनोदशा, उनकी पीड़ा और उनकी कमरतोड़ मेहनत का जीवंत वर्णन संभव नहीं है। उनके जीवन का सच्चा वर्णन वही कर सकता है जो उनकी शब्दावलियों में जिया हो। हिंदी साहित्य में भूरे, काले एवं मटमैले बादलों की तरह किसानों की अनेक छवियाँ मिलती हैं। किसान-आँखों में छोपनी लगाए, नथिआए, बधिआए उस बैल की तरह है, जो नाल भरे पैरों से रौंदते हुए दौनी के भूसों को अपने मुँह में लगी जाब के कारण खा नहीं पाता है। कवि सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ के शब्दों में वह भेड़ की तरह “दूसरों” के लिए अपनी पीठ पर ऊन ढो रहा है। ओबीसी साहित्य उन “दूसरों” का पर्दाफाश करने का साहित्य है जो ऊन उपजाते नहीं बल्कि सिर्फ पहनते हैं।

ओबीसी साहित्य एवं अन्य श्रमशील जातियाँ

आषाढ़-सावन के उमड़ते-घुमड़ते बल खाते मेघों के बीच, किसान की कुदालों में, कार्तिक-अगहन की शीतल शुभ्र ज्योत्स्ना के बीच धनकटनी में, फागुन-चैत के अलस पवन के झकारों के बीच गेहूँ-मटर की उम्मी और होरहों में, दर्जी की सूई-तागे में, नाई के उस्तरे में, लोहार के भारी हथौड़े में, शिल्पकार की छैनियों में, बेलदार के बोरे की बोझ में, आहर-चाट के मछुआरों के जाल में, ओबीसी साहित्य के विभिन्न रूप, रंग और प्रकार दिखलाई देते हैं। ओबीसी साहित्य कोइरियों के कोड़ार में बसा है। वह आलू की मेड़ों पर भतुए का तकिया लगाकर सोता है। धनिया के पौधों की चादर बिछाता है। लौकी की अमरबेल ओढ़ता है। गोभी के फूल उसके सफेद दाँत हैं। बैंगन के डंठल से वह मुँह धोता है। ओबीसी साहित्य कानूओं के भँड़सार में है। वह आग से धधकते चुल्हों में सोता है, खपड़ी ओढ़ता है। तपती बालुका-राशि उसके परिधान के गोटे हैं। ओबीसी साहित्य ईख के कोल्हुआड़ में है। लोहारों के लोहसार में है। ग्वालों के बथान में है। कभी वह तुरहों के बाँस की बनी टोकरी में बसता है तो कभी चुडि़हारों की ओड़ी में। कभी वह जुलाहों के करघों में निवास करता है तो कभी घटवारों के घाट पर, रंगरेजों के रंग की तरह ओबीसी साहित्य के कई रंग हैं। वह कभी कहार होकर डोली ढोता है तो कभी कमकर के रूप में पानी भरता है। इसकी कई मुद्राएँ हैं– एक केवट, दूसरा मल्लाह, तीसरा धीमर, चौथा केवत। उदयशंकर भट्ट के उपन्यास “सागर, लहरें और मनुष्य (1956)” में बंबई के पश्चिमी तट पर बसे हुए बरसोना गाँव के मछुआरों के जीवन का चित्रण है। ओबीसी साहित्य सभी रंगों का, सभी मुद्राओं का समुच्चय है।

काले-भूरे मृदभांड़ों से हजारों साल पुरानी संस्कृतियाँ नापी गई हैं। मृदभांड़ों के निर्माता कुम्हार है। कुम्हारों की संपूर्ण जीवन-गाथा ओबीसी साहित्य है। मशाल का आविष्कार हुआ। तेलियों के तेल से मशाल जला। मानव-सभ्यता ने अंधकार से प्रकाश में छलांग लगाई। अंधकार से प्रकाश में आने का मुक्ति-संग्राम ओबीसी साहित्य है। लोहार ने कुल्हाड़ी बनाई। बढ़ई ने उसमें बेंट लगाई। कुल्हाड़ी से जंगल काटे गए। खेती लायक भूमि बनी। हल-कुदाल से उसे जोता-कोड़ा गया। अनाज की पैदावार हुई। आज तक गेहूं-चावल का विकल्प नहीं खोजा जा सका है। किसानों, बढ़इयों और लोहारों की यही लड़ाई ओबीसी साहित्य है। रोटी, कपड़ा और मकान-रोटी देनेवाला किसान, कपड़े के निर्माता बुनकर जातियाँ और खपड़ा-ईंट पाथती-बनाती नोनिया जाति। सभी ने मिलकर मानव को सभ्य बनाया है। बैलगाड़ी (लोहारों-बढ़इयों का निर्माण) पर लदकर मानव-सभ्यता जिस मुकाम पर पहुँची है, वह ओबीसी साहित्य है।

ओबीसी साहित्य का क्षेत्र विस्तार एवं प्रयोग

ओबीसी साहित्य के पास किसान और उनके खेतों, जानवरों-घरेलू और पालतू जानवर, उनके रंग-ढंग, रहन-सहन, भेद, रहने के स्थान, बीमारी, चारागाह की कई किस्में उपलब्ध हैं। कई श्रमशील जातियों के ढेरे सारे श्रमगीत उपलब्ध हैं। तेलियों, कुम्हारों, लुहारों से लेकर धुनियाँ एवं जुलाहों तक पेशे के कई औजार और सामग्रियाँ, उनके भेद और हिस्से, पेशे के ढंग तथा उसकी विविध क्रियाएँ और मुद्राएँ उपलब्ध हैं। सोहनी-रोपनी की संस्कार विधियाँ, घर-झोपड़े की निर्माण-कला से लेकर श्रमशील जातियों की गृह-कलाएँ तक ओबीसी साहित्य के पास उपलब्ध हैं। गड़ेरिए के कंबल से नदियों-सागरों की अतल गहराइयों को नापते मल्लाहों-केवटों के पुरसे और पत्तल-दोना बनाते बारियों की कारीगरी तक, ओबीसी साहित्य का क्षेत्र विस्तार है। फणीश्वरनाथ रेणु ने कई श्रमगीतों का उपयोग अपने कथा-साहित्य में किया है। हिंदी में कुछ ऐसे भी कथाकार हैं जिन पर मंडल आयोग का प्रभाव है। रामधारी सिंह दिवाकर का कहानी-संग्रह “माटी-पानी”(1999) की कई कहानियों में मंडलवादी प्रभाव देखा जा सकता है। उनकी कहानी “जँह जोत बरय दिन-राति” विशुद्ध मंडलवादी है। महात्मा फुले, राममनोहर लोहिया, जगदेव प्रसाद जैसे ओबीसी नायकों पर हिंदी में कई जीवनी-साहित्य लिखे गए हैं। प्रेमकुमार मणि ने महात्मा फुले की जीवनी लिखी है। मस्तराम कपूर ने राममनोहर लोहिया की जीवनी लिखी है। इन पंक्तियों के लेखक ने जगदेव प्रसाद की जीवनी और उनकी उपलब्धियों को संपादित किया है। भिखारी ठाकुर की काव्यात्मक रचना “नाई बहार” में नाई जाति की पीड़ा अत्यंत मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त हुई है। स्वयं भिखारी ठाकुर पर भी कई महत्वपूर्ण साहित्यिक रचनाएँ आई हैं। संजीव के उपन्यास “सूत्रधार” में भिखारी ठाकुर अपनी संपूर्णता में जीवंत हो उठे हैं। कबीर ओबीसी के महत्वपूर्ण नायक हैं। भीष्म साहनी का “कबिरा खड़ा बजार में” नाटक कबीर के क्रांतिकारी व्यक्तित्व को उभारता नाटक है। कबीर जुलाहा थे। राही मासूम रजा ने अपने उपन्यासों में जुलाहों, कुंजड़ों, कसाइयों जैसी ओबीसी मुस्लिम जातियों की अंधेरी बस्तियों को पूरी ताकत से प्रस्तुत किया है। कहना न होगा कि ओबीसी साहित्य का क्षेत्र व्यापक है और आधुनिक हिंदी साहित्य में धड़ल्ले से भरपूर ओबीसी साहित्य लिखा जा रहा है।

(फारवर्ड प्रेस के अगस्त 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह ख्यात भाषावैज्ञानिक एवं आलोचक हैं। वे हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार एवं सबाल्टर्न अध्ययन के प्रणेता भी हैं। संप्रति वे सासाराम के एसपी जैन कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

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