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संथाल हुल : जब आदिवासियों के हुंकार से कांप उठा अंग्रेज सहित सभी दिकुओं का कलेजा

हुल दिवस के मौके पर विशद कुमार याद कर रहे हैं आदिवासी योद्धाओं को, जिन्होंने अंग्रेजों, जमींदारों और सूदखोर महाजनों के खिलाफ लड़ाई का आगाज किया। वे यह भी बता रहे हैं कि जिन परिस्थितियों के बीच संथाल हुल हुआ, वे आज भी आदिवासियों के समक्ष मौजूद हैं

हुल दिवस (30 जून, 1855) पर विशेष

तीस जून 1855 को प्रारंभ हुआ “संथाल हुल” एक व्यापक प्रभाव वाला युद्ध था। संथाल हुल इस मायने में खास था कि इसमें एक शक्ति थी जमींदार, सूदखोर महाजन और उन्हें संरक्षण देने वाले अंग्रेज तो दूसरी शक्ति बहुजनों की थी, जिसका नेतृत्व आदिवासी कर रहे थे।

ऐतिहासिक परिघटना

इसी के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध छापामार युद्ध की शुरूआत भी हुई। इसकी परिणति 26 जुलाई 1855 को संथाल हुल के सृजनकर्ताओं में से प्रमुख व तत्कालीन संथाल राज के राजा सिदो और उनके सलाहकार व सहोदर कान्हु को वर्तमान झारखंड के साहबगंज जिले के भोगनाडीह ग्राम में अंग्रेजों द्वारा खुले आम पेड़ पर लटकाकर फांसी दिए जाने से। वे ऐसा कर “संथाल हुल” को खत्म मान रहे थे, लेकिन यह तो महज शुरूआत थी। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक – हर तरह के शोषण के खिलाफ और जल-जंगल-जमीन की रक्षा व समानता पर आधारित समाज के निर्माण के लिए सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, फूलो-झानो के द्वारा शुरू किया गया हुल आज भी जारी है, जिसके अगुआ कालांतर में धरती आबा बिरसा मुंडा भी बने।

साथ आए अन्य समुदायों के लोग भी

संथाल हुल में उस क्षेत्र में रहने वाले कई गैर-संथाली लोगों ने भी हिस्सेदारी की। इनमें मंगरा पुजहर (पहाड़िया आदिम जनजाति), गोरेया पुजहर (पहाड़िया आदिम जनजाति), हरदास जमादार (ओबीसी), ठाकुर दास (दलित), बेचु अहीर (ओबीसी), गंदू लोहरा व चुकू डोम (दलित), मान सिंग (ओबीसी) और गुरुचरण दास (दलित) शामिल थे। लेकिन इतिहास में इनका जिक्र शायद ही कहीं हो। इनमें से पहाड़िया समुदाय के मंगरा पुजहर और गोरेया पुजहर, ओबीसी वर्ग के हरदास जमादार व बेचु अहीर और दलित वर्ग के ठाकुर दास को हूल में अग्रणी भूमिका निभाने के कारण फांसी दी गई थी। वहीं गंदू लोहरा, दलित वर्ग से आने वाले चुकू डोम और ओबीसी गुरुचरण दास को सश्रम आजीवन कारावास मिली थी। ओबीसी मान सिंग को आजीवन देश निकाला दिया गया था। क्षेत्र के सवर्णो को छोड़कर पिछड़ी व दलित वर्ग के लोग इस हुल में शामिल थे।

मंगल पांडे नहीं, तिलका मांझी थे पहले स्वतंत्रता सेनानी

जब हम “संथाल हुल” की बात करते हैं तो जाहिर है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की चर्चा भी होती है और इस संग्राम के पहले सेनानी की बात भी होनी शुरू हो जाती है। यह दर्जा मंगल पांडे को दिया जाता है जबकि सच यह है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम सेनानी तिलका मांझी थे। वजह यह कि 1771 से 1784 तक तिलका मांझी ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया। उन्होंने कभी भी समर्पण नहीं किया, न कभी झुके और ना ही डरे। जबकि मंगल पांडे का जिक्र 1857 में हुए सिपाही विद्रोह के संदर्भ में सामने आता है। उनके विद्रोह की वजह यह नहीं थी कि वे शोषित अथवा पीड़ित थे। वे विद्रोही तब हुए जब कथित तौर पर उन्हें यह जानकारी मिली कि जिस कारतूस का इस्तेमाल वे भारत के लोगों पर करते हैं, उसमें गाय का चमड़ा इस्तेमाल किया गया है।

तिलका मांझी (11 फरवरी, 1750 – 13 जनवरी, 1785)

कौन थे तिलका मांझी?

11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में तिलकपुर नामक गांव में एक संथाल परिवार में जन्मे तिलका मांझी के पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था। तिलका मांझी का गोत्र मुर्मू था, जो उनके पिता के नाम में जुड़ा था। मगर तिलका का उपनाम मांझी इसलिए पड़ा क्योंकि वे संथाल समाज के अगुआ थे, जिसे मांझी हड़ाम कहा जाता है। कुछ इतिहासकार व लेखक तिलका मांझी का नाम जबरा पहाड़िया भी बताते हैं। इस बाबत अवकाश प्राप्त प्रशासनिक अधिकारी संग्राम बेसरा, जो खुद संथाल समुदाय से आते हैं, बताते हैं कि “जबरा पहाड़िया और तिलका मांझी अलग अलग व्यक्ति थे।” वे कहते हैं कि “पहाड़िया पहाड़ों में रहने वाली एक दूसरी जनजाति है और जबरा पहाड़िया इसी  जनजाति के थे।”

ज़मींदारी प्रथा को बढ़ावा दे रहे थे अंग्रेज

ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल पर कब्जे के बाद किसानों से लगान वसूलने के लिए जमींदारी प्रणाली दुरुस्त की, जिसके बाद साहुकारों की भी एक बड़ी जमात तैयार हुई, जो लगान देने के लिए किसानों को सूद पर कर्ज देते थे और बदले में उनकी जमीन जायदाद हड़प लेते थे। जमींदारों के करिंदे लोगों से जबरन लगान वसूलते थे। जो लगान देने की स्थिति में नहीं रहते, उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी जाती थी। यह सब किशोरावस्था से ही तिलका देखा करते और लोगों को लगान न देने को प्रेरित करते थे। जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही तिलका को मांझी की उपाधि दे दी गई। तिलका मांझी ने क्षेत्र के संथालों को एकत्र किया और अंग्रेजों, जमींदारों और साहूकारों के खिलाफ जंग छेड़ दी। यह लड़ाई 1771 से 1784 तक चली। 1784 में तिलका मांझी की सेना पर जबरदस्त हमला हुआ, जिसमें उनके कई लड़ाके मारे गए। बताया जाता है कि उसके बाद अंग्रेज, तिलका मांझी को चार घोड़ों से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाए। मीलों घसीटे जाने के बावजूद वे जिंदा रहे। अंग्रेजों ने 13 जनवरी 1785 को भागलपुर के एक चौराहे पर एक बरगद के पेड़ से लटकाकर उनकी हत्या कर दी।

संथाल हुल के प्रणेता सिदो-कान्हु की प्रतिमा के साथ आदिवासी युवा

संग्राम बताते हैं कि “तब बिहार के मोकामा से साहबगंज तक संथालों का राज था। संथालों ने मुगलों को कभी भी टैक्स नहीं दिया था। अंग्रेज कंपनी के जमींदारों, साहूकारों और दलालों द्वारा इनसे लगान वसूलने और अपनी सत्ता इन पर स्थापित करने के कुप्रयास का ही नतीजा था संथाल हुल।”

तिलका के बाद भी जारी रहा हुल

बेसरा आगे बताते हैं कि “तिलका मांझी की हत्या के बाद अंग्रेजों सहित जमींदारों, साहूकारों और उनके दलालों का मनोबल बढ़ गया, वहीं संथाल जंगल की ओर पलायन करने लगे। मगर अंग्रेजों, जमींदारों व साहूकारों के प्रति उनका आक्रोश भीतर ही भीतर बढ़ता गया, जो 71 साल बाद, 1855 में सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, फूलो-झानो के नेतृत्व में ‘संथाल हुल’ के रूप में उभरा।”

अंग्रेज कंपनी की सत्ता और उसके समर्थक तत्वों, जैसे जमींदार, महाजन, पुलिस आदि द्वारा शोषण, उत्पीडन व जुल्म के खिलाफ 1789 से 1831-32 के बीच अनेक आन्दोलन हुए, जिसमें 1831-32 का कोल विद्रोह प्रमुख था। मानसून में भूमिजों का विद्रोह हुआ। इस विद्रोह के दौरान गांव लूटे गए तथा पुलिस व सैनिकों सहित कई नागरिक मारे गए।

1855 में सिदो-कान्हु का संथाल हुल

वर्ष 1855 के संथाल हुल को समझने के लिए उसके नायकों को जानना जरूरी है। उल्लेखनीय है कि संथाल परगना
को अंग्रेजों द्वारा “दामिन-ए-कोह” कहा जाता था। संथाल परगना की  घोषणा 1824 में हुई थी। इसी संथाल परगना के एक संथाल परिवार में संथाल हुल के नायकों का जन्म हुआ जिन्हें हम सिदो-कान्हु के नाम से जानते हैं।

बता दें इसी संथाल परगना के साहबगंज के भोगनाडीह गांव में चुन्नी मांझी के घर में सिदो मुर्मू का जन्म 1815 में एवं कान्हु मुर्मू का, 1820 में हुआ था। इस हुल में सक्रिय भूमिका निभाने वाले इनके भाईयों चाँद मुर्मू का जन्म 1825 में एवं भैरव मुर्मू का जन्म 1835 में हुआ था। इनकी दो बहनों फुलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू ने भी संथाल हुल में आगे बढ़कर भाग लिया था।

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तिलका मांझी के अवसान के बाद अंग्रेज कंपनी और उसके समर्थकों, जमींदारों, महाजनों, साहूकारों और उनकी पुलिस आदि के द्वारा लूटपाट, शोषण, बलात्कार जैसे उत्पीड़न व जुल्म से त्रस्त संथाल भागते फिर रहे थे, लेकिन उनकी अधीनता स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं थे। इस घटनाक्रम को देखते हुए सिद्धू-कान्हु ने संथाल गांवों में डुगडुगी बजवा कर चार सौ गांवों को न्यौता दिया। 30 जून, 1855 को करीब 50 हजार आदिवासी भगनाडीह गांव पहुंचे, जहां एक बड़ी सभा हुई। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि संथाल अब मालगुजारी नहीं देंगे। यही से अंग्रेज कंपनी और उसके समर्थकों के खिलाफ युद्ध शुरू हुआ। इसके बाद अंग्रेजी कंपनी ने सिदो, कान्हु, चांद तथा भैरव आदि को गिरफ्तार करने में तब सफल हो पाई जब अपनों में से ही किसी ने मुखबिरी कर दी। 26 जुलाई 1855 को भोगनाडीह गांव में पेड़ से लटका कर उनकी हत्या कर दी गई। वहीं बहराइच में चाँद और भैरव को मार दिया गया।

लेकिन नहीं बुझी क्रांति की मशाल 

1855 का हुल एक संगठित युद्ध था, जो अन्य स्थानीय समुदायों के सहयोग के बिना संचालित नहीं किया जा सकता था। इस युद्ध में विशेष रूप से कारीगरों और अन्य खेतीहर समुदायों का पूरा सहयोग था। सिदो-कान्हु की हत्या के दस वर्ष बाद, यानी 1865 तक, यह रुक-रुककर चलता रहा। सिदो-कान्हु की हत्या के बाद कुछ महीनों तक यह शिथिल रहा। जाहिर है कि इतने लंबे समय तक चला यह युद्ध बिना व्यापक तैयारी और योजना के नहीं चलाया जा सकता था। दूसरी तरफ अंग्रेज कंपनी के विरोध में इस युद्ध के लिए जितने संसाधनों जरूरत थी, उसे अकेले संथालों द्वारा जुटा पाना असंभव था। अगर पारंपरिक हथियारों तीर-धनुष, टांगा, बलुआ आदि की हम बात करें तो वह लुहारों के सहयोग के बिना जुटा पाना संभव नहीं था। वैसे भी ये जतियां भी संथालों की ही तरह ब्रिटिश कंपनी की नीतियों और सामंतों, महाजनों, साहूकारों व व्यापारियों से पीड़ित थीं। अत: 30 जून 1855 को जब सिदो ने खुद को “सूबा ठाकुर” (क्षेत्र का सर्वोच्च शासक) घोषित किया और अंग्रेजों को इलाका छोड़ने का “फरमान” जारी किया, तो उनके साथ उत्पीड़ित होने वाले गैर-आदिवासी समूह भी गोलबंद हो गए।

हुल की जरूरत आज भी

लेखिका व झारखंड में आदिवासियों के विस्थापन के खिलाफ आंदोलन की नेता दयामणि बारला के मुताबिक इतिहास गवाह है कि इस राज्य की धरती को हमारे पूर्वजों ने सांप, भालू, सिंह, बिच्छु से लड़कर आबाद किया है। इसलिए यहां के जलजंगलजमीन पर हमाराखूंटकटी’ अधिकार है। हम यहां के मालिक हैं। जबजब हमारे पूर्वजों द्वारा आबाद इस भूमि को बाहरी लोगों ने छीनने का प्रयास किया हो, तबतब यहां विद्रोह उठ खड़ा हुआ है। इस राज्य के जलजंगलजमीन को बचाने के लिए तिलका मांझी, सिदोकान्हु, फूलोझाणो, सिंदराय-बिंदराय, वीर बिरसा मुंडा, गया मुंडा, माकी मुंडा जैसे वीरों ने अपनी शहादत दी है। जब तक हमारे जलजंगलजमीन पर ख़तरा मंडराता रहेगा, तब तकहुलकी प्रासंगिकता बनी रहेगी।”

वहीं खोरठा भाषा के साहित्यकार दिनेश दिनमणी कहते हैं कि “1885 में झारखंड में जिन परिस्थितियों के खिलाफ हुलगुलान किया गया था, वही परिस्थितियां कुछ बदले रूप में आज भी दिख रही हैं। अकूत खनिज और वन संपदा पर आज भी पूंजीपतियों की गिद्ध दृष्टि है। कोल-माइन्स को निजी हाथों में सौंपने का फैसला उसी का नतीजा है। झारखंड बने 20 साल होने को है फिर भी आज तक पुनर्वास/विस्थापन नीति नहीं बनाई गई। इसके बिना यहां के रैयतों की जमीन औने-पौने दाम में एक तरह से छीनी जा रही है। जिन शर्तों पर जमीनों का अधिग्रहण किया गया था, उसके विपरीत उसे संस्थान प्रबंधन मालिक बन पूंजीपतियों के हाथ बेच रहा है।”

दिनमणी बताते हैं कि “इसी प्रकार खानों और डैमों के विस्थापितों को आज तक न्याय नहीं मिला। प्राकृतिक संसाधन से इतने समृद्ध प्रदेश के नौ लाख युवाओं को रोजगार के लिए अन्यत्र पलायन करने को मजबूर होना राज्य के हालात को खुद बयां करता है। राज्य की नई सरकार उस पार्टी के नेतृत्व में बनी है जिसने अलग राज्य के लिए लंबा संघर्ष किया था। लेकिन इस सरकार ने अभी तक अपने घोषित एजेंडे के अनुरूप कोई ठोस निर्णय नहीं लिया है। पर राज्य में जेपीएससी की कथित धांधली के खिलाफ आंदोलन कर रहे युवाओं की शिकायतों पर संज्ञान नहीं लेना निराशाजनक है।

कवि लेखक आदिवासीभाषा, साहित्यसंस्कृति इतिहास के शोधकर्ता महादेव टोप्पो तत्कालीन हुल की प्रासंगिकता पर कहते हैं किचूंकि आज आदिवासी समाज को गुलाम भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, भाषिक आध्यात्मिक स्थितियों से भी बुरी, बदतर बदहाल हालत में जीवन जीने के लिए मजबूर किया जा रहा है, अतः आज भी एक और बड़े और एकजुट हुल की जरुरत महसूस की जा रही है।”

वहीं सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज के अनुसारतत्कालीन भारत का यह पहला विद्रोह था जिसमें अबुआ राज [अपना राज] की घोषणा हुई और सिदो मुर्मू ने यह ऐलान किया कि मुल्क पर अपना अधिकार है।”

बहरहाल, आज सभी विकसित देशों की गिद्ध दृष्टि झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िसा और मध्यप्रदेश जैसे प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध राज्यों पर टिकी हैं। कार्पाेरेट धन कुबेर और पूंजीपति, भारतीय संसद और शीर्ष संवैधानिक संस्थाओं में बैठकर संसाधनों पर अवैध कब्जे की साजिशें रच कर आदिवासी समुदाय को उनके संसाधनों से बेदखल करने लगे हैं। पांचवी अनुसूची क्षेत्र में संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत केन्द्रीय अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती बदस्तूर जारी है। विकास परियोजनाओं के नाम पर आदिवासियों को सामुदायिक संसाधनों से बेदखल करना यह साबित करता है कि झारखंड के रूप में अबुआ राज भले ही मिल गया हो लेकिन शासकों और नीति निर्माताओं ने हमेशा आदिवाासियों के शोषण करने की कोशिशों को ही अंजाम दिया है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि हुल की जरूरत आज भी है। 

(संपादन : नवल/गोल्डी/अमरीश)

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लेखक के बारे में

विशद कुमार

विशद कुमार साहित्यिक विधाओं सहित चित्रकला और फोटोग्राफी में हस्तक्षेप एवं आवाज, प्रभात खबर, बिहार आब्जर्बर, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, सीनियर इंडिया, इतवार समेत अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग की तथा अमर उजाला, दैनिक भास्कर, नवभारत टाईम्स आदि के लिए लेख लिखे। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं

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