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आदिवासियों की संस्कृति को खारिज करने वाला केआईएसएस करेगा डब्ल्यूसीए-2023 की मेजबानी, आदिवासी बुद्धिजीवी खफ़ा

आदिवासी नेताओं और भारतीय मानवशास्त्रियों ने वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजी (विश्व मानवशास्त्र कांग्रेस), 2023 की मेजबानी कलिंग इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (केआईएसएस) को सौंपने के निर्णय को वापस लेने की मांग की है। इन लोगों के अनुसार, केआईएसएस एक संदिग्ध संस्थान है। इसके संस्थापक ओडिशा के सत्ताधारी दल के एक सांसद हैं और इसमें खनन कंपनियों का धन निवेशित है

आदिवासियों के अधिकारों से सरोकार रखने वाले दो सौ से अधिक नेताओं, शिक्षाशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, जनांदोलनों के प्रतिनिधियों और विद्यार्थी संगठनों आदि ने भुवनेश्वर, ओडिशा स्थित कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (केआईएसएस) को वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजी (डब्ल्यूसीए) 2023 की मेजबानी सौंपे जाने का विरोध करते हुए एक याचिका पर हस्ताक्षर किए हैं। इस याचिका को इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजिकल एंड एथनोलॉजिकल साइंसेज (आईयूएईएस) के अध्यक्ष जुंजी कोइज़ुमी और उत्कल व संबलपुर विश्वविद्यालयों के कुलपतियों क्रमशः सौमेंद्र मोहन पटनायक और दीपक कुमार बेहरा को भेजा गया है। हस्ताक्षरकर्ताओं ने केआईएसएस पर गंभीर आरोप लगते हुए इन तीनों संस्था प्रमुखों से अपील की है कि वे इस संस्थान से कोई लेना-देना न रखें।   

हस्ताक्षरकर्ताओं में प्राध्यापक, लेखक, कवि, बुद्धिजीवी, अध्येता, वकील, राजनैतिक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता और जनांदोलनों के नेता शामिल हैं। इनमें प्रमुख हैं : वर्जीनियस खाखा, रूबी हेम्ब्रोम, गुजरात विधानसभा के सदस्य छोटुभाई वसावा, जसिन्ता केरकेट्टा, सोनी सोरी, ग्लैडसन डुंगडुंग, प्रणब डोले, नंदिनी सुन्दर, आशीष कोठारी और लालसू सोम नागोटी। 

भुवनेश्वर स्थित केआईएसएस (डीम्ड विश्वविद्यालय) ने दूसरे स्थान पर रहे क्रोएशिया को भारी अंतर से हरा कर 2023 में आयोजित होने वाली 19वीं इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजिकल एंड एथनोलॉजिकल साइंसेज (आईसीएईएस) की मेजबानी करने का अधिकार हासिल किया है( केआईएसएस द्वारा उत्कल विश्वविद्यालय (भुवनेश्वर, ओडिशा), संबलपुर विश्वविद्यालय (संबलपुर, ओडिशा), इंडियन एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन (दिल्ली), इंडियन एंथ्रोपोलॉजिकल सोसाइटी (कोलकाता, पश्चिम बंगाल) और एथनोग्राफी एंड फोक कल्चर सोसाइटी (लखनऊ, उत्तरप्रदेश) के सहयोग से यह आयोजन किया जाएगा।   

केआईएसएस की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह वृहत आयोजन 15 से 19 जनवरी 2023 तक होगा और इसमें 150 देशों के 10,000 से ज्यादा प्रतिभागियों की उपस्थिति अपेक्षित है। आईयूएईएस दुनिया में मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान के अध्येताओं और शोधार्थियों की सबसे बड़ी संस्था है। इस संस्था द्वारा हर पांच वर्ष में आयोजित की जाने वाली कांग्रेस, मानव जाति के वैज्ञानिक अध्ययन में रत विद्वतजनों का सबसे पुराना जमावड़ा है और 45 वर्षों के बाद भारत में होने जा रहा है।  

सांस्कृतिक संहार के खिलाफ हैं आदिवासी 

भुवनेश्वर में स्थित केआईएसएस, आदिवासी बच्चों का बोर्डिंग स्कूल है। इसके संस्थापक अच्युत सामंत कंधमाल से बीजू जनता दल के सांसद हैं। केआईएसएस में ओडिशा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मिजोरम, असम और अन्य राज्यों के विभिन्न आदिवासी समुदायों के करीब 30,000 लड़के-लड़कियां रहते हैं.  

केआईएसएस को विश्व कांग्रेस की मेजबानी सौंपने का विरोध इसलिए किया जा रहा है क्योंकि उसके आलोचकों के अनुसार यह संस्था आदिवासी बच्चों को उनके इतिहास और संस्कृति से दूर करती है और आदिवासियों के जीने के तरीके को पिछड़ा, आदिम, असभ्य और अशिष्ट बताती है। ओडिशा के मंकिर्दिया नामक आदिम आदिवासी समुदाय के बारे में अच्युत सामंत ने कहा था, “…वे केवल वन उत्पादों से अपना पेट भरते हैं और पत्तों से अपना शरीर ढंकते हैं। ओडिशा में 13 आदिम आदिवासी समुदाय रहते हैं। उनके सदस्य बंदरों की तरह पेड़ों की डालियों पर रहते और सोते हैं।” 

केआईएसएस अपने को दुनिया का ‘पहला आदिवासी विश्वविद्यालय’ बताता है। यह अलग बात है कि वहां नाममात्र के शिक्षक हैं. टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के गुवाहाटी कैंपस के पूर्व निदेशक और सन 2014 में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित आदिवासी मामलों पर उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष वर्जीनियस खाखा के अनुसार, “यह संस्था आदिवासियों के उनसे ही दूर करने का प्रयास कर रही है। यह आदिवासियों के दिमाग में ऐसे विचार और अवधारणाएं भर रही है जो आज के मुख्यधारा के समाज के मानकों और सत्ताधारी वर्ग के प्रतिमानों से मेल खातीं हैं।” इस रणनीति का पहला और सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है आदिवासियों को उनकी ज़मीन से उखाड़ कर उन्हें उनकी सांस्कृतिक जड़ों से दूर करना।

मूलनिवासी संस्कृति के खो जाने की आशंका व्यक्त करते हुए कालाहांडी में निवासरत प्रतिष्ठित लेखक और शिक्षाशास्त्री अखिल नायक कहते हैं, “इस प्रक्रिया से आदिवासियों को उनकी जड़ों से दूर तो किया ही जा रहा है, उनका हिन्दुकरण करने के प्रयास भी हो रहे हैं। उनके लिए बनाए गए पाठ्यक्रम में उनके पूर्वजों और उनके लोकनायकों की कोई चर्चा नहीं है। उन्हें हिन्दू कर्मकांडों और प्रथाओं की जानकारी दी जा रही है और हिन्दू ढंग से पूजा करना सिखाया जा रहा है। विद्यार्थियों से कहा जाता है कि पढ़ाई ख़त्म होने के बाद जब वे अपने घर लौटें तब भी वहां इन्हीं कर्मकांडों, प्रथाओं और संस्कारों का पालन करें। इससे एक प्रकार का सांस्कृतिक टकराव और तनाव उत्पन्न हो रहा है। इस तरह की शिक्षा आदिवासियों को दी जा रही है।”  

छोटूभाई वसावा, विधायक, झागड़िया, गुजरात

छोटूभाई वसावा भील समुदाय के एक प्रमुख नेता हैं। वे भारतीय ट्राइबल पार्टी के संस्थापक और गुजरात के झागडिया से विधायक भी हैं। वे कहते हैं, “केआईएसएस जैसी संस्थाएं, दरअसल, स्कूल न होकर कारखाने हैं जो बच्चों को उनके समुदाय, उनकी भाषा, उनके मूल्यों और उनकी विश्वदृष्टि से दूर कर, उनकी संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं।” वे कहते हैं कि गुजरात में शहर के स्कूलों में शिक्षा प्राप्त आदिवासियों में से बहुतेरे अपनी मातृभाषा ही नहीं बोल पाते। यह शर्मनाक हैं। वे स्वयं को अपने समुदाय से अलग-थलग महसूस करने लगते हैं क्योंकि वे गांवों में अपने बुजुर्गों और रिश्तेदारों से संवाद नहीं कर पाते।

उड़िया कवि और शिक्षाशास्त्री हेमंत दलपति कहते हैं, “कंधमाल में कोंधा आदिवासी बसते हैं और इस इलाके की प्रमुख भाषा है कुई। केआईएसएस में दाखिला लेने के बाद बच्चे कुई भाषा बोलना बंद कर देते हैं। वे उड़िया सीखते हैं, अंग्रेज़ी सीखते हैं और यहां तक कि हिंदी भी; परन्तु कुई नहीं। उलटे, उनके मन में यह बैठा दिया जाता है कि कुई निम्न कोटि की ‘अछूत’ भाषा है। नतीजा यह कि वे अपने परिवारों से दूर हो जाते हैं और नए जीवन मूल्य आत्मसात कर लेते हैं।”

छत्तीसगढ़ की शोधार्थी अंकिता अंधारे के अनुसार, “जब भी मुख्यधारा का समाज आदिवासियों की संस्कृति, भाषा और बहुलता पर हावी होता है, इस तरह की समस्याएं जन्म लेतीं हैं। मुख्यधारा का जोर एक भाषा, एक संस्कृति और एक धर्म पर होता है। हम आदिवासी इस तरह की एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों और सोच के खिलाफ हैं। हम अलग हैं, हमारी संस्कृति बहुरंगी है, समृद्ध है और उसमें प्रकृति के रंग घुले हुए हैं। हम न तो आदिम हैं और ना ही असभ्य। हम तो इस देश के मूल निवासी हैं और हमारी सभ्यता इस देश की किसी भी अन्य सभ्यता से ज्यादा पुरानी है।” 

शिक्षा या आदिवासी अस्मिता पर हमला? 

मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान, सामाजिक विज्ञान की दो महत्वपूर्ण शाखाएं हैं, जो इंडिजिनॅस लोगों सहित विभिन्न सामाजिक समूहों की संस्थाओं और संस्कृतियों का अध्ययन करतीं हैं। मानव जाति, मनुष्यों के आचार-व्यवहार और मानव समाजों के वैज्ञानिक अध्ययन का नाम मानवशास्त्र है। ज्ञान की इस शाखा ने हमें इंडिजिनॅस समूहों के सामाजिक जीवन, संस्कृति, मानकों और मूल्यों के सम्बन्ध में जानकारियों का विशाल खजाना उपलब्ध करवाया है। नृवंशविज्ञान विशिष्ट सामाजिक समूहों, उनके सदस्यों, सांस्कृतिक ढांचों और लोगों के उनकी संस्कृतियों से रिश्तों का अध्ययन करता है। इस विज्ञान ने भारत के इंडिजिनॅस समूहों के बारे में हमारी जानकारी को समृद्ध किया है। 

केआईएसएस में प्रार्थना सभा में भाग लेते और टूथ ब्रश का इस्तेमाल करने का अभ्यास करते विद्यार्थी

जबकि केआईएसएस जैसी संस्थाएं आदिवासी विद्यार्थियों को फैक्ट्री-नुमा स्कूलों में जिस तरह की शिक्षा प्रदान करतीं हैं वह इंडिजिनॅस लोगों और उनके अतीत के बारे में मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान द्वारा हमें प्रदत्त ज्ञान का नकार है। केआईएसएस में विद्यार्थियों को उड़िया बोलने और लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जबकि उनमें से अधिकांश की मातृभाषा उड़िया नहीं है। आईयूएईएस को भेजी गयी अपील में कहा गया है कि केआईएसएस में विद्यार्थियों को आदिवासियों के पारंपरिक उत्सव मनाने के प्रति हतोत्साहित किया जाता है। उन्हें सरस्वती व गणेश पूजा में भाग लेना होता है जो उन्हें उच्च हिन्दू जातियों द्वारा मनाए जाने वाले त्योहारों से जोड़ने का प्रयास है। केआईएसएस के एक पूर्व विद्यार्थी अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं, “केआईएसएस आदिवासी बच्चों को हमारी धार्मिक अस्मिताओं से दूर करती है और हमारी ज़मीन, जंगलों और हमारे पूर्वजों की विरासत से हमारे जुड़ाव को समाप्त करती है। हम लोग मूर्ति पूजा नहीं करते, परन्तु केआईएसएस में बचपन से हमें मूर्ति पूजा करना सिखाया जाता है।”

इस तरह की संस्थाओं द्वारा अस्मिताओं को नष्ट किए जाने पर चर्चा करते हुए वर्जीनियस खाखा कहते हैं, “आईयूएईएस को ऐसे संस्थान से नहीं जुड़ना चाहिए जो आदिवासियों को औपनिवेशिक चश्मे से देखता है। वह और उसके जैसे अन्य संस्थान आदिवासियों को ऐसे परजीवी समूह के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो जनता के टैक्स के पैसा पर जीते हैं। यह आदिवासियों का अपमान है। सच तो यह है कि आदिवासियों की ज़मीनों पर ही भारत के आधुनिक मंदिर खड़े हैं – फिर चाहे वे बांध हों, विशाल कारखाने हों या अन्य अधोसंरचनात्मक परियोजनाएं।” 

सुंदरगढ़, ओडिशा के विस्थापन-विरोधी आदिवासी नेता डेमे ओराम चकित हैं कि सरकारों ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 46 के अंतर्गत अपनी जिम्मेदारियों को केआईएसएस जैसी निजी कंपनियों और एजेंटों को आउटसोर्स कर दिया है। वे कहते हैं, “आदिवासियों की शिक्षा को आउटसोर्स करने का अर्थ यह है कि सरकार सामाजिक न्याय की स्थापना और आदिवासियों को हर तरह के शोषण से बचाने की अपनी ज़िम्मेदारी को भी निजी संस्थाओं को आउटसोर्स कर रही है। यह एक अत्यंत खतरनाक कदम है।” 

काज़ीरंगा, असम के जीपाल कृषक श्रमिक संघ के मिसिंग आदिवासी समुदाय के युवा नेता प्रणब डोले के अनुसार केआईएसएस द्वारा शिक्षा का जो मॉडल लागू किया जा रहा है वह आदिवासी विरोधी और आदिवासी बच्चों के लिए अहितकारी है। इस मॉडल का लक्ष्य आदिवासी बच्चों को उनकी ज़मीन और उनकी संस्कृति से विलग करना है। 

आईयूएईएस को भेजी गयी अपील में कहा गया है कि केआईएसएस की वेदांता औद्योगिक समूह के साथ साझेदारी है और उसे निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की खनन कम्पनियों से धन प्राप्त होता है7 इनमें पृथ्वी के गर्भ में छिपी सम्पदा का बेदर्दी से दोहन करने वाली अडाणी समूह की कम्पनियां और एनएएलसीओ (नाल्को) शामिल हैं। यही नहीं, केआईएसएस ने राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी), इमामी समूह और रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कार्पोरेशन लिमिटेड (आरईसीएल) के साथ एमओयू भी किए हैं। हाल में उसने ओडिशा के मयूरभंज में अडाणी-केआईएसएस स्कूल भी स्थापित किया है।

केआईएसएस का दावा है कि वह अपने व्यय की पूर्ति अपनी पितृ संस्था कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी (केआईआईटी) – जो कि एक अन्य डीम्ड विश्वविद्यालय है – के मुनाफे से करती है। परन्तु मुद्दे की बात यह है कि केआईआईटी में पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थी उच्च जातियों और मध्यमवर्ग से ताल्लुक रखते हैं और उनका करियर  उन्हीं उद्योगों पर निर्भर हैं जो आदिवासियों की ज़मीनों और उनकी जिंदगियों की कीमत पर मुनाफा कमा रहे हैं।

अध्येता और सामाजिक कार्यकर्ता अभय खाखा ने कहा था, “पूरी दुनिया में इंडिजिनॅस लोगों का इतिहास बताता है कि किस प्रकार ‘फैक्ट्री स्कूलों’ के जरिए, इन लोगों की संस्कृति और वैकल्पिक ज्ञान प्रणालियों को नष्ट कर उनकी भावी पीढ़ियों के उन्हीं से छीन लिया गया। ओडिशा में केआईएसएस-अडाणी मॉडल के फैक्ट्री स्कूलों को देखने से पता चलता है कि कॉर्पोरेट शक्तियां, राज्य के साथ मिलकर किस तरह लाखों गरीब आदिवासी बच्चों को ब्रेनवाश कर सांस्कृतिक संहार का कार्यक्रम चला रहीं हैं। युवा आदिवासियों को वर्चस्वशाली समाज की भाषा और संस्कृति को सीखने पर मजबूर किया जा रहा है। यह दुखद है।” 

केआईएसएस के संस्थापक अच्युत सामंत संस्था के विद्यार्थियों के साथ

केआईएसएस इंडिजिनॅस लोगों के लिए फैक्ट्री स्कूल का पहला उदाहरण नहीं है। बींसवीं सदी में मूलनिवासियों के सम्बन्ध में अपनी नीतियां में कई देशों ने ऐसे स्कूलों का समावेश किया था। इनमें कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, रूस और नॉर्वे शामिल थे। इन सभी देशों में यह प्रयोग पूरी तरह से असफल सिद्ध हुआ। इन संस्थाओं में तरह-तरह के स्कैंडल हुए, विद्यार्थियों के साथ दुर्व्यवहार की शिकायतें सामने आयीं, जांच आयोग बने और मुआवजे की मांगें हुईं। केआईएसएस इन्हीं पुरानी और असफल नीतियों को भारत में लागू कर रहा है। 

आईयूएईएस के नैतिक मानदंड  

आईयूएईएस द्वारा अन्य संगठनों के साथ साझेदारी के लिए अपनाए जाने वाले नैतिक मानदंडो पर भी शिक्षाविदों सहित अन्यों द्वारा प्रश्न उठाये जाते रहे हैं। आईयूएईएस, मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं और वैज्ञानिकों का वैश्विक संगठन है, जिसकी स्थापना 23 अगस्त 1948 को हुई थी। इस संस्था में पुरातत्ववेत्ताओं और भाषाविदों की भी रूचि है। इसका उद्देश्य दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले अध्येताओं के बीच संवाद स्थापित करना और ज्ञान और जानकारियों का आदान-प्रदान बढ़ाना है ताकि सामूहिक प्रयास से मानव ज्ञान में अभिवृद्धि हो सके। संस्था का कहना है कि वह मानव जाति की बेहतर समझ विकसित करने में अपना योगदान देना चाहती है ताकि प्रकृति और संस्कृति के बीच सामंजस्य और समन्वय से मानवता के टिकाऊ भविष्य का निर्माण किया जा सके।   

वैश्वीकरण के चलते आदिवासी समुदायों की विभिन्न पहचानों में पहले से ही कई बदलाव आ गए हैं और इन समुदायों में अन्य तरह के परिवर्तन भी हुए हैं। इन समुदायों की साझा स्मृतियां हैं और उनकी प्रकृति में समानताएं हैं। समालोचना (और आत्मालोचना) के ज़रिए मानवशास्त्र आदिवासी समुदायों पर केन्द्रित विमर्श में अभिनव योगदान दे सकता है। वह आदिवासी समुदायों को ‘आदिम’, ‘असभ्य’ और ‘जंगली’ बताने की पारंपरिक प्रवृत्ति का विखंडन कर सकता है। जनजातीयता के असली अर्थों और निहितार्थों की विवेचना से एक ओर हमें आदिवासियों के बारे में सही-सही बातें पता चल सकेंगीं तो दूसरी ओर भारत जैसे जातिवाद से ग्रस्त समाज में उनके बारे में व्याप्त टकसाली सोच को बदलने में मदद मिलेगी। 

मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान दुनिया के इंडिजिनॅस समुदायों की सांस्कृतिक विविधताओं को स्वीकार करते हैं और उनका उत्सव मनाते हैं। भारत में कई विश्वविद्यालयों और अन्य संस्थाओं ने ‘इंडिजिनॅस जीवन’ के विभिन्न पहलुओं पर अनेक मौलिक मानवशास्त्रीय और नृवंशवैज्ञानिक अध्ययन किए हैं। केआईएसएस जो कुछ कर रहा है वह निश्चित तौर पर अकादमिक नैतिकता के सुस्थापित सिद्धातों के विरुद्ध है। वह आदिवासियों को उनके सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन, जो उनकी ज़मीन से जुड़ा हुआ है, से विलग करना चाह रहा है।   

केआईएसएस को आईयूएईएस की वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजी-2023 की मेजबानी करने का अधिकार देने की खिलाफत करते हुए बस्तर, छत्तीसगढ़ की आदिवासी नेता सोनी सोरी कहती हैं, “आदिवासियों को यह समझने के लिए किसी शिक्षा की ज़रुरत नहीं है कि उनकी ज़मीनों, जंगलों और इलाकों पर उनका अधिकार है। उनमें यह समझ तो अपने समुदाय के बीच बड़े होने से ही विकसित हो जाती है। परन्तु जब केआईएसएस जैसे फैक्ट्रीनुमा स्कूल आदिवासी बच्चों को उनके घरों और उनके परिवेश से दूर कर देते हैं तब वे उन्हें उनके जीवन की रोज़मर्रा की सच्चाईयों से भी दूर करते हैं। वे उनके समुदाय, उनकी ज्ञान प्रणाली और उनके जीवन जीने के तरीके के बारे में इन बच्चों के मन में शर्मिंदगी का भाव भर देते हैं। इसके कारण ये बच्चे अपनी ज़मीनों और अपने घरों पर कब्ज़े के खिलाफ खड़े होने के प्रति अनिच्छुक हो जाते हैं – फिर चाहे कब्ज़ा करने वाला कोई कॉर्पोरेट हो या औपनिवेशिक मानसिकता वाले बाहरी लोग। मैं यह मानती हूं कि जब आदिवासी अपनी ज़मीन और अपने घर की रक्षा के लिए खड़े होते हैं तब वे केवल अपने लिए खड़े नहीं होते। वे देश के व्यापक हितों की रक्षा के लिए खड़े होते हैं, वे पूरी दुनिया के पर्यावरण को बचाने के लिए खड़े होते हैं।”

आदिवासी-इंडिजिनॅस समुदायों के बच्चों को उनकी पहचान, संस्कृति, भाषा, परम्पराओं और लोकाचार से वंचित करने के प्रयासों से आक्रोशित, झारखण्ड के खडिया समुदाय की आदिवासी बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं कि केआईएसएस जैसे स्कूल “आदिवासी बच्चों के दिमाग में उनके ही समुदायों के बारे में नकारात्मक भाव भर देते हैं। यह राज्य-कॉर्पोरेट गठबंधन की रणनीति का भाग है, जिसका लक्ष्य विकास और आर्थिक प्रगति के नाम पर आदिवासियों को उनके बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों से वंचित करना है।” 

मैं तुम्हारा डाटा बैंक नहीं हूं: अभय खाखा

आईयूएईएस को संबोधित याचिका में दुनिया भर के मानवशास्त्रियों और उनसे जुडी संस्थाओं से यह अनुरोध किया गया है कि वे इंडिजिनॅस लोगों के बच्चों के लिए बोर्डिंग स्कूलों की स्थापना करने की नीति से इन समुदायों पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव और उन्हें होने वाली क्षति पर विचार करें और यह सोचें कि क्या उन्हें केआईएसएस की मेजबानी स्वीकार करनी चाहिए। यह विडम्बना ही होगी कि मनुष्यों को बेहतर ढंग से समझने के लिए आयोजित होने वाली एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस की मेजबानी एक ऐसी संस्था करे जिसका एकमात्र लक्ष्य इंडिजिनॅस लोगों की समझ को ही मिटा देना है। इस सन्दर्भ में अभय खाखा की कविता “मैं नहीं हूं तुम्हारा डाटा” प्रासंगिक प्रतीत होती है और यह स्वाभाविक है। यह केवल प्रतिरोध की कविता नहीं है। यह समतावाद की नयी समझ की कविता भी है।       

मैं नहीं हूं तुम्हारे आंकड़े, ना ही हूं तुम्हारा वोट बैंक;
मैं तुम्हारी कोई परियोजना नहीं हूं, ना ही हूं तुम्हारे संग्रहालय में रखा कोई अनोखा प्रदर्श;
मेरी आत्मा काटे जाने के लिए तैयार कोई फसल नहीं है;
ना ही मैं हूं कोई प्रयोगशाला जहां तुम अपने सिद्धांतों को परख सकते हो;

मैं तुम्हारी तोप का गोला नहीं हूं, ना ही हूं मैं एक अदृश्य श्रमिक;
मैं नहीं हूं इंडिया हैबिटैट सेंटर में तुम्हारे मनोरंजन के लिए;
मैं तुम्हारा खेत नहीं हूं, ना ही तुम्हारी भीड़ हूं या तुम्हारा अतीत;
मैं तुम्हारी मदद, तुम्हारे अपराधबोध, तुम्हारे जीत के तमगों

को ना कहता हूं, तुम्हारे लेबलों को ख़ारिज करता हूं मैं;
नहीं स्वीकारता तुम्हारी राय को, तुम्हारे दस्तावेजों को, तुम्हारी परिभाषाओं को,
तुम्हारे मॉडलों को, तुम्हारे नेताओं को, तुम्हारे सरपरस्तों को
क्योंकि वे मेरे अस्तित्व, मेरी सोच, मेरी जगह जो नहीं स्वीकारते,

तुम्हारे शब्द, तुम्हारे नक़्शे, तुम्हारे सूचकांक,
वे सब भ्रम पैदा करते हैं और रखते हैं तुम्हें ऊंचे पायदान पर,
जहां से तुम मुझे नीचे खड़े देखते हो,

इसलिए, मैं बनाता हूं अपना चित्र, गढ़ता हूं अपना व्याकरण,
मैं अपना युद्ध लड़ने के लिए बनाता हूं अपने औजार,
मेरे लिए, मेरे लोगों के लिए, मेरी दुनिया के लिए और मेरे आदिवासी स्व के लिए! 

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

गोल्डी एम जार्ज

गोल्डी एम. जॉर्ज फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक रहे है. वे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी हैं और लम्बे समय से अंग्रेजी और हिंदी में समाचारपत्रों और वेबसाइटों में लेखन करते रहे हैं. लगभग तीन दशकों से वे ज़मीनी दलित और आदिवासी आंदोलनों से जुड़े रहे हैं

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