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दलित नजरिए से रेणु साहित्य का पुनर्पाठ

फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में यथार्थपरकता है। इसमें कोई संदेह नहीं। स्वयं रेणु ने भी यही कहा है। लेकिन फिर ऐसा क्यों है कि उनकी रचनाओं में दलित व पिछड़ी जाति के पात्रों के साथ भेदभाव नजर आता है। बता रही हैं पूनम तुषामड़

फणीश्वरनाथ रेणु जन्म शताब्दी वर्ष पर विशेष

[हिंदी साहित्य में दलित-बहुजन विमर्श को केंद्रीय विषय बनाने वाले साहित्यकारों में फणीश्वरनाथ रेणु अग्रणी थे। उनकी रचनाओं को द्विज साहित्यकारों ने आंचलिक साहित्य कहकर सीमित करने का प्रयास किया। उनके जन्म शताब्दी वर्ष के आलोक में फारवर्ड प्रेस उनकी रचनाओं और विमर्शों पर आधारित लेखों का प्रकाशन कर रहा है। इस कड़ी में पढ़ें पूनम तुषामड़ का यह लेख]

किसी भी समय और स्थितियों में रचा गया साहित्य न केवल अपने सामाजिक परिवेश को दर्शाता है बल्कि अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाओं का ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी होता है। इसलिए किसी भी रचनाकार की रचनाओं का मूल्यांकन उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर होना चाहिए। यहां यह भी ज़रूरी है कि रचनाकार अपने समय के यथार्थ से आंखें चुराए बिना अपने साहित्यिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करे। हिंदी साहित्य में ऐसे कुछ ही नाम हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में अपने समय के यथार्थ को यथावत दर्ज़ करने का पूर्ण प्रयास किया है। इनमें फणीश्वरनाथ रेणु भी शामिल हैं, जो स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय गांवों के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में होने वाले संरचनात्मक बदलावों को महसूस कर उनका यथार्थपरक चित्रण कर पाने में सफल रहे हैं। अनेक हिन्दी समालोचकों ने उनकी प्रसिद्ध रचना ‘मैला आंचल’ को यथार्थवादी माना है। लेकिन वर्तमान के सापेक्ष यदि हम महिलाओं के दृष्टिकोण से उनके साहित्य का अवलोकन करें तो “आंच की कसर” के विभिन्न आयाम नजर आते हैं। यह लेख इन्हीं आयामों पर केंद्रित है जिसके केंद्र में स्त्रीवादी विमर्श है।

शुरूआत रेणु की रचना “मैला आंचल” से करते हैं। बेशक यह 1954 में प्रकाशित हुई और इसने राष्ट्रीय स्तर पर फणीश्वरनाथ रेणु को स्थापित कर दिया। लेकिन इसके पहले से ही वे साहित्य सृजन से जुड़े हुए थे। “मैला आंचल” एक ग्रामीण अंचल की कथा है, जिसके केंद्र में विविधतापूर्ण समाज है। अलग-अलग जातियों के लोग और उनके अपने मसले हैं। यह अपने समय में घटित ग्रामीण-आंचलिक बदलावों को दर्ज करती हुई कथा है। उनका मेरीगंज गांव स्वतंत्रता के पश्चात नेपाल की सीमा से सटे उत्तर पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण अंचल पूर्णिया की कहानी है, जिसके एक ओर नेपाल तो दूसरी ओर पश्चिम बंगाल है। इसलिए इसकी राजनीतिक,सामाजिक स्थितियां शेष भारत के गांवों से जरा हटकर है।

रेणु ने स्वयं यह दर्ज भी किया है कि उनकी रचनाओं की पृष्ठभूमि काल्पनिक न होकर यथार्थ पर आधारित है। अपनी कहानियों की भूमिका में वे लिखते हैं – “मैंने भारतीय गांवों में व्याप्त घिनौने-विषाक्त वातावरण का अपनी कहानियों में  यथार्थपरक चित्रण किया है।”[1]

फणीश्वरनाथ रेणु और उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म ‘तीसरी कसम’ के एक दृश्य में राजकपूर और वहीदा रहमान

रेणु ने इस भूमिका में जिन दो कहानियों का ज़िक्र किया है, उनमें “रसप्रिया” और “ठेस” शामिल हैं। कथावस्तु की दृष्टि से दोनों ही बेहतरीन कहानियां हैं और रेणु के कहे के अनुसार ही हैं। लेकिन इन दोनों ही कहानियों के पात्र संयोग से वंचित समुदायों से संबंध रखते हैं जो या तो दलित हैं या फिर पिछड़े वर्ग की शिल्पकार जातियों से हैं। दोनों ही कहानियों के पात्रों का चित्रण ठेठ गंवई पृष्ठभूमि में रचा गया है। यहां विचारणीय पक्ष यह है कि रेणु की सहानुभूति एवं संवेदनाएं इन दोनों कहानियों के पात्रों के साथ होने के बावजूद भी वे उनके चरित्र के साथ पर्याप्त न्याय नहीं करतीं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपनी ही कथा के दलित व पिछड़े वर्ग के पात्रों का नायकत्व स्वीकारना नहीं चाहते। वे उनकी छवि ऐसी गढ़ते हैं कि पाठकों की दृष्टि में ये पात्र कथा का हिस्सा तो हो सकते हैं लेकिन नायक नहीं। कहानी में कहीं वह “ठेस” के “सिरचन” की तरह पेटू, लम्पट और मुंहफट होता है, तो कहीं वह पंचकौड़ी मृदंगिया की भांति अधपगला, चोर, और धोखेबाज़ हो सकता है। वह जाति छिपा कर बिदापत सीखता है और ब्राह्मण की बेटी से प्रेम का नाटक करके उसे छलता है, फिर भाग जाता है …

यानि रेणु जाति-व्यवस्था को तो अपनी इन यथार्थपरक कहानियों में स्थान देते हैं किन्तु कहानी के पात्रों की स्थिति के पीछे के यथार्थ को सामने लाने और उस पर सवाल उठाने से बचते हैं। यही स्थिति उनके द्वारा रचित कहानियों के अनेक दलित-पिछड़े वर्ग के पात्रों की है जिनमें “अग्निखोर” कहानी के “सूतपुत्र” जिसे “हास्य” का पात्र दिखाया गया है तथा “तब शुभ नामे” का पियक्कड़ पगलू जमादार शामिल हैं।

रेणु की कहानियों को पढ़ते हुए पाठकों द्वारा सहज अनुभव किया जा सकता है कि रेणु अपनी कहानियों में स्वयं उपस्थित रहते हैं। वे स्वयं भी इस संग्रह की भूमिका में यह स्वीकारते हुए लिखते हैं कि “मुझसे इससे ज्यादा नहीं बोला गया कि अपनी कहानियों में मैं अपने को ढूंढता हूं; अपने को, अर्थात आदमी को।”[2] यानी रेणु स्वयं को “आदमी” अथवा इंसान मानते हुए अपनी कहानियों में एक नायक की भांति उपस्थित होते हैं। वह भी अपनी आतंरिक “सामंती ठसक” के साथ। लेकिन किसी अन्य पात्र को वे उसकी जातीय सीमा को लांघने का “स्पेस” नहीं देते। शायद यही कारण है कि समाज में उपेक्षित अस्मितावादी साहित्य में यथार्थवादी रचनाकार के रूप में जो स्थान मुंशी प्रेमचंद को प्राप्त है, वह रेणु नहीं प्राप्त कर सके।

यह भी पढ़ें : रेणु के साहित्य में जाति, जमात और समाज

फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां नई कहानी आंदोलन के दौर की कहानियां हैं। मतलब यह कि 1950 व 1960 के दशक की कहानियां। स्वतंत्रता के पश्चात् देश को तो फिरंगियों की गुलामी से आज़ादी मिल गई थी, किन्तु इस देश का एक वृहद् अछूत, अन्त्यज समझा जाने वाला अस्मितावादी वर्ग अब भी देशी सामंतों, जागीरदारों और भूस्वामियों का गुलाम था। जाति व्यवस्था और छुआ-छूत गांव से शहर तक सभी जगह व्याप्त थी और आज भी है। लेकिन देश में संविधान लागू हो चुका था, जिसमें सबकी समानता को मौलिक अधिकार का दर्जा व महत्व दिया गया है। गांधी के विचारों से प्रभावित होकर देश में चलने वाले अछूतोद्धार के अनेक धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों का प्रभाव एवं सहानुभूति स्वरुप अनेक साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में “दलित पात्रों” को स्थान देना प्रारम्भ किया था। यह भी सही है कि अपनी रचनाओं में दलित पात्रों को स्थान देने वाले इन रचनाकारों के भीतर बैठा सामंती संस्कार और जातीय श्रेष्ठता कहीं न कही इनकी संवेदनशीलता और भावबोध को प्रभावित कर इनके साहित्यिक क्षेत्र को बाधित कर देती थी। फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्यिक रचना कर्म भी इसका अपवाद नहीं कहा जा सकता है।

बानगी के तौर पर रेणु अपनी पसंदीदा कहानी “ठेस” में दलित-बहुजन पात्र को नीच दिखाना नहीं भूलते। उनकी इस कहानी का एक पात्र चाची के मुंह से वह कहलवाते हैं कि “छोटी जात के आदमी का मुंह भी छोटा होता है, मुंह लगाने से सर पर चढ़ेगा ही।”

रेणु की कहानियों को दलित साहित्य के वैचारिक धरातल पर परखने के लिए केवल उनके पुरुष पात्रों का विश्लेषण करके किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता। यदि कोई पहुंचने की कोशिश करता है तो वह कोशिश एकपक्षीय ही होगी। उनकी कई ऐसी कहानियां हैं जिनके पात्र दलित, पिछड़े और गैर-दलित स्त्रियां हैं। लेकिन उनकी रचनाओं में जिस तरह दलित और पिछड़े वर्ग के पुरूष पात्र उपेक्षित नजर आते हैं, इन वर्गों की स्त्रियों के साथ भी रेणु न्याय नहीं करते। यह बड़ा अंतर अनायास ही स्पष्ट हो जाता है। यह अंतर जातीय असमानता का है, जबकि रेणु स्वयं कई प्रगतिशील समाजवादी आन्दोलनों से जुड़े रहे। इसके बावजूद उन्हें सामाजिक परिवर्तन के नाम पर “वर्ग भेद” तो स्वीकार्य है लेकिन “वर्ण भेद” नहीं। इस पर प्रकाश डालने के लिए उनके द्वारा लिखी कुछ कहानियों के स्त्री पात्रों पर बात करना प्रासंगिक जान पड़ता है। ये कहानियां हैं – “प्राणों में घुले हुए रंग”, “भित्ति चित्र की मयूरी”, “रसप्रिया”, “अग्निखोर”, “नैना जोगिन”, “एक श्रावणी दोपहरी की धूप”,  “मारे गए गुलफाम” और “सिरपंचमी का सगुन”। इन सभी कहानियों में रचनाकार ने एक स्त्री चरित्र गढ़ा है जो उनकी कहानी को उसके अंजाम तक पहुंचाता है। इन सभी रचनाओं के स्त्री पात्र अपने-अपने स्तर और परिवेश के अनुसार निर्धारित भूमिका में बेहद सटीक नज़र आते हैं। यह रेणु की कहानी कला की विशेषता कही जा सकती है कि उनकी स्त्री पात्र चाहे किसी भी वर्ग अथवा जाति से आती हों वे कमज़ोर नहीं होतीं बल्कि कई बार बेहद मुखर होती हैं। परंतु इन स्त्री पात्रों की चारित्रिक छवि गढ़ते हुए रेणु भी अपने कई समकालीन रचनाकारों की भांति “जातीय पूर्वाग्रहों” को नहीं त्याग पाते, जिनकी स्थापना है कि तथाकथित “निचली जातियों” से आने वाली महिलाएं चरित्रहीन, जाहिल, बदबूदार, बेहया, मुंहफट, चोर और बेईमान होती हैं। वे महिला पात्रों को बिल्कुल ही दीन-हीन, बेबस, मजबूर, लाचार, शोषण और अत्याचार की शिकार पात्र के रूप में दर्शा कर वंचितों के प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त कर वाहवाही बटोरते रहे हैं। हिंदी साहित्य में ये दोनों ही स्थितियां बेहद विचलित कर देने वाली हैं। एक सजग रचनाकार का यह नैतिक और सामाजिक उत्तरदायित्व होना चाहिए कि वह अपने साहित्य सृजन में मानवीय मूल्यों का किसी प्रकार भी ह्रास न होने दे। सामाजिक बदलाव को महसूस कर उसे अपनी रचना के माध्यम से साहित्य में दर्ज़ करे ताकि वह समाज के प्रत्येक वर्ग और जातीय समुदाय के पाठक को उसका अपना साहित्य लगे।

रेणु के संग्रह की कहानियों में एक कहानी है ‘भित्ति चित्र की मयूरी’। इस कहानी में दो स्त्री पात्र हैं। एक मां और एक उसकी बेटी फूलपती। रेणु ने इन्हें बिहार की ‘मधुबनी पेंटिंग’ बनाने वाली किसी स्त्री से प्रभावित हो कर लिखा है। वे दर्शाते हैं कि गांवों में घोर गरीबी में अपना जीवन व्यतीत करती ये दोनों मां-बेटी स्वाभिमान के साथ अपना जीवनयापन कर रही हैं। मां की मधुबनी पेंटिंग शैली से उसे सरकारी इनाम, नाम और शोहरत भी मिली है। इसके बारे में मामी (एक पात्र) कहती है “फूलपती की मां तो गौ है गौ।” वहीं फूलपती के बारे में उसकी राय बिलकुल अलग है। वह कहती है कि “भारी जिद्दी है बचपन से ही।” इस पूरी कहानी में फूलपती एक निर्भीक, मुंहफट, जिद्दी और हाजिरजवाब लड़की है जो घोर गरीबी झेलकर भी अपनी सभ्रांतता का आवरण ओढ़े हुए है। यहां रचनाकार ने इन मां-बेटी की जाति और वर्ण का भी जिक्र नहीं किया है। अवश्य ही वह सवर्ण जाति की रही होंगी। यह बिहार में सर्वविदित है कि मधुबनी चित्र शैली की कलाकारों में भी जातिगत भेदभाव होता है और वहां भी उनके दो वर्ग हैं – उच्च और निम्न।

इसी तरह तरह रेणु की एक अन्य कहानी है “नैना जोगिन”। यह कहानी रेणु की बेहद चर्चित कहानियों में से एक रही है। इसका कारण भी इस कहानी की दो स्त्री पात्र हैं। एक मां ओर एक बेटी। किन्तु ये दलित वर्ग से आने वाली मां और बेटी हैं। जैसा कि रचनाकार का दावा है कि वे अपनी रचनाओं में स्वयं उपस्थित होते हैं तो यहां वे इस कहानी के नायक और सूत्रधार दोनों ही हैं। कहानी के शुरूआती संवादों से लेकर अंत के पूर्वार्द्ध तक “रतनी”, जिसे बचपन में ही लेखक ने नाम दे दिया था “नैना जोगिन” और उसकी मां की छवि ऐसी गढ़ते हैं कि पाठक की नज़र में रतनी और उसकी मां “दलित स्त्रियों” का पर्याय बन जाती हैं। इस कहानी का एक अंश देखें – “मुझे अचानक रमेसर की मां की गन्दी, हल्दी, प्याज़-लहसुन, पसीने-मैल की सम्मिलित गंध भरी साड़ी की महक लगी। लगा, अब रतनी मुझे बेपर्दा करेगी। नंगा करेगी। खुद को उसने पिछले एक घंटे में साठ बार नंगा किया है।”

रतनी के बारे में लेखक खुद कहता है “मैं अब इसे मानसिक विकार मानने लगा हूं। अब तक “सामाजिक” समझ रहा था कि छोटी जात की औरत गांव की मालकिन बनी हुई है!” तभी लेखक बताता है कि उसे उसके पाटीदार के भाई ने स्पष्ट किया कि नहीं सामाजिक भी है। पाटीदार के भाई ने कहा “कोई उसका क्या बिगाड़ सकता है? गांव के सभी किस्म के चोर अर्थात लत्ती-पत्ती और सिन्ना चोर दिन डूबते ही उसके आंगन में इकट्ठे हो जाते हैं। इलाके का मशहूर डकैत परमेसरा रतनी की बात पर उठता-बैठता है।”

लेखक के कहे अनुसार “एक अश्लील और घिनौने मुक़दमे के कारण रतनी की बदनामी बचपन से ही फैलती गई।” दरअसल रतनी की मां लेखक के घर में मेहरी यानि नौकरानी थी। रतनी बचपन में लेखक के घर में ही पली थी। किन्तु बाल शोषण की शिकार होने की शिकायत पूरी पंचायत में निर्भीकता और साहस के साथ करने पर उसे पूरे गाँव ने बेशर्म, बेहया, चरित्रहीन कह कर बदनाम कर दिया। ये सब कुछ जानकर भी लेखक की रतनी के साथ होने वाले अन्याय के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है।

किन्तु रतनी के नि:संतान होने का दुःख उन्हें है, जिसका इलाज कराने के लिए लेखक उसे शहर लेकर आया है। कहानी के अंत तक “रतनी” यानि “नैना जोगिन” कहानी की पात्र हो कर भी कहानी की नायिका नहीं है। वहीं रतनी का इलाज करने के लिए उसे शहर लाकर लेखक अंत में नायक ज़रूर बन जाता है।

कहानी “प्राणों में घुले हुए रंग” में मगहिया डोम जाति की स्त्रियों का चित्रण करते हुए लेखक कहता  हैं “औरतें और बच्चे गांव में भीख मांगते हैं, जवान औरतें बुरा पेशा करती हैं।” (यहां वे किसी पुलिस मित्र की डायरी में लिखी रिपोर्ट के हवाले से बता रहे हैं) लेखक स्वयं कहता है- “गन्दी घागरी वाली औरतें भीख मांगती दिखाई पड़ीं। दूसरी उधर चिल्ला रही थी भीख देबा कि यहीं दरवज्जे पर पेशाब कर दीं?”

इसी कहानी में “एक भद्र परिवार की संतान होकर इस नीच छोकरी पर मर रहे हो। छी: छी :!” जैसे संवाद लिखने के पश्चांत लेखक की सहानुभूति उस दलित स्त्री के प्रति है, जो उसकी कहानी की केवल एक पात्र है, नायिका नहीं, क्योंकि कहानी में केवल नायक है; जो स्वयं रचनाकार है।

अग्निखोर कहानी में लेखक सूतपुत्र की मां आभा रानी के विषय में कहता है “जी! बदबू! उतना सुन्दर सलोना मुखड़ा। सुरीली आवाज़ और मधुर कीर्तन और वैसे मुंह में सड़ी हुई गंध? ओह! आज भी याद करके वोमिट हो जाता है।” दलित-पिछड़ों के प्रति लेखक के इसी तरह के भाव उनकी रचनाओं में व्यक्त हुए हैं। ये सायास हों या अनायास, किन्तु हैं।

दूसरी और आप उनकी बाकी कहानियों की स्त्रियों को देख सकते हैं जो समाज में द्विज, सामंती, कुलीन अथवा सभ्रांत परिवारों की महिलाएं हैं। फिर चाहे वह “रसप्रिया” कहानी की एक सवर्ण स्त्री रमपतिया है, जो बाल विधवा होते हुए गर्भवती हो जाती है, एक अन्य जमींदार नंदू बाबू के साथ भी उसके संबंधें का जिक्र आता है, किन्तु यहां रेणु की दृष्टि में वह स्त्री किसी भी प्रकार से दुश्चरित्र वाली नहीं है। वह गरीब है, अकेली है, किन्तु स्वाभिमानी है। ऐसे ही “संवदिया” कहानी की “बड़ी बहुरिया” जो एक सामंती परिवार की स्त्री है। उसके दुख-दर्द और अकेलेपन से लेखक मर्माहत होता है। “सिरपंचमी का सगुन”  कहानी की  स्त्री “माधो की मां” जो गांव से कई कोस रेलवे मिस्त्री के पास जाती है, अपना टेढ़ा फाल सीधा कराने, किन्तु रेणु उसके चरित्र पर कोई सवाल उठाने नहीं देते। ये सभी महिलाएं चूंकि तथाकथित सभ्रांत जातियों अथवा वर्गों से आती हैं, इसलिए ये गन्दी बदबूदार, अश्लील और चरित्रहीन हो ही नहीं सकतीं। ये महिलाऐं रेणु की कहानियों की पात्र ही नहीं, बल्कि नायिकाएं भी बनती हैं। चाहे कहानी में इनकी उपस्थिति कम समय के लिए ही क्यों न हो। किन्तु दूसरे पात्र की तुलना में ये अधिक सजीव पात्र बन कर सामने आती हैं। बल्कि पुरुष पात्र से भी अधिक मुखर भूमिका में सामने आती हैं।

“मारे गए गुलफाम” रेणु की एक प्रसिद्ध प्रेम कहानी है, जिस पर एक खूबसूरत फिल्म भी बनी “तीसरी कसम”। इस कहानी में रेणु ने ग्रामीण परिवेश के साथ-साथ वहां की संस्कृति, गीत-संगीत, बोली-भाषा का बेहद सुन्दर चित्रण किया है। “महुआ घटवारिन” की कथा में यह और उभर कर सामने आता है लेकिन कहानी का अंत वही दुखांत है। कहानी में महुआ बिक जाती है और “हीराबाई” भी। रेणु शायद एक नाचने वाली कंपनी की बाई के लिए किसी सुखांत की कल्पना ही नहीं कर सकते थे अथवा करना नहीं चाहते थे। दरअसल नाचने-गाने जैसी कला को भी कई दलित जातियों से जोड़ कर देखा जाता है जिन्हे भांड अथवा मिरासी कहते हैं। ये लोग नाच-गाकर, हास्य व्यंग्य द्वारा लोगों का मनोरंजन करके अपनी आजीविका चलाते हैं। किन्तु समाज में स्वयं को सवर्ण सभ्रांत समझने वाले वर्गों की दृष्टि में उनकी ये कला भी उनका एक चारित्रिक दोष बन जाती है। इसलिए इस पेशे से जुडी नारी के चरित्र पर कोई भी अंगुली उठा सकता है। रेणु लोगों के संवादों में हीराबाई को “रंडी जैसी  गाली लिखना और पात्रों से बुलवाना भी नहीं भूलते। “ठीक कहता है। बड़ी नेमवाली रंडी है …कौन कहता है कि रंडी है। दांत में मिस्सी कहां है, पौडर से दांत साफ़ कर लेती है …!”  शायद रेणु की अपनी मान्यता भी नाच-गा कर अपनी आजीविका कमाने वाली स्त्रियों के प्रति यही रही होगी। क्योंकि वे मानते है कि “जाति की बंदिश से कौन बाहर जाएगा?”

अंततः कहा जा सकता है कि “नई कहानी” आंदोलन के दौरान लिखी गई कहानियों में रेणु और उनके समकालीन कथाकारों ने समाज में उत्पीड़ित जाति और वर्गों के प्रति सहानुभूति का भाव तो रखा किन्तु इन जातियों के उत्पीड़न तथा  वर्गीय असमानता के खिलाफ किसी प्रकार का प्रतिरोध दर्ज़ नहीं कर सके। अतः कहा जा सकता है कि मुख्यधारा के  ये साहित्यकार अपनी “जातीय श्रेष्ठता बोध” की परिधि को लांघ कर मानवीय मूल्यों को सहेजने वाले रचनाकार बनने से चूक गए और शायद इसी लिए “दलित साहित्य” के रूप में एक नवीन साहित्यिक धारा ने जन्म लिया जो आज दलित उपेक्षित समाज की मुखर अभिव्यक्ति बनकर समाज में अपना स्थान बना रही है।


[1] रेणु की लोकप्रिय कहानियां,पुस्तक की भूमिका -‘अपनी कहानियों में मैं अपने को ढूंढता फिरता हूँ”

[2] रेणु की लोकप्रिय कहानियां,पुस्तक की भूमिका – ‘अपनी कहानियों में मैं अपने को ढूंढता फिरता हूँ’

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

पूनम तूषामड़

दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो'(हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।

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