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‘फेयर’ शब्द से परहेज एक सकारात्मक शुरूआत

अमेरिका में अश्वेत जार्ज फ्लॉयड की अश्वेत पुलिसकर्मी द्वारा हत्या के बाद विश्व स्तर पर अश्वेतों के पक्ष में आवाजें उठ रही हैं। कुछेक आवाजें भारत में भी सुनाई दे रही हैं। इन उठती आवाजों का भारतीय समाज के सापेक्ष विश्लेषण कर रही हैं पूनम तुषामड़

पूरे विश्व में एक बार फिर ‘रंगभेद’ को लेकर बहस जोरों से उठ रही है। इन बहसों में सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनियां भी शामिल हो गई हैं। भारत में भी सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली एक कंपनी ने अपने लोकप्रिय उत्पाद के नाम से फेयर शब्द हटा दिया है। वहीं शादी डॉट कॉम नामक मैट्रिमोनियल वेबसाइट ने “फेयर” फिल्टर को हटाने का फैसला लिया। इन सबका आधार सतही तौर पर अमेरिकन अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या से उपजे अंतर्राष्ट्रीय विवाद को माना जा रहा है। किन्तु यूरोप में अश्वेतों के साथ होने वाली यह पहली घटना नहीं है, बल्कि इसका एक विस्तृत विवादित इतिहास है। यहां एक और बात पर भी गौर करना ज़रूरी है कि यह विवाद केवल ‘रंगभेद’ के खिलाफ नहीं है। बल्कि यह एक ‘नस्ल’ के खिलाफ उपजा ‘घृणात्मक आक्रोश’ के कारण है, जिसके पीछे शारीरिक संरचना के आधार पर स्वयं को ‘श्रेष्ठतम मनुष्य’ घोषित कर दूसरों को हीन और तुच्छ बताकर गुलाम बनाने की मानसिकता ही रही है।  

यूरोप और अफ्रीकी देशों में ये भेदभाव अश्वेत स्त्री-पुरुष, बच्चे-बड़े सभी के साथ होते हैं। समय-समय पर अश्वेतों के पक्ष में अनेक आंदोलन भी हुए हैं। विस्तार से चर्चा करें तो दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले डच मूल के श्वेत नागरिकों की भाषा अफ़्रीकांस में ‘एपार्थाइड’ का शाब्दिक अर्थ है, ‘पार्थक्य या अलहदापन’। यही अभिव्यक्ति कुख्यात रंगभेदी अर्थों में 1948 के बाद उस समय इस्तेमाल की जाने लगी जब दक्षिण अफ़्रीका में हुए चुनावों में वहां की नेशनल पार्टी ने जीत हासिल की और प्रधानमंत्री डी.एफ़. मलन के नेतृत्व में कालों के ख़िलाफ़ और श्वेतांगों के पक्ष में रंगभेदी नीतियों को कानूनी और संस्थागत जामा पहना दिया गया। ‘नेशनल पार्टी अफ़्रीकानेर’ समूहों और गुटों का एक गठजोड़ थी, जिसका मकसद गोरों की नस्ली श्रेष्ठता के दम्भ पर आधारित नस्ली भेदभाव के कार्यक्रम पर अमल करना था। मलन द्वारा चुनाव के दौरान दिए गए नारे ने ही एपार्थाइड को रंगभेदी अर्थ प्रदान किये। (हरमन गिलिओमी और लारेंस श्लेमर (1989), फ़्रॉम एपार्थाइड टु नेशन बिलि्ंडग, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, कैपटाउन)

दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला (18 जुलाई, 1918 – 5 दिसंबर, 2013)

कालांतर में राष्ट्रपति एफ. डब्ल्यू. डे क्लार्क ने नेल्सन मंडेला और उनके साथियों को जेल से छोड़ा, राजनीतिक संगठनों से प्रतिबंध उठाया और 1992 तक रंगभेदी कानून ख़त्म कर दिये गये। बहुसंख्यक अश्चेतों को मताधिकार मिला। अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) अपना रैडिकल संघर्ष (जिसमें हथियारबंद लड़ाई भी शामिल थी) ख़त्म करने पर राजी हो गयी। सरकार और उसके बीच हुए समझौते के तहत 1994 में चुनाव हुआ जिसमें ज़बरदस्त जीत हासिल करके एएनसी ने सत्ता संभाली और नेल्सन मंडेला रंगभेद विहीन दक्षिण अफ़्रीका के पहले राष्ट्रपति बने। (कविन शिलिंगटन (1987), हिस्ट्री ऑफ़ साउथ अफ़्रीका, लोंगमेन ग्रुप, हांगकांग ) 

भारतीय लोगों के प्रति भी यूरोपियन श्वेतों का यही व्यवहार था। रंगभेद के शिकार स्वयं गांधी भी हुए थे, जब वे दक्षिण अफ्रीका में यात्रा कर रहे थे। तब उन्हें श्वेत अधिकारियों द्वारा “काला” आदमी कह कर जबरन रेलगाड़ी के प्रथम दर्ज़े से उतार दिया गया था, जिसके खिलाफ उन्होंने अफ्रीका में रहकर 7 जून, 1893 को सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में भारतीयों के साथ रंग के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव का विरोध किया था। 

भारत में ‘रंगभेद’ के खिलाफ आंदोलन चेन्नई में सन् 2009 में अन्नू हसन की गैरसरकारी संस्था “वुमन ऑफ़ वर्थ” के द्वारा “डार्क इज़ ब्यूटीफुल” के नाम से हुई। बाद में वर्ष 2013 में अभिनेत्री नन्दिता दास ने इस मूवमेंट को आगे बढ़ाया और इसका नाम  ‘इंडिया गोट कलर’ कर दिया। नंदिता मानती रही हैं कि भारतीय संस्कृति में कोई एक रंग नहीं है, बल्कि वह अनेक रंगों का सम्मिश्रण है। नंदिता दास के साथ इस केम्पेन में अली फैज़ल, राधिका आप्टे ,गुल पनाग, कोंकणा सेन, दिव्या दत्ता, तनिष्ठा चटर्जी, तिलोत्तमा समें, सायानी गुप्ता और सुचित्रा पिल्लई जैसे अनेक नाम शामिल हैं। अभिनेत्री नंदिता दास इस बात को कहती हैं कि महिलाएं ज्यादा हुनरमंद और समझदार होती है और वे हर कार्य को बेहतर ढंग से कर सकती हैं। इसलिए किसी कार्य को करने के लिए रंग का कोई महत्व नहीं होता। इस आंदोलन ने भारतीयों को ‘रंगभेद’ के मुद्दे पर गंभीरता से सोचने को मज़बूर तो किया लेकिन ये आंदोलन पूर्णतः ‘रंगभेद’ पर आधारित होने के कारण होने वाले भेदभाव पर ही सिमट जाता है। जबकि भारत की स्थिति बाकी देशों से भिन्न है। यहां भेदभाव केवल रंग, नस्ल, धर्म, वर्ग और लिंग के आधार पर ही नहीं होता बल्कि जातिगत आधार पर भी होता है। इसका मुख्य आधार ‘वर्णव्यवस्था’ रही है। भारतीय परिवेश में वर्णव्यवस्था को मजबूत करने के लिए ही ‘सुर’ और ‘असुर’ जैसे मिथकों को रचा गया यानि जो ‘गौर वर्ण’ वही सुन्दर हो सकता है। वही श्रेष्ठ हो सकता है। ‘सुर’ यानि देवता और ‘असुर’ यानि दैत्य। एक ही देश एक ही परिवेश में पैदा हुए लोगों को ‘देव’ और ‘दानव’ कहे जाने के पीछे रंगभेद ही मुख्य कारण था, जिसे बाद में वर्णों से जोड़ कर देखा जाने लगा और फिर जातियों से। इसलिए समाज में ‘रंगभेद’ और ‘जाति’ से जुड़े ऐसे बहुत से दोहे है जो इस भेदभाव को स्पष्ट परिलक्षित करते हैं। एक उदाहरण देखें – 

कारा बाह्मन, गौर चमार
इनका संग न, न उतरे पार

यहां पहली पंक्ति का आशय है कि यदि ब्राह्मण काला है तो उसे संदेह कि दृष्टि से देखा जाएगा और दूसरी पंक्ति में दलित यानि चमार जाति का व्यक्ति है और वह गोरे रंग का है तो वह भी संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। इस प्रकार रंग के आधार पर व्यक्ति की जाति का अनुमान लगा कर उसे अपमानित की जाने वाली न जाने और कितनी ही कहावतें और दोहे समाज में सरलता से प्रयोग किये जाते हैं। भारतीय साहित्य और हिंदी सिनेमा की भी रंगभेद को बढ़ाने में महती भूमिका रही है। साहित्य में जहां श्वेत वर्णा सुंदरी/नायिका के रूप की तुलना ईश्वर तक से कर दी गई है, वहीं सिनेमा में ऐसे गीतों का बोलबाला रहा है जहां महिला के गोरे रंग को लेकर ही उसकी तारीफ में कसीदे पढ़ दिए गए। कहीं उसकी तुलना चांद से की गई तो कहीं उसे चांदनी कह दिया गया। काले वर्ण वालों की प्रशंसा के लिए न साहित्य में शब्द हैं और न सिनेमा में कोई स्थान। इस गीत को बानगी के तौर पर देखें – “जिसकी  बीवी गोरी उसका भी बड़ा नाम है, कमरे में बिठा दो, बिजली का क्या काम है …”

बॉलीवुड की कला और फीचर फिल्मों की कलाकार स्मिता पाटिल एक दृश्य में

पिछले महीने सिने अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने 17 जुलाई को बॉलीवुड में उनके साथ हुए भेदभाव के बारे में ट्विटर पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि “मुझे यह अहसास कराने के लिए धन्यवाद कि मैं काला और बुरा दिखता हूं, इसलिए गोरी और खूबसूरत लड़कियों के साथ मेरी जोड़ी नहीं बन सकती। लेकिन इस बात को मैंने कभी अहमियत नहीं दी।” इसके बाद बॉलीवुड के कई दिग्गजों ने नवाजुद्दीन के समर्थन में कहा कि यह भेदभाव केवल फिल्म उद्योग में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में है। (न्यूज़ लहर राष्ट्र, मुंबई ,23 जुलाई, 2020 ) 

फिल्म अभिनेत्री एवं नंदिता दास ने नवाज़ुद्दीन सिद्दकी के पक्ष में कहा कि “हमारे चारों तरफ गोरी त्वचा वाली महिलाओं और पुरुषों की तस्वीरें हैं। चाहे फिल्में हों, टेलीविजन हो, पत्रिकाएं या विज्ञापन हर जगह गोरे लोग हैं, जबकि हमारे देश की जनता में ज्यादातर काला रंग ही पाया जाता है।” उन्होंने आगे कहा कि “त्वचा देखभाल से जुड़े हर उत्पाद में त्वचा को गोरा करने वाला तत्व होता है, या फिर इसके होने की बात कही जाती है। काली त्वचा वालों को अक्सर यह महसूस कराया जाता है कि वे अपूर्ण हैं और ऐसा बचपन से ही होता है। मैं नवाजुद्दीन के करियर में आई चुनौतियों को समझ सकती हूं।” (न्यूज़ लहर राष्ट्र, मुंबई, 23 जुलाई, 2020)

पुरुषों की अपेक्षा भारत में महिलाएं रंगभेद की ज़्यादा शिकार होती हैं। इसका कारण उपनिवेशवादी देशों में तेजी से बढ़ता पूंजीवाद और बाज़ारवाद है, जो समाज में तरह-तरह के ‘सौन्दर्य प्रसाधनों के’ उद्योग को बढ़ावा देने के लिए लुभावने विज्ञापन तैयार कराकर रंगभेद की असमानतावादी सोच को बढ़ावा देता है। बाजार में बिकने वाली हर महंगी क्रीम पर यह दावा किया जाता है कि वह आपको कुछ ही दिनों में गोरा और सुन्दर बना देगी। सारा का सारा कॉर्पोरेट जगत और मीडिया भी इस प्रकार की मानसिकता का भरपूर पोषण करता नज़र आता है। कॉर्पोरेट्स द्वारा तय किये गए सौन्दर्य के इन्ही मापदंडों के कारण महिलाओं में सुन्दर और गोरी दिखने की प्रतिस्पर्धा जन्म लेती है। मल्टीनेशनल कम्पनियों और संस्थानों में नौकरी करने के लिए आपके पास शैक्षणिक योग्यता, अनुभव और कार्य कौशल अथवा दक्षता से कहीं ज्यादा आपका रंग-रूप और सौन्दर्य महत्त्व रखता है। पितृसत्तात्मक समाज में दलित-बहुजन महिलाएं इसकी तिहरी शिकार होती हैं। लैंगिक रूप से, जातिगत कारणों से और अपनी शारीरिक संरचना और रंगरूप के कारण उन्हें बार-बार यह अहसास कराया जाता है कि वे इस बेहद लुभावने बाज़ारवाद की संस्कृति का हिस्सा नहीं बन सकती हैं। इतना ही नहीं शादी-विवाह के मामले में भी पुरुष को महिला सुन्दर और गोरी चाहिए ताकि उसकी संतान भी गोरी और सुन्दर हो। पुरुष के लिए ऐसे कोई मापदंड तय नहीं किये गए हैं। अभिनेत्री तापसी पन्नू ने हाल ही में कहा कि, “हम रंग के इतने भूखे हैं कि गोरे होने वाली क्रीम बेचते हैं। हमारे वैवाहिक विज्ञापनों के स्तंभो में अभी भी त्वचा के रंग का उल्लेख किया जाता है।” (न्यूज़ लहर राष्ट्र, मुंबई, 23 जुलाई, 2020) 

यह भी पढ़ें : भारत के वंचितों में क्यों नहीं बनती अमेरिकी अश्वेतों के जैसी एकजुटता?

यही कारण है कि तमाम तरह कि प्रतिभाओं और गुणों से दक्ष होकर भी दलित-बहुजन महिलाएं समाज के प्रतिष्ठित पदों का हिस्सा नहीं बन पातीं। दलित आदिवासी, पिछड़े वर्गों से आने वाली महिलाओं को उद्योग जगत इस प्रतिस्पर्धा का हिस्सा नहीं मानता और तमाम गुणों के बावजूद उन्हें उत्पीड़न, उपेक्षा, तिरस्कार और मानसिक तनाव का शिकार होना पड़ता है। कई बार तो मानसिक तनाव और हीनता बोध इतना गहरा होता है कि ये महिलाएं आत्महत्या तक कर लेती हैं। भारत में रंगभेद के साथ-साथ जातिभेद और क्षेत्रवाद (खासकर दक्षिण और पूर्वोत्तर के लोगों के प्रति घृणास्पद सोच) के खिलाफ भी जमीनी अभियान की ज़रूरत है। जब तक जातिव्यवस्था, लिंगभेद और क्षेत्रवाद जैसी मानसिकता पर प्रहार नहीं किया जाएगा तब तक रंगभेद की मानसिकता को समाप्त कर पाना भी असंभव है। 

परंतु, इन सबके बीच भी कुछ सकारात्मक चीज़ें समाज में आंशिक रूप से ही सकारात्मक बदलाव की और संकेत कर रही हैं। ‘फेयर एन्ड लवली’ नामक सौन्दर्य क्रीम बनाने वाली कंपनी यूनिलीवर ने अपनी इस क्रीम का नाम बदल कर ‘ग्लो एन्ड लवली’ कर दिया है। किन्तु सौन्दर्य प्रसाधनों के नाम में आने वाले ये बदलाव सौन्दर्य के प्रतिमानों को बदलने में कितने सहायक होंगे कहा नहीं जा सकता। वजह यह कि भारतीय समाज में उजले का प्रभाव इसकी बुनियाद में शामिल है, जिसका आधार चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था है। इसका खात्मा आवश्यक है।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

पूनम तूषामड़

दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो'(हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।

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