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शिबू सोरेन : चिंगारी से मशाल बनने की कहानी

दिशोम गुरू शिबू सोरेन तीसरी बार राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए हैं। संसद में उनकी मौजूदगी से देश को आदिवासी समुदाय की आवाज़ सुनने को मिलेगी। जनार्दन गोंड बता रहे हैं उनके जीवन की कहानी - कैसे बचपन में दिकुओं ने उनके पिता का साया उनसे छीना और कैसे शिबू सोरेन ने कभी न भूलने वाले राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की आधारशिला रखी

एक पत्रकार से बात करते हुए शिबू सोरेन ने कहा था, “तुम एक कहानी की बात करते हो जबकि कहानियां ही कहानियां हैं मेरे जीवन में”। जब वे यह कहते हैं तब सच ही कहते हैं। जिस तरह से चट्टानें हजारों साल का इतिहास अपने सीने में संजोये रखती हैं उसी तरह दिशोम गुरू का जीवन किस्सों-कहानियों और असंख्य दुखों से रंगा हुआ है। 

एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व

चादर में बच्चे को
पीठ पर लटकाए
धान रोपती पहाड़ी स्त्री
रोप रही है अपना पहाड़ सा दुख
सुख की एक लहलहाती फसल के लिए

इससे पहले कि मैं दिशोम गुरू की जीवन गाथा आपसे साझाा करूं, मैं आपको झारखंड के प्रति अपने लगाव के बारे में कुछ बताना चाहता हूं। उपरोक्त पंक्तियां निर्मला पुतुल की हैं और जब कभी झारखंड की बात होती है उनकी ये पंक्तियां जेहन को ऐसे कुतरने लगती हैं जैसे भूख से व्याकुल चुहिया कुतरने लगती है किसी  सड़ते चमरौधे जूते को। कविता की बांह पकड़े सैकड़ों संघर्ष याद आने लगते हैं, जो अपनी माटी, पहाड़, पेड़, पानी और जिंदगी की हिफ़ाजत में लड़े गए । हजारों कविताएं बादल बन कर आकाश को ढंक लेती हैं। याद आने लगते हैं सिदो-कान्हु, तिलका मांझी, बिरसा और तानाजी भगत और याद आने लगती हैं सिनगी दई। अपनी धरती की हिफ़ाजत के लिए आदिवासियों की अनगिनत शहादतों से मस्तिष्क में उजास फैलने लगता है। 

मैं स्वयं उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले का रहने वाला हूं लेकिन झारखंड मुझे अपना दूसरा घर लगता है। वहां की हर हलचल अपनी जान पड़ती है। अबकी फरवरी नेतरहाट जाते समय कई साथियों से मुलाकात हुई मेरी। बिरसा की इस भूमि का आकर्षण ही कुछ और है। हम आदिवासियों के लिए झारखंड की माटी, वहां के लोग और वहॉ के राजनेता हमेशा से आकर्षित और प्रेरित करने वाले रहे हैं। ऐसे में अभी बीते शुक्रवार अर्थात 19 जून को राज्यसभा चुनाव का परिणाम आया और पता चला कि  गुरुजी अर्थात शिबू सोरेन राज्यसभा का चुनाव जीत गए हैं।

दिशोम गुरू शिबू सोरेन

हालांकि दिशोम गुरू से मेरा कभी मिलना नहीं हुआ परंतु उनका संघर्ष मुझे हमेशा प्रेरित करता है। उनकी सादगी विरल लगती है। उनकी आंखें अभी भी उतनी ही सपनीली हैं जितनी पहले हुआ करती थीं। बदलाव के तमाम झंझवातों और दबावों में वे आज भी कई मायनों में पहले जैसे ही हैं। एक व्यक्ति और एक राजनेता के रूप में उनके जीवन में इतने उतार-चढ़ाव आए हैं कि कभी-कभी आश्चर्य होता है कि इतना सब कुछ एक ही व्यक्ति के साथ घटित कैसे हो पाया। उनके एक जीवन में कई जिंदगियों की कहानियां सांस ले रही हैं। उनका जीवन फिल्म और उपन्यास के लिए उपयुक्त है। हालांकि ‘समर शेष है’ और ‘रेड जोन’ जैसे उपन्यास (लेखक विनोद कुमार) लिखे जा चुके हैं फिर भी साहित्यकारों के लिए दिशोम गुरू अभी भी जिंदा इतिहास के एक ऐसे पात्र हैं, जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व के कई पहलुओं पर लिखा जाना अभी बाकी है। जयपाल सिंह मुंडा से लेकर शिबू सोरेन तक भारत की राजनीति, दलित और आदिवासी नेताओं के लिए हमेशा दुरूह रही है। उनकी अगवानी हमेशा जटिल परिस्थितियों ने की है। राजनीति में आने के बाद दिशोम गुरू को भी तमाम जटिल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। मगर उन्हें राजनीति में लाने के लिए वही परिस्थितियां जिम्मेदार हैं, जिन्होंने उनका बचपन कांटों से भर दिया था।     

बचपन में दिकुओं ने छीना पिता का साया 

रांची से लगभग सौ किलोमीटर दूर गोला से एक पतली-सी सड़क पहाड़ों पर ऐसे डोलती जाती है जैसे नागिन। यह सड़क जहां खत्म होती है, वहीं एक गांव है – नेमरा। वहीं एक छोटा-सा रेलवे स्टेशन हैं, जिसका नाम है – बड़गल्ला। इसी नेमरा में शिबू सोरेन का जन्म हुआ था। नेमरा गांव, विशालकाय चंदू पहाड़ के बीच बसा हुआ है। गांव के आसपास महाजनों–बनियों की अजगर सी कतारें फैली हुई हैं। चंदू पहाड़ से शिबू सोरेन का बड़ा गहरा नाता है क्योंकि इसी पहाड़ांचल में उनके पिता सोबरन मांझी की समाधि है, जिनकी महाजनों और बनियों ने 27 नवंबर, 1957 को हत्या कर दी थी। 

सोबरन मांझी, जोतीराव फुले की तरह निडर और शिक्षा प्रेमी अध्यापक थे। वे अपने समुदाय के लोगों को हड़िया या सल्फी (देसी शराब) पीने से रोकते थे। पढा-लिखा आदिवासी महाजनी सभ्यता को आज भी खटकता है; पहले भी खटकता था। सोबरन मांझी की रूचि राजनीति में भी थी और वे अपने आसपास के आदिवासियों को अंधविश्वास से दूर करने का प्रयास भी कर रहे थे। उन्हें (सोबरन मांझी) अपने संथाल भाइयों की गुरबत परेशान करती थी। वे जानते थे कि जब तक हमारे अपने दारू पीना बंद नहीं करेंगे तब तक उनका भला नहीं हो सकता। इनकी जमीनें और इनके घर की इज्जत की सबसे बड़ी दुश्मन हंड़िया है। दूसरी तरफ, महाजन लोग, आदिवासियों को कर्ज देकर एक का डेढ़ वसूलने में लगे हुए थे। कर्ज़ न चुका पाने की स्थिति में वे उनकी जमीनें हड़प लेते थे और आसपास महुआ लगवाकर लोगों को दारू का लती बनाने में लगे हुए थे। गाफिल आदिवासी अपनी जमीनें खोकर अपनी ही जमीन पर मजदूरी करने को मजबूर हो रहे थे। आदिवासी किसान, मजदूर बनते जा रहे थे और बिना काम किये सूदखोर जातियां दिन दर दिन अमीर होती जा रही थीं।  

यह भी पढ़ें : अब आदिवासी अपने शत्रुओं की पहचान कर सकते हैं : शिबू सोरेन

सोबरन मास्टर अपने समाज को समझाने में सफल हो रहे थे। उनकी सफलता महाजनों को पच नहीं पा रही थी। इसलिए वे सोबरन मास्टर के आने–जाने पर नज़र रखने लगे। कई दिन की रेकी के बाद 27 नवंबर, 1957 का वह दिन आ गया, जिस दिन अलसुबह सोबरन मांझी अपने दोनों बेटों राजाराम और शिबू, जो गोला के एक हॉस्टल में रहकर पढ़ते थे, को राशन, गुड़ और चूड़ा पहुंचाने के लिए निकले। महाजनों ने चंदू पहाड़ी के पास सोबरन मास्टर का कत्ल कर दिया। उस समय शिबू लगभग बारह साल के थे। पिता के कत्ल ने उनके जीवन को बदल कर रख दिया। 

पति के कातिलों को सजा दिलाने के लिए सोनामणि (शिबू सोरेन की मां) कानून के दरवाजे-दरवाजे भटकती रहीं। साथ-साथ मेहनत करके बच्चों को पालती भी रहीं। साल पर साल बीतते गए मगर सोबरन मांझी के कातिलों को सजा नहीं मिली।

चिंगारी से जली मशाल

इस पूरी घटना का किशोर शिबू सोरेन पर गहरा प्रभाव पड़ा। थोड़ा बड़ा होते ही शिबू सोरेन ने दुश्मनों को नहीं बल्कि दुश्मनी पैदा करने वाली व्यवस्था अर्थात महाजनी सभ्यता को समाप्त करने के लिए ‘धनकटनी आंदोलन’ छेड़ दिया और आदिवासियों के मन में यह बात बिठा दी कि जल-जंगल-जमीन पर उनका प्राकृतिक अधिकार है। इस आंदोलन ने महाजनी सभ्यता की नींव को खोखला कर दिया। साथ ही साथ धरती की लूट से बचाने वाले दूसरे आंदोलन (कोयलांचल की कोयला माफिया के खिलाफ लड़ाई) भी इस आन्दोलन से जुड़ते चले गए। एक महाआंदोलन खड़ा होने से महाजनी सभ्यता की नुमाइंदगी करने वाले परेशान हो गए। इसी क्रम में बिनोद बिहारी महतो और ए.के. राय से भी मिलना हुआ। झारखंड की भूमि की लूट को रोकने के लिए सांगठनिक प्रयास के रूप में सन् 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का जन्म हुआ।

पोखड़िया आश्रम की खामोशी आज भी बुलाती है                    

पहाड़ पर गुमसुम बैठे
पहाड़ी आदमी के चेहरे पर दिख रहा है
पहाड़ का भूगोल
उसके भीतर चुप्पी साधे बैठा है
पहाड़ का इतिहास

अगर कभी चंदू या कभी टुंड्री जाना हुआ तो निर्मला पुतुल की ये पंक्तियां जरूर आपके साथ हो लेंगी। आप जब टुंडी जाएंगे तो हो सकता है कि राजमहल की पहाड़ियों पर बैठा आदिवासी आपको इस कविता का नायक लगने लगे, क्योंकि यही वह जमीन है, जहां से झारखंड मुक्ति मोर्चा की शुरूआत हुई और शिबू सोरेन जननायक के रूप में उभरे। इतना ही नहीं, इसी मिट्टी ने उन्हें दिशोम गुरू बनाया। 1972 के पहले यहां का पूरा क्षेत्र महाजनों के चंगुल में कराह रहा था। आदिवासियों और खेतिहर कुर्मियों-कोयरियों की हालत खराब थी। भूख और रोग की फसल पूरे क्षेत्र में लहलहा रही थी। इन परिस्थितियों के बीच झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ था। दिशोम गुरू पार्टी के महासचिव बनाए गए थे। अपने संबोधन में उन्होंने कहा था – “मुझे झारखंड मुक्ति मोर्चा का महासचिव बनाया गया है। पता नहीं मैं इस योग्य हूं भी या नहीं। लेकिन मैं अपने मृत पिता की सौगंध खाकर कहता हूं कि शोषणमुक्त झारखंड के लिए अनवरत संघर्ष करता रहूंगा। हम लोग दुनिया के सताए हुए लोग हैं। अपने अस्तित्व के लिए हमें लगातार संघर्ष करते रहना पड़ा है। हमें बार-बार अपने घरों से, जंगल से और जमीन से उजाड़ा जाता है। हमारे साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता है। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ किया जाता है। दिकुओं के शोषण, उत्पीड़न से परेशान होकर हमारे लोगों को घर-बार छोड़कर परदेस में मजूरी करने जाना पड़ता है। हरियाणा-पंजाब के ईंट के भट्ठों में, आसाम के चाय के बागानों में, पश्चिम बंगाल के खलिहानों में मांझी, संथाली औरतें, मरद मजूरी करने जाते हैं, वहां भी उनके साथ बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार किया जाता है। यह बात नहीं कि हमारे घर, गांव में जीवनयापन करने के साधन नहीं, लेकिन उन पर बाहर वालों का कब्जा है। झारखंड की धरती का, यहां की खदानों का दोहन कर, उनकी लूट–खसोट कर नए शहर बन रहे हैं। जगमग आवासीय कालोनियां बन रही हैं और हम सब गरीबी-भूखमरी के अंधकार में धंसे हुए हैं। लेकिन अब यह सब नहीं चलेगा। हम इस अंधेरगर्दी के खिलाफ संघर्ष करेंगे।” (टुंडी द्वारा विनोद कुमार, पृष्ठ -40)

दिशोम गुरू नें आदिवासी समाज के लिए धनकटनी आंदोलन के माध्यम से सूदखोरी करने वाले महाजनों से बहुत सारी जमीनों को अर्जित कर लिया। लहलहाती फसलों को काटकर आश्रम में रखा जाने लगा। सभी को काम और सभी को आराम के सिद्धांत पर सामुदायिक खेती शुरू की गई। लोगों को काम के साथ–साथ पढ़ाया भी जाने लगा। रात्रिकालीन स्कूलों की स्थापना से आदिवासियों को अक्षर ज्ञान दिया गया। औरतों की हाथों के हुनर को निखारने के लिए उन्हें मौका दिया जाने लगा। रचनात्मक होने के कारण झामुमो का कारवां विशाल होता जा रहा था। परंतु बड़ी राजनीतिक परिघटना के घटित होने के पहले ही 26 जून, 1975 को पूरे देश में आपातकाल लगा दिया गया, जिसका असर झामुमो और गुरूजी पर भी पड़ा। 

आपातकाल और शिबू सोरेन

आपातकाल ने मोर्चे को उसी तरह डंस लिया, जिस तरह बाढ़ के पानी के सहारे घर में घुस आया सांप घर की संचालन शक्ति अर्थात घरनी को डंस लेता है और बिना किसी कसूर के घरनी मारी जाती है तथा घर अनाथ हो जाता है। 

घटना का बाढ़ से संबंध नहीं है
लेकिन बाढ़ के वक्त ही घटा था यह
जब सांप ने मुझे काटा
(बोडो कवयित्री अंजली बसुमतारी की कविता ‘बेहुला की मत्यु’ से, वागर्थ, जनवरी-फरवरी 2020)

मोर्चे के आंदोलन के कारण महाजनों से टकराहट होती रहती थी। दुश्मनों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी और इसी बीच चिरूडीह कांड हो गया, जिसमें कई आदिवासियों के साथ महाजनों के पक्ष के दर्जन भर आदमी मारे गए, जो अल्पसंख्यक समुदाय से थे। इसके साथ – साथ शिबू सोरेन दूसरे कई मामलों में आरोपी हो चुके थे। वे दिन प्रतिदिन कानून के शिकंजे में फंसते चले जा रहे थे। कुछ खबरों की मानें तो उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने तक की बात भी प्रशासन में उठने लगी थी। मोर्चे द्वारा किए जा रहे आंदोलनों, जिसमें उनके कई साथी मारे गए थे से, वे लगातार कमजोर महसूस करते जा रहे थे। 

आपातकाल के दौरान पूंजीवाद और महाजनी सभ्यता के लोग अवसर का इस्तेमाल तमाम जनवादी संगठनों को मिटाने में करने लगे थे। प्रशासन से उनको किसी न किसी रूप में सहयोग मिल रहा था। वे शिबू सोरेन को रोकना चाहते थे। इसी क्रम में के.बी. श्रीवास्तव को उपायुक्त बनाकर धनबाद भेजा गया। श्रीवास्तव के कहने पर एवं साथियों की मौत और मोर्चे के बिखरते भविष्य को देखते हुए उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। कुछ दिन धनबाद जेल में रखने के बाद उन्हें मुक्त कर दिया गया। रिहाई की इस घटना पर विनोद कुमार कहते हैं, “शिबू सोरेन की मुक्ति नाटकीय अंदाज में हुई। एक रात धनबाद जेल का सायरन बज उठा और सोरेन को जेल से निकालकर एक बख्तरबंद गाड़ी में किसी अज्ञात स्थल पर ले जाया गया। इंदिरा गांधी और संजय गांधी के करीबी बिहार के एक शीर्ष नेता से उनकी लंबी बातचीत हुई और उसके बाद उन्हें मुक्त कर दिया गया।” (टुंडी द्वारा विनोद कुमार, पृष्ठ -54)

शिबू सोरेन से उम्मीदें बरकरार

जेल से मुक्त होकर वे मुख्यधारा की राजनीति में हिस्सा लेने लगे। सार्वजनिक राजनीति में रहते हुए उन्हें अपने बड़े बेटे दुर्गा सोरेन को खोना पड़ा। उनकी राजनीति का दायरा बढ़ा और वे केंद्र में मंत्री भी बनाए गए। फिर दो-दो बार झारखंड के सीएम भी बने। लेकिन कोर्ट-कचहरी के बढ़ते तामझाम और थकान की उम्र पर पहुंच रहे पिता को सहयोग देने के लिए हेमंत सोरेन को अभियांत्रिकी की पढ़ाई छोड़कर पिता का साथ देना पड़ा और इसी क्रम में उनका (हेमंत सोरेन का) राजनीति में आना हो पाया।   

अपने पिता शिबू सोरेन के साथ झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन

बहरहाल, शिबू सोरेन कई बार लोकसभा के सदस्य के रूप में देश की सेवा कर चुके हैं। इस बार वे  तीसरी बार राज्यसभा पहुंचे हैं। यह  एक सकारात्मक समाचार है, जिससे संसद में हाशिए पर पड़े इस समाज की आवाज बुलंद होने की संभावना को बल मिलता है। 

(संपादन : नवल/अमरीश)


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जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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