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तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ को पढ़ते हुए

अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में डॉ. तुलसीराम ने एक साथ दो पीड़ाओं की अभिव्यक्ति की है। इनमें से एक तो जातिगत भेदभाव जनित पीड़ा है जो उन्हें समाज में झेलनी पड़ी। वहीं दूसरी पीड़ा उनके एक आंख के चले जाने के बाद झेलनी पड़ी। खास यह कि यह पीड़ा देने वालों में उनका अपना परिवार भी शामिल रहा जो उन्हें ‘कनवा’ कहकर संबोधित करता था। बता रही हैं संध्या कुमारी

डॉ. तुलसीराम (1 जुलाई, 1949 – 15 फरवरी, 2015) पर विशेष

आंबेडकरवादी साहित्य में आत्मकथाओं का विशेष महत्त्व है। इसमें जातीय दंश, शोषण, दमन एवं उत्पीड़न की शर्मनाक और अंतहीन कहानियां चित्रित हुई हैं। इसके माध्यम से दलित बुद्धिजीवियों ने अपने समाज में भोगे हुए यथार्थ को शब्दबद्ध करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इस तरह वह न केवल समाज को आईना दिखाने का कार्य करता है अपितु अपनी पीड़ाओं से मुख्यधारा को अवगत भी करता है साथ ही समाज को जागरूक बनाता है। 

यद्यपि उपन्यास एवं कहानी यथार्थ नहीं होता है परन्तु समाज से प्रभावित होकर ही साहित्य के पात्रों की पृष्ठभूमि रखी जाती है। इसलिए पाठक वर्ग साहित्य में अपनी तस्वीर देखता है। परन्तु जहां तक साहित्य की अन्य गद्य विधाएं, जैसे आत्मकथा पूर्ण रूप से लेखक के जीवनानुभवों पर आधारित होने के कारण यर्थाथ से संपृक्त होता है। हिन्दी में ऐसी आत्मकथाएं बहुत हैं। दो आत्मकथाएं ऐसी हैं जिनका संबंध विकलांगता से है। मुर्दहिया (प्रो. तुलसीराम) तथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ (डाॅ. धर्मवीर), इन दोनों आत्मकथाओं का संबंध विकलांगता के साथ-साथ दलित समाज से भी है। इन दोनों आत्मकथाओं में मूल अन्तर यह है कि ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ जहां डाॅ. धर्मवीर के वैवाहिक जीवन के आस-पास घूमती है, वहीं ‘मुर्दहिया’ भारतीय ग्रामीण परिवेश और लोक संस्कृति का भी अवलोकन करती है, साथ ही दलित जीवन की विविध विसंगतियों का भी विश्लेषण प्रस्तुत करती है।

‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ में जारकर्म में लिप्त पत्नी से परेशान और उससे मुक्ति के लिए तलाक की प्रक्रिया की पेचदगियाँ में फंसे व्यक्ति की व्यथा-कथा का विस्तृत ब्योरा प्रस्तुत किया गया है। ‘अपाहिजों के साथ क्रूरता’ के प्रसंग में लेखक ने पूर्णचंद वत्स की बातों का हवाला देते हुए लिखा है ‘‘आप एक अपाहिज हो, यह अच्छा हुआ कि आपके पास प्रशासनिक सत्ता है और आप विद्वान हो, नहीं तो यह दो पैर वालों का समाज आपको भी हेय दृष्टि से देखता है। यह हर किसी अपाहिज को अछूत से ज्यादा अछूत मानता है।’’

धर्मवीर ने अनेक विकलांग व्यक्तियों का जिक्र किया है जो अपनी पत्नियों के द्वारा सताये जाते हैं। घरेलू हिंसा की शिकार सिर्फ स्त्रियां ही नहीं होतीं, विकलांग पुरूष भी सकलांग पत्नी के द्वारा घरेलू हिंसा झेलने को अभिशप्त हो जाता है।

आत्मकथाओं में ‘मुर्दहिया’ को विशिष्ट महत्त्व प्राप्त हुआ है। पूर्वी उत्तर प्रदेश या पूरे देश में जातिगत व्यवस्था में निम्न जाति के लोगों के प्रति कैसा भाव रहा है, सामाजिक ढांचे में उन्हें किस प्रकार से दोयम दर्जे का माना जाता रहा है, उसका मार्मिक चित्रण तुलसीराम ने अपनी आत्मकथा में किया है। कई स्थान पर वे सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करते हैं, तो कई स्थान पर उसका विशद वर्णन करते हैं। पुस्तक की भूमिका में वे स्वयं कहते हैं, ‘‘ हमारे गांव की ‘जिओ पाॅलिटिक्स’ यानी भू-राजनीति में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केंद्र जैसी थी। जीवन से लेकर मरण तक की सारी गतिविधियाँ मुर्दहिया समेट लेती थी। सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुर्दहिया मानव और पशु में कोई फर्क नहीं करती थी।”

‘मुर्दहिया’ उपन्यास का कवर पृष्ठ तथा डॉ. तुलसीराम की तस्वीर

प्रायः सभी दलित आत्मकथाओं में दलितों के साथ सवर्णों के दुर्व्यवहार की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। ‘मुर्दहिया’ में एक प्रकार की तटस्थता का अहसास होता है। इसमें जहां सवर्णों के दुर्व्यवहार, दुत्कार और शोषण का चित्रण हुआ है वहीं सवर्णों से मिलने वाले आत्मीयता, सद्भावना, प्यार, प्रोत्साहन और मदद का भी उल्लेख हुआ है। दूसरी ओर लेखक ने अपने परिवार में मिलने वाले उपेक्षा और तिरस्कार को भी बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत किया है। जाति दंश से किसी भी रूप में कम नहीं है परिवार से मिलने वाली प्रताड़ना जिसका लक्ष्य लेखक की विकलांगता है। जिस तरह किसी भी जाति में जन्म लेने से न कोई महान बन जाता है न कोई हीन, उसी प्रकार विकलांगता की चपेट में आने वाला व्यक्ति भी आम इंसान ही होता है। आखिर ऐसी सामाजिक अवधारणा का मूल आधार क्या है जिसमें एक तरफ सवर्ण अपने जातीय अहंकारवश दलितों को अपमानित करता है, दूसरी ओर दूसरों से अपमानित होने वाला वर्ग अपने से किसी भी प्रकार कमतर व्यक्ति को अपमानित करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। हर व्यक्ति शोषक की भूमिका निभाने में स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।

तुलसीराम की आत्मकथा के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सामान्य रूप से विकलांगता एक शारीरिक व्याधि है, जो किसी भी व्यक्ति में हो सकती है जन्म से या जन्म के बाद। विकलांगता में मुख्य रूप से शारीरिक विकलांगता को ही माना जाता है। यद्यपि सम्पूर्णता तो किसी में भी नहीं हो सकती। पूर्णता-अपूर्णता तो दो भिन्न अर्थ रखते हैं, परन्तु मनुष्य का संपूर्ण वजूद उसके संपूर्णता का परिचायक है। अतः किसी व्याधि के चलते एक मनुष्य के सम्पूर्ण वजूद को अपूर्ण मान लेना उस अभिशप्त मानसिकता का परिचायक है जिसके चलते विकलांगों को असामाजिक व्यवहार का सामना करना पड़ता है।

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भारतीय ग्रामीण समाज में अंधविश्वास इतना अधिक है कि बीमारियों का संबंध भूत-प्रेत और दैवी-प्रकोप से जोड़ा जाता है और उसके इलाज के लिए झाड़-फूंक, गंडे-ताबीज, पूजा-पाठ का सहारा लिया जाता है। चेचक को देवी का प्रकोप माना जाता है और उसके इलाज के लिए पूजा-पाठ का सहारा लिया जाता है। इसके दुष्परिणाम से कई बच्चों  की या तो मौत हो जाती है या फिर ऐसी विकलांगता के शिकार हो जाते हैं जिसका इलाज संभव था। ‘मुर्दहिया’ के आरंभ में ही लेखक ने लिखा है -‘‘मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत है।’’ जिस समाज में थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे लोगों में इतना अंधविश्वास है, वहां नारी और अनपढ़ दलित में अंधविश्वास का होना स्वभाविक ही है। लेखक की दाईं आंख इसी अंधविश्वास की बलि चढ़ जाती है। चेचक की बीमारी से ग्रस्त लेखक के इलाज के लिए तरह-तरह से देवी मां की पूजा-अराधना की जाती है। ओझा कभी स्पष्ट न होने वाले कथित मंत्रों को बड़बड़ाते तथा लौंग तोड़ते हुए झाड़-फूंक करता तथा नीम की टहनी को पूरी देह पर फेरते हुए इलाज करता। दादी कंडे की आग में घी डाल-डालकर ‘जय चमरिया माई’ कहते हुए अगियारी करती।

‘मुर्दहिया’ एक आत्मकथा के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक तथा लोकसंस्कृति का आख्यान भी प्रस्तुत करती है। मुर्दहिया की पहली पंक्ति कि ‘मूर्खता मेरी जन्तजात विरासत थी’ से स्पष्ट है कि यहां गरीबी, अंधविश्वास और अशिक्षा का घनिष्ठ संबंध रहा है। यद्यपि इस विरासत का जिक्र आत्मकथाकार ने केवल दलित समुदाय के लिए किया है, जबकि अंधविश्वास और अशिक्षा सवर्ण-अवर्ण दोनों समाजों में व्याप्त है। यह आत्मकथाकार की इस उक्ति से स्पष्ट होता है – “मेरे गांव में मेरे अलावा कई अन्य व्यक्ति भी अपशकुन की श्रेणी में आते थे। एक थे करीब अस्सी वर्ष के बूढ़े ब्राह्मण जंगू पाण्डे। वे जीवनपर्यन्त कुंआरे रह गए थे, उनका अपना कोई नहीं था।” उनके आते ही विभिन्न परिवारों में खलबली मच जाती थी। नई-नई बहुओं को लोग घर के अन्दर ही रहने के लिए हिदायत देते रहते थे। लोगों का मानना था कि जंगू पाण्डे की निगाह पड़ते ही बहुओं का अनिष्ट हो जाएगा। सम्भवतः वे निर्वंश हो जाएंगी।

हमारे समाज के इंसाानों की संवेदनहीनता की तुलना लेखक ने व्यंग्यात्मक रूप से जानवरों से की है – “किसी जानवर ने भूल से भी अपनी दबी आंख से मुझे नहीं देखा, किंतु कदमतल्ला वापस आने पर उस बलिया वाली महिला ने एक बार फिर अपनी एक आंख मूंद ली।”

इंसानों की तुलना में जानवर कहीं अधिक संवेदनशील हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन विकलांग है कौन सकलांग और न ही उन्हें इशारे या शब्दों के माध्यम से किसी की विकलांगता का मजाक उड़ाना आता है। क्या लेखक ने इस उदाहरण के माध्यम से यह कहना नहीं चाहता है कि ऐसी वाणी और क्षमता से अच्छा मूक और अक्षम होना ही है या फिर दूसरे की जिंदगी में इतना हस्तक्षेप करने वाले, दूसरों की कमियां का मजाक उड़ाने वाले इंसान से बेहतर मूक जानवर ही हैं।

चेचक में गंवाई अपनी दाईं आँख के प्रति लोगों की संवेदनहीनता को रेखांकित करते हुए लेखक ने लिखा है कि उसकी दाईं आंख भी उतनी ही संवेदनशील है जितनी बाईं आँख- “जंगल से मैं जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था, मुर्दहिया पीछे छूटती चली जा रही थी और साथ ही छूट रहे थे इस प्रियस्थली के अनगिनत यादों के ढ़ेर।… इन सबके बीच मेरे मस्तिष्क पर हावी हो गई मेरी ‘अशगुन’ वाली छाया। चेचक से जिस दाईं आँख की रोशनी चली जाने के कारण लोग मुझे देखकर रास्ता बदल देते थे, उससे भी उतनी ही जलधारा-फूट पड़ी थी जितनी कि रोशनी वाली आँख से।” लेखक ने दिखाया है कि विकलांगता के बावजूद उसकी आंखें संवेदनहीन नहीं हैं पर समाज स्वस्थ आखों के साथ भी संवेदनहीन है।

बालक ने चेचक से अपनी आंख गंवाने की जो दुःखद पीड़ा झेली उसका मुख्य कारण यह अंधविश्वास और अशिक्षा ही था। लेखक स्वयं कहते हैं – “चेचक से मेरी दाईं आँख की रोशनी हमेशा के लिए विलुप्त हो गई। भारत के अंधविश्वासी समाज में ऐसे व्यक्ति ‘अशुभ’ की श्रेणी में हमेशा के लिए सूचीबद्ध हो जाते हैं। ऐसी श्रेणी में मेरा भी प्रवेश मात्र तीन साल की अवस्था में हो गया। अतः घर से लेकर बाहर तक सबके लिए मैं ‘अपशकुन’ बन गया।” इस घटना का जो सामाजिक प्रभाव पड़ा वह बालक के मस्तिष्क पर पड़ा। जहां वह संयुक्त एवं बड़े परिवार का सबसे छोटा बालक होने के कारण सबका प्रिय था, एक आंख गंवाने के बाद उससे ‘कनवा-कनवा’ की उक्तियों के साथ-साथ सभी का व्यवहार भी बदल रहा था।

एक तीन साल के बच्चे को अपशकुनी मान लिया गया। वह भी इसलिए कि बीमारी ने उसके एक आंख की रोशनी ले ली। आखिर इसमें दोष उस बालक का तो नहीं? सवाल यह भी उठता है कि वह बालक दलित समुदाय से है, इसलिए उसे अपशकुनी मान लिया गया? लेकिन, सच ऐसा नहीं है। उस समय सामाजिक चेतना का अभाव था। जो भी लोग ऐसे थे, उन्हें अपशकुनी माना गया। चाहे वे दलित हों या सवर्ण। अपने आरंभिक दिनों में लेखक भी घोर अंधविश्वासी था- इसकी स्वीकारोक्ति आत्मकथा में है।

यह घटना तब की है जब देश को आजाद हुए पांच वर्ष बीत चुके थे, आजादी के पांच वर्ष बीत जाने की घटना का जिक्र आत्मकथाकार यूं ही नहीं करते बल्कि वे उस भारतीय समाज की मानसिकता में कोई परिवर्तन न होने की तरफ इशारा करते हैं। जहां महामारी, बीमारी, चेचक जैसी बीमारियों के प्रति भी जनता का उदासीन नजरिया था, जिसे देवी का प्रकोप तो मानते हैं पर चिकित्सकीय उपचार के प्रति उदासीनता बरकरार थी। इसका सीधा कारण अशिक्षा है जहां लोग न तो बीमारी के प्रति जागरूक हैं और न ही शिक्षा के प्रति। अतः स्पष्ट है कि जब तक शिक्षा के प्रति जागरूकता नहीं आयेगी तब तक अंधविश्वास का मकड़जाल फैला ही रहेगा। तब तक विकलांगता को अशुभ-अपशकुन के दायरे से बाहर नहीं निकाला जा सकता। समाजशास्त्रीय दृष्टि से इसका अध्ययन किया जाये तो ऐसी घटनाएं या ऐसी परिस्थितियां भुक्त भोगी के जीवन तथा उससे जुड़े लोगों के जीवन को गहरे तक प्रभावित करती हैं। ‘मुर्दहिया’ इसका उदाहरण है। 

(संपादन : नवल)

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लेखक के बारे में

संध्या कुमारी

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी संध्या कुमारी स्वतंत्र लेखिका हैं। इसके अलावा वे सोसयटी फॉर डिसेबिलिटी एंड रिहेबिलिटेशन स्टडीज की पत्रिका ‘विकलांगता समीक्षा’ की सह संपादक हैं

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