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आपबीती : दलित-बहुजनों के लिए मानसिक वेदनालय बन रहे ‘अभिजात’ विश्वविद्यालय

हाल ही में जब बॉलीवुड कलाकार सुशांत सिंह राजपूत ने खुदकुशी की तो सोशल मीडिया से लेकर बौद्धिक गलियारों तक लोग मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बहस करते दिखे। लेकिन उनकी यह संवेदना उस वक्त कहां गायब हो जाती है जब विश्वविद्यालयों में मानसिक प्रताड़ना के शिकार दलित-बहुजन होते हैं? आपबीती बता रही हैं रितु

हाल ही में बॉलीवुड कलाकार सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के बाद से सोशल मीडिया पर मानसिक स्वास्थ्य चर्चा का विषय बन गया है। मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित कविताएं, कहानियां और संदेश सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं। परन्तु मैं अपने देशवासियों से पूछना चाहतीं हूं कि क्या मानसिक स्वास्थ्य पर हमारा ध्यान तभी जाएगा जब कोई जानी-मानी हस्ती आत्महत्या कर लेगी? क्या हम वैसे ही मानसिक स्वास्थ्य पर चर्चा नहीं कर सकते? क्या हम विश्वविद्यालयों के बहुजन विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य पर बात नहीं कर सकते?

मैं एक विद्यार्थी हूं और मैंने अपने कई साथियों को मानसिक समस्याओं से जूझते देखा है। मैंने स्वयं भी इस तरह की समस्याओं का सामना किया है। यह जान लें कि मनोवैज्ञानिक और मानसिक समस्यायों से लड़ना आसान नहीं होता। वे आपको इस हद तक त्रास दे सकतीं हैं कि आप अपना नुकसान कर लें। मानसिक स्वास्थ्य पर हमारी चर्चा का फोकस अक्सर केवल आत्महत्या पर होता है। किसने आत्महत्या की, कैसे की, लोगों की उस पर क्या प्रतिक्रिया रही, आदि। हम इस पर विचार ही नहीं करते कि आत्महत्या करने वाले की मनोवैज्ञानिक समस्याओं के लिए आखिर कौन ज़िम्मेदार था।

मेरी मानसिक समस्याओं की शुरुआत दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में दाखिला लेते ही हो गई थी। मैं लिखित परीक्षा और साक्षात्कार का सामना कर वहां पहुंची थी। जब भी हम विद्यार्थियों की बैठक जमती, मेरा और छोटे शहरों से आये मेरे अन्य साथियों (जिनमें से अधिकांश वंचित समुदायों से थे) को मात्र इसलिए नीचा दिखाया जाता था क्योंकि हम उतनी अच्छी अंग्रेजी बोल और लिख नहीं पाते थे जितनी उनकी अपेक्षा थी।     

मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और जेएनयू से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है और समय से साथ मैं ठीक-ठाक अंग्रेजी सीख गयी हूं। परन्तु आज भी हिंदी-भाषी राज्यों के गांवों और कस्बों से विश्वविद्यालय में आए मेरे कई साथियों की अंग्रेजी सीखने की कवायद जारी है। वे अभी भी ठीक से न तो अंग्रेज़ी लिख पाते हैं और ना ही बोल पाते हैं।  

खिलाफत की कीमत 

मैंने पाया कि अंग्रेजी सीखने के बावजूद मैं ऊंची जातियों और वर्गों के अपने सहपाठियों में फिट नहीं हो पा रही हूं। और इसका कारण यह था कि मैं एक छोटे शहर से आई, पिछड़े वर्ग की महिला थी। फिर, एक दिन मैंने तय किया कि बहुत हो गया, अब मैं अपमान और बुरा व्यवहार कतई सहन नहीं करूंगी। मेरे कई सहपाठियों को यह अहसास था कि हम लोगों को नीची निगाहों से देखा जाता है, परन्तु वे अपमान के इस घूंट को चुपचाप पी जाते थे क्योंकि वे अपनी डिग्री खोना नहीं चाहते थे। अतः जब मैंने तय किया कि मैं इस हिंदी-अंग्रेजी और उच्च जाति/वर्ग – निम्न जाति/वर्ग भेदभाव का विरोध करूंगी तो मैंने पाया कि मैं अकेली खड़ी हूं। यकीन मानिए, जो कुछ चल रहा है उसकी खिलाफत करना आसान नहीं होता।

किसी भाषा के ज्ञान, जाति अथवा वर्ग के आधार पर भेदभाव की मैं कट्टर विरोधी हूं और अपना विरोध जाहिर करने से पीछे नहीं हटती। यही कारण है कि मेरे विभाग में मुझे उपद्रवी माना जाता है। मेरे पर्यवेक्षकों और विभाग के कुछ प्राध्यापकों ने मुझे मानसिक प्रताड़ना दी। मेरे शोध के विषय को बार-बार अस्वीकृत किया गया। क्यों? क्योंकि मैं उनकी पसंद के विषय पर शोध करने के लिए तैयार नहीं थी। मैंने तय कर लिया था कि मैं उसी विषय पर काम करूंगीं जो मैंने चुना था। क्या मेरे शोध में मेरे विचारों के लिए कोई जगह ही नहीं थी? इसके बाद, मुझे एक-दो बजे रात को फ़ोन करने का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें मुझे यह याद दिलाया जाता था कि मुझे अपना काम ख़त्म करना है। मुझसे कहा गया कि मैं अपने पारिवारिक मसलों को परे रख कर केवल शोध पर अपना ध्यान केन्द्रित करूं। मेरी अंग्रेजी का लगातार मखौल उड़ाया जाता था और मेरी लेखन शैली का मज़ाक बनाया जाता था। मेरे अच्छे शैक्षणिक रिकॉर्ड के बावजूद, जो कुछ मैं लिखती थी उसे कूड़ा-कचरा बताया जाता था। मेरी मानसिक प्रताड़ना की और भी कई कहानियां हैं। 

इस सबके बावजूद मैं उनकी आज्ञाकारी बनी रही। मुझे लगता था कि वे मेरा भला चाहते हैं और मेरी गलतियों को सुधार रहे हैं। परन्तु बाद में मुझे यह अहसास हुआ कि उच्च जातियों के अध्यापकों को मेरे जैसे विद्यार्थियों का शिक्षा हासिल करना ही नागवार था। वे चाहते थे कि हम मैदान छोड़ दें और मेरे कई सहपाठियों ने यही किया। उन्होंने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी।   

क्या आपको नहीं लगता कि अध्यापकों और सहपाठियों का ऐसा व्यवहार किसी भी विद्यार्थी को बहुत-बहुत परेशान कर सकता है? कम से कम मैं तो इससे परेशान हो गई थी और मुझे हमेशा अपने करियर की चिंता सताती रहती थी। मैं आज भी मेरे लेखन के संबंध में की गई कटु और मर्मभेदी टिप्पणियों को भूल नहीं पा रही हूं। उनके कारण मुझे अपनी योग्यता पर संदेह होने लगा था और मेरा आत्मविश्वास डगमगा गया था। मुझे अपना आत्मविश्वास फिर से हासिल करने में काफी वक्त लगा। 

फातिमा लतीफ़, रोहित वेम्युला और पायल तड़वी

जब मैंने इस बारे में शिकायतें की तो मुझे और अधिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ा। मैंने संबंधित अधिकारियों से शिकायत की और उन्हें बताया कि मेरे साथ जो व्यवहार हो रहा है उससे मैं बहुत बुरा महसूस कर रही हूं। इस पर मेरी मानसिक स्थिति के बारे में पूछने की बजाय उन्होंने मुझे ही दोषी ठहराना शुरू कर दिया। जब मैंने उन्हें याद दिलाया कि रोहित वेमुला, पायल तड़वी और फातिमा लतीफ़ भी इसी तरह के व्यवहार के शिकार हुए थे तो तो उन्हें लगा कि मैं उन्हें धमकी दे रही हूं। 

रोते-रोते मैंने उन्हें बताया कि मैं मानसिक रूप से ठीक नहीं हूं। उनका जवाब था, “यह सब ड्रामा मत करो, तुम्हें कोई प्रॉब्लम नहीं है, जानबूझ कर किसी को फंसाओ मत।” उनकी निगाहों में मैं अब षड़यंत्रकारी बन चुकी थी। मैंने अपनी समस्याओं, अपने दर्द के बारे में हर सक्षम अधिकारी को लिखा परन्तु किसी ने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि मैं किस हाल में हूं। मैं ऐसा क्यों महसूस कर रही हूं? मेरी समस्याओं को नाटक कह कर ख़ारिज कर दिया गया। मेरे माता-पिता तथाकथित बड़े प्रोफेसर, आईएएस अधिकारी या राजनेता नहीं हैं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि मुझे इसलिए प्रताड़ित किया गया क्योंकि मेरा सरनेम ठाकुर, सेन, भट्टाचार्य या श्रीवास्तव नहीं है। 

क्या किया जाना चाहिए

हमारे विश्वविद्यालयों के कैंपस में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां विद्यार्थी अपनी मानसिक समस्याओं को खुल कर सामने रख सकें। रोहित वेमुला की मौत के बाद मुझे ऐसा लगा था कि अब हमारे विश्वविद्यालय विद्यार्थियों की मानसिक समस्याओं के बारे में संवेदनशील हो जाएंगे। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। हमने वेमुला के बाद कई विद्यार्थियों की मौत देखी है – पायल तड़वी, मुथु कृष्णन और फातिमा लतीफ़। परन्तु आज भी हमारे कैंपस, मानसिक स्वास्थ्य को कोई महत्व नहीं देते। उन समस्याओं से निपटने के लिए कोई प्रयास नहीं किए जाते जिनका सामना दलित-बहुजन विद्यार्थियों को अभिजात विश्वविद्यालयों में करता पड़ता है। कुछ विश्वविद्यालयों में विशेष सेल हैं, परन्तु वे पर्याप्त नहीं हैं।

हमें अपने-आप से यह ज़रूर पूछना चाहिए कि आखिर हमारे विद्यार्थी इतने तनावग्रस्त, इतने परेशानहाल क्यों रहते हैं? कई मामलों में धार्मिक-जातिगत भेदभाव उनकी परेशानियों की वजह होता है। कई को अपने सहपाठियों और सीनियर्स की दादागिरी का शिकार होना पड़ता है। परन्तु कोई भी समस्या की जड़ तक पहुंचकर उसे हल करना नहीं चाहता।

इसमें अध्यापकों को कभी दोषी नहीं ठहराया जाता। उच्च जातियों के प्राध्यापक सामाजिक भेदभाव पर लेख और किताबें लिखते हैं परन्तु वे अपने उपदेशों पर चलते नहीं है। वे कभी विद्यार्थियों के साथ खड़े नहीं होते। वे एक-दूसरे का बचाव करते हैं। उनके लिए किसी विद्यार्थी की जान से ज्यादा कीमती है उनकी सामाजिक हैसियत। अगर कोई विद्यार्थी अपनी जुबान खोलता है तो उसे विक्षिप्त, अवसाद ग्रस्त, मुसीबत पैदा करना वाला और षडयंत्रकारी बताया जाता है।  

मैंने शोध करने के लिए विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था। मुझे क्या पता था कि मुझ पर ड्रामेबाज़ और षडयंत्रकारी होने का लेबल चस्पा कर दिया जायेगा। मुझे महिला प्रोफेसरों पर भी बहुत गुस्सा आता है। मेरी समस्या क्या है, यह अच्छी तरह पता होने के बाद भी वे मुझसे फालतू प्रश्न पूछतीं थीं: तुम परेशान क्यों हो? क्या तुम शादी करोगी?  क्या तुम्हारे परिवार वाले तुम पर इसलिए ताने कसते हैं क्योंकि तुमने अपनी पढ़ाई जारी रखने का निर्णय लिया है? उन्हें पता था कि मुझ पर ताने कौन कसता है, परन्तु वे अनजान बने रहने का नाटक करतीं थीं। 

मैंने कई रात जागकर काटी है। मैं अपनी डिग्री के बारे में सोच-सोच कर लगभग हर रोज़ रोती थी। कई बार मुझे लगता था कि मैं एकदम निकम्मी हूं। कभी-कभी मुझे गलत कदम उठाने की इच्छा भी होती थी। मेरे कुछ मित्रों ने मुझे मेरी कीमत का, मेरी योग्यता का अहसास करवाया। मेरे अभिवावकों को भी मेरी चिंता थी, परन्तु मेरी मां का कहना था उन्होंने एक योद्धा को जन्म दिया है जो कभी स्वयं को नुकसान नहीं पहुंचाएगी। परन्तु क्या सभी विद्यार्थियों को मेरे जैसे दोस्त और मेरे जैसा परिवार उपलब्ध होते हैं? मेरे अभिवावक इतने शिक्षित हैं कि वे यह समझ सकते हैं कि विश्वविद्यालयों में लैंगिक और जातिगत भेदभाव होता है। परन्तु ऐसे कितने विद्यार्थी हैं जिनके माता-पिता भेदभाव से जुड़े मुद्दों के प्रति संवेदनशील हैं? ऐसे विद्यार्थी या तो पढ़ाई छोड़ देते हैं या कोई और गलत कदम उठा लेते हैं।  

बहरहाल, मेरी समस्याएं अब भी ख़त्म नहीं हुईं हैं। मैं पिछले दो सालों से उनसे जूझ रहीं हूं क्योंकि मैंने लड़ने का निर्णय लिया है। परन्तु सब तो मानसिक रूप से इतने मज़बूत नहीं होते। इसी दौरान, दुर्भाग्यवश, कई विद्यार्थियों ने हार मान ली। 

मैं प्रोफेसरों और अपने साथी शोधार्थियों से कहना चाहूंगी कि वे आत्मचिंतन करें। वे सोचें कि क्या उनके व्यवहार से उनके विद्यार्थियों या साथियों पर कोई गलत प्रभाव पड़ रहा है? कृपया मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को गंभीरता से लें और यह सुनिश्चित करें कि आप किसी के त्रास का कारण न बनें। अन्यथा हम युवा विद्यार्थियों को खोते रहेंगे। 

जो लोग दुखी, परेशान या चिंतित हैं, उनसे मैं कहना चाहूंगी कि अगर कोई व्यक्ति या कोई चीज़ आपके त्रास का कारण है तो या तो उससे लड़ें या मैदान छोड़ दें। परन्तु किसी भी स्थिति में खुद को नुकसान न पहुंचाएं।आपकी ज़िन्दगी किसी भी डिग्री या करियर से कहीं अधिक बड़ी और कीमती है। 

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया संपादन : नवल/गोल्डी)

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