बाबुराव बागुल की साहित्यिक रचनाएं समाज को तो प्रतिबिंबित करतीं हीं हैं वे ब्राह्मणवादी ताकतों के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल भी हैं। उन्होंने मराठी साहित्य में ‘दलित चेतना’ का विकास कर एक नए अध्याय की शुरुआत की।
उनके पात्र जाति-आधारित अमानवीय पदक्रम पर तो प्रश्न उठाते ही हैं, वे उसके मूल आधार पर भी कठोर प्रहार करते हैं, वे क्रोधित हैं, वे असहमत हैं, वे विद्रोही हैं। उन्हें असहनीय पीड़ा से गुज़रना पड़ता है परन्तु वे उसे अपनी नियति मानने को तैयार नहीं हैं। वे अपने आत्माभिमान और गरिमा के लिए आक्रामक संघर्ष करते हैं। बागुल की कहानियों में कोई ‘उद्धारक’ नहीं हैं; उनके नायक वे पददलित हैं जो अपनी अधोगति के लिए ज़िम्मेदार व्यवस्था के खिलाफ आक्रोशित हो उठ खड़े होते हैं। बागुल की एक कहानी का नायक मस्थुर कहता है, “जब वे मुझे मार रहे थे तब दरअसल मनु मुझे मार रहा था।” (बागुल 2018)