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जब स्वामी अछूतानंद ने प्रिंस ऑफ वेल्स से कहा, हमें गुलाम रखने वालों के हाथों में न छोड़ें

वे सब ‘सरकार की जय हो!’ के नारे लगा रहे थे और खुश होकर तालियां बजा रहे थे। उनकी आवाज नंगी चट्टानों से गूंज रही थी। जब प्रिंस की कार उनके स्वागत का जवाब देने के लिए धीमी हुई, तो वे खुशी में उछलने और नाचने लगे

स्वामी अछूतानन्दहरिहर’ (6 मई 1879 -20 जुलाई 1933)

1921 के अंत में जब प्रिंस ऑफ वेल्स (ब्रिटेन के राजकुमार) भारत आए थे, तो उस समय मि. गांधी अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे। उन्होंने हिंदुओं से कहा था कि प्रिंस का भारत आना जख्मों पर नमक छिड़कना है। इसलिए, सब उनका बहिष्कार करें।[1]

तुरंत ही उनके राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने उनकी आज्ञा को अपने संगठनों के द्वारा सब तरफ फैला दिया। परिणामत: बंबई में प्रिंस के आगमन पर खूब रक्तपात हुआ और जनहानि हुई। पर, लोगों के जिम्मेदार तबकों में कोई विद्रोह नहीं हुआ और न उन रास्तों पर उपद्रव हुआ, जहां सैनिकों का पहरा था। लेकिन हिंदू नेताओं के नियंत्रण वाले शहरी इलाकों में कई दिनों तक हिंसा जारी रही। भारतीयों ने भारतीयों पर हमले किए, जिसमें 50 लोग मरे और 400 घायल हुए थे। जबकि आगजनी और लूटपाट ने अलग तबाही मचाई थी।

किन्तु, प्रिंस अपने जीवन के इस पहले अपमानजनक स्वागत की अनदेखी करते हुए शहर में अपने सभी निर्धारित कार्यक्रम पूरे करते रहे। 22 नवंबर की शाम को उनका उत्तर की ओर प्रस्थान करने का कार्यक्रम तय था।

जैसे ही वह गवर्नमेंट हाउस से तीन-चार मील दूर बंबई रेलवे स्टेशन की ओर निकले, उनकी मोटर के साथ सिवाय पायलट पुलिस कार के—जो पहले ही बहुत आगे निकल चुकी थी—सुरक्षा का कोई पहरा नहीं था। किन्तु, जब उनकी कार ने शहर में प्रवेश किया, तो सड़कों के दोनों तरफ पुलिस का घेरा था। उनके पीछे देहातों से आए लाखों गरीब लोगों का हुजूम था, जो अपने मसीहा को देखने के लिए आगे बढ़ने के लिए धक्का-मुक्की कर रहे थे। रेलवे स्टेशन अभी आधा मील दूर था और लोगों की धक्का-मुक्की से पुलिस की घेरेबंदी टूट गई थी।

उमड़ती भीड़ ने प्रिंस की कार को घेर लिया। वे चिल्लाते हुए (प्रिंस के) और करीब आने के लिए एक-दूसरे से लड़ने लगे। वे क्या करने वाले थे? उनका इरादा क्या था? भगवान जाने! गांधी के उग्र शब्द उनके बीच फैल चुके थे। और अब सिर्फ भगवान ही मदद कर सकता था। उनमें से कुछ लोग कार के पायदान पर आकर सटकर खड़े हो गए थे। दूसरों ने उनको पीछे हटा दिया और वहां खुद खड़े हो गए। फिर उन्हें धक्का देकर तीसरे वहां खड़े हो गए। और यह धक्का-मुक्की देर तक चली। वे क्या चिल्ला रहे थे? आवाजों के उस शोर में कुछ भी स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। पर, जिन पर प्रिंस की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी, उन्होंने पूरी शक्ति लगाकर उसे सुना। वे लगातार जो कुछ चिल्ला रहे थे, वे ये शब्द थे–

‘युवराज महाराज की जय!’ …और, ‘मुझे अपने राजकुमार को देखने दो! मुझे अपने राजकुमार को देखने दो!! बस एक बार मुझे मरने से पहले अपने राजकुमार को देख लेने दो!’

पुलिस ने एक बार फिर कार के चारों ओर घेरा बनाने की असफल कोशिश की। अब वह पूरी तरह असुरक्षित कार लाखों चिल्लाते हुए लोगों के बीच से धीरे-धीरे रेंगती हुई अंत में स्टेशन पहुंची।

स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ (6 मई 1879 -20 जुलाई 1933)

वहां प्लेटफार्म पर बैरियर के पास—जो रॉयल ट्रेन की सुरक्षा के लिए लगाया गया था—प्रांत और नगर के अधिकारी और प्रतिष्ठित व्यक्ति उन्हें औपचारिक विदाई देने के लिए जमा थे। ‘हिज रॉयल हाईनेस’ प्रिंस ने उन सबकी बातें सुनीं और उनके अभिवादन का जवाब दिया। उसके बाद अचानक प्रिंस ने अपने सहायक की ओर मुड़कर पूछा–

‘कितना समय बाकी है?’

‘तीन मिनट, सर!’ –सहायक ने उत्तर दिया।

‘तब उन बैरियरों को हटवा दो और लोगों को अंदर आने दो।’ –उन्होंने बाहर खड़ी भीड़ की ओर संकेत करते हुए कहा।

जिन लोगों ने मुझे यह कहानी बताई थी, उन्होंने कहा कि हमारे दिल, हमारे मुंह पर आ गए थे। पर, बैरियर हटा दिए गए थे।

बाढ़ में नदी की तेज धारा की तरह लोगों की असीम भीड़ उमड़ पड़ी। वे नारे लगाते थे। प्रिंस की जय बोलते थे। हंसते थे और रोते थे। और जब ट्रेन ने चलना शुरू किया, वे सब उसके साथ-साथ दौड़ते रहे; जब तक कि वे थक नहीं गए।

उसके बाद एक या दो उत्तरदायी अधिकारी सीधे घर जाकर सो गए।

इस प्रकार प्रिंस ऑफ वेल्स ने उत्तर की ओर प्रस्थान किया। उनके प्रस्थान करते ही भारतीय नेताओं के द्वेष के कारण उनके अच्छे स्वागत का प्रभाव खत्म हो गया था।

यदि गांधी की अपीलों ने लोगों पर प्रभाव डाला था, तो प्रिंस के अच्छे स्वभाव का समाचार भी दूर-दूर तक फैल गया था। और आदिम लोगों में ऐसे समाचार जल्दी फैलते हैं।

जिस समय प्रिंस उत्तर के गेट—खैबर दर्रा से वापस आए, उसी समय एक अनोखी घटना से उनका सामना हुआ। उनके लौटने के समाचार से प्रोत्साहित होकर अछूतों की एक भीड़ उनके सम्मान के लिए सड़कों पर जमा हो गई थी।

प्रिंस ऑफ वेल्स एडवर्ड अष्टम की कलकत्ता में आगवानी का दृश्य

वे सब ‘सरकार की जय हो!’ के नारे लगा रहे थे और खुश होकर तालियां बजा रहे थे। उनकी आवाज नंगी चट्टानों से गूंज रही थी। जब प्रिंस की कार उनके स्वागत का जवाब देने के लिए धीमी हुई, तो वे खुशी में उछलने और नाचने लगे।

इसका कारण यह था कि उनकी अपनी स्मृति में ऐसी कोई घटना नहीं थी—उन तमाम कहानियों में भी नहीं, जो उन्होंने सुन रखी थीं—जिसमें भारत के इतिहास में ऐसा कोई व्यक्ति कहीं हुआ हो, जिसने अछूतों के प्रति घृणा के सिवाय कोई और भाव दिखाया हो। और यहां उनके सामने भारत के राजाओं का भी राजा सर्वोच्च सम्राट का पुत्र था। वह उनके लिए भगवान थे, जो न सिर्फ उन पर ध्यान देने की कृपा कर रहे थे, बल्कि उनके स्वागत के लिए उन्हें धन्यवाद भी दे रहे थे। कोई आश्चर्य नहीं कि उनकी भावनाएं बलवती हो गईं थीं। उनकी आंखों में दृश्य तैरने लगे थे और उनकी जुबान पर रहस्यमय शब्द आ गए थे।

वे एक-दूसरे से चीखकर कहने लगे– ‘देखो! देखो!! इस प्रकाश को देखो, प्रकाश को।’

ऐसा था उनका उत्साह। उनमें से बहुत-से किसी तरह दिल्ली से चलकर आए थे। वह 25 हजार अछूतों की भीड़ थी, जो प्रिंस के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। उन्हें देखने के लिए सभी दिशाओं से अछूत लोगों का रेला आया था। देश के ये साधारण लोग राजनीति के बारे में कुछ भी नहीं जानते। परंतु, वे बस मित्रता को समझते हैं; जो उन्हें उनके कामों में दिखती थी। इसलिए, वे सब सड़कों पर अपने प्रिंस की एक झलक पाने के लिए आंखों में आस लिए प्रतीक्षा कर रहे थे।

अंतत: प्रिंस आए ग्रैंड ट्रंक रोड से नीचे दिल्ली गेट पर। मेजबान अछूतों के बीच। एक ने खड़े होकर पहले से भी ऊंचा झंडा फहराया।

‘युवराज महाराज की जय! राजा के बेटे की जय!!’ उन सबने मिलकर एक साथ नारा लगाया। चिल्लाते-चिल्लाते उनके गले फट गए थे। प्रिंस ने कार रोकने का आदेश दिया। जबकि, प्रिंस के इस स्वागत को देखकर उच्च जातीय भारतीय दर्शकों को आश्चर्य हुआ और वे प्रिंस को उनका राजसी सम्मान न देने के कारण अपने आप में खिन्न हो गए।

इसके बाद अछूतों के एक प्रतिनिधि ने आगे बढ़कर छह करोड़ अछूतों की ओर से प्रेम और निष्ठा का एक विनम्र संक्षिप्त भाषण दिया। जिसमें युवराज से प्रार्थना की गई कि वे अछूतों के हित में अपने सम्राट पिता से निवेदन करें कि वे हमारे जीवन को उन लोगों के हाथों में कभी न छोड़ें, जो हमसे घृणा करते हैं और हमें गुलाम बनाए हुए हैं। (अछूतों के वह प्रतिनिधि स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ थे –अनुवादक)

प्रिंस ने उस भाषण को पूरी तरह सुना। उसके बाद—पता नहीं उन्होंने अपने कार्य के महत्व को समझा या उन्होंने केवल संपूर्ण संसार के प्रति अपने स्वाभाविक प्रेम और शिष्टता के आवेग में कार्य किया—पर उन्होंने जो किया, वह इससे पहले नहीं सुना गया था। प्रिंस उनके बीच खड़े हुए—जो ‘कुत्तों से भी बदतर’ समझे जाने वाले लोग थे—और उन सब पर एक नजर डाली। फिर धीरे-से उनसे प्रेम के कुछ शब्द कहे। और फिर एक चमकती हुई मुस्कान के साथ उनको सलाम किया।

[1] गांधीज लेटर्स ऑन इंडियन अफेयर्स, पृष्ठ-96, 97

(अनुवाद : कंवल भारती)

(फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित “मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया” से उद्धृत)


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लेखक के बारे में

मिस कैथरीन मेयो

अमेरिकी पत्रकार मिस कैथरीन मेयो 1927 में अंग्रेजी में प्रकाशित किताब "मदर इंडिया" की लेखिका हैं

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