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102 साल पहले शाहूजी महाराज का ऐतिहासिक पत्र – मिले विधायिका में पृथक प्रतिनिधित्व और आबादी के अनुरूप आरक्षण

शाहूजी महाराज के मुताबिक, ब्राह्मणों की इस मज़बूत किलेबंदी को तोड़ने का एक ही रास्ता है और वह है काउंसिलों में ही नहीं बल्कि सभी सरकारी सेवाओं के सारे उच्च व निम्न पदों में समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को लागू करना। जहां भी अवसर मिले, योग्य गैर-ब्राह्मणों को नियुक्ति में प्राथमिकता दी जानी चाहिए

[आरक्षण दिवस (26 जुलाई, 1902) के मौके पर पढें कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहूजी महाराज द्वारा बम्बई प्रेसीडेंसी के पूर्व गवर्नर लार्ड सिडिन्हम को सितम्बर 1918 में  लिखा गया यह पत्र। इस पत्र में शाहूजी महाराज ब्रिटिश सरकार के अधीन अखिल भारतीय स्तर पर सेवाओं और पृथक निर्वाचक मंडल द्वारा चुनावों के जरिए विधानमंडलों में समुदाय (जाति) पर आधारित प्रतिनिधित्व देने का प्रस्ताव कर रहे हैं। इसके एक साल पहले, 20 अगस्त 1917 को, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया एडविन मोंटेग्यु ने लन्दन में ब्रिटिश संसद में बोलते हुए कहा था कि “सरकार की यह योजना है कि भारत में धीरे-धीरे स्वशासन संस्थाओं का विकास किया जाये ताकि समय के साथ वहां एक उत्तरदायी सरकार का गठन हो सके…”। बम्बई प्रेसीडेंसी में ब्राह्मणों ने नौकरशाही पर पूरा तरह से कब्ज़ा जमा रखा था और बहुसंख्यक मराठा [गैर ब्राह्मण] उनकी दया पर निर्भर थे। ब्राह्मणों को पहले से ही विरासत में अनेक अधिकार मिले हुए थे और वे श्रमजीवी जातियों के खून-पसीने की कमाई पर मौज करते थे। और यह सब वे धर्म के नाम किया करते थे। शाहूजी इन हालातों से चिंतित थे. कोल्हापुर के शासक बतौर शाहू स्वयं भी ब्राह्मणों से घिरे हुए थे और वे जानते थे कि सरकारी पदों पर कार्यरत ब्राह्मण किस तरह कथित निम्न जातियों को जीवनयापन के साधनों और शिक्षा से वंचित रखते है और किस तरह वे लोगों को न्याय नहीं मिलने देते। शाहूजी ने यह पत्र लिखने के 16 साल पहले इस समस्या के सुलझाव की दिशा में कदम उठाते हुए कोल्हापुर राज्य की सेवाओं में पिछड़े वर्गों को 50 प्रतिशत आरक्षण दे दिया था।  उन्होंने पिछड़े वर्गों  में उन  सभी समुदायों को शामिल किया जो ब्राह्मण, प्रभु, शेनावी, पारसी और अन्य समृद्ध वर्गों  से नहीं थे।]

वर्ष 1918 में जब शाहूजी ने लॉर्ड सिडिन्हम को लिखा, भारत में असली सत्ता ब्राह्मणों के पास

  • छत्रपति शाहूजी महाराज

कोल्हापुर
सितम्बर 1918

प्रिय लार्ड सिडिन्हम,
योर लार्डशिप, मैं इस देश के लाखों मूक रहवासियों के हितार्थ काम करने के लिए आपको धन्यवाद ज्ञापित करना चाहता हूं। आपको भारत, और विशेषकर बम्बई, जो देश की राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र है, की बहुत अच्छी समझ है और यही कारण है कि योर लार्डशिप यहाँ के हालात का ठीक-ठीक आंकलन कर सके हैं। इसी के चलते आपको यह अहसास है कि जातियों में विभाजित और पुरोहितों व पंडितों के चंगुल में फंसे भारत के लाखों अशिक्षित लोगों पर समानता का पश्चिमी सिद्धांत लागू करना अनुचित होगा। दक्कन सदियों से ब्राह्मण पुरोहितों के ज़ुल्मों तले कराह रहा है। ब्राह्मणों ने हर क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है – धर्म के क्षेत्र में भी और राजनीति, व्यापार-व्यवसाय, शिक्षा, बैंकिंग इत्यादि जैसे धर्मनिरपेक्ष क्षेत्रों में भी। अतः देश के आमजन आज़ाद नहीं हैं और अगर उनके हितों की रक्षा पर ध्यान नहीं दिया गया तो वे अपने ब्राह्मण मालिकों के ज़ुल्मो-सितम के आसान शिकार बन जाएंगे। प्रोविंशियल और इम्पीरियल काउंसिलों [परिषदों] में समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व ही वह तरीका है जिससे उनके हितों की रक्षा हो सकती है। मैं यहां उन कारणों का वर्णन करना चाहूंगा जिनके चलते मराठाओं [गैर ब्राह्मणों] को इस तरह के प्रतिनिधित्व की बहुत अधिक ज़रूरत है।   

 

सबसे पहले, यद्यपि इस देश पर अंग्रेजों का शासन है, परन्तु असली सत्ता ब्राह्मण अधिकारियों के हाथों में है, जो हर स्तर के पदों पर काबिज़ हैं – क्लर्क और गांव के लेखाकार, कुलकर्णी, जैसे मामूली पदों से लेकर उच्चतम पदों तक। यहां तक कि काउंसिलों में भी उनका दबदबा है। ब्राह्मण नौकशाही के आगे नतमस्तक होना, अन्य समुदायों की मजबूरी है। ब्राह्मण अफसरों के अत्याचारों का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। अगर गैर-ब्राह्मण समुदाय, ब्राह्मणों की मनमानी की शिकायत करते भी हैं तो अव्वल तो वह शिकायत ब्रिटिश अधिकारियों तक पहुंचने ही नहीं दी जाती और अगर पहुंच भी जाती है तो उनके ब्राह्मण अधीनस्थ, अधिकारियों को शिकायतकर्ताओं के खिलाफ भड़काने में कोई कसर बाकी नहीं रखते। ब्राह्मण नौकरशाही के राज के चलते, मराठाओं [गैर ब्राह्मणों] और अन्य पिछड़े समुदायों के लिए विस्तारित काउंसिलों में अपने प्रतिनिधि भेज पाना संभव ही नहीं है। गैर-ब्रह्मणों के पास इसके सिवा कोई चारा न होगा कि वे ब्राह्मण उम्मीदवारों को अपना वोट दें। कारण यह कि ब्राह्मण उम्मीदवारों के जात भाई लोगों को डराने-धमकाने, पटाने और प्रलोभन देने की कला में सिद्धहस्त हैं। समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व ही इस समस्या का हल है – भले ही वह कुछ वर्षों के लिए ही क्यों न हो। यह इससे भी साफ़ है कि काउंसिलों और म्युनिसिपल और स्थानीय बोर्डों के चुनाव में बहुत कम संख्या में मराठाओं [गैर ब्राह्मणों] को जीत हासिल होती है। 

छत्रपति शाहूजी महाराज व लार्ड सिडिन्हम

दूसरे, कांग्रेस के आन्दोलन के कारण सरकार को मोर्ले-मिन्टो सुधारों के अंतर्गत काउंसिलों का आकार बढ़ाने पर मजबूर होना पड़ा है। अब तक कांग्रेस ब्राह्मण नौकरशाही का हित संवर्धन करती रही है और ब्रिटिश सरकार, अनजाने में ही सही, कांग्रेस के हाथों में खेलती रही है। कांग्रेस दबे-कुचले समुदायों की ज़रूरतों पर कोई ध्यान नहीं दे रही है और ना ही उनके लिए कुछ कर रही है। कांग्रेस के नेताओं का लक्ष्य आमजनों का दमन कर अपने समुदाय [द्विजों] का राज बनाए रखना है। तिलक का अख़बार ‘केसरी’, मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का आलोचक है और दरभंगा के महाराज, आम लोगों को शिक्षित करने की हर योजना का बिहार की काउंसिल में पूरी ताकत से विरोध करते  हैं। यह सब इसलिए किया जा रहा है ताकि उनके समुदाय का एकाधिकार बना रहे। अगर काउंसिलों में समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व न देने के अपने निर्णय पर सरकार कायम रहती है तो इसका नतीजा यही होगा कि काउंसिलों में ब्राह्मण ही ब्राह्मण होंगे। और ब्राह्मणों के आदर्श नेता ये दोनों महानुभाव हैं जो बेशर्मी से अपने समुदाय को छोड़ कर, अन्य सभी समुदायों के हितों की खिलाफत करते आये हैं। इससे निश्चय ही गैर-ब्राह्मणों की स्थिति और ख़राब होती जाएगी। इस तरह की प्रवृत्तियों से निपटने के लिए समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व आवश्यक है।  

तीसरे, यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर चुनावों में मराठा [गैर ब्राह्मण] और अन्य समुदायों के प्रतिनिधि निर्वाचित नहीं होते हैं तो सरकार उन्हें काउंसिलों के सदस्य के रूप में नामांकित कर देगी। परन्तु मुझे लगता है कि यह उपाय बहुत कारगर नहीं है। नामांकित सदस्यों में सामान्यतः उस तरह का आत्मविश्वास नहीं होता जैसा चुनाव लड़ कर सदस्य बनने वालों में होता है। ऐसे में इस बात की काफी सम्भावना रहती है कि नामांकित सदस्य, निर्वाचित सदस्यों के हाथों की कठपुतली बन जाएगा। उसे उस समुदाय के हितों की कोई परवाह ही न होगी जिसने उसे चुनाव नहीं जिताया। इसके अलावा, वह अपनी बात मजबूती से नहीं रख पाएगा, क्योंकि उसे हमेशा यह अहसास रहेगा कि उसे सरकार ने नामांकित किया है। ब्राह्मण नौकरशाह, नामांकित सदस्यों को पक्षपाती और सरकार का गुलाम बताकर जनता की निगाहों में उनकी इज्ज़त मिट्टी में मिलाने के आदी हैं। परन्तु अगर यही सदस्य समुदाय-आधारित निर्वाचक मंडल द्वारा चुने जाकर काउंसिलों में पहुंचेंगे तो वे आत्मनिर्भर होंगे और आत्मविश्वासी भी। ब्राह्मण यही नहीं चाहते और इसी डर से वे समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व का विरोध कर रहे हैं। 

चौथे, मैं यह बताने के लिए एक उदाहरण देना चाहूंगा कि ब्राह्मण नौकरशाही किस तरह लोगों के आत्मविश्वास को तोड़ती है। एक मराठा [गैर ब्राह्मण] सज्जन, श्री बागुल, जो कि एलएलबी हैं, यहां मामलतदार के पद पर काम करते थे। वे आम लोगों की खातिर कुछ कर गुजरने के लिए बहुत उत्साहित थे और ब्राह्मणों के प्रभुत्व के खिलाफ थे। परन्तु ज्योंही उन्होंने नौकरी छोड़ कर वकील के तौर पर प्रैक्टिस शुरू की, उनकी मानों सोच ही बदल गई। ब्राह्मण जजों और मजिस्ट्रेटों को प्रसन्न रखने के लिए उन्होंने अपना रुख बदल लिया और अब वे जनता के बीच ब्राह्मण प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं। उनमें अपने असली विचार व्यक्त करने की हिम्मत ही नहीं बची है। इसी तरह, वकालत शुरू करने के बाद से ब्राह्मणों के प्रति श्री लाथे का रवैया भी अत्यंत नरम हो गया है। वे अब बहुत आहिस्ता से ब्राह्मणों के खिलाफ कुछ बोलते हैं। जबकि एक समय वे गैर-ब्राह्मणों के जबरदस्त पैरोकार थे।   

कई मौकों पर मुझे यह देख पर बहुत धक्का लगा, और गुस्सा भी आया, कि किस तरह ऐसे आदेशों, जो ब्राह्मणों के हितों के विरुद्ध थे, को या तो रद्द कर दिया गया या उन्हें इतना हल्का और कमज़ोर बना दिया गया कि उनकी उपयोगिता ही समाप्त हो गयी। इसका कारण यह है कि सरकारी अभिलेखों पर ब्राह्मणों का कब्ज़ा है और उनके लिए ऐसे नज़ीरें [उदाहरण] खोज निकालना आसान है जो उनके दावों का समर्थन करतीं हैं और ऐसी नज़ीरों को दबाना भी जो उनके खिलाफ जातीं हैं।  

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ब्राह्मण नौकरशाही की ताकत के आगे ब्रिटिश अधिकारी और गैर-ब्राह्मणों द्वारा शासित राज्य भी बेबस हैं। वे कोई नवाचार करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते क्योंकि वे जानते हैं कि ब्राह्मण प्रेस उन पर टूट पड़ेगी और उच्च अधिकारियों के ब्राह्मण सहायक नवाचार के विरुद्ध उन्हें पूर्वाग्रहग्रस्त कर देंगे। हालत यह हो गई है कि अगर कोई ब्रिटिश अधिकारी या कोई राजा ब्राह्मणों के खिलाफ कुछ करता है तो उसे मूर्ख या अविवेकी माना जाता है। यह कहा जाता है कि उसे यह समझ ही नहीं आ रहा है कि वह कितनी कमज़ोर ज़मीन पर खड़ा है। ब्रिटिश अधिकारियों के ब्राह्मण अधीनस्थ उसके दुश्मनों से हाथ मिला लेते हैं और उसके लिए मुसीबतें खड़ी कर देते हैं।  

पांचवें, यह सिद्धांत कि बहुसंख्यक वर्गों को पृथक प्रतिनिधित्व की ज़रुरत नहीं है, ऐसे मामलों में लागू नहीं हो सकता जिनमें सत्ता स्वार्थी अल्पसंख्यकों के हाथों में होती है और वे इस सत्ता का उपयोग बहुसंख्यकों को अपना गुलाम बनाए रखते के लिए करते हैं। सेंट्रल डिवीज़न में मराठाओं [गैर ब्राह्मणों] की बड़ी आबादी है, परन्तु वे फिर भी कमज़ोर हैं, क्योंकि उनमें से चंद ही स्वतंत्र राय रखने के काबिल हैं। हाँ, मराठाओं [गैर ब्राह्मणों] में कुछ वकील भी हैं परन्तु उनमें से जो वकालत करते हैं वे यह जानते हैं कि अगर वे ब्राह्मणों के खिलाफ जाएंगे तो ब्राह्मण नौकरशाही अपनी तोपों का मुंह उनकी ओर मोड़ देगी। और इसलिये, कई युवा तो वकालत करना ही नहीं चाहते। पूरी बम्बई प्रेसीडेंसी में एक भी मराठा [गैर ब्राह्मण] वकील नहीं है और कम से कम मेरे जीवनकाल में तो नहीं होगा। इससे पता चलता है कि खासी संख्याबल वाले मराठा समुदाय को भी अपनी तकलीफों और शिकायतों के समुचित समाधान के लिए विशेष प्रावधानों की ज़रूरत है।

ग्रामीण क्षेत्रों में मराठाओं [गैर ब्राह्मणों] को किस तरह का ज़ुल्मों का सामना करना पड़ता है, उसे समझना आसान नहीं है। जैसा कि श्रीमंत जानते हैं, गांव में ज़मीनों का हिसाब-किताब रखने वाले कुलकर्णी का एकछत्र राज होता है और उसके खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत किसी में नहीं होती। गांव के पुरोहित, भविष्यवक्ता व उनकी जातियों के लोगों का दर्जा भगवान के समकक्ष होता है, को उन्हें हर मौके पर – चाहे वह ख़ुशी का हो या गम का – दान-दक्षिणा देनी पड़ती है और भोजन भी कराना पड़ता है। धार्मिक और धर्म से इतर मामलों में भी मराठा [गैर ब्राह्मण] इस हद तक गुलामी की जंजीरों से जकड़े हुए हैं कि वे न तो स्वतंत्र रूप से सोच-विचार कर पाते हैं और ना ही स्वतंत्रतापूर्वक कुछ कर पाते हैं। अगर मराठा [गैर ब्राह्मण] स्वभाव से ही वफ़ादार नहीं होते तो कुटिल ब्राह्मण कब का उन्हें अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर चुके होते। मराठाओं [गैर ब्राह्मणों] की इस बात के लिए प्रशंसा करनी ही होगी कि यद्यपि उन्हें सरकार की ओर से कभी कोई विशेष लाभ नहीं मिला, परन्तु वे फिर भी सरकार के प्रति वफादार हैं। जो समुदाय तीन महाद्वीपों में (ब्रिटिश) साम्राज्य के लिए अपना खून बहाता आया है, उसे समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व न देना, इन राजभक्तों को अपने दमनकर्ताओं की दया पर छोड़ देना होगा। 

अगर ऐसा हुआ तो काउंसिलों में ब्राह्मणों का दबदबा हो जाएगा और जिन विभागों को उन्हें सौंपा जायेगा, उन पर वे अपना पूर्ण वर्चस्व स्थापित कर लेंगे। इन विभागों का इस्तेमाल वे अपने समुदाय के लाभ और सरकार के असली समर्थकों को नुकसान पहुंचाने के लिए करेंगे। अतंतः, गैर-ब्राह्मणों को ब्राह्मणों के आगे समर्पण करना होगा और अपनी वफादारी को त्यागना होगा।

वर्ष 1920 में दक्षिण महाराष्ट्र बहिष्कृत वर्ग परिषद की बैठक को संबोधित करते छत्रपति शाहूजी महाराज व बगल में डॉ. भीमराव आंबेडकर

मैंने अपने स्तर पर मेरी प्रजा को गांवों के कुलकर्णी, भट्ट (कर्मकांडी पुरोहित) और जोशी (पारंपरिक भविष्यवक्ता) के चंगुल से मुक्त कराने का हर संभव प्रयास किया है। इनमें से पहले वर्ग की सेवाएं समाप्त कर दीं गयीं हैं और उनके स्थान पर वेतनभोगी व्यक्तियों को नियुक्त किया गया है, जो मुख्यतः गैर-ब्राह्मण हैं और जिन्हें इस परिवर्तन की प्रत्याशा में विशेष प्रशिक्षण दिया गया है। एक राजकीय उद्घोषणा के ज़रिए रैयत को यह सूचना दे दी गयी है कि अगर वे भट्ट और जोशी की सेवाओं का उपयोग नहीं करते तो उन्हें इन दोनों को कुछ भी देना अनिवार्य नहीं होगा। इस प्रकार, उन्हें अंतःकरण की स्वतंत्रता प्रदान कर दी गयी है। इसी तरह, गांव के  शिल्पकारों के वंशानुगत अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं, जिनके चलते उनके घटिया काम के लिए भी ग्रामीणों को अपनी उपज का एक हिस्सा पारिश्रमिक के रूप में उन्हें देना पड़ता था।

मैंने उन नियमों को भी रद्द कर दिया है जो आपराधिक जनजातियां घोषित कर दिए गए महारों, मांगों और रामोशियों के लिए मुसीबत का सबब थे। उनके आवागमन पर प्रतिबंधों के चलते वे कोई व्यापार नहीं कर पाते थे और इस कारण उनके कुछ सदस्य बेईमानी या हिंसा में लिप्त हो जाते थे। मैं यह भी बताता चलूं कि आपकी दिवंगत प्रिय पुत्री के नाम पर अछूत समुदायों के लिए जो छात्रावास खोला गया था वह बहुत अच्छी तरह से चल रहा है। मैं उससे भवन की एक फोटो भेज रहा हूं जिससे योर लार्डशिप को पता चलेगा कि वहां रहने वाले विद्यार्थी शारीरिक श्रम को नीची निगाहों से नहीं देखते, जो कि पढ़ने-लिखने वाले लोगों की सामान्य प्रवृति से अलग है। 

ब्राह्मण नौकरशाही की शक्ति और प्रभाव की जो समझ योर लार्डशिप को है, वह बहुत कम लोगों को होगी। ब्राह्मण सभी सरकारी सेवाओं में सभी पदों पर प्रभावशाली हैं और इस कारण उनके लिए अन्य समुदायों को दबाए रखना आसान है। अन्य समुदायों को हर हालत में ब्राह्मणों की मांगें पूरी करनी ही होतीं हैं और भले ही उनके साथ कितना ही अन्याय क्यों न हो, वे विरोध करने की स्थिति में नहीं होते। कोल्हापुर के एक व्यापारी के साथ एक ब्राह्मण वकील ने धोखाधड़ी की। उससे कहा गया कि उसे वकील पर मुक़दमा चलाना चाहिए परन्तु उसका कहना था कि मुकदमा चलने से भी कुछ होना-जाना नहीं है क्योंकि सभी पुलिसवाले और जज ब्राह्मण हैं। यहां तक कि अदालतों के क्लर्क भी ब्राह्मण हैं। ऐसे में अगर वह मुक़दमा चलाएगा भी तो उसे न्याय तो मिलेगा नहीं, उलटे वह ब्राह्मणों के निशाने पर आ जाएगा और वे उससे बदला लेंगे। यहां तक कि जब मैंने व्यक्तिगत रूप से उससे कहा कि वह वकील पर मुक़दमा चलाए तब भी वह राजी नहीं हुआ। उसने मुझसे प्रार्थना की कि मैं उस पर दबाव न डालूं। इसी तरह, श्री गनडाले नामक एक ब्राह्मण ने सार्वजनिक रूप से यह कहना शुरू कर दिया कि अछूत वर्गों को अछूत ही बने रहना चाहिए क्योंकि ब्राह्मणों और पृश्य मराठाओं [गैर ब्राह्मण] की बीच अवैध रिश्तों से एक नयी संकर जाति जन्म ले रही है। मैंने यह मानहानिकारक वक्तव्य देने के लिए श्री गनडाले को अदालत में घसीटने का मन बनाया परन्तु कोई वकील उनके खिलाफ पैरवी करने को तैयार ही नहीं हुआ। ब्राह्मण नौकरशाही से केवल व्यापारी और उनके जैसे अन्य लोग नहीं डरते, राजा भी उनके भय से मुक्त नहीं हैं। मैं श्रीमान से अपनी तारीफ स्वयं करने के लिए माफ़ी चाहते हुए यह बताना चाहूंगा कि मैं एकमात्र ऐसा राजा हूं जो ब्राह्मण नौकरशाही के खिलाफ लड़ रहा है और वह भी तब जब मुझे उसकी ताकत का अच्छी तरह से अंदाज़ा है। ब्राह्मण नौकरशाही राजाओं के खिलाफ स्वयं आगे नहीं आती परन्तु वह उसकी प्रजा को भड़काती है। उसके लिए राजाओं के काले कारनामों का भंडाफोड़ करना बहुत आसान होता है।

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ब्राह्मणों की इस मज़बूत किलेबंदी को तोड़ने का एक ही रास्ता है और वह है काउंसिलों में ही नहीं बल्कि सभी सरकारी सेवाओं के सारे उच्च व निम्न पदों में समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था लागू करना। जहां भी अवसर मिले, योग्य गैर-ब्राह्मणों को नियुक्ति में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। केवल कुछ महत्वपूर्ण पदों पर गैर-ब्राह्मणों को बैठा देने से काम नहीं चलने वाला है। यह दवा तो रोग को और बढ़ाएगी ही क्योंकि ये अधिकारी अपने ब्राह्मण अधीनस्थों की निहाई [सोनारों और लोहारों का एक औजार जिसपर वे धातु को रखकर हथौड़े से कूटते या पीटते हैं] और इसी समुदाय के अपने वरिष्ठ अधिकारियों की हथौड़ी के बीच फंस जाएंगे। वे उसे जनता के हितों के विपरीत निर्णय लेने पर मजबूर करेंगे और उस बेचारे को उन गलत निर्णयों की ज़िम्मेदारी भी लेनी पड़ेगी। समस्या का सही इलाज यह है कि अधीनस्थ और लिपिकीय पदों पर भी समुदाय-आधारित आनुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए। सबसे निचले दर्जे के क्लर्कों की भर्ती भी गैर-ब्राह्मणों में से होनी चाहिए और इसके लिए इन समुदायों के योग्य उम्मीदवारों की सूची तैयार की जानी चाहिए। इस सूची में शामिल व्यक्तियों की नियुक्तियां तब तक की जानी चाहिए जब तक कि गैर-ब्राह्मणों का प्रतिशत, आबादी में उनके हिस्से के बराबर न हो जाय।  

शिक्षा विभाग में भी ब्राह्मण नौकरशाही का बोलबाला है। सभी स्कूल अध्यापक ब्राह्मण है। ब्राह्मण नौकरशाही, पुरोहितों की तरह नहीं है। पुरोहित बनने के लिए व्यक्ति को एक विशेष जाति का होने के साथ-साथ विद्वान भी होना चाहिए। केवल एक ज्ञानी ब्राह्मण ही पुरोहित बन सकता है। परन्तु ब्राह्मण नौकरशाही के लिए केवल जाति ही काफी है। चाहे कोई ब्राह्मण कितना ही क्षुद्र, अनैतिक और गिरा हुआ क्यों न हो, केवल उसकी जाति के कारण वह अन्य जातियों के राजाओं, जनरलों, एडमिरलों और विद्वानों से कहीं उच्च हो जाता है। अनादि काल से ब्राह्मण नौकरशाही का यह आदेश रहा है कि किसी भी गैर ब्राह्मण को पढ़ना, लिखना और गणित नहीं सिखाए जाने चाहिए। नतीजा यह कि सभी हाई स्कूल और कॉलेज, सार्वजनिक संस्थान होते हुए भी केवल ब्राह्मणों के लिए होते हैं। उनमें केवल ब्राह्मण पढ़ते हैं। अछूतों को तो उनके आसपास भी फटकने नहीं दिया जाता। कुछ अन्य जातियों को वहां प्रवेश की इज़ाज़त है, परन्तु इनकी संख्या सौ में एक भी नहीं है।   

मैं फिर कहना चाहता हूँ कि सरकारी सेवाओं के साथ-साथ काउंसिलों में भी अगले कम से कम 20 सालों तक समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। अगर इस दिशा में कदम नहीं उठाये जाते तो यह कहना उचित होगा कि भारत पर न तो राजाओं का शासन है और ना ही ब्रिटिश का। भारत पर तो ब्राह्मणों का शासन है। समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व ही एकमात्र रास्ता है। अगर महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण समुदायों को समुदाय-आधारित प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता तो राजनैतिक सुधारों की यह सारी प्रक्रिया सरकार के प्रति वफ़ादार और निष्ठावान प्रजाजनों की कीमत पर ब्राह्मण नौकरशाही को मज़बूत करेगी।

कोल्हापुर के शंकराचार्य (डॉ. कुर्तकोटि), विद्वान व्यक्ति हैं, परन्तु मुझे कहना होगा कि वे ब्राह्मणों में भी ब्राह्मण हैं। पिछले दिनों उन्होंने दरबार द्वारा कुलकर्णीयों की सेवाएं समाप्त किये जाने के समर्थन में आयोजित एक सभा की अध्यक्षता की। परन्तु उन्होंने सभा में पारित उस प्रस्ताव की औपचारिक सूचना मुझे देने से इंकार कर दिया जिसमें कहा गया था कि दरबार को कुलकर्णियों के कामकाज की जांच करनी चाहिए और उनके हाथों अन्याय का शिकार हुए लोगों को यथासंभव राहत प्रदान करनी चाहिए। अब वे खुलकर अतिवादी कांग्रेस से जुड़ गए हैं। धर्म प्रमुख होने के नाते उन्हें राजनैतिक पचड़ों में नहीं पड़ना चाहिए, परन्तु ब्राह्मण अत्यंत लोलुप होते हैं और हर जगह अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं। 

यहां तक कि श्री राजवाड़े जैसे शिक्षित व्यक्ति, जो यह दावा करते हैं कि वे इतिहास के प्रकांड विद्वान हैं, भी अपनी जाति से विशेष अनुराग रखते हैं और अन्य जातियों से इतना चिढ़ते और जलते हैं कि उन्होंने चंद्रसेनिया कायस्थ प्रभु जाति और मुसलमानों के बारे में झूठी और मानहानिकरक बातें लिखीं हैं। निश्चय ही वे लोग उनके खिलाफ कार्रवाई करेंगे, परन्तु मैं इस घटना का हवाला सिर्फ इसलिए दे रहा हूं ताकि आपको ब्राह्मणों के चरित्र के बारे में बता सकूं। 

मैं योर लार्डशिप से व्यक्तिगत रूप से मिल कर इन मुद्दों पर चर्चा करना चाहता हूं, परन्तु यह तभी हो सकता है जब मुझे सरकार द्वारा पटियाला के महाराज की तरह ऊंचा दर्जा (पदोन्नति) दी जाय। 

यह पत्र बहुत लम्बा हो गया है और मुझे इसे बंद करना चाहिए। परन्तु ऐसा करने से पहले मैं इस पत्र की असामान्य लम्बाई के लिए योर लार्डशिप से क्षमायाचना करना चाहूंगा। इस पत्र के लम्बे होने का एकमात्र कारण मैं यही दे सकता हूं कि इसमें जिन विषयों के चर्चा की गई वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और उन पर त्वरित निर्णय लिया जाना अपेक्षित है। 

क्या मैं योर लार्डशिप से यह अनुरोध कर सकता हूँ कि आप लेडी सिडिन्हम को मेरा सविनय प्रणाम पहुंचाएं। 

मुझ पर भरोसा रखें 

सादर आपका 

(हस्ताक्षर)

पुनश्चय: मुझे बताया गया है कि सर जॉन हेवेट भारत आ रहे हैं। क्या मैं योर लार्डशिप से अनुरोध कर सकता हूं कि मेरा परिचय देते हुए उन्हें संबोधित एक नोट मुझे भिजवा दें?

मैं अपने पत्र की कुछ प्रतियां संलग्न कर रहा हूं ताकि आप एक प्रति सर जॉन हेवेट और एक सर वैलेंटाइन चिरोल को दे सकें और अगर आपको इसमें कोई आपत्ति न हो, तो श्री मोंटेग्यु को भी। कृपया सभी से मेरी ओर से यह अनुरोध कर दें कि वे इस पत्र को गुप्त रखें क्योंकि मैं नहीं चाहता कि इस मामले में मेरा नाम आए।  

सादर

(उपरोक्त पत्र “छत्रपति शाहूजी : दी पिलर ऑफ सोशल डेमोक्रेसी, 1994, संपादक- पी.बी. सालुण्खे, प्रकाशक- शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार” से उद्धृत है)

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया संपादन : अनिल/नवल)


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महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

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चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

छत्रपति शाहूजी महाराज

छत्रपति शाहूजी महाराज (26 जून, 1874 – 6 मई, 1922)

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