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मेडिकल संस्थानों में आरक्षण : क्या न्यायालय से मुमकिन है स्थायी समाधान?

मद्रास हाई कोर्ट के फैसले के बाद भी सवाल कम नहीं हुए हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि संसद में इस सवाल को लेकर बहस क्यों नहीं करायी जा रही है? क्या यह मुमकिन नहीं कि संसद एक कानून बनाकर मामले का पटाक्षेप करे ताकि हर साल सैंकड़ों की तादाद में ओबीसी युवाओं की हकमारी न हो सके? नवल किशोर कुमार की खबर

गत 27 जुलाई, 2020 को मद्रास उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु में ओबीसी आरक्षण को लेकर महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है।  न्यायालय ने केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के महानिदेशक को निर्देश दिया कि वे तमिलनाडु सरकार के स्वास्थ्य सचिव और मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया और डेंटल काउंसिल ऑफ़ इंडिया के सचिवों के साथ बैठक आयोजित कर अगले शैक्षणिक वर्ष से राज्याधीन यूजी/पीजी चिकित्सा पाठ्यक्रमों की ऑल इंडिया कोटा सीटों में ओबीसी को आरक्षण देने की प्रक्रिया को अंतिम रूप दें। यह आरक्षण इस वर्ष से दिया जाना संभव नहीं है क्योंकि इस वर्ष के लिए चयन की प्रक्रिया पूरी हो गयी है। न्यायालय के मुताबिक,  बेहतर यही होगा कि चूंकि इस मसले में केंद्र और राज्य सरकार के साथ-साथ मेडिकल काउंसिल और डेंटल काउंसिल की भी भूमिका है अतः आरक्षण के लिए शर्तों के निर्धारण का काम एक समिति को सौंप दिया जाए।

अदालत के फैसले के आलोक में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इसी वर्ष से ओबीसी अभ्यर्थियों को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता? इस सवाल की वजह यह कि चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए आयोजित होने वाली नीट (नेशनल एलीजीबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट) कोविड-19 के संक्रमण को देखते हुए सितंबर तक टाली जा चुकी है।

गौरतलब है कि नीट के आधार पर केंद्र सरकार के अधीन राष्ट्रीय स्तर पर मेडिकल व दंत चिकित्सा संस्थानों में स्नातक व परास्नातक कोर्सों में दाखिले के लिए आरक्षण का प्रावधान है। इसमें ओबीसी को मिलने वाला 27 प्रतिशत आरक्षण भी शामिल है। राज्यों के अधीन मेडिकल शिक्षण संस्थानों के स्नातक कोर्सों में 15 फीसदी और परास्नातक कोर्सों में 50 फीसदी सीटें ऑल इंडिया कोटे में शामिल होती हैं। लेकिन इन 15 फीसदी और 50 फीसदी सीटों में ओबीसी को आरक्षण नहीं दिया जाता  है। जबकि एससी, एसटी और आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण का प्रावधान है। 

कब तक अदालतों के भरोसे रहेंगे ओबीसी युवा?

यह उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु में कुल आरक्षण 69 प्रतिशत है। इसमें पिछड़े वर्गों के लिए 50 फीसदी व शेष 19 फीसदी में 18 फीसदी अनुसूचित जातियों (3 फीसदी अरूंधतियार) और 1 फीसदी आरक्षण अनुसूचित जनजातियों के लिए है। पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले 50 फीसदी आरक्षण में 26.5 फीसदी गैर मुस्लिम पिछड़े, 3.5 फीसदी पिछड़े मुस्लिम और 20 फीसदी आरक्षण अति पिछड़ा वर्ग व विमुक्त जातियों के लिए है।

बताते चलें कि यह मामला तमिलनाडु के विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा पहले सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया था। इनमें पीएमके को छोड़ अन्य सभी दलों ने मांग की थी कि केंद्र सरकार, राज्याधीन मेडिकल संस्थानों में ऑल इंडिया कोटे में 50 फीसदी आरक्षण ओबीसी को दे जैसा कि तमिलनाडु सरकार का प्रावधान है। वहीं पीएमके ने 27 फीसदी आरक्षण दिये जाने की मांग रखी। इन दलों की याचिका की सुनवाई करते हुए  बीते 11 जून, 2020 को उच्चतम न्यायालय ने मामले को हाई कोर्ट में ले जाने की बात कही थी। तब याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ताओं से जिरह के दौरान उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश एल. नागेश्वर राव ने टिप्पणी की थी कि आरक्षण मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं है। उनकी इस टिप्पणी का राष्ट्रीय स्तर पर विरोध हुआ था।

दूसरी तरफ मद्रास हाई कोर्ट ने यह माना है कि ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी को आरक्षण दिया जाने में कहीं कोई संवैधानिक अवरोध नहीं है। अब अदालत के फैसले से यह तो साफ हो गया है कि तमिलनाडु के ओबीसी युवाओं को अगले वर्ष से ऑल इंडिया कोटे में भी आरक्षण का लाभ मिल सकेगा। लेकिन अब भी सवाल शेष है कि क्या देश के सभी राज्यों में यह लागू होगा? ओबीसी के सवाल पर जिस तरह की एकजुटता तमिलनाडु के राजनीतिक दलों ने  दिखायी है, क्या इसी तरह की एकजुटता अन्य राज्यों में भी दिखेगी?

न्यायालय नहीं, संसद से निकलेगा स्थायी समाधान

इस संबंध में जनहित अभियान, नई दिल्ली के संयोजक व सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता राज नारायण मानते हैं कि मद्रास हाई कोर्ट का फैसला तत्काल राहत देने वाला तो है परन्तु यह इस मसले का स्थायी समाधान नहीं है। उन्होंने बताया कि राज्याधीन मेडिकल शिक्षण संस्थानों में ऑल इंडिया कोटे के तहत ओबीसी को आरक्षण मिले, इसके लिए संसद में आवाज उठाए जाने की जरूरत है ताकि  न्यायालय में यह मामला लंबित न रहे और ना ही ओबीसी की हकमारी हो। राज नारायण ने कहा कि इससे पहले 2014 में यह मामला संसद में उठाया भी गया था लेकिन तब राजनीतिक दलों ने इस मामले को लेकर गंभीरता नहीं दिखायी। इसके बाद मैं जुलाई, 2015 में इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट गया। वहां अभी भी यह मामला लंबित है। 

राज नारायण, संयोजक, जनहित अभियान, नई दिल्ली

बातचीत में राज नारायण यह अंदेशा भी व्यक्त करते हैं कि मद्रास हाई कोर्ट के फैसले से अभी यह साफ नहीं है कि तमिलनाडु में भी ओबीसी को न्याय मिल सकेगा। वजह यह कि हाई कोर्ट ने विशेषज्ञ समिति के गठन की बात कही है और यदि आने वाले समय में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कोई प्रतिकूल निर्णय आ गया तब हाई कोर्ट के फैसले का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इसलिए यह जरूरी है कि देश के तमाम दल ओबीसी के साथ हो रही हकमारी को लेकर संसद में सवाल उठाएं। रास्ता संसद से ही निकलेगा, अदालतों से नहीं। 

ऑल इंडिया ओबीसी फेडरेशन के महासचिव जी. करूणानिधि व बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव की तस्वीर

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार नहीं करे केंद्र सरकार

वहीं ऑल इंडिया ओबीसी फेडरेशन के महासचिव जी. करूणानिधि का भी मानना है कि यह समय केंद्र सरकार पर दबाव बनाने का है कि वह राष्ट्रीय स्तर पर राज्याधीन मेडिकल संस्थानों में ऑल इंडिया कोटे के तहत ओबीसी का आरक्षण लागू करे। उन्होंने कहा कि इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार नहीं किया जाना चाहिए। सरकार पहल करे। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि चूंकि नीट-2020 अभी नहीं हुई है, इसलिए अभी से भी राज्याधीन मेडिकल संस्थाओं में ऑल इंडिया कोटे के तहत ओबीसी को आरक्षण दिया जा सकता है। 

यह भी पढ़ें :  नीट परीक्षा : ओबीसी आरक्षण के पक्ष में उतरीं सोनिया गांधी, पीएम को लिखा पत्र

केंद्र सरकार करे पहल

बिहार में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने अपनी टिप्पणी में कहा कि मेडिकल संस्थाओं में ओबीसी की हकमारी को लेकर हम लोगों ने पहले भी बात उठायी है। संसद में भी हमारे सांसदों ने इस मामले को उठाया है। इसके अलावा मैंने स्वयं यह बात कई अवसरों पर कही है कि इस मामले में केंद्र सरकार गंभीर नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केवल ओबीसी के नाम की राजनीति करते हैं। उन्हें इस बहुसंख्यक वर्ग के हितों से कोई लेना-देना नहीं है। हम मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को भी देख रहे हैं और चूंकि इस तरह के मामले सुप्रीम कोर्ट में भी लंबित है लिहाजा हम केंद्र सरकार से मांग करते हैं कि वह ओबीसी के हितों को प्राथमिकता दे ताकि हर वर्ष  ओबीसी जिन  सैंकड़ों युवाओं को मेडिकल संस्थानों में आरक्षण नहीं मिलने से दाखिला नहीं मिल पाता है, उन्हें उनका अधिकार मिले। हम इस मामले को लेकर पहले भी लड़ते रहे हैं और आने वाले समय में भी लड़ते रहेंगे।  

(संपादन : अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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