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हमेशा याद आएंगे जेपी से लड़ने वाले राम अवधेश सिंह, आडवाणी के खिलाफ निकाली थी शंबूक यात्रा

डाॅ. लोहिया के कर्मठ अनुयायी रहे राम अवधेश सिंह कर्पूरी ठाकुर के मजबूत हमराही बनकर मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसाओं के अनुरूप पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण को लागू कराने का मार्ग प्रशस्त किया। वहीं 1977 ई. में जनता पार्टी की सरकार के समक्ष उन्होंने संसद में कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग रखी। बता रहे हैं सत्यनारायण यादव

बिहार के शाहाबाद (वर्तमान में भोजपुर) की धरती पर पैदा हुए सपूतों ने अपनी कर्मठता से इतिहास के पन्नों पर हमेशा से अपनी गौरव गाथा दर्ज करवाते रहें हैं। यह धरती अपनी कोख से ऐसे सपूतों को जन्म देती रही है जो प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर बीसवीं सदी तक न सिर्फ बिहार राज्य बल्कि सम्पूर्ण देश-समाज को एक नई राह दिखाते रहें हैं। इसी धरती पर गड़हनी प्रखंड के एक पिछड़े गांव पिपरा दुलारपुर में 18 जून, 1937 को धनेश्वरी देवी एवं मनराखन यादव के घर एक ऐसे बालक का जन्म होता है जो बड़ा होकर डाॅ. राममनोहर लोहिया के उस कथन को हू-ब-हू चरितार्थ करते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था- “कानून खेत में बनते हैं, खलिहान में बनते हैं, संसद तो मात्र उस पर मोहर लगाती है, इसलिए सड़कों पर उतरो और बोलो।” लोहिया के विचारों के अनुरूप वंचित वर्गों को उनका हक दिलाने के लिए आजीवन संघर्षरत रहने वाले, औसत कदकाठी और मृदुल स्वभाव के धनी, वैचारिक कठोरता से पगा व्यक्तित्व, भाषणों से विरोधियों को भी कायल बना लेने की जादूई शक्ति से लैस, वैचारिक अंतर्धारा के अजस्र स्रोत, शांत और सौम्य आभायुक्त सामाजिक योद्धा का नाम था- राम अवधेश सिंह।

 

अभाव के बावजूद शिक्षा के प्रति रही ललक

राम अवधेश सिंह के पिता एक छोटी जोत वाले किसान थे, जो खेती-बधारी करके किसी तरह परिवार का भरण-पोषण किया करते थे। गरीबी में बीत रहे जीवन के बीच इनका बचपन अदम्य तेज, साहस और जुझारूपन से लबालब था। उनमें पढ़ने-सीखने-लड़ने की अद्भूत उत्सुकता थी। पढाई के प्रति इस उत्सुकता को देखते हुए इनकी मां कहा करती थीं- “जब तू मैट्रिक पास कर जइबु त तोहरा के पढऽ खातिर आरा पेठाइब।” 

इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। इंटरमीडियट की पढ़ाई उन्होंने सेंट जेवियर्स काॅलेज, रांची से प्राप्त किया तथा स्नातक की शिक्षा बी. एन. काॅलेज, पटना से पूरी की। इन्होंने भागलपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. और एलएलबी की उच्च शिक्षा हासिल की। बाद के दिनों में जमशेदपुर के प्रसिद्ध मैनेजमेंट काॅलेज एक्सएलआरआइ (जेवियर लेबर रिलेशंस इंस्टीट्यूट) से भी इन्होंने पढ़ाई की। शिक्षा और योग्यता के स्तर पर वे बिहार के चंद पढ़े-लिखे नेताओं में शुमार किए जाते हैं। इनका विवाह श्यामा देवी के साथ हुआ था। 

रामअवधेश सिंह  (18 जून, 1937 – 20 जुलाई, 2020)

1969 में पहली बार विधायक बने राम अवधेश सिंह

राम अवधेश सिंह को बचपन से ही सामाजिक भेदभाव, अशिक्षा एवं वंचित वर्गों के लिए अवसरहीनता की स्थिति विचलित कर रही थी। आंबेडकर, पेरियार और लोहिया के विचारों का इनके जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1969 ई. में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर आरा विधानसभा क्षेत्र से जीतकर वे पहली बार बिहार विधानसभा पहुंचे। आपातकाल के बाद 1977 ई. में हुए चुनाव में वे बिक्रमगंज लोकसभा क्षेत्र से सासंद चुने गए। 1986-1992 तक वे राज्य सभा सांसद के रूप में संसद का हिस्सा रहे। बाद में इन्हें राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का सदस्य चुना गया, जहां इनका कार्यकाल 2007-2010 तक रहा। 

मंडल कमीशन के गठन से लेकर लागू होने तक में रही महत्वपूर्ण भूमिका

राम अवधेश सिंह सामाजिक न्याय आंदोलन के अगुआ थे। वे मानते थे कि फाइलों में प्रश्न और आपत्तियां लगाने की संस्कृति, औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल में प्रशासन के हाथों में रहा एक ऐसा हथियार है जिसके माध्यम से वह किसी भी मुद्दे पर निर्णय को टालने के लिए उपयोग करता रहा है। यह हथियार ऐसे निर्णयों को टालने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं, जो यथास्थितिवादियों की आंखों को नहीं सुहाते। राजनीतिक नेतृत्व ऐसे मसलों में कोई रूचि नहीं लेता, न तो वह इनके बारे में कुछ पूछताछ करता है और न ही प्रकरण के जल्दी निपटारे के लिए कोई प्रयास करता है। इस साजिश को राम अवधेश सिंह भली-भांति जान गए थे, इसीलिए इस प्रवृत्ति को तोड़ने के लिए सदैव संघर्षरत रहे। डाॅ. लोहिया के कर्मठ अनुयायी रहे राम अवधेश सिंह कर्पूरी ठाकुर के मजबूत हमराही बनकर मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसाओं के अनुरूप पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण को लागू कराने का मार्ग प्रशस्त किया। 1977 ई. में  जनता पार्टी की केन्द्रीय सरकार के समक्ष इन्होंने संसद में आवाज बुलंद करते हुए काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग रखी। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जी ने संसद में बयान देते हुए तब कहा था कि “सारे चुनावी वायदे पूरे नहीं किए जाते”। प्रधानमंत्री जी के इस बयान का विरोध करते हुए राम अवधेश बाबू ने संसद में कहा था- “प्रधानमंत्री जी, यदि यह बात लंदन, बर्लिन या पेरिस के संसद में कही गई होती तो निश्चय ही आपको सड़े अंडों की बौछार सहनी पड़ती।” वे यह बात बोलकर सदन से निकल गए थे कि जब तक सरकार इस आयोग की अनुशंसा को लागू नहीं करती है वे तब तक सदन में वापस नहीं लौटेंगे। 

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दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 340 (1) एवं 15 (4) के प्रावधानों के बावजूद, केन्द्र सरकार ने शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग को वंचित वर्ग का दर्जा देने की मांग को लम्बे समय तक नजरअंदाज करती रही। इस तथ्य के प्रकाश में आने के बावजूद कि तटीय प्रदेशों, विशेषकर दक्षिण भारतीय प्रदेशों ने प्रांतीय/ राज-रजवाड़ों/ राज्य सरकार के शासन के दौरान स्वतंत्रता से पूर्व ही आरक्षण के सिद्धांत को मान्यता दे दी थी और उनके अधीन आने वाले सेवाओं, शैक्षणिक संस्थानों व विशेषकर व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा प्रदान करने वाले उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर दी थी।

काका कालेलकर आयोग (1953-55) की सिफारिशों लागू करने की मांग को लेकर राम अवधेश सिंह ने सदन के अंदर-बाहर संघर्ष छेड़ दिया। वे लोहिया के उन विचारों को लेकर सड़क पर उतर गए कि आखिर में जनता ही भटकी हुई संसद को रास्ता दिखाती है। इनके नेतृत्व में मुंगेरीलाल आयोग और काका कालेलकर आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग को लेकर 9 मार्च 1978 को गांधी मैदान, पटना से भारी जमावड़ा के साथ सिंहनाद किया। 10 मार्च, 1978 से जेल भरो अभियान की शुरुआत की गई। तकरीबन 30 हजार लोग उस वक्त इनके सहयोग में आए और जेल गए। इधर सवर्णों द्वारा फारवर्ड लीग की स्थापना कर फूहड़ और भोंडे ढंग से आरक्षण का विरोध करना शुरू कर दिया गया था। पिछडे़ वर्गों के आरक्षण के सवाल पर जगह-जगह हिंसक झड़पें शुरू हो गई थीं। काका कालेलकर आयोग की अनुशंसाएं लागू नहीं हो की जा रही थीं। सरकार कोई जांच कमिटी बनाकर आरक्षण के मुद्दे को टालना चाहती थी। राम अवधेश सिंह का स्पष्ट मानना था कि सरकार या तो कालेलकर कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करे या एक नया कमीशन का गठन करे। सरकार ने सामाजिक न्याय की शक्तियों के दबाव में नये कमीशन का रास्ता चुना और इस तरह तत्कालीन सासंद और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन हुआ जिसे बाद में मंडल कमीशन के नाम से जाना गया। वे एक ओर जहां राष्ट्रीय स्तर पर कालेलकर आयोग की अनुशंसा को लागू करवाने के लिए लड़ाई लड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर बिहार में मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसा के लिए मोर्चा खोले हुए थे। कर्पूरी ठाकुर की नेतृत्व वाली सरकार को इन आंदोलनों से संबल मिला और सरकार के अंदर के आरक्षण विरोधियों पर दवाब बना। बिहार सरकार ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण को मुंगेरीलाल कमीशन की अनुशंसाओं के अनुरूप लागू कर दिया।

जेपी का किया विरोध

राम अवधेश सिंह पिछड़ा वर्ग को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए उस हद तक प्रतिवद्ध थे कि उस कालखंड के सर्वमान्य नेता व सम्पूर्ण क्रांति के प्रणेता जयप्रकाश नारायण की आलोचना करने से भी नहीं चुके। जेपी आरक्षण का आधार आर्थिक मानते थे, जिसका विरोध राम अवधेश सिंह ने किया। उन्होंने पिछड़ों के आरक्षण के सवाल पर जयप्रकाश बाबू के स्टैंड की मुखालफत करते हुए 9 मार्च, 1978 को उन्हें “द्विजों का नेता” करार दिया था तथा इसी प्रश्न पर 12 मार्च, 1978 को पटना के गांधी मैदान में उनसे सीधे उलझ गए थे।

एक बार ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ ओबीसी इम्प्लायज वेलफेयर एसोसिएशन के वार्षिक कार्यक्रम, दिल्लीे के एक समारोह में प्रख्यात वकील राम जेठमलानी ने कहा कि “मैंने कई केस लड़ा और जीता, मगर जिस एक केस को लड़ने और जीतने का मुझे गर्व है, वह मंडल केस (इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार, 1993) है।” आगे उन्होंने कहा कि इस केस को लड़ने में मुझे बिहार के राम अवधेश सिंह से बड़ी मदद मिली। राम अवधेश सिंह तार्किक ढंग से सुप्रीम कोर्ट में बहस किया करते थे। एक अवसर पर आरक्षण की जरूरत को बताने के लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपनी दोनों मुठ्ठियों में चना रख लिया। एक में सूखा और दूसरे में भींगा चना। फिर जजों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ये जो भीगा हुआ चना है, वह भारतीय समाज के अगड़े हिस्से के लोग हैं और ये जो सूखा हुआ चना है, वह पिछड़ा हिस्सा है। सूखे हुए चने को अंकुरित होने के लिए पानी की जरूरत होती है, आरक्षण वही पानी है। डाॅ. आंबेडकर की जीवनीकार धनंजय कीर एक जगह लिखते हैं कि क्रांतिकारी कभी मीठा नहीं बोलते और जब चलते हैं तो उनके पैरों से धूल उड़ती है। कुछ ऐसे ही सामाजिक न्याय के महान क्रांतिकारी थे राम अवधेश सिंह। सामाजिक न्याय के सवालों पर वे हमेशा धीमे स्वर में और स्थिर से तीखा, आक्रामक और आंदोलनकारी की तरह बोलते थे। उनकी भाषा की कठोरता उनके चेहरे के सौम्य भाव से मेल नहीं खाती थी।

आरक्षण के लिए अपनी ही सरकार का किया विरोध

वर्ष 1989 ई. में जब वी.पी. सिंह की सरकार बनी, तब उस समय राम अवधेश बाबू राज्यसभा सांसद थे। चुनाव से पहले जनता दल के घोषणापत्र में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने की बात कही गयी थी लेकिन राष्ट्रपति के अभिभाषण में जब इसे लागू करने का जिक्र नहीं आया तो राम अवधेश सिंह ने संसद में आक्रोशित होते हुए घोषणा कर दिया कि वे राष्ट्रपति का भाषण नहीं होने देंगे। उन्होंने पुरजोर तरीके से कहा कि यदि 9 अगस्त, 1990 तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू नहीं हुआ तो वे इसे लागू करवाने हेतु जनता दल द्वारा जारी घोषणापत्र को सार्वजनिक रूप से जला देंगे। इसके बाद वे सड़क पर उतर आए। मंडल आयोग द्वारा 31 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट सौंप देने के बाद भी इस कमीशन की सिफारिशों को लागू करने संबंधी फाइल केन्द्रीय कल्याण सचिव और कैबिनेट सचिव के बीच लगभग एक दशक तक झूलता रहा था। इसके लिए कई तरह के बहाने बनाए गए। मंत्रियों, सचिवों और मुख्यमंत्रियों की कई बैठकें आयोजित की गईं, जिनका एकमात्र उद्देश्य यह था कि ओबीसी को भारत सरकार में आरक्षण प्रदान करने से किसी भी प्रकार से बचा जा सके। हर बार कैबिनेट सचिव फाइल में कुछ अस्पष्ट प्रश्न व आपत्तियां लगाकार कल्याण सचिव को वापस भेज देते थे। फिर उठाए गए प्रश्नों का जवाब बहुत देरी से दिया जाता था। हर प्रश्न इस बात का संकेत होता था कि इस मामले को लटकाए रखना है और तदानुसार कल्याण मंत्रालय इनका जबाव देने में महीनों लगाता था। इस तरह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की नेतृत्व वाली सरकार ने दस साल निकाल दिए। 6 अगस्त, 1990 को देर रात इस पर दो हिस्सों में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह एवं तत्कालीन समाज कल्याण मंत्री रामविलास पासवान और बतौर सचिव पी. एस. कृष्णन जी के बीच लंबी चर्चा हुई। अंततोगत्वा ओबीसी को केन्द्र सरकार के अन्तर्गत सेवाओं और केन्द्रीय संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का औपचारिक आदेश ऑफिस मेमोरेंडम क्रमांक 36012 / 31/ 90–इस्टाबलिशमेंट (एससीटी) दिनांक 13 अगस्त, 1990 को जारी किया गया।

कुछ अप्रत्याशित घटनाओं एवं सदन में दिए गए आश्वासन के अनुरूप वी.पी. सिंह की सरकार ने 7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा कर दी। इधर राम अवधेश सिंह अपने सामाजिक न्याय के समर्थक साथियों के साथ “मंडल रिपोर्ट लागू करो वरना कुर्सी खाली करो” के नारों के बीच जंतर-मंतर पर पुलिस की लाठियों का सामना कर रहे थे। वी.पी. सिंह को जब इस घटना का पता चला तो वे स्वयं अपने दल-बल के साथ राम अवधेश सिंह से मिलने जंतर-मंतर मिलने जा पहुंचे और उनसे कहा- “मैंने आपका काम कर दिया है।” 

फारवर्ड प्रेस पर प्रकाशित एक साक्षात्कार में पी. एस. कृष्णन जी कहते हैं कि “मेरे विचार से स्वतंत्र भारत के इतिहास में वी.पी. सिंह के अतिरिक्त कोई अन्य ऐसा प्रधानमंत्री नहीं हुआ जो इस तरह का सकारात्मक और निर्णायक कदम उठा सकता था। उन्होंने तत्कालीन कैबिनेट सचिव, जो उनके विश्वासपात्र और काॅलेज के सहपाठी थे, के पूर्वाग्रहस्त विचारों को नजरअंदाज किया। उस समय श्री रामविलास पासवान ने जो भूमिका अदा की वैसा शायद ही कोई कल्याण/ सामाजिक न्याय मंत्री निभा सकता था।” राम अवधेश सिंह ने सामाजिक न्याय के लिए संसद से सड़क तक जो संघर्ष का वातावरण बनाया था उसका परिणाम मिलना ही था। पिछड़ा वर्ग के लिए सरकारी सेवाओं में 27 प्रतिशत रिजर्वेशन का नोटिफिकेशन जारी हो चुका था। इधर सरकार की सहयोगी पार्टी और भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवानी ने धर्म की आड़ लेते हुए पिछड़े वर्ग के लोगों को भरमाने हेतु सोमनाथ से राम यात्रा निकाली। राम अवधेश सिंह इस षडयंत्र को अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने रामरथ यात्रा के प्रतिकार में पिछड़ों को जागृति करने के लिए शंबूक रथ पर सवार होकर मैदान में निकल पड़े। उत्तर प्रदेश में इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वहीं बिहार में आडवाणी को तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाने से रामरथ यात्रा भी स्थगित हो गया। सामाजिक न्याय और आरक्षण के लिए राम अवधेश सिंह के संघर्षपूर्ण अवदानों के लिए उन्हें “गाॅड-फादर ऑफ मंडल रिजर्वेशन” के नाम से जाना जाता है।

न्यायपालिका के दुरूपयोग से वाकिफ थे राम अवधेश सिंह

राम अवधेश सिंह के सहयोगी रहे गणपति मंडल जी उनके साथ बिताए पल को याद करते हुए कहते हैं – “सत्तर के दशक की बात है। वे हमसे कहे थे, मंडल! अब देश में न्यायपालिका के जरिए शासन होगा। डेमोक्रेसी में विधायिका जनता के प्रति जवाबदेह होती है। अब विधायिका में पिछड़े वर्ग के नेताओं की भागीदारी बढने लगी है। कानून विधायिका बनाती है। विधायिका में पिछड़ों की भागीदारी बढ़ जाने से पिछड़ों के हित में कानून बनाने पड़ेंगे, लेकिन शासक वर्ग चाहेगा कि ऐसा नहीं हो और पिछड़ों के वोट की लालच में वे इसका विरोध भी नहीं करेंगे। ऐसे में वे लोग दो काम करेंगे। एक यह कि विधायिका से कानून पिछड़ों की हितों में तो बनाए जाएंगे लेकिन कोर्ट उसे असंवैधानिक करार देगा, क्योंकि कोर्ट में भी तो शासक जाति के ही लोग हैं और कोर्ट का फैसला तो फिर भगवान के फैसले की तरह मान लेने की बाध्यता होगी। दूसरी बात कि कोर्ट में रिट मामले-मुकदमों के फैसले के आधार पर निर्णय लिए जाने से पिछड़ों की हकमारी की जाएगी।” 

सचमुच में वे कितना अग्रसोची थे, हैरत होती है। वे न्यायपालिका में आरक्षण के जबरदस्त पैरोकार थे। इनके पुत्र डाॅ. कबीर बताते हैं कि “पिताजी हमेशा अन्याय के खिलाफ लड़ते रहते रहे चाहे सड़क पर हो, सदन में हो या कोर्ट में। वंचितों को आरक्षण के माध्यम से सामाजिक न्याय दिलाने के अलावे न्यायिक सेवा आयोग की स्थापना एवं बिहार के साथ केंद्र की सौतेलेपन व्यवहार को लेकर वे हमेशा आवाज उठाते रहे।”

चौकीदारों-दफादारों की लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाया

राम अवधेश सिंह बिहार में चौकीदार-दफादार संघ के अध्यक्ष रहे। चौकीदारों को चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों का दर्जा दिलाने के लिए उनके नेतृत्व में चौकीदारों ने पटना के बेली रोड पर जाड़े के दिनों में महीनों तक अहर्निश धरना दिया। बिहार सरकार को इन लोगों के सामने झुकना पड़ा। चौकीदारों को राज्य सरकार के कर्मचारी का दर्जा मिला। आज ऐसी स्थिति है कि बिहार के चौकीदारों को अन्य राज्यों के मुकाबले सम्मानजनक वेतन एवं भत्ते मिलते हैं। होमगार्ड्स के अधिकारों के लिए हुए आंदोलनों में भी उन्होंने अभूतपूर्व योगदान दिया। इन्हीं के नेतृत्व में हुए संघर्ष की देन है कि आज होमगार्ड के लोग भी पुलिस की ड्यूटी पर तैनात किए जाते हैं और उन्हें सम्मानजनक भत्ता दिया जाता है। रेलवे का मालभाड़ा समानीकरण नीति बिहार के लिए अभिशाप है, इस बात को उनहोंने सत्तर के दशक में ही समझ लिया था. भारत सरकार का उक्त नियम बिहार के औद्योगीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा है, ऐसा उनका मानना था, जो कि बाद के दिनों में सच साबित हुआ। 

सामाजिक न्याय के इस महान सेनानी का अध्ययन एवं लेखन का दायरा अति व्यापक था। इनके बहुआयामी व्यक्तित्व को इनके लेखन के माध्यम से आँका जा सकता है। इनके लेखनी से नि:सृत करीब दर्जन भर पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें “क्रांति की छटपटाती हुई रूह”, “दाम बांधो या गद्दी छोड़ो”, “हलधरों, हमला करो”, “क्रांति की तीन दिशाएं”, “जंगल को जगाओ, पहाड़ों को पुकारो”, “ब्राह्मणवाद से हर कदम पर लड़ो”, “समाजवाद बनाम इंदिरा”, “इंकलाब की आहट”, “आजाद मुल्क के गुलाम लोग”, “मिट्टी का बादशाह”, “पशुधरों की अंगड़ाई ग्रामीण चौकीदारों की लड़ाई”,  “जयप्रकाश का असली चेहरा” आदि प्रमुख हैं।  इनकी पुस्तकें जब प्रकाशित होती थीं तो रूढिवादी समाज में एक अजीब सी खलबली मच जाती थी।

राम अवधेश सिंह भारतीय समाज एवं इसके तंत्र को बहुत बारीकी से जानते थे। वे समाजवाद के अप्रतिम साधक भूपेन्द्र नारायण मंडल जी के व्यक्तित्व एवं सोच से खासे प्रभावित थे। भारतीय चुनावी प्रक्रिया में अर्थतंत्र की बढ़ते भूमिका को लेकर वे हमेशा चिंतित रहते थे। भूपेन्द्र बाबू के पौत्र एवं मगध विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के सेवानिवृत्त प्रोफेसर दीपक प्रसाद यादव जी राम अबधेश बाबू को स्मरण करते हुए बताते हैं- “सन 1992 की बात है। दिल्ली के लोदी गार्डेन में मार्निंग वाॅक के दौरान हमारे बीच अक्सर चर्चाएं होती रहती थीं। वे बड़े ही स्नेहिल व्यक्ति थे। हर चीज को लेकर साकांक्ष रहने वाले राम अवधेश बाबू चुनावी प्रक्रिया को खर्चीला बनाए जाने को लेकर बड़े गंभीर एवं चिंतित नजर आते थे। वे कहते थे, जानते हो दीपक, इलेक्शन को जान-बूझकर मंहगा किया जा रहा है। उनका मानना था कि जब गरीब आदमी चुनाव नहीं लड़ पाएगा तो उनकी पीड़ा को स्वर कौन देगा।” करीब तीन दशक पहले कही गई उनकी बातें आज खतरनाक रूप से सच हो रही हैं। 

राम अवधेश सिंह का राजनीतिक और सामाजिक जीवन सामाजिक न्याय के साथ-साथ चुनाव प्रकिया की शुचिता, सादगी सहित विभिन्न कारणों से उल्लेखनीय माना जाएगा। वे सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी एवं भारतीय लोक दल का अहम किरदार रहे। हेमवती नंदन बहुगुणा जी के निधन के बाद इन्हें 1989 ई. में लोक दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। वे बिहार लोक दल के अध्यक्ष पर भी सुशोभित रहे। बिहार स्टेट बैकवर्ड क्लास एसोशिएशन, बिहार स्टेट दफादार-चौकीदार पंचायत, बिहार स्टेट होम गार्ड्स, बिहार स्टेट आफिसर्स सफाई-कर्मचारी पंचायत के अध्यक्ष पद को भी इन्होंने बखूबी संभाला था।  

आएंगे हमेशा याद

बीते 20 जुलाई 2020 को पटना में दलाज के दौरान सामाजिक न्याय के सच्चे प्रहरी एवं गरूड़ के समान तीक्ष्ण दृष्टि रखने वाले इस महान सामाजिक योद्धा का कोविड-19 के कारण 83 वर्ष की आयु में निधन हो गया। अपने पीछे चार पुत्र, एक पुत्री सहित भरा-पूरा परिवार छोड़ गए। वहीं करोड़ों प्रशंसकों के हृदय में सामाजिक न्याय के बीज अंकुरित होने को बो गए। वे डाॅ. लोहिया, डाॅ. आंबेडकर एवं पेरियार के क्रांतिकारी विचारों के अनन्य उपासक थे। सम्पूर्ण जीवन उन्होंने सामाजिक न्याय, समता, भाईचारा को बढ़ावा देने के लिए अपनी जान लड़ाते रहे। उनके द्वारा जीया गया संघर्षमय जीवन वंचित जमात की वर्तमान पीढ़ी के लिए प्रकाश पूँज बनकर मार्ग प्रशस्त करता रहेगा। निस्संदेह राम अवधेश बाबू जैसे जुझारू व्यक्तित्व सदियों में एकाध पैदा होते हैं।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सत्यनारायण यादव

सत्यनारायण प्रसाद यादव ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, बिहार में शोधार्थी (मैथिली) हैं तथा स्वतंत्र लेखक हैं

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