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प्यार आदिवासियत की खासियत, खाप पंचायत न बने आदिवासी समाज

अपने बुनियादी मूल्यों के खिलाफ जाकर आदिवासी समाज अन्य जाति, धर्म या बिरादरी में विवाह करने वाली अपनी महिलाओं के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने लगा है। इस प्रवृत्ति के पीछे कौन है? क्या हैं इसके कारण? नीतिशा खलखो इन सवालों को उठा रही हैं

आजकल आदिवासी समाज को अपनी महिलाओं का अन्य जाति, धर्म या बिरादरी में विवाह करना इतना नागवार क्यों गुजर रहा है? इस सोच के पीछे का सच क्या है? क्या आदिवासी समाज शुरू से महिलाओं के प्रति इतना ही क्रूर था? आजकल ऐसी कई घटनाएं हमें अखबारों और सोशल मीडिया के हवाले से आए दिन देखने, सुनने और जानने को मिल रही हैं। क्या यही हमारी प्राचीन संस्कृति व आदिम मान्यताएं हैं? 

किसी भी समाज की निर्मिती में स्त्री-पुरुष दोनों का बराबर सहयोग होता है। फिर क्या वजह है कि पुरुषों द्वारा ब्याह कर लाई गई अन्य समाज की स्त्री को विभिन्न रस्मों-रिवाजों के बहाने अपने समाज का अंग बना लिया जाता है? स्त्रियां यदि अपने समुदाय, जाति, वर्ण व धर्म से बाहर जाकर विवाह करें तो उनके खिलाफ ट्रोलिंग, गाली-गलौज, चरित्र हनन व मानसिक व शारीरिक हिंसा की जाती है। ऐसा क्या केवल आज  हो रहा है या पूर्व में भी इस तरह की घटनाएं होती रही हैं? क्या यह संस्कृतिकरण का अदृश्य हमला है जो आपको, आपकी मानसिक संरचनाओं को बहुत अंदर तक लगातार बदल रहा है? 

इज्ज़त का बोझ केवल स्त्रियां ही ढोएंगी – बाहरी समाज की यह सोच, यह अवगुण अब हमारे आदिवासी समाज में भी दिखने लगा है। मसलन, 20 अगस्त, 2020 को तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में एक आदिवासी महिला ने एक मुसलमान से शादी की। इस शादी का कार्ड शादी से तीन-चार दिन पहले से सोशल मीडिया पर वायरल था। इसके विरोध में अनेक टिप्पणियां देखने को मिलीं। इसे कई आदिवासियों ने “लव जिहाद” भी कहा। ऐसा करते हुए उन्होंने उस स्त्री के जीवन के बारे में जो बातें सबके सामने रखीं, उनसे एक स्त्री की गरिमा के हनन का मामला बनता है। साथ ही मानहानि का भी। 

प्यार और सम्मान आदिवासियत की खासियत

सोशल मीडिया पर बताया गया कि दूसरे समाजों के लड़के, आदिवासी लड़कियों को उनकी नौकरी की वजह से पसंद करते हैं। फिर शादी करके उसके नाम की जमीन हथियाते हैं। फिर अपने बच्चों को मां के सरनेम का इस्तेमाल कर आदिवासी आरक्षण का लाभ दिलवाते हैं। यह सब कितना सही है और कितना गलत इसे तथ्यों के सापेक्ष देखे जाने की जरुरत है। 

लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है। हो यह रहा है कि सोशल मीडिया, जो कि सार्वजनिक अभिव्यक्ति का माध्यम है, के जरिए एक महिला को पंचायत के सामने पेश किया जा रहा है, उसे नंगा किया जा रहा है। अति तो तब होती है जब उसकी जाति प्रमाणपत्र को रद्द करने की बात की जाती है। बात और बढ़ती है और कहा जाता है कि उसकी थाली में गाय परोसी जाएगी लेकिन सूअर नहीं। यह कितना अन्यायपूर्ण है कि यहां तक कहा जाता है कि लात-जूता खाने के लिए आदिवासी महिलाएं गैर-आदिवासी या दिकू पुरुषों के पास जाती हैं। 

अपनी स्त्रियों के प्रति इतनी घृणा और द्वेष आखिर क्यों है और यह आदिवासी समाज को कहां ले जा रहा है, इसे समझने की जरुरत है। 

स्त्री की यौनिकता के प्रश्न पर आज आदिवासी समाज को भी कट्टरवादी हिन्दू संगठनों के समकक्ष देखा जा सकता है। तो क्या हम समझें कि वनवासी कल्याण केंद्र, सेवा भारती, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद्, आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), सरस्वती शिशु मंदिर आदि का आदिवासी बहुल क्षेत्रों में काम करने का यह प्रभाव है? या बात कुछ और है? पहले एक-दो लोगों को नफरत का प्रवक्ता बनाया जाता था जैसे एक प्रवीण तोगड़िया थे, जिनका काम दलित-बहुजनों में धर्म के नाम पर नफरत का जहर फैलाना था। लेकिन आज हर जगह उन्मादियों की भीड़ है जो देश में बंधुता और भाईचारे की हत्या को उतावले हैं। आज इसी तरह की घृणा और द्वेष आदिवासी पुरुषों में देखने को मिल रहा है।

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यहां समझने की आवश्यकता है कि आदिवासी पुरुषों के मन में यह डर घर कर गया है कि महिलाओं का अनुपात गड़बड़ा रहा है और हमारे लिए महिलाएं कम पड़ जाएंगी। जबकि हमारे समाज के अनेक अगुआ नायकों ने भी समाज से बाहर शादी की और उनके द्वारा लाई गई दिकू स्त्रियों को सम्मान भी मिला। फिर चाहें वो जयपाल सिंह मुंडा हों, पद्मश्री रामदयाल मुंडा, हाल में दिवंगत अभय खाखा हों या फिर लब्ध प्रतिष्ठित आदिवासी स्कॉलर् और अगुआ वर्जिनियस खाखा। उनकी तो आदिवासी पुरूषों ने इस प्रकार की ट्रोलिंग कभी नहीं की (होनी भी नहीं चाहिए थी)।

यह बहुत महत्वपूर्ण कालखंड है। पूरे देश में नफरत फैलाई जा रही है। ऐसे में यह आवश्यक है कि आदिवासी समाज के लोग उन्मादी न बनें। यह समझने की आवश्यकता है कि सीएनटी/एसपीटी एक्ट के रहते आदिवासी जमीन की लूट हुई है और गैर-आदिवासी जनता की भीड़ बढ़ी है. इस पर विचार करें। पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्र झारखंड में जहां कोई गैर-आदिवासी, आदिवासियों की जमीन खरीद ही नहीं सकता, वहां मात्र आदिवासी स्त्रियों के कारण बाहरी आबादी झारखण्ड में बस गई है, यह कहना अविवेकपूर्ण और तथ्यों से परे है। सरकार (ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल) और समाज के कुछ अवांछित लोगों द्वारा इस तरह की भ्रामक बातों का खंडन करने के लिए सर्वेक्षण की मांग पहले से की जाती रही है। 

बहरहाल, आदिवासी समाज की खासियत उसकी आदिम संस्कृति है जिसकी बुनियाद में प्यार और समानता है। आज यदि कोई समस्या है भी या अस्तित्व पर कोई सवाल हैं भीं तो उनका सुलझाव विवाद से नहीं बल्कि संवाद से किया जाना जरूरी है।  

(संपादन: नवल/गोल्डी/अमरीश)


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लेखक के बारे में

नीतिशा खलखो

नीतिशा खलखो दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में सहायक प्राध्यापिक हैं तथा स्वतंत्र रूप से आदिवासी व स्त्री विमर्श आदि विषयों पर नियमित लेखन करती हैं

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