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बहस-तलब : ‘धर्मयुद्ध’ बनाम दलित-बहुजनों की अपनी लड़ाई

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए कल्याण सिंह ने राम-मंदिर के लिए बाबरी मस्जिद को टूट जाने दिया। इससे उन्हें क्या हासिल हुआ? उनकी लोधी जाति आज कहां है? क्या कल्याण सिंह को मंदिर के भूमिपूजन का निमन्त्रण मिला? विनय कटियार इतना दहाड़ते थे, उनका क्या हुआ? रामजी यादव का विश्लेषण

धर्म और जाति के आधार पर अपने को महान बताने वाले हर आदमी को धर्म और जाति ने अपना क्रूसेडर (धर्मयोद्धा) बना लिया है। इस प्रकार, धर्मसत्ता और जाति व्यवस्था ने एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया द्वारा और जीवन-व्यवहार में अपने लिए बिना वेतन के सिपाहियों का एक राष्ट्र ही खड़ा कर दिया है, जिसके भीतर हजारों प्रकार की जटिलताएं बिलकुल गझिनता के साथ मौजूद हैं। हर व्यक्ति अपने खुदाओं के लिए संघर्ष में व्यस्त है। लगता है उसकी अपनी कोई समस्या है ही नहीं। वह उस पर लाद दी गई धार्मिक श्रेष्ठता की लड़ाई लड़ रहा है और पूरी गंभीरता और खूंखारियत के साथ लड़ रहा है। वह जाति की श्रेष्ठता की लड़ाई भी लड़ रहा है और विजय अथवा विजय के भ्रम को बनाए रखने के लिए उन्हीं लोगों का समर्थन लेना चाहता है जो उसे ऐसा ही क्रूसेडर बने रहना देखना चाहते हैं।

उसके क्रूसेडर बने रहने से उनको बिना लड़े ही सारी जगहों पर विजय मिली हुई है। इसलिए वे उसे बता रहे हैं कि वह वास्तव में किस प्रकार औरों से श्रेष्ठ है। उसकी यश गाथाएं कहां से कहां तक और कैसे-कैसे फैली हुई हैं। उसके पूर्वजों ने किस प्रकार धर्म की रक्षा की है। और उस परंपरा को आगे बढ़ाने का मौका उसे किस प्रकार इतिहास ने दिया है। वह हिन्दू है, पटेल है, पाटिल है, कुशवाहा है, यादव है, राजभर है, पासवान है, प्रजापति है, सोनकर है, वह जाट है, गुर्जर है, राजपूत है, गहरवार है, परमार है, जाटव है, वाल्मीकि है। वह अपनी श्रेष्ठता के लिए लड़ रहा है। 

वह क्षत्रिय होने तक की यात्रा करना चाहता है। वह वीरता की लोककथाओं और मिथकों का एक अंश हो जाना चाहता है। उसमें पराक्रमों और चमत्कारों का एक दुर्निवार आकर्षण है। इसका हिस्सा होने के लिए वह अकेले या सामूहिक रूप से लगातार लड़ रहा है। एक गजब की बात तो यह है कि वह इन सारे उपक्रमों से क्षत्रियत्व तक तो जाना चाहता है लेकिन ब्राह्मणत्व में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। यह जानते हुए भी  कि जाति और वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मण सबसे ऊपर बैठा हुआ है लेकिन वह ब्राह्मण बनने की कोई कोशिश ही नहीं कर रहा है। इसका क्या मतलब हो सकता है? क्या ब्राह्मण, क्षत्रियों से निकृष्ट होता है या फिर वह इतना पूज्य और पवित्र होता है कि उसका पद पाना असंभव है? आखिर लोगों की दिलचस्पी सिर्फ क्षत्रिय बनने में क्यों है? क्या क्षत्रिय बनने में लोगों की दिलचस्पी उनकी लिए क्रूसेडर बनने की आधारभूमि है? क्या धर्म और क्षत्रियों का संबंध इतिहास की कोई अनसुलझी गुत्थी है जिसका कोई आदि-अंत नहीं दिखता। 

भारतीय मिथकों में वशिष्ठ और विश्वामित्र की कहानी है जो ब्राह्मणों और क्षत्रियों के संघर्ष को हमारे सामने रखती है। विश्वामित्र क्षत्रिय हैं और वशिष्ठ ब्राह्मण हैं। दोनों में वर्षों भीषण युद्ध चलता है। ब्राह्मण किसी भी हाल में विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि नहीं बनने देना चाहते हैं। ना ही असुर, स्वर्ग के मिथक को तोड़ने के विश्वामित्र के प्रयास को सफल होने देते हैं। कालांतर में क्षत्रिय गाय और ब्राह्मण को बचाने के लिए अपनी जान देते रहते हैं। राम के पूर्वज दिलीप द्वारा एक गाय के बचाने की कहानी पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जाती रही है और स्वयं राम ने एक ब्राह्मण के लड़के की मृत्यु का दोषी मानकर शंबूक की हत्या कर दी थी। विश्वामित्र, राम-लक्ष्मण के प्रारंभिक गुरु हैं लेकिन राम के मंत्री वशिष्ठ हैं। ये कहानियां क्षत्रियों के शिफ्टिंग की कहानियां हैं। क्षत्रिय उत्तरोत्तर ब्राह्मणवत्सल बनते दिखते हैं लेकिन उनमें ब्राह्मण बनने की रत्ती भर भी ललक नहीं दिखती है। वे मानसिक रूप से ब्राह्मणों की अधीनता स्वीकारते चलते हैं। इन कहानियों के बहुत आगे आज के आधुनिक दौर में भी लोगों में क्षत्रिय बनने की ललक है लेकिन उन्होंने मानसिक रूप से ब्राह्मणों की अधीनता स्वीकार कर ली है।

धर्मयुद्ध या श्रेष्ठतावाद को बनाए रखने की सुनियोजित साजिश?

मेरा मानना है कि ऐसा कोई बुरा काम नहीं जिसे ब्राह्मण वर्ग न करता हो। व्यापार, सूदखोरी, वेश्यावृत्ति, दलाली, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, झूठ, बेईमानी और पाखंड सब कुछ उसके लिए उतना ही सरल है जितना मीठा बोल कर किसी की जेब से पैसा निकलवाना। लेकिन फिर भी उसने अपने दर्जे को बचाए रखा। मुझे लगता है कि इस मामले में ब्राह्मणों ने बहुत कुशल रणनीति अपनाई है। एक तो उसने सब कुछ करके भी स्वयं को अपराधबोध से मुक्त रखा और दूसरे उन्हीं कामों के लिए गैर ब्राह्मणों को अपराधबोध के दलदल में लगातार धकेलता गया। जो अपराध करने के बावजूद उसके बोध से मुक्त रहेगा, उसका नैतिक बल बचा रहेगा, लेकिन जिसने जरा सा भी गलत काम कर दिया हो और उसे लगातार अपराधबोध के दलदल में धकेल दिया जाय तो वह नैतिक रूप से कमजोर होता जाएगा। और ब्राह्मण तो पैसा लेकर यह काम करता रहा है। पैसा लेकर लोगों को अपराधबोध के दलदल में धकेलते रहना कितना भयावह है इसकी कल्पना भी दारुण है लेकिन ब्राह्मण यह हमेशा करता आया है। गांव में किसानों और चरवाहों के एकाध पशु, खूंटे में बंधे हुए रस्सी से घुटकर या प्यास से मर जाते रहे हैं। इस बात पर ब्राह्मण उस किसान या चरवाहे को ‘हत्यारी’ लगवाता था और दस-पंद्रह दिन भीख मांगकर खाने की सजा दिलवाता था। कभी-कभार बिल्ली आदि के मर जाने पर जजमानों से सामर्थ्यानुसार सोने या चांदी की बिल्ली बनवाकर हड़प लेता था लेकिन यदि बिल्ली को मारने वाला उसका अपना बेटा होता तो उसे बेदाग छोड़ते हुए कहता कि बिल्ली भवसागर से मुक्त हो गई। इन सब घटनाओं से हमें क्या सबक मिलता है?

हम पाते हैं कि ब्राह्मण हमेशा से लोगों पर इस तरह के मानसिक हमले करता रहा है। उसका सबसे बड़ा उद्देश्य शेष समाजों को नैतिक रूप से कमजोर करना रहा है क्योंकि शेष समाज ही उसका उपजीव्य रहा है। शेष समाज से ही उसका अस्तित्व है। यही नहीं, शेष समाज की मूर्खता में ही उसका सुरक्षित अस्तित्व है इसलिए वह शेष समाज को मानसिक रूप से अधिकाधिक कमजोर करता रहा है। धीरे-धीरे शेष समाज उसका इस कदर मुखापेक्षी होता गया कि वह सरेआम शेष समाज का अपमान करता लेकिन शेष समाज उसे सम्मान ही समझता रहा। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो छत्रपति शिवाजी हैं। सही मायने में यह ब्राह्मण पर निर्भरता का सबसे शर्मनाक इतिहास है जो यह बताता है शरीर चाहे कितना ही बलशाली हो या बघनखा (नुकीला हथियार) कितने भी कौशल से चला लिया जाए लेकिन जब दिमाग की नसें सूख जाती हैं तो माथा ऊंचा करने के लिए ब्राह्मण की जरूरत पड़ती है। भले ही वह पैर के अंगूठे से तिलक करे। 

मुझे लगता है कि क्षत्रियत्व की भूख के चलते शिवाजी जैसा कुशल, संवेदनशील, दृढ़ और दूरदर्शी व्यक्तित्व भी सांप्रदायिक राजनीति का आइकॉन बनने को अभिशप्त हुआ। और कालांतर में क्षत्रिय बनने की भूख ने ही बहुजनों को ब्राह्मणवाद का क्रूसेडर बना दिया। जबकि देखा जाय तो शिवाजी को किसी ब्राह्मण से सर्टिफिकेट लेने की कोई जरूरत थी ही नहीं। वे एक कद्दावर शासक थे जिन्होंने महाराष्ट्र की सामाजिक स्थिति को बदलकर रख दिया। उनकी योग्यता स्वाभाविक रूप से एक योद्धा की थी लेकिन वे अपने आपको ब्राह्मणवाद के चंगुल से नहीं बचा पाए। ऐसा लगता है कि भारत के बहुजनों के पूर्वज लगातार उन बंधनों को सहज ही स्वीकार करते रहे जो उन्हें अपनी जाति का क्रूसेडर तो बना देता था लेकिन उनमें कोई ऐसी चीज़ पैदा नहीं होने देता था जो भविष्य में उनके वंशजों को लाभ पहुंचाए। लेकिन इस धर्मयुद्धवाद का परिणाम कितना घातक है उसकी ओर ध्यान देने की जरूरत है। उसके नफे और नुकसान की ओर तो ध्यान देने की जरूरत तो है ही लेकिन सबसे ज्यादा इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि वास्तव में उसका नफा कौन खा रहा है और उसका नुकसान कौन भुगत रहा है? 

इसका नफा खा रहे हैं वे लोग जो अपने आपको सबसे बड़ा और ऊंचा साबित करते हैं, जो अपने आपको को सबसे पवित्र और सबसे दिमागदार साबित करते हैं। जो अनिवार्यतः परजीवी हैं लेकिन उसका उन्हें रत्तीभर भी अपराधबोध नहीं है। जो भले ही आपके संघर्ष में नकारात्मक भूमिका निभाते हों लेकिन आपके हर विमर्श में मुंह घुसाये चले आते हैं। उनकी योग्यता की जांच हो तो उनकी सारी पोल-पट्टी खुल जाएगी। खुली प्रतियोगिता से वे घबराते हैं। वे लोग पूरे देश को क्रूसेडर बनाकर उसके फल का उपभोग कर रहे हैं। क्रूसेडर जनता दंगे कर रही है, मॉब लिंचिंग कर रही है, अपने लोगों के घर जला रही है, हताश हो रही है और आत्महत्या कर रही है। एनकाउंटर में मारी जा रही है। अपने दिमाग पर किए जाने वाले हर प्रहार से वह बेजार और बेसुध है। उसका मानस इतना कमजोर है कि वह अपने भविष्य को लेकर जरा भी चिंतित नहीं है। वह अपनी भूख में घीसू-माधव बनी नज़र आ रही है। आप चाहे उनकी कितनी भी अच्छी-बुरी व्याख्याएं कर लीजिये लेकिन वास्तविकता यही है। मैं जब मनरेगा में फर्जी जॉब कार्ड के जरिये एक चौथाई मजदूरी पाकर भी खुश होने वाले लोगों को देखता हूं तो कलेजा फटकर रह जाता है, लेकिन क्या कर सकता हूं – उन लोगों को जिन्हें मनरेगा के डकैतों ने इतना कमजर्फ बना दिया है कि वे एक सरकारी योजना में अपने नाम का गलत इस्तेमाल भी इसलिए बर्दाश्त करने को लालयित हैं क्योंकि उन्हें इसके एवज में कुछ रुपए मिल रहे हैं। वह इसे अपना अधिकार समझे न समझे लेकिन सरकार और सरकार में बैठे लोगों की नेमत जरूर मानता है। वह यह सोच ही नहीं पाता कि यह घपला कितनी भयानक दुनिया बना रहा है। यह परिदृश्य ऐसे घीसू-माधवों की एक विशाल और दयनीय दुनिया बनाए जा रहा है जिन पर तरस खाकर चवन्नी फेंकने वाले ‘उदार’ जमींदारों की कतारें बढ़ती जा रही है। उनका वर्चस्व और शिकंजा लगातार मजबूत होता जा रहा है। 

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ऐसे में सबसे बड़ा घाटा यह हुआ कि क्रूसेडर बहुजनों ने अपने तकलीफ़ की कहानियां नहीं लिखीं। वे उत्पीड़ित भले रहे हों लेकिन उनके पास उत्पीड़ितों की भाषा नहीं थी, बल्कि वे लगातार उत्पीड़कों की भाषा बोलते रहे। उन्होंने वही किया जो उत्पीड़क करते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि वे धर्म की रक्षा करते रहे लेकिन धर्म की शिकार मानवता की ओर उन्होंने देखा ही नहीं। उन्होंने स्त्रियों की चीख नहीं सुनी। उन्होंने परत-दर-परत शोषण के शिकार लोगों की ओर ध्यान नहीं दिया। यहां तक कि उन्होंने अपने ऊपर भी ध्यान नहीं दिया। उनके नारे बड़े डरावने थे और दरअसल ये नारे उनके अपने नहीं थे बस आवाज़ भर उनकी अपनी थी। अपनी इस ज़ोरदार चीख और आवाज़ को उन्होंने रोटी और रोजगार की मांग करते लोगों की लड़ाई में इस्तेमाल नहीं किया बल्कि इस आवाज़ को उन्होंने ऐसी जगहों पर जाया किया जहां उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। जहां उनका कोई सम्मान नहीं हुआ। जो उनकी लड़ाई थी ही नहीं। 

एक उदाहरण के तौर पर मैं कह सकता हूं कि कल्याण सिंह ने राममंदिर के लिए बाबरी मस्जिद को टूट जाने दिया। इससे उन्हें क्या हासिल हुआ। उनकी लोधी जाति आज कहां है। क्या कल्याण सिंह को मंदिर के भूमिपूजन का निमन्त्रण मिला? विनय कटियार इतना दहाड़ते थे, उनका क्या हुआ? क्या वे बुलवाए गए? उमा भारती या गोविंदाचार्य या गुजरात दंगों में हिन्दुत्व का झंडा लहराते हुये आइकॉन बने उस युवक का कुछ हुआ? पिछले दिनों खबर आई कि वह गोधरा में जूता पॉलिश करते हुये पुराने दिनों पर पश्चाताप कर रहा है। ऐसे हजारों-लाखों लोगों का क्या हुआ जो अपनी डरावनी चीख़ों और विध्वंसक मनोवृत्तियों के साथ चारों तरफ फैले हुये थे? वे लोग हिन्दुत्व के क्रूसेडर थे। उनका पूरा वजूद एक ऐसी राजनीति का खाद-पानी था जो स्वयं उन्हीं के खिलाफ थी। एक समय उनके चेहरे का इस्तेमाल हुआ। एक समय उनके मुंह में ऐसे राजनीतिज्ञों की भाषा थी और इसलिए उनका इस्तेमाल किया गया। उसके बाद फिर उनको राख़ होना था और वे हो गए। लेकिन केवल वे ही नहीं बल्कि उनकी कतारों में असंख्य दूसरे लोग भी लग गए और वे आज उनकी ही तरह वह भाषा बोल रहे हैं जिसकी आज वैसे राजनीतिज्ञों को जरूरत है। 

जब आप अपनी ज़रूरतों को भूल जाते हैं। जब आपके सामने अपने आत्मसम्मान का कोई सवाल नहीं होता। जब आप अपनी फटी धोती और आधे पेट की रोटी का कारण ऐसे लोगों को मानने लगते हैं जो वास्तव में इसके लिए जिम्मेदार हैं ही नहीं तब आपके क्रूसेडर बनने का समय आसपास होता है। जब आप अपनी अशिक्षा और बेरोजगारी को राज्य का सवाल नहीं मानते तो आपके भीतर क्रूसेडर जन्म ले चुका होता है। जब आप अपने समय की कोई आवाज़ नहीं सुनते तब आपके वजूद का इस्तेमाल एक क्रूसेडर के रूप में होना शुरू हो जाता है। तब आप विज्ञान और तर्क को छोड़ देते हैं और निहित स्वार्थों के इशारे पर ताली-थाली बजाने लगते हैं। मोमबत्ती और आतिशबाज़ी जलाने लगते हैं। और वे लोग खुश होते हैं कि अब आप उनके क्रूसेडर हैं। अब वे बेखटके रेल बेच सकते हैं। अब वे एक झटके में हजारों लाखों लोगों को बेरोजगार कर सकते हैं। क्योंकि वे जानते हैं उन्होंने आपको इतना कुशल क्रूसेडर बना दिया है कि जो भी उनकी बात का विरोध करेगा आप उसे मार डालने के लिए तत्पर हो जाएंगे। उन्हें अपने वजूद के लिए ऐसे ही क्रूसेडर्स की जरूरत है। वे सरेआम लोगों को उठाकर जेल में ठूंस देंगे और कोई कुछ न बोलेगा। उनको पता है कि क्रूसेडर सोचते नहीं, वे इशारों पर नाचते हैं। उनका अगला चरण फिदायीन बनने का है और इसके लिए स्थितियां तैयार की जा रही हैं। 

यह सब दो-चार वर्षों की परियोजना नहीं है बल्कि यह लंबे समय से काम कर रहे लोगों की अवसरानुकूल राजनीति है। बल्कि यह कहा जा सकता है कि जो लोग इसको यहाँ तक ले आए हैं उन्होंने अपनी सुरक्षा को सर्वोपरि रखते हुये तमाम अवसरों का अपने लिए सटीक इस्तेमाल किया है। वे इतने बड़े दार्शनिक नहीं थे कि प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन समाजों की गुलामी की कोई एक ही परियोजना काम में लाते बल्कि वे इतने शातिर और चालाक थे कि हर आपदा में अवसर तलाश लेते थे। हर स्थिति के अनुसार उन्होंने अपने को ढाला और फिर अपने अनुरूप समाज की कार्यशील शक्तियों को ढाल लिया। जरूरी नहीं कि आपदा जनता की हो। लेकिन वे आपदा बना सकते थे। उसकी व्याख्या कर सकते थे। लोगों को डरा सकते थे। उनकी एकता को तोड़ सकते थे और उन्हें चुप रहने को मजबूर कर सकते थे। 

किस्सों में हम देख सकते हैं कि राजा दिलीप गाय को बचाने में स्वाहा हो रहा है और उसका वंशज राम ब्राह्मणों की रक्षा में शंबूकों की हत्यायें कर रहा है। हम देखते हैं कि ब्रह्मर्षि की उपाधि के लिए आजीवन संघर्ष करनेवाला क्षत्रिय विश्वामित्र थककर चूर हो चुका है और उसके वंशज भी वही कर रहे हैं जो ब्राह्मणों और गायों को सुरक्षित रखे। ब्राह्मणों ने यह मूलमंत्र जान लिया है कि अपने को हर प्रकार के पापबोध और अपराधबोध से मुक्त रखो और दूसरों को उसी दलदल में धकेलो। इस प्रकार अपने को मजबूत बनाओ और शेष सभी को कमजोर। इसलिए राजाओं और ब्राह्मणों का चोली-दामन का साथ रहा है। ब्राह्मणों ने राजाओं को अपना क्रूसेडर बनाने में सफलता हासिल की। उनसे अपने हिसाब से फैसले करवाए – अपने लिए सुरक्षा और अपने दुश्मनों का वध। और यह प्रक्रिया हर जगह चलती रही। खिलजी से लेकर मुगलों तक का इस्तेमाल करने का कौशल और किसमें था। उसके लिए सबसे बड़ी सहूलियत यह थी कि शासन पर काबिज ताक़तें औरों को जितनी चाहें उतनी बुरी स्थिति में डाल दें लेकिन उन्हें उससे कोई फर्क पड़नेवाला नहीं था। यह लगातार जारी रहा। जहां भी उसके ऊपर अंकुश लगा वह सत्ता विरोधी हो गया। ब्रिटिश सत्ता ने भारत के बाकी समाजों का अपने में समावेश करना शुरू किया तो स्वतन्त्रता ब्राह्मण का जन्मसिद्ध अधिकार हो गया लेकिन उसे इस बात से सख्त गुरेज था कि तेली-तंबोली संसद में जाकर क्या करेंगे। वे वहां हल चलाएंगे? सन् 1947 के बाद तो उसने अपने शिकंजे और मजबूत किए। संस्थानों में वे पूरी तरह काबिज हो गए। उन्होंने राजनीति और संस्कृति को भी तरह अपने से बाहर छोड़ा नहीं। बल्कि इन दोनों का उसने सुनियोजित इस्तेमाल किया। उन्होंने कांग्रेस से इच्छानुरूप काम लिया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को मजबूत बनाते रहे। वास्तव में संघ ही आधुनिक भारत में उसका सबसे बड़ा मंच था। संघ ने भी पहले अपने क्रूसेडर्स बनाए और उन्हें हर स्तर पर फैला दिया। फिर अवसर देखकर उसने समाज के भीतर से क्रूसेडर पैदा किए। उसने जातियों के नैरेटिव गढ़े और उन्हें इस प्रकार फैलाया कि धर्मयोद्धाओं का ध्यान उसकी कारस्तानियों की ओर गया ही नहीं। लगातार झूठ को राजनीति बना देना और हर बात को गलत दिशा में मोड़ देना क्रूसेडरवाद का सबसे खतरनाक परिणाम है। और जाहिर है कि इसकी आड़ में आज पूरा का पूरा देश गिरवी रख दिया गया है। जिन लोगों के हाथ में रोजगार, नौकरियां, कारोबारी हिस्सेदारी, भू-अधिकार और राजनीतिक सत्ता होनी चाहिए वे आज क्रूसेडर के रूप में सड़कों पर हैं। 

लेकिन ऐसा नहीं है कि सारा समाज एक ही दिशा में चलता रहता है। उसमें पर्याप्त अंतर्विरोध होते हैं। भारतीय समाज तो अंतर्विरोधों का समंदर ही है। यहां हमेशा प्रतिरोध होता रहा है फिर भले ही प्रतिक्रियावादियों ने बाद में उसे नष्ट कर दिया हो। मसलन राजा बलि ने तीन चोरों को जब सजा दी तो उनके रोने-गिड़गिड़ाने पर दया करके उन्हें छोड़ दिया। बलि ने उन्हें मेहनत करके समाज में इज्जत की जिंदगी जीने की सलाह दी लेकिन चोर तो चोर ठहरे। उन्होने बलि की सदाशयता और सहजता को पहचान लिया। हाथ जोड़कर खड़े हुए कि हमको तीन सुविधाएं दीजिये। एक तो हम जनता के बीच आपका गुणगान करेंगे, जनता को शिक्षित करेंगे। दूसरे, हमें राज्य से इसके लिए पैसा मिले। तीसरे, हम क्या कर रहे हैं, इसकी आप कोई जवाबदेही नहीं लेंगे। बलि को उनके मन में चल रही योजनाओं और साज़िशों का कुछ अंदाजा तो था नहीं। उन्होंने चोरों को तीनों सहूलियात दे दी। उसके बाद तो जो हुआ उसका राजा को सपने में भी अंदेशा नहीं था। चोरों ने जनता में राजा के बारे में खूब प्रचार किया। विरुदावलियां गाईं और राजा को खुश कर दिया। खूब वजीफे झटके और राजा के अधिकाधिक निकट होते गए। फिर एक दिन मौका पाकर उसकी बोटियां काट डालीं और जमीन में गाड़ दिया और जनता में प्रचारित कर दिया कि तुम्हारे राजा को हम लोगों ने पातालपुरी का महाराजा बना दिया है। उन्होंने कहा है कि यहां के राज्य की देख-रेख अब हम लोग करेंगे। अब हम लोग ही तुम्हारे राजा हैं। 

जोतीराव फुले ने इसीलिए बलि और बामन की प्रचलित कथा को फर्जी बताया और यह सवाल उठाया कि अगर वामन ने दो ही पग में धरती-आसमान नाप लिया तो इसका मतलब उसका सिर आकाश से लग गया। तब उसने धरती पर खड़े बलि से बहुत ऊंची आवाज में कहा होगा कि ‘अब मैं तीसरा पांव कहां रखूं?’ उस समय उसकी आवाज किस-किसने सुनी? आकाश से आती हुई आवाज तो कई देशों के लोगों को सुनाई पड़ी होगी। और उसने वह आवाज किस भाषा में लगाई होगी? क्योंकि उसकी आवाज न फ़्रांसीसियों ने सुनी, न अंग्रेजों ने, न यूनानियों ने सुनी और न रोमनों ने क्योंकि किसी ने अपने ग्रन्थों में उस आवाज का कोई उल्लेख नहीं किया है। वामन की आवाज क्या केवल वामनों ने सुनी? क्या वह आसमान से बहुत धीरे और केवल संस्कृत में बोला होगा? आज तक ब्राह्मण जोतीराव फुले के इस तर्क से इतना घबराते हैं कि वे इसका कोई जवाब नहीं दे पाते। 

महान पेरियार रामासामी नायकर ऐसे किस्सों को और भी अधिक फर्जी मानते थे। उन्होंने देखा कि हिन्दू धर्म समाज को हजारों जातियों और श्रेणियों में बांटता है और वह मनुष्य को नीच बनाता है। मनुष्यता को पतन के गर्त में धकेलता है। बल्कि उसका पूरा अस्तित्व ही मनुष्य समाज को उंच-नीच में बांटने पर टिका है। उसका कोई सैद्धान्तिक और नैतिक आधार नहीं है। इसीलिए उन्होंने ललकार कर लोगों का आह्वान किया कि जो धर्म तुमको नीच बनाए तुम उसे लात मार दो। 

ब्राह्मणवाद, हिन्दुत्व और उसके क्रूसेडरवाद को उखाड़ फेंकने में जीवन लगा देनेवाले लोगों की कहानियों के बहुत उदाहरण हैं। आज उन कहानियों को अधिकतम लोगों तक ले जाने की जरूरत है। आज उनकी परम्पराओं को आगे बढ़ाने वाली कहानियों को रचे जाने की जरूरत है। अपनी रुदाद कहने की जरूरत है। इस बात को हमेशा याद करने की जरूरत है कि ब्राह्मण आपको क्रूसेडर बनाने के लिए प्रतिबद्ध है क्योंकि उसका सारा तामझाम ही इस बात पर टिका है कि आप अपनी जाति के क्रूसेडर बनिये और उसकी व्यवस्था को मजबूत बनाइये। आप अपने दुखों और अपने सवालों की ओर जाते हैं तो उसे डर लगता है। वह आपके मंडल के ठीक समानान्तर कमंडल का महत्व बताना शुरू कर देता है और आपमें से हजारों लोगों को अपनी ताकत बना लेता है। 

क्रूसेडर बनने की त्रासदी क्यों होती है? क्योंकि जनता के संघर्ष का इतिहास दर्ज नहीं हुआ। उसके संघर्षों का साहित्य पैदा नहीं हुआ। अगर पैदा भी हुआ तो या तो लोगों के बीच जाकर उनका नहीं बन पाया अथवा बाज़ार में जाकर भ्रष्ट और अश्लील बन गया। बाज़ार की मांग पर उसकी आत्मा मार दी गई। लोक की प्रतिरोधक सम्पदा को संयोजित नहीं किया जा सका। किसानों और मजदूरों की पीड़ाओं का दस्तावेजीकरण नहीं हो सका। स्त्रियों की तकलीफ़ों और आज़ादी की छटपटाहट के अनमोल गीतों को संरक्षित नहीं किया गया। सब कुछ बिखरता गया और आज उनकी पहचान मुश्किल हुई जाती है। यह सब कुछ बहुजनों की थाती थी, जिसे उन्होंने आसानी से विस्मृत हो जाने दिया। इनके अभाव ने उनकी अर्थवातता को कमजोर किया। वे बिलबिलाकर अपने अतीत की ओर ताक-झांक करने लगे तो मौका देखकर ही ब्राह्मणों ने उन्हें क्रूसेडर बना दिया। आज पूरा का पूरा महादेश क्रूसेडरों से भरा हुआ है जो अपने साहित्य की रचना की जगह ब्राह्मणवाद को मजबूत कर रहे हैं। 

वास्तव में क्रूसेडरवाद इस देश की सबसे बड़ी त्रासदी है। एक ऐसी त्रासदी जिसमें अपने दुश्मनों का मुक़ाबला नहीं उनकी गुलामी और सेवा में गौरव का बोध किया जा रहा है। यह ऐसी गुत्थी या कहना चाहिए कि गुत्थियों का ऐसा समुच्चय है जिसको एक जगह से सुलझाइए तो दूसरी जगह से उलझ जाता है। वह भी ऐसा उलझता है कि ताउम्र सुलझने का नाम नहीं लेता और बड़ी-बड़ी हिम्मत और उम्दा तबीयत वाले लोग भी एक दिन ऊबकर इसको सुलझाने में अपनी हिकमतें लगाना छोड़ देते हैं। अक्सर लोग उसको छोड़ देने का भ्रम देते हैं लेकिन अगर गहराई से देखा जाएगा तो वे स्वयं भी उसी में उलझे हुए मिलेंगे। यह अपने आप में बहुत बड़ा आश्चर्य है, लेकिन आश्चर्य इससे उलट भी हो सकता है!

(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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