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जनकवि लाल सिंह ‘दिल’ : जिनकी कविताओं में बोलता था वंचित समाज का अंतिम व्यक्ति

लाल सिंह ‘दिल’ की कविता का अंदाज़, उनके प्रतीक तथा उनकी शैली दरअसल उन्हें विशिष्ट बनाती हैं। वे अपनी कविताओं में सबसे अंतिम व्यक्ति की बात करते हैं। वह अंतिम व्यक्ति स्त्री और पुरुष दोनों है। उनका स्मरण कर रही हैं पूनम तुषामड़

लाल सिंह ‘दिल’ (11 अप्रैल, 1943 – 14 अगस्त, 2007) पर विशेष

अधिकांश द्विज साहित्यालोचकों की नजर में दलित साहित्य मुख्यतः उत्पीड़न की अभिव्यक्ति रहा है। यह एक तरह से उनके द्वारा दलित साहित्य का सीमांकन किया जाना ही है। वास्तविकता यह है कि दलित साहित्यकारों ने आगे बढ़कर मुख्यधारा के साहित्यकारों को चुनौती दी है कि यदि कोई साहित्य सच्चा है तो उसकी पृष्ठभूमि काल्पनिक नहीं हो सकती। उसकी अपनी जमीन होनी ही चाहिए। इसी विचार को अपनी कविताओं के माध्यम से दलित पंजाबी कवि लाल सिंह ‘दिल’ ने आगे बढ़ाया। 

लाल सिंह दिल का जन्म 11अप्रैल, 1943 को पंजाब के लुधियाना के घुंघराली गांव के एक दलित परिवार में हुआ था। वे वामपंथी विचारधारा से प्रभावित रहे। उनकी रचनाओं में वर्गीय असमानता के सवाल तो रहते ही थे, सामाजिक भेदभाव और शोषण के खिलाफ आवाज़ भी थीं। उन्हें जानने और मानने वाले उन्हें ‘दिल’ उपनाम से बुलाते थे। बेहद साधारण व्यक्तित्व के इस जनकवि का जीवन हमेशा समाज से जुड़ा रहा। वे गांव में मेहनत-मजदूरी करते रहे। उस दौरान उन्होंने अपनी आंखों से जो देखा और महसूस किया, उसकी अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में होती है। उनके आदर्श भगत सिंह जैसे युवा क्रांतिकारी और संघर्ष के कवि अवतार सिंह पाश थे। यही वजह रही कि इन सबकी मुखर अभिव्यक्ति उनकी चार कविता संग्रहों – सतलुज दी हवा (1971), बहुत सारे सूरज (1982), सथर (1997), प्रतिनिधि कविताएं (2013) में होती है।

जनकवि लाल सिंह ‘दिल’ ने बचपन में ही विभाजन की त्रासदी को देखा था। इस त्रासदी ने उनके बालमन पर गहरे निशान छोड़े। फिर देश आजाद हुआ परन्तु दलितों के लिए आजादी के कोई मायने नहीं थे। लाल सिंह ‘दिल’ का दिल अपनी ही सरजमीं पर अपनों का लहू देख आहत हुआ। इस पीड़ा और इससे जनित आक्रोश की अभिव्यक्ति उनकी कविताओं में होती है। उदाहरण के लिए यह कविता देखें – 

उन शब्दों का क्या है नाम
जो पास खड़े हंसते हैं
लेकिन जिन्हें ढूंढते हुई तलवारें
पागल हो चुकी हैं
ये शब्द उस लहू के फूल हैं
जिनका रंग कभी नहीं बदलता
हर भूमि हर देश में यह रंग
एक सा रहता है
वक्त आने पर इस लहू में
आग जल उठती है
‘लाल’ रंग के फूल खिल उठते हैं

जनकवि लाल सिंह ‘दिल’ (11 अप्रैल, 1943 – 14 अगस्त, 2007)

लाल सिंह ‘दिल’ मूलतः पंजाबी कवि थे, इसलिए हिंदी साहित्यिक जगत में वे अपरिचित रहे। पंजाब विश्वविद्यालय के प्रो. सत्यपाल सहगल  उनकी कविताओं का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद कर उन्हें हिंदी पाठकों के बीच लेकर आए। इस संबंध में  प्रो. सहगल के मुताबिक, “लाल सिंह ‘दिल’ की रचनाओं का अनुवाद करना इतना आसान नहीं था क्योंकि वे उन लोगों के बारे में कविता लिखते थे जो समाज में दीन, हीन और सबसे उपेक्षित रहे हैं। इसके साथ उनकी रचनाओं में ग्रामीण पृष्ठभूमि व राजनीति तथा सिक्ख इतिहास के संदर्भ भी एक चुनौती थे।” (दैनिक भास्कर, 2013)

यह भी पढ़ें : इश्क की आग और इंकलाब के शोले का कवि लाल सिंह दिल

‘दिल’ की कविताओं के क्रान्तिकारी तेवर और समाजिक आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी के कारण उनकी तुलना पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश तथा हिंदी के कवि निराला से की जाती है। घोर गरीबी और शारीरिक कष्टों को झेलते हुए भी उन्होंने कभी अपने विचारों और आदर्शों से समझौता नहीं किया। उनकी एक “गैर विद्रोही कविता” र्शीर्षक कविता देखें – 

मुझे गैर विद्रोही कविता की तलाश है ताकि
मुझे कोई दोस्त मिल सके।
मैं अपनी सोच के नाख़ून
काटना चाहता हूं ताकि
मुझे कोई दोस्त मिल सके।

मैं और वह
सदा के लिए घुलमिल जाएं
पर कोई विषय गैर विद्रोही
नहीं मिलता ताकि मुझे
कोई दोस्त मिल सके।

लाल सिंह ‘दिल’ ने भूमिहीन किसानों के बिम्ब लेकर उन्हें अपनी रचनाओं में भरपूर जगह दी। वे केवल गरीबी और जाति के सवालों से जूझती मानवता को ही मुंहफट ढंग से पेश नहीं करते बल्कि उन्होंने कलात्मक दृष्टि से भी उच्च कोटि की रचनाएं लिखी हैं जो मन को गहरे तक छू जाने वाली हैं। ऐसी कुछ छोटी किन्तु मारक कविताओं को यहां देना उपयुक्त जान पड़ता है – 

हमारे लिए पेड़ों पर
फल नहीं लगते
फूल नहीं खिलते
हमारे लिए
बहारें नहीं आतीं
हमारे लिए
इंकलाब नहीं आते।

एक अन्य कविता में कवि कहते हैं –

जीवन की उम्र की सुबह
निश्चित रूप से फिर से आएगी
कल हमारे पैरों के नीचे
इमारतों के ढेर होंगे।

लाल सिंह ‘दिल’ की कविता का अंदाज़, उनके प्रतीक तथा उनकी शैली दरअसल उन्हें विशिष्ट बनाती हैं। वे अपनी कविताओं में सबसे अंतिम व्यक्ति की बात करते हैं। वह अंतिम व्यक्ति स्त्री और पुरुष दोनों है। परंतु यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अंतिम स्त्री की पीड़ा और ताकत का जैसा सजीव चित्रण लाल सिंह ‘दिल’ की कविताओं में है वह दुर्लभ है। मसलन, वे कहते हैं “तवे की ओट में छिप, चूल्हे की आग की तरह … रोटी  और थिगलियों से हुस्न निखरती वह अंतिम औरत”। यह अंतिम औरत और कोई नहीं बल्कि सत्ता और समाज द्वारा हाशिए पर धकेल दी गई कोई दलित, बहुजन स्त्री ही है। उनकी एक और कविता देखें –

ये वेश्याएं, औरतें और लड़कियां,
मेरी माएं, बहनें और बेटियां
और तुम्हारी भी।

ये गौ भक्त भारत की माताएं,
बहनें और बेटियां हैं
अहिंसा और बुद्ध की पुजारी
भारत की माताएं, बहनें और बेटियां हैं,
वे बड़े पूंजीपतियों की
माएँ ,बहनें और बेटियां हैं,
यदि नहीं, तो वे आने वाली
क्रांति की मां और बहने हैं।

बिल्ली को गोद में लिये जनकवि लाल सिंह ‘दिल’ (छायाः अमरजीत चंदन) 

कवि लाल सिंह ‘दिल’ रामदासिया सिख थे। जाति के दंश को भी उन्होंने झेला था। उन्होंने शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में भी अध्ययन किया परंतु जातीय भेदभाव के कारण ज्यादा पढ़-लिख नहीं सके। एक बार वे अपने गांव के ही किसी बच्चे को उसके घर पढ़ाने के लिए गए तो उस बच्चे की मां ने कवि को जिस कप में चाय दी उसे बाद में बाहर ले जाकर तोड़कर फेंक दिया। उस प्याले के टूटने की आवाज कवि के कानों में गूंज गई और उन्होंने इस क्रूर छुआछूत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। वे अपनी एक छोटी कविता जिसका शीर्षक है ‘जात’ में जाति पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं –

मुझे प्यार करने वाली
पराई जात कुड़िये
हमारे सगे
मुर्दे भी एक जगह
नहीं जलाते।

कवि लाल सिंह ‘दिल’ का जीवन और साहित्य दोनों एक जैसा था। उनका निधन 14 अगस्त, 2007 को हो गया। अफसोस कि उन्हें साहित्य जगत ने तब मान्यता दी जब वे नहीं रहे। यहां तक कि उन्हें मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। उनकी एक छोटी कविता है – 

जब
बहुत सारे
सूरज मर जाएंगे
तब
तुम्हारा युग आएगा
है ना?

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

पूनम तूषामड़

दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो'(हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।

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